तेलंगाना की आग में जल रहे आंध्र प्रदेश में एक खबर ने फिर से आग लगा दी। सूबे के एक स्थानीय न्यूज चैनल ने चार महीने पहले रूस की एक वेबवसाइट पर प्रकाशित खबर को उठाकर अचानक से चलाना शुरू कर दिया। सिर्फ खबर ही नहीं चलाई बल्कि उसपर स्टूडियो में तीन चार लोगों को बिठाकर चर्चा भी शुरू कर दी । कहने का तात्पर्य यह कि उक्त खबर को बड़े स्तर पर चलाया जाने लगा । खबर यह थी कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी की मौत एक हादसा नहीं बल्कि एक वृहत्तर षडयंत्र का हिस्सा थी । न्यूज चैनल की खबर के मुताबिक इस षडयंत्र में देश का एक बड़ा औद्योगिक घराना शामिल था । जैसे ही इस खबर का प्रसारण शुरू हुआ आंध्र प्रदेश के कई इलाकों में हड़कंप मच गया । वाई एस राजशेखर रेड्डी के समर्थक सड़कों पर उतर आए और कई इलाकों में विरोध प्रदर्शन का आगाज हो गया । कुछ ही घंटों में लोगों का गुस्सा उबाल खाने लगा और उस खबर में जिस औद्योगिक प्रतिष्ठान को षडयंत्र के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा था उसके प्रतिष्ठानों पर हमले होने लगे । जबतक सरकारी मशीनरी चेतती तब तक कई शहरों में आगजनी शुरू हो गई । उस स्थानीय चैनल की देखादेखी दो और लोकल चैनलों ने भी इस खबर को प्रसारित करना शुरू कर दिया जिसने गुस्से की आग में घी की तरह काम किया, जिससे बवाल और बढ गया । लेकिन बगैर किसी तरह की जांच पड़ताल के चलाई जा रही इस खबर की आग में पत्रकारिता के तमाम स्थापित मूल्य और मान्यताएं भी जलकर खाक हो गए । एक अनाम सी बेवसाइट पर छपी लगभग चार महीने पुरानी अफवाह को उठाकर खबर की तरह पेश कर एक सूबे को आग में झोंकने की जितनी भी निंदा की जाए कम है । किसी ने भी इस खबर को जांचने और संबंधित पक्ष से बात करने की कोशिश नहीं की । बगैर किसी पक्ष से कोई प्रतिक्रिया लिए इतना बड़ा आरोप लगा देना पत्रकारिता के सिद्धांत के खिलाफ है, जिसकी जमकर निंदा की जानी चाहिए । किसी बेवसाइट की कल्पना को जस का तस उठाकर उससे खबर बनाकर घंटो प्रसारित करने से सूबे में कानून व्यवस्था की समस्या पैदा हो गई । इसके अलावा उस औद्योगिक घराने की प्रतिष्ठा पर भी इससे आंच आई ।
किसी न्यूज चैनल की गैरजिम्मेदाराना खबर के प्रसारण का यह पहला मौका नहीं है । अब से लगभग दो साल पहले दिल्ली में एक राष्ट्रीय चैनल ने भी इस तरह की एक खबर दिखाकर सनसनी फैला दी थी । उस चैनल ने दिल्ली की एक स्कूल की शिक्षिका पर स्टिंग के जरिए उसके सेक्स ट्रेड में शामिल होने की खबर प्रसारित की थी । उस वक्त भी खबर के प्रसारण के साथ ही राजधानी दिल्ली में जबरदस्त हंगामा और आगजनी हुई थी। उत्तेजित भीड़ ने उस स्कूल में घुसकर जमकर तोड़फोड़ की थी और दबाव में आई पुलिस ने शिक्षिका को गिरफ्तार कर लिया था। आनन-फानन में दिल्ली सरकार भी हरकत में आई थी और उस शिक्षिका को नौकरी से हटाने का एलान कर दिया था। बाद में हुई जांच में शिक्षिका पर लगे तमाम आरोप निराधार पाए गए थे । कोर्ट में पहुंचे इस मामले के बाद भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने उक्त चैनल के प्रसारण पर तीन हफ्ते का प्रतिबंध भी लगा था । इन दो वाकयों के अलावा झारखंड की राजधानी से प्रसारित होनेवाले एक लोकल चैनल के संपादक को ब्लैकमेलिंग के आरोप में जेल भी जाना पड़ा था।
इस तरह की गैर जिम्मेदार पत्रकारिता ने एक साथ कई अहम सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या किसी भी न्यूज चैनल को बगैर खबरों की जांच किए उसे प्रसारित करने का अधिकार है। क्या उस न्यूज चैनल के संपादक को इस खबर की पड़ताल नहीं करनी चाहिए थी । खबरों के बाद मचनेवाले बवाल और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की जिम्मेदारी किसकी है। किसी के चरित्र हनन का जिम्मेदार कौन है। क्या भारत सरकार को इसपर काबू करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाना चाहिए । क्या इन चैनलों को लाइसेंस देने के पहले उसे ठोक बजाकर देखा जाता है । टीवी न्यूज चैनलों पर भारत सरकार एक गाइडलाइन बनाकर लगाम लगाने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है । इस माहौल में इस तरह की घटिया हरकतें सरकार के हाथ में प्रेस की आजादी पर लगाम लगाने का औजार मुहैया कराती है । सरकार के इस कदम का पत्रकारों के संगठन लगातार और पुरजोर विरोध कर रहे हैं, उनकी इस मुहिम को इस तरह की घटनाओं से झटका भी लगता है ।
