इन दिनों राजस्थान से गरीबों और दलितों को लेकर कुछ चिंताजनक खबरें आ रही हैं । तकरीबन पखवाड़े भर पहले जयपुर के पास केंद्र सरकार की पसंदीदा स्कीम नरेगा में दलितों के साथ भेदभाव की बात सामने आई । आरोप यह लगा कि नरेगा में दलितों को उनके गांव से कई किलोमीटर दूर काम दिया जा रहा है । इस वजह से गरीब दलित परिवारों को इस योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है । दूसरी खबर राजस्थान के ही चित्तौड़गढ़ से आई कि नरेगा में मेहनताना मिलने में हो रही देरी और काम ना मिल पाने की वजह से एक व्यक्ति भुखमरी का शिकार हो गया । आजादी के साठ साल से भी ज्यादा बीत जाने के बाद भी इस तरह की घटनाएं लोकतंत्र को शर्मसार करती हैं । ये दोनों ही वाकए राहुल गांधी के पसंदीदा कार्यक्रम नरेगा से जुड़े हैं । नरेगा को देशभर में लागू करने की जिम्मेदारी भी राहुल के ही पसंदीदा मंत्री सीपी जोशी पर है और सूबे में कांग्रेस की सरकार है जिसके मुखिया अशोक गहलोत हैं । लेकिन बात सिर्फ राजस्थान की नहीं है ऐसी ही खबरें झारखंड और उड़ीसा से भी आ रही हैं । यहां सवाल यह उठता है कि क्या हम हमारा समाज और हमारी सरकार गरीबों पर समुचित ध्यान दे रही है । क्या गरीबी दूर करने के ठोस उपाय किए जा रहे हैं ।
दरअसल हो ये रहा है कि हमारा देश पूंजीवाद और उपभोक्तवाद की राह पर बेहद तेजी से बढ़ रहा हैं और इस राह को चुननेवाली सरकार अपनी इस तेजी में लोगों के प्रति जो सामाजिक जिम्मेदारियां हैं उससे दूर होते जा रही है । गरीबों को अनाज उपलब्ध करने में नाकाम रहनेवाली सरकार अब आम जनता को पानी भी मुफ्त में नहीं देना चाहती । आम आदमी के लिए काम करने का दंभ भरनेवाली दिल्ली की कांग्रेसी सरकार ने तो यह व्यवस्था लागू भी कर दी । जिस देश में लोग भूख से मर रहे हैं वहां सरकार पानी के दाम वसूल कर पानी पीकर जिंदा रहने के अधिकार से भी उसे महरूम कर देना चाहती है । योजनाबद्ध तरीके से गरीबों और किसानों को खाद बीज और अन्य सामनों पर सब्सिडी खत्म कर रही है । दूसरी तरफ उद्योग और उद्योगपतियों को सस्ती दरों पर जमीन और करों में छूट दिया जा रहा है । उद्योग और उद्योगपतियों को छूट देना गलत नहीं है लेकिन मापदंड जब दो हो जाते हैं तो सरकार की नीयत पर सवाल खड़े हो जाते हैं । दस हजार रुपये की कृषि ऋण वसूली के लिए सरकारी अफसर किसानों के घर तक जब्त करने में नहीं हिचकिचाते जबकि उद्योगपतियों से करोड़ों रुपये की ऋण वसूलने के लिए कुछ नहीं कर पाते हैं ।
बहुत दिनों से यह सुन रहा हूं कि भारत और इंडिया के बीच की खाई बढ़ती जा रही है लेकिन अब यह खाई इतनी गहरा गई है कि समाज का एक वर्ग ऐसा है जो यह कहता है कि गरीबी तो नैचुरल फैनोमिना है जिससे निबटना सरकार का काम नहीं है, खुद उस वयक्ति को इस फैनोमिना से निबटना होगा । अगर वह गरीब रहना चाहता है तो कोई भी उसकी मदद नहीं कर पाएगा । ऐसी बातें कहनेवाली जो पीढ़ी है उसके लिए गरीबी तो एक शब्द मात्र है । उसने ना तो कभी गरीबी देखी और ना ही कभी गरीबी महसूस की । अगर आपको इस पीढ़ी को देखना हो तो किसी भी शॉपिंग मॉल के मेगा स्टोर में चले जाइए । कपड़ों और अपनी साज सज्जा पर बेतहाशा खर्च करनेवाले कई युवक –युवतियां नजर आ जाएंगें । जिनके लिए पैसे कोई मायने ही नहीं रखते । हमारे ताकतवर नेताओं, बेशुमार दौलत के मालिक उद्योगपतियों, प्राइवेट सेक्टर में शीर्ष पदों पर बैठे अधिकारियों के लिए पैसा की कोई अहमियत ही नहीं है ।
इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारे जो नीति नियंता हैं उन्हें भी गरीबों की फिक्र नहीं है । गरीबों की समस्याएं किसी के लिए चिंता का सबब नहीं बनती । उन्हें गरीबों और आम आदमी की याद सिर्फ चुनाव के वक्त आती है । गरीबों को सत्ता की सीढ़ी की तरह इंदिरा गांधी ने भी गरीबी हटाओ का इमोशनल नारा देकर इस्तेमाल किया था और फिर दशकों बाद कांग्रेस ने आम आदमी को लुभाकर सत्ता हासिल की । आम आदमी को साल भर में एक खास अवधि के लिए रोजगार मिले इसके लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना लाया गया । इस बात का जोरशोर से प्रचार किया गया कि इस ऐतिहासिक योजना से भारत की गरीबी दूर हो जाएगी । कई चुनाव विश्लेषकों और पंडितों का यह दावा है कि यूपीए-2 की जीत के लिए यही योजना जिम्मेदार है । लेकिन इस योजना में जिस तरह की भयंकर गड़बड़ियों की शिकायतें मिल रही है, जिस पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा है उससे तो यही लगता है कि इस योजना का लाभ इसे लागू करनेवालों को ज्यादा हो रहा है । इसके प्रमाण राजस्थान से लेकर मध्यप्रदेश और झारखंड से लेकर उड़ीसा के किसी भी गांव में बगैर ढूंढे आपको मिल सकते हैं । जरूरत इस बात कि है कि देश के हुक्मरान गरीबों के लिए सिर्फ योजना ना बनाएं उसे गरीबों तक पहुंचाने के लिए प्रयास भी करें । दलितों के घर में रात बिताने से उनका उद्धार नहीं होगा, जरूरत इस बात कि देश का हर दलित और गरीब सम्मान के साथ जी सके इसका इंतजाम करने की सार्थक पहल होनी चाहिए ।
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