1.लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उनका काम लीडर पैदा करना है । कुदरत ने अल्लाह ने उन्हें इसलिए बनाया है कि वो घर संभालें, अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करें – शिया धर्म गुरू कल्बे जव्वाद
2.महिलाओं को अकेले मंदिर, मठ या देवालय में नहीं जाना चाहिए । अगर वो मंदिर, मठ या देवालय जाती हैं तो उन्हें पिता, पुत्र या भाई के साथ ही जाना चाहिए । नहीं तो उनकी सुरक्षा को खतरा है ।- राम जन्मभूमि न्यास अध्यक्ष महंथ नृत्यगोपाल दास
3.महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए क्योंकि इससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । राजनीति महिलाओं को क्रेजी बना देती है । समाज के बदलाव में महिलाओं की महती भूमिका है और उन्हें आनेवाली पीढ़ी का ध्यान रखना चाहिए । -गोवा के मुख्यमंत्री दिगंबर कामत
4. अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण मिला और वो संसद में आईं तो वहां जमकर सीटियां बजेंगी- सामजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव
ये चार बयान अलग-अलग धर्म और विचारधारा के लोगों के हैं जो किसी समुदाय, वर्ग या सूबे की रहनुमाई करते हैं । दरअसल ये सारे बयान घोर सामंती व्यवस्था की पुरुषवादी मानसिकता का बेहद कुरुप चेहरा है । उस व्यवस्था का जहां महिलाएं बच्चा पैदा करने की मशीन हैं, बच्चा पालना उनका परम धर्म है । परिवार की देखभाल और अपने पति की हर तरह की जरूरतों पर जान न्योछावर करने की घुट्टी उसे जन्म से पिलाई जाती है । उस आदिकालीन वयव्स्था में महिलाएं गुलाम हैं जिनका परम कर्तव्य है अपने स्वमी की सेवा और स्वामी है पुरुष । इस पाषाणकालीन व्यवस्था में यकीन रखनेवाले पुरुषों को यह कतई मंजूर नहीं है कि महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर काम करें । महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक और दर्जा मिले । महिलाएं देश की नीति नियंता बने । उपर बयान देने वाले चारो महापुरुष इसी सामंती और पुरुष प्रधान व्यवस्था के प्रतिनिधि पुरुष हैं । महिलाओं का विरोध है किसी सिद्धांत, धर्म, आस्था, विश्वास या वाद के परिधि से परे है । जब भी महिलाओं की बेहतरी की बात होती है तो सभी सिद्धांत, वाद, समुदाय, धर्म धरे रह जाते हैं । प्रबल हो जाता है कठोर पुरातनपंथी विचारधारा जो महिलाओं को सदियों से दबा कर रख रहा है और आगे भी चाहता है कि वो उसी तरह दासता और पिछड़ेपन की बेड़ियों में जकड़ी रहें ।
लेकिन अब स्थितियां बदलने लगी हैं और पितृसत्तात्मक समाज के वर्चस्व के विरोध में स्त्रियां उठ खड़ी होनी लगी हैं । राजेन्द्र यादव ने स्त्री विमर्श की जो आग सुलगाई थी अब वो लगभग दावानल बनता जा रहा है । स्त्री लेखिकाओं ने पुरुष की सत्ता को चुनौती देनी शुरू कर दी है । इन्हीं चुनौतियों के बीच पत्रकार गीताश्री की किताब– नागपाश में स्त्री- का प्रकाशन हुआ है । गीताश्री ने इस किताब का संपादन