Translate

Saturday, February 20, 2010

अभिवयक्ति की अराजकता

साहित्य अकादमी के पुरस्कार वितरण समारोह में कुछ हिंदू सगंठनों के विरोध से साहित्यिक जगत में तूफान उठ खड़ा हुआ है । प्रगतिवाद और जनवाद के तथाकथित ठेकेदार इसको लेखकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भगवा हमला करार दे रहे हैं । इन बयानवीर जनवादियों को समारोह के दौरान हुए विरोध प्रदर्शन में फासीवाद की आहट भी सुनाई दे रही है । लेकिन किसी भी विरोध पर हल्ला मचानेवाले ये प्रगितवादी लेखक यह भूल जाते हैं कि विरोध और विवाद के पीछे की वजह क्या है । दरअसल इस विवाद के पीछे पूर्व सांसद और लेखक वाई लक्ष्मी प्रसाद का उपन्यास द्रौपदी है, जिसपर उन्हें इस वर्ष साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है । इस उपन्यास में लक्ष्मी प्रसाद ने द्रौपदी के चरित्र और कृष्ण से उसके संबंधों को कल्पना के आधार पर एक बेहद घिनौना रूप दिया है । भारतीय जनमानस में महाभारत और उसके पात्रों को लेकर सदियों से एक स्थापित मान्यता है । हिंदू जनमानस में द्रोपदी को सम्मान और श्रद्धा की नजर से देखा जाता है । लेकिन लक्ष्मी प्रसाद ने पौराणिक आख्यानों के आधार पर बुनी गई या स्थापित द्रौपदी की छवि को ध्वस्त करने की घृणित कोशिश की है । अभिवयक्ति की आजादी के नाम पर पौराणिक आख्यानों या फिर धार्मिक चरित्रों के साथ छेड-छाड़ की इजाजत किसी भी लेखक को नहीं है । मिथकों की जड़े लोकमानस में बहुत गहरी और व्यापक हैं इस वजह से रचनाकार से विवेकपू्र्ण सतर्कता अपेक्षित है । हर मिथक और प्रतीक की एक संभावना होती है, उस संभावना की दिशा में ही लेखक को उसका इस्तेमाल करना चाहिए और एक सीमा के बाद उसे विरुपित नहीं किया जाना चाहिए । जिस लेखक को मिथक की विराटता में अपनी क्षुद्रता भरनी हो उसे मिथक का इस्तेमाल सृजनात्मक लेखन में नहीं करना चाहिए ।
सृजनात्मक लेखन में अनेकों ऐसे उदाहरण हैं जहां धार्मिक प्रतीकों, पौराणिक मिथकों या फिर धार्मिक चरित्रों का इस्तेमाल किया गया है । ईसा, राम, कृष्ण, द्रौपदी, सीता, अहिल्या कर्ण आदि अनेक पात्रों का उपयोग हिंदी के कई लेखकों ने किया है । आधुनिक हिंदी काव्य की दो बड़ी रचनाएं कामायनी और राम की शक्ति पूजा पौराणिक धार्मिक मिथकों को आधार बनाकर मानवीय और राष्ट्रीय संदर्भों में उनकी युगीन व्याख्या करते हैं । शिवाजी सावंत ने अपने उपन्यास मृत्युंजय में कर्ण को समूची पीड़ित, दलित और शोषित जनता का प्रतीक बना दिया है । रांगेय राघव के अलावा भी कई प्रगतिशील लेखकों ने अपने लेखन में पौराणिक और धार्मिक प्रतीकों का उपयोग किया है, लेकिन इन सभी लेखकों ने प्रचलित और स्थापित मान्यताओं के खिलाफ जाकर किसी का भी चरित्र हनन नहीं किया है । तर्कसंगत तरीके से उनके व्यक्तित्व की कमियों को उजागर अवश्य किया है । हर युग में कवियों ने भी पौराणिक मिथकों को नए ढंग से रचा है । तुलसीदास जो रामकथा में पाते हैं वो नरेश मेहता नहीं पाते । सूरदास के यहां जो कृष्णकथा है वो धर्मवीर भारती के यहां नहीं है । अमेरिका में हॉवर्ड फास्ट ने भी पौराणिक और ऐतिहासिक प्रतीकों का उपयोग किया है लेकिन उनके संदर्भ बेहद आधुनिक हैं ।
लेकिन लक्ष्मी प्रसाद की इस कृति के समर्थन में खडे होकर एक बार फिर से इन प्रगतिवादी और जनवादियों का दोहरा चरित्र उजागर हुआ है । अभिवयक्ति की आजादी के नाम पर कुछ लेखकों ने हिंदू धर्म, उसकी मान्यताएं और उनके देवी देवताओं पर किसी भी तरह की टिप्पणी की स्वतंत्रता ले रखी है । राजेन्द्र यादव कभी हनुमान को आतंकवादी कह देते हैं, एफएम हुसैन भारत माता की नंगी तस्वीर बना देते हैं । जब इनका विरोध होता है तो उसपर छाती पीटते हैं और देश पर संकटकाल की डुगडुगी बजाते हैं । क्या इन लेखकों में हिम्मत है कि वो इस्लाम या मोहम्मद साहब के बारे में कुछ लिख सकें । क्या एम एफ हुसैन में यह हिम्मत है कि जिस तरह की पेंटिंग वो हिंदू देवी-देवताओं की बनाते हैं उसी स्वतंत्रता के साथ वो इस्लाम धर्म से जुड़े पात्रों या चरित्रों का चित्रण कर सकें । सलमान रश्दी और तस्लीमा नसरीन ने इस्लाम के खिलाफ लिखने की हिम्मत दिखाई तो आज उनकी स्थिति किसी से छुपी नहीं है । सलमान भारी सुरक्षा के बीच जिंदगी बिता रहे हैं और तसलीमा दर-बदर की ठोकरें खा रही हैं । अभी बहुत ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब कि एक डेनिश कार्टूनिस्ट ने पैगंबर साहब का कार्टून बना दिया था । नतीजा यह हुआ कि अल कायदा तक के लोग उसकी जान के पीछे पड़ गए थे । भारत में भी एक पत्रिका के संपादक और उसके मालिक को इस कार्टून को छापने पर जेल की हवा खानी पड़ी थी । तब तो किसी भी प्रगतिशील लेखक को अभिवयक्ति की स्वतंत्रता की याद नहीं आई थी । मेरा सवाल सिर्फ इतना सा है कि ये जो जनवाद और प्रगतिवाद का झंडा बुलंद करनेवाले लेखक और प्रोफेसर हैं वो बार-बार हिंदुओं की सहिष्णुता की परीक्षा क्यों लेना चाहते हैं । इन जैसे दोहरे चरित्र के लोगों की वजह से ही हिंदुओं का मन खट्टा होता है और उनमें कट्टरता बढ़ती है और समाज में वैमनस्यता फैलती है । कोई भी चीज अगर गलत है तो इसका आधार तो समान रूप से हर समुदाय और धर्म के लोगों पर लागू होता है या फिर हिंदुओं के लिए अभिव्यक्ति की आजादी का आधार कुछ और होता है और इन्य समुदाय के लोगों के लिए कुछ और ।
किसी भी कृति में मिथक या धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल वहां तक ही ठीक होता है जहांतक वो मनुष्य के अंतर्जगत को व्याख्यायित कर सके या फिर मनुष्यों के आपसी संवंधों को एक नई दिशा दे सके । अभिव्यक्ति के आजादी के नाम पर अभिवयक्ति की अराजकता की इजाजत किसी को भी नहीं दी जा सकती है । साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है और प्रगतिशील लेखकों ने ही इस पर दक्षिणपंथी होने का आरोप जड़ा था लेकिन अब वही जनवादी और प्रगतिवादी लेखक और संगठन साहित्य अकादमी के पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे हैं । ये तो जनवाद की मौकापरस्ती का एक ताजा नमूना है, इतिहास में इसके सैकड़ों उदाहरण हैं । अब वक्त आ गया है कि इन लोगों और संगठनों को अपने गिरेबां में झांककर आत्ममंथन करना चाहिए । अगर ये समय रहते नहीं चेते तो अभी तो सिर्फ अप्रासंगिक हुए हैं, आनेवाले दिनों में वो इतिहास के पन्नों में भी जगह नहीं पा सकेंगे