भारत में प्रेस और मीडिया को लोकतंत्र का प्रहरी माना जाता है और उसकी स्वतंत्रता के लिए सभी लोग सजग भी रहते हैं । लॉर्ड डेनिंग ने अपनी प्रसिद्ध किताब रोड टू जस्टिस में कहा है कि प्रेस एक वॉचडॉग है । उसकी जिम्मेदारी है कि वो यह देखे कि हर काम सही तरीके से बगैर किसी दबाव और पक्षपात के हो रहा है। लेकिन कभी कभार यह वॉचडॉग अपनी सीमाओं से आगे चला जाता है जिसके लिए इसे दंडित करना आवश्यक है। भारत के संविधान में प्रेस की आजादी के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं है वह भी राइट टू फ्रीडम ऑफ स्पीच और एक्सप्रेशन के अंतर्गत ही आता है। संविधान में अभिव्यक्ति की यह स्वतंत्रता असीमित नहीं है । संविधान में इस पर अंकुश लगाने और इसके बेजा इस्तेमाल को रोकने का भी प्रावधान है । हमारे संविधान की अनुच्छेद उन्नीस दो में अभिव्यक्ति की आजादी पर कई वंदिशें भी है । उसके अनुसार अगर इससे देश की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न होता है, समाज में अशांति फैलती है, कानून व्यवस्था भंग होती है, देश की किसी भी अदालत की अवमानना होती है या फिर किसी की अभिव्यक्ति की आजादी से दूसरे व्यक्ति की मानहानि होती है या फिर उससे कोई भी व्यक्ति या समूह को अपराध के लिए प्रवृत्त होता है तो उस स्थिति में अभिव्यक्ति की आजादी की इजाजत नहीं दी जा सकती है। आंध्र प्रदेश के न्यूज चैनल ने जिस तरह की खबर प्रसारित की उससे समाज में अशांति भी फैली, किसी व्यक्ति और संस्था की मानहानि भी हुई और उस खबर के असर में लोगों ने कानून भी तोड़ा । इस वजह से भी उक्त न्यूज चैनल के खिलाफ आपराधिक मामला बनता है । इसकी सजा तो उस न्यूज चैनल को हर हाल में मिलनी चाहिए ताकि प्रेस और मीडिया की निष्पक्षता पर कोई सवाल खड़ा ना हो । साथ ही भविष्य में कोई भी चैनल इस तरह की खबरों को ना दिखाए जिससे की मीडिया की विश्वसनीयता पर गंभीर संकट खडा़ हो जाए ।
लेकिन बड़ा सवाल अब भी मुंह बाए खड़ा है कि इस तरह की हरकतों को रोकने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं। देश में न्यूज चैनलों की बाढ़ आई हुई है और एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त देशभर में लगभग पांच सौ के करीब न्यूज चैनल या तो चल रहे हैं या फिर प्रसारण की तैयारी कर रहे हैं। पत्रकारिता के इस पेशे में ऐसे भी लोग आ रहे हैं जिन्हें ना तो पत्रकारिता की गौरवशाली परंपरा का एहसास है और ना ही उसकी पवित्रता को लेकर कोई प्रतिबद्धता । कोई ठेकेदार है तो कोई बिल्डर तो कोई राजनेता खबरों के इस धंधे में शामिल हो रहा है। उनकी मंशा साफ नहीं है । वो अपने लाभ लोभ के लिए इस धंधे में आ रहे हैं । समाज या फिर उसकी बेहतरी से उनका कोई लेना देना नहीं है ।
देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रेस और मीडिया की आजादी बेहद आवश्यक है । और मीडिया ने इसे साबित भी किया है । ओर जब देशभर में रुचिका को इंसाफ दिलाने के मामले में न्यूज चैनलों और अखबारों की भूमिका की प्रशंसा हो रही है और लोग यह कह रहे हैं कि अगर मीडिया नहीं होती तो राठौर जैसा शक्तिशाली वयक्ति गुनाह कर बच निकलता । वहीं दूसरी ओर आंध्र प्रदेश जैसी घटनाएं मीडिया को शर्मसार करती है जिससे कानून तो निबटेगा ही लेकिन इस तरह के लोगों को चिन्हित करना और उन्हें मीडिया की जमात से बाहर करवाने की महिम चलाना भी मीडिया से जुड़े तमाम संगठनों का काम है ताकि उसकी साख बची रह सके ।
1 comment:
हाहाकार या दुरभिसंधि का मौन?
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