किया है जिसमें पत्रकारिता, थिएटर, साहित्य. कला से जुड़ी महिलाओं ने पुरुषों की मानसिकता और स्त्रियों को लेकर उनके विचारों को कसौटी पर कसा है । गीताश्री की छवि भी स्त्रियों के पक्ष में मजबूती से खड़े होने की रही है और पिछले कुछ वर्षों से उन्होंने अपने लेखन से स्त्री विमर्श को एक नया आयाम दिया है । गीताश्री का बेबाक और आक्रामक लेखन पुरुषों की स्त्री विरोधी मानसिकता को शिद्दत से चुनौती देता है । अपनी इस किताब की भूमिका में लेखिका ने लिखा- आज बाजार के दबाव और सूचना-संसार माध्यमों के फैलाव ने राजनीति, समाज और परिवार का चरित्र पूरी तरह से बदल डाला है, मगर पितृसत्ता का पूर्वाग्रह और स्त्री को देखने का उसका नजरिया नहीं बदला है, जो एक तरफ स्त्री की देह को ललचायी नजरों से घूरता है तो दूसरी तरफ उससे कठोर यौन-शुचिता की अपेक्षा भी रखता है । पितृसत्ता का चरित्र भी वही है । हां समाज में बड़े पैमाने पर सक्रिय और आत्मनिर्भर होती स्त्री की स्वतंत्र चेतना पर अंकुश लगाने के उसके हथकंडे जरूर बदले हैं । गीताश्री ने अपने इस कथन ते समर्थन में कई उदाहरण दिए हैं । कमोबेश यही स्थिति समाज में व्याप्त है । यह हमारे समाज की एक कड़वी हकीकत है कि पुरुष चाहे जितने स्त्रियों के साथ संबंध बनाए उसकी इज्जत पर बट्टा नहीं लगता है बल्कि वो फख्र से सीना चौड़ा कर इसे एक उपलब्धि की तरह से पेश करता है । लेकिन वहीं अगर स्त्री ने अपनी मर्जी से अपने पति के अलावा किसी और मर्द के साथ संबंध बना लिया तो इसके चरित्र, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, उसकी शिक्षा-दीक्षा सभी सवालों के घेरे में आ जाते हैं । वो कुलटा तक करार दे दी जाती हैं ।
लेकिन अब हालात तेजी से बदलने लगे हैं, स्त्रियां भी अपने मन की करने लगी हैं । इसी किताब के अपने एक लेख में उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहा है – औरत करती वही है जो उसका दिल करता है, दिखावा चाहे वो जो करे । समाज के लिए स्त्री के प्रेम संबंध अनैतिक हो सकते हैं मगर स्त्री के लिए नैतिकता की पराकाष्ठा है । मैत्रेयी पुष्पा ने माना है कि आवारा लड़कियां ही प्यार कर सकती हैं । अपने लेख में मैत्रेयी पुष्पा ने इस बात का खुलासा नहीं कि वो किस प्यार की बात करती हैं- दैहिक या लौकिक । क्योंकि उन्होंने लिखा है कि मेरे पांच सात प्रेमी रहे तो उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर मुझे मिले । लेकिन लेख में नायब साहब और एदल्लला के साथ तो प्यार जैसी कोई चीज थी, देह तो बीच में कभी आई ही नहीं । इस किताब में बुजुर्ग लेखिका रमणिका गुप्ता का भी एक बेहद लंबा और उबाऊ लेख है । रमणिका गुप्ता ने बेवजह अपने लेख को लंबा किया है । किताब की संपादक को इस पर ध्यान देने की जरूरत थी । अपने लंबे और उबाऊ लेख के अंत में रमणिका गुप्ता ने भारतीय समाज में स्त्रियों की बदतर हालत के लिए धर्म और सामाजिक परंपरा को जिम्मेदार ठहराया है । अपने इस तर्क के समर्थन में गुप्ता ने दो उदाहरण भी दिए हैं । पहला उड़ीसा और दूसरा मध्यप्रदेश का है जहां अठारह बीस साल की लड़कियों का विवाह बालकों से कर दिया जाता है । परंपरा की आड़ में तर्क यह दिया जाता है कि खेतों में और घर का काम करने के लिए जवान लड़की चाहिए । लेकिन इस तरह के विवाह में योग्यता ससुर की परखी जाती है । पति के जवान होने तक बहू ससुर के साथ देह संबंध बनाने के लिए अभिशप्त होती है । मनुस्मृति में भी कहा गया है – पति की पूजा विश्वसनीय पत्नी द्वारा भगवान की तरह होनी चाहिए, यदि वह अपनी ‘सेवाएं’ देने में किसी तरह की भी कोई कोताही बरते तो उसे राजा से कहकर कुत्तों के सामने फिंकवा देना चाहिए । अपने इसी लेख में रमणिका गुप्ता ने यह भी कहा है कि दलित स्त्रियां सवर्ण स्त्रियों की तुलना में ज्यादा स्वतंत्र होती है । इस बात तो साबित करने के लिए भी रमणिका के अपने तर्क हैं ।
जैसा कि उपर बताया गया है कि इस किताब में साहित्य के अलावा अन्य क्षेत्र की महिलाओं के भी लेख हैं । आमतौर पर सारे लेख वयक्तिगत अनुभवों के आधार पर लिख गए हैं । मशहूर गायिका विजय भारती का भी एक दिलचस्प लेख इस किताब में संग्रहीत है । विजय भारती ने अपने लेख में यह साबित करने की कोशिश की है कि समाज और परिवार में किस तरह से बचपन से ही लड़कियों को यौन शुचिता की घुट्टी पिलाई जाती है । जब बचपन में लड़कियां खेलने जाती हैं तो उनको यह कहा जाता है कि देखना लड़कों के साथ मत खेलना माने लड़कों के साथ खेलने से उसकी शुचिता नष्ट हो जाएगी । बचपन की बात क्यों जवान लड़कियां भी दजब घर से बाहर निकलती हैं तो परिवार के लोग उसके साथ छह सात साल के उसके भाई को लगा देते हैं, जो उसकी रक्षा करेगा । यह एक ऐसी हकीकत है जिससे आपको हर रोज दो चार होना पड़ता है । विजय भारती ने अपनी एरक कविता के जरिए अपनी बात रखी है – हैं कई गरमागरम उसके फसाने शहर में/घात के मेले लगे हैं इस बहारे शहर में/रुख हवाओं के, उसे लूटा किए हर कदम पे/बने अपने ही लुटेरे, कितने जाने शहर में/दुश्मनी उसकी किसी से कुछ न थी, कुछ नहीं है/आग लेकर क्यों खड़े हैं लोग अपने शहर में/
इनके अलावा फायरब्रांड और अपनी लेखनी को एके 47 की तरह इस्तेमाल करनेवाली मनीषा ने अपनी खास शैली में अपनी बात कही है । मनीषा लिखती हैं कि भारत में चालीस साल के उपर के लगभग नौ करोड़ आदमी स्वीकृत रूप से नपुंसक हैं, जाहिरा तौर पर उनकी सेक्स जाती रही हो । पर सामाजिक पारिवारिक दबावों में इनकी पत्नियां चूं तक नहीं कर पाती । ...और अगर स्त्री बच्चा नहीं जन सकती तो भी उसकी शारीरिक संरचना पुरुष को भरपूर यौनानंद देने के काबिल तो रहती ही है । मनीषा की जो शैली है वो बेहद तीखी और खरी-खरी कहने की है – लड़की बिन ब्याह के अगर किसी लड़के का लिंग छू ले तो ये भ्रष्ट हो जाएगी पर आप अपनी कोहनियां उसके स्तनों में खोंसते फिरें तो यह धार्मिकता मानी जाएगी । इसके अलावा जयंती, निर्मला भुराड़िया, असीमा भट्ट के भी पुरुष सत्ता के खिलाफ आग उगलते लेख इस किताब में हैं ।