3 comments:

Anshu Mali Rastogi said...

अनंत भाई,
जब भी इस तरह का मामला प्रकाश में आता है मुझे दो नाम याद आ जाते हैं। तस्लीमा नसरीन और मकबूल फिदा हुसैन।
ये महाक्रांतिवीर प्रगतिशील फिदा हुसैन की बेसिरपैर की कला पर तो हाय-तौबा मचाते हैं मगर बात जब तस्लीमा पर कुछ कहने या बोलने की आती है तब इन्हें सांप सूंघ जाता है।

Shankar Sharan said...

आपने अपने नाम के अनुरूप काम किया है! पहली बार तो नहीं, किंतु इस बार बिना 'किंतु' 'परंतु' लगाए हिन्दू चिंता के प्रति न्याय करने के लिए साधुवाद। यह निष्पक्ष न्यायदृष्टि ही लेखक का पथ-प्रदर्शक होता है। संभवतः आप से औरों को भी प्रेरणा मिले।

Shankar Sharan said...

आपने अपने नाम के अनुरूप काम किया है! पहली बार तो नहीं, किंतु इस बार बिना 'किंतु' 'परंतु' लगाए हिन्दू चिंता के प्रति न्याय करने के लिए साधुवाद। यह निष्पक्ष न्यायदृष्टि ही लेखक का पथ-प्रदर्शक होता है। संभवतः आप से औरों को भी प्रेरणा मिले।