कुल मिलाकर अगर हम स्त्री विमर्श के प्रथम पुरुष राजेन्द्र यादव को समर्पित इस किताब पर समग्रता से विचार करें तो यह लगता है कि राजेन्द्र यादव की पीढ़ी ने जिस विमर्श की शुरुआत की थी वो अब विरोध से आगे बढ़कर विद्रोह की स्थिति में जा पहुंचा है । इस लिहाज से गीताश्री की यह किताब अहम है कि युवा लेखिकाओं के विचार बेहद उग्र और आक्रामक हैं । जो बात स्त्री विमर्श का झंडा बुलंद करनेवाली लेखिकाएं खुलकर नहीं कह पा रही थी वो बात अब युवा लेखिकाओं के लेख में सामने आने लगी है । इन युवा लेखिकाओं के तेवरों से यह लगता है कि स्त्री विमर्श ने एक नया मुकाम और नई शब्दावली भी तैयार कर ली है । लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि क्या सदियों पुरानी परंपराओं और मानसिकता को बदलना इतना आसान है जबाव है नहीं लेकिन इस वजह से प्रयास तो छोड़े नहीं सकते, और उसी का नतीजा है – नागपाश में स्त्री
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Wednesday, July 28, 2010
Sunday, July 25, 2010
बेवफाई का सुपर धमाका
हिंदी साहित्य में रवीन्द्र कालिया की ख्याति उपन्यासकार, कहानीकार और संस्मरण लेखक के अलावा एक ऐसे बेहतरीन संपादक के रूप में भी है जो लगभग मृतप्राय पत्रिकाओं में भी जान फूंक देते हैं । रवीन्द्र कालिया हिंदी के उन गिने चुने संपादकों नें से एक हैं जिनको पाठकों की नब्ज और बाजार का खेल दोनों पता है । धर्मयुग में जब रवीन्द्र कालिया थे तो पत्रिका के तेवर और कलेवर में उनका भी योगदान था लेकिन जैसा कि आमतौर पर होता है कि हर बड़ी-छोटी जीत का सेहरा टीम के कप्तान के सर बंधता है । बाद के दिनों में जब कालिया जी की धर्मवीर भारती से खटपट हुई तो वो लौटकर इलाहाबाद चले आए । यह वही दौर था जब कालिया जी ने काला रजिस्टर लिखा था । इलाहाबाद लौटकर रवीन्द्र कालिया ने जब गंगा-जमुना निकाला तो उसने भी साहित्य जगत में धूम मचा दी थी । हिंदी के पाठकों को उन्नीस सौ इक्यानबे में निकले वर्तमान साहित्य के दो कहानी महाविशेषांक अब भी याद होंगे । वर्तमान साहित्य के दो भारी भरकम अंक अप्रैल और मई उन्नीस सौ इक्यानवे में प्रकाशित हुए थे । उस दौर में मैं कॉलेज का छात्र था और मुझे याद है कि जमालपुर के व्हीलर के स्टॉल चलानेवाले पांडे जी ने हमें वर्तमान साहित्य के वो अंक चुपके से इस तरह सौंपे थे जैसे कोई बेहद कीमती चीज छुपाकर देता हो । उस वक्त मुझे अजीब लगा था । कई दिनों बाद जब मैंने पांडे जी से पूछा तो उन्होंने बताया था कि उक्त अंक की दस ही प्रतियां आई थी और साहित्यानुरागी पांडे जी के मुताबिक उसके ज्यादा खरीदार हो सकते थे । सो उन्होंने अपने चुनिंदा ग्राहकों को छुपाकर वर्तमान साहित्य का कहानी महाविशेषांक दिया था । यह हिंदी में पहली बार हुआ था जब किसी भी विशेषांक को महाविशेषांक बताया गया हो । जैसा कि मैं उपर कह चुका हूं कि कालिया जी को पाठकों की रुचि के साथ-साथ बाजार की भी समझ है । वर्तमान साहित्य से पहले इस तरह का आयोजन उन्नीस सौ अट्ठावन –साठ में कहानी पत्रिका ने किया था, जिसके संपादक श्रीपत राय थे । कहानी के उन अंकों में अमरकांत की डिप्टी कलेक्टरी , कमलेश्वर की राजा निरवंसिया, मार्केंडेय की हंसा जाई अकेला जैसी बेहद प्रसिद्ध रचनाएं छपी थी ।
यही बात वर्तमान साहित्य के कहानी विशेषांक के साथ भी हुई । कालिया जी ने उन दो अंकों में लगभग संपूर्ण हिंदी साहित्य का समेट कर रख दिया था । कृष्णा सोबती की लंबी कहानी ए लड़की वर्तमान साहित्य के उस महाविशेषांक में ही छपी थी । बाद में स्पीड पोस्ट में उसपर तीन गंभीर टिप्पणियां छपने से कहानी को खासी चर्चा मिली । बाद में यह उपन्यास के रूप में स्वतंत्र रूप से प्रकाशित हुई । साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त मशहूर लेखिका अलका सरावगी की पहली कहानी – आपकी हंसी भी वर्तमान साहित्य के महाविशेषांक में ही प्रकाशित हुई थी । उस अंक में उपेन्द्र नाथ अश्क का एक बेहद धमाकेदार लेख- महिला कथा लेखन की अर्धशती भी प्रकाशित हुई थी । किसी भी संपादक की दृष्टि पत्रिका को एक उंचाई देती है । और कालिया ने इसे एक बार नहीं कई बार साबित किया ।
जब रवीन्द्र कालिया वागर्थ के संपादक होकर कोलकाता गए तो भारतीय भाषा परिषद की उस दम तोड़ती पत्रिका को भी ना केवल खड़ा कर दिया बल्कि हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में लाकर उसे एक अहम पत्रिका बना दिया । वागर्थ का संपादन छोड़कर जब वो नया ज्ञानोदय आए तो इस पत्रिका का हाल भी बेहाल था और साहित्य के नाम पर बेहद ठंढी और विचारोत्तेजक सामग्री के आभाव में ज्ञानोदय एक सेठाश्रयी पत्रिका बनकर रह गई थी जो इस लिए निकल पा रही थी क्योंकि उसका प्रकाशन टाइम्स जैसे बड़े ग्रुप से हो रहा था । लेकिन कालिया ने संपादक का दायित्व संभालते ही ज्ञानोदय को हिंदी साहित्य की अनिवार्य पत्रिका बना दिया । रवीन्द्र कालिया के ज्ञानोदय के संपादक बनने के पहले हंस और उसके संपादक राजेन्द्र यादव समकालीन हिंदी साहित्य का एजेंडा सेट किया करते थे । लेकिन जब मई दो हजार सात में कालिया के संपादन में युवा पीढी विशेषांक निकला तो पहली बार ऐसा लगा कि हंस के अलावा कोई और पत्रिका है जो साहित्य का एजेंडा सेट कर सकती है । संपादक ने दावा किया कि दो हजार सात में छपे युवा पीढी विशेषांक की मांग इतनी ज्यादा हुई थी कि उसे पुनर्मुद्रित करना पडा़ था । नया ज्ञानोदय के उक्त अंक को लेकर उस वक्त अच्छा खासा बवाल भी मचा था लेकिन आखिरकार रचना ही बची रहती है सो उस अंक का एक स्थायी महत्व बना रहा । धीरे धीरे पहले नवलेखन अंकों से कहानीकारों की एक नई फौज खड़ी कर दी । उसके बाद चार लगातार अंकों में प्रेम विशेषांक निकालकर बिक्री के भी सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले । संपादक के दावे के मुताबिक प्रेम विशेषांकों की कड़ी के पहले अंक को पाठकों की मांग पर कई बार प्रकाशित करना पड़ रहा है । आज जब हिंदी के साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक पाठकों की कमी और बिक्री ना होने का रोना रो रहे हैं ऐसे में कालिया का ये दावा एक सुखद आश्चर्य की तरह है ।
अब कालिया जी ने नया ज्ञानोदय का बेवफाई सुपर विशेषांक-1 निकाला है । कहानी महाविशेषांक वो पहले ही निकाल चुके हैं । पाठकों को हर बार कोई नई चीज देनी होती है लिहाजा अब सुपर विशेषांक । संपादकीय की पहली ही लाइन है- अगर वफा का अस्तित्व ना होता तो बेवफाई नहीं होती । कई शायरों के मार्फत भी कालिया जी ने बेवफाई को परिभाषित किया है । तकरीबन सवा दौ सौ पन्नों के इस महाविशेषांक में वह हर रचना मौजूद है जो पाठकों को ना केवल बांधे रखेगी बल्कि उसकी साहित्यिक वफा को और मजबूत करेगी । इस विशेषांक में प्रेमचंद, मंटो, इस्मत चुगताई से लेकर ओ हेनरी, मोपासां, हेमिंग्वे तक मौजूद हैं । बेवफाई पर गुलजार ने जब ज्ञानोदय संपादक को अपनी नज्में भेजी तो लिखा- जनाब रविन्द्र कालिया साहब । बे-वफायी पर कुछ नज्में । मेरे यहां कुछ इल्जाम-देही और गिले शिकवे नहीं हैं । मेरा ख्याल है वो बे-वफायी भी नहीं । बस अलग हो गए । बे-वफायी कैसी । नज्में ज्यादा है ताकि आप कुछ रद्द कर सकें । बे-वफायी को बस अलग हो गए मानने वाले गुलजार की नज्म देखिए – और तुम ऐसे गई जैसे /शहर की बिजली चली जाए अचानक जैसे/और मुझको/बंद कमरे में बहुत देर तलक कुछ भी दिखायी नहीं दिया/आंखें तारीकी से मानूस हुई तो.../फिर से दरवाजे का खाका सा नजर आया/ । सिर्फ गुलजार ही नहीं बेवफायी पर बशीर बद्र की नज्में भी बेहतरीन हैं । इसके अलावा विदेशी उपन्यासों में, मीडिया में, फिल्मों में और इंटरनेट की बेवफाइयों पर भी अहम लेख हैं । कुल मिलाकर यह अंक पठीनय तो है ही संग्रहणीय भी है । बेवफाई सुपर विशेषांक -2 का भी ऐलान है जिसमें नोवोकोब का प्रसिद्ध उपन्यास लोलिता भी प्रकाश्य है । आखिरकार लोलिता भी तो अंत में बेवफाई पर ही खत्म होती है । कालिया जी का यह प्रयोग काबिल-ए-तारीफ है ।
यही बात वर्तमान साहित्य के कहानी विशेषांक के साथ भी हुई । कालिया जी ने उन दो अंकों में लगभग संपूर्ण हिंदी साहित्य का समेट कर रख दिया था । कृष्णा सोबती की लंबी कहानी ए लड़की वर्तमान साहित्य के उस महाविशेषांक में ही छपी थी । बाद में स्पीड पोस्ट में उसपर तीन गंभीर टिप्पणियां छपने से कहानी को खासी चर्चा मिली । बाद में यह उपन्यास के रूप में स्वतंत्र रूप से प्रकाशित हुई । साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त मशहूर लेखिका अलका सरावगी की पहली कहानी – आपकी हंसी भी वर्तमान साहित्य के महाविशेषांक में ही प्रकाशित हुई थी । उस अंक में उपेन्द्र नाथ अश्क का एक बेहद धमाकेदार लेख- महिला कथा लेखन की अर्धशती भी प्रकाशित हुई थी । किसी भी संपादक की दृष्टि पत्रिका को एक उंचाई देती है । और कालिया ने इसे एक बार नहीं कई बार साबित किया ।
जब रवीन्द्र कालिया वागर्थ के संपादक होकर कोलकाता गए तो भारतीय भाषा परिषद की उस दम तोड़ती पत्रिका को भी ना केवल खड़ा कर दिया बल्कि हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में लाकर उसे एक अहम पत्रिका बना दिया । वागर्थ का संपादन छोड़कर जब वो नया ज्ञानोदय आए तो इस पत्रिका का हाल भी बेहाल था और साहित्य के नाम पर बेहद ठंढी और विचारोत्तेजक सामग्री के आभाव में ज्ञानोदय एक सेठाश्रयी पत्रिका बनकर रह गई थी जो इस लिए निकल पा रही थी क्योंकि उसका प्रकाशन टाइम्स जैसे बड़े ग्रुप से हो रहा था । लेकिन कालिया ने संपादक का दायित्व संभालते ही ज्ञानोदय को हिंदी साहित्य की अनिवार्य पत्रिका बना दिया । रवीन्द्र कालिया के ज्ञानोदय के संपादक बनने के पहले हंस और उसके संपादक राजेन्द्र यादव समकालीन हिंदी साहित्य का एजेंडा सेट किया करते थे । लेकिन जब मई दो हजार सात में कालिया के संपादन में युवा पीढी विशेषांक निकला तो पहली बार ऐसा लगा कि हंस के अलावा कोई और पत्रिका है जो साहित्य का एजेंडा सेट कर सकती है । संपादक ने दावा किया कि दो हजार सात में छपे युवा पीढी विशेषांक की मांग इतनी ज्यादा हुई थी कि उसे पुनर्मुद्रित करना पडा़ था । नया ज्ञानोदय के उक्त अंक को लेकर उस वक्त अच्छा खासा बवाल भी मचा था लेकिन आखिरकार रचना ही बची रहती है सो उस अंक का एक स्थायी महत्व बना रहा । धीरे धीरे पहले नवलेखन अंकों से कहानीकारों की एक नई फौज खड़ी कर दी । उसके बाद चार लगातार अंकों में प्रेम विशेषांक निकालकर बिक्री के भी सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले । संपादक के दावे के मुताबिक प्रेम विशेषांकों की कड़ी के पहले अंक को पाठकों की मांग पर कई बार प्रकाशित करना पड़ रहा है । आज जब हिंदी के साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक पाठकों की कमी और बिक्री ना होने का रोना रो रहे हैं ऐसे में कालिया का ये दावा एक सुखद आश्चर्य की तरह है ।
अब कालिया जी ने नया ज्ञानोदय का बेवफाई सुपर विशेषांक-1 निकाला है । कहानी महाविशेषांक वो पहले ही निकाल चुके हैं । पाठकों को हर बार कोई नई चीज देनी होती है लिहाजा अब सुपर विशेषांक । संपादकीय की पहली ही लाइन है- अगर वफा का अस्तित्व ना होता तो बेवफाई नहीं होती । कई शायरों के मार्फत भी कालिया जी ने बेवफाई को परिभाषित किया है । तकरीबन सवा दौ सौ पन्नों के इस महाविशेषांक में वह हर रचना मौजूद है जो पाठकों को ना केवल बांधे रखेगी बल्कि उसकी साहित्यिक वफा को और मजबूत करेगी । इस विशेषांक में प्रेमचंद, मंटो, इस्मत चुगताई से लेकर ओ हेनरी, मोपासां, हेमिंग्वे तक मौजूद हैं । बेवफाई पर गुलजार ने जब ज्ञानोदय संपादक को अपनी नज्में भेजी तो लिखा- जनाब रविन्द्र कालिया साहब । बे-वफायी पर कुछ नज्में । मेरे यहां कुछ इल्जाम-देही और गिले शिकवे नहीं हैं । मेरा ख्याल है वो बे-वफायी भी नहीं । बस अलग हो गए । बे-वफायी कैसी । नज्में ज्यादा है ताकि आप कुछ रद्द कर सकें । बे-वफायी को बस अलग हो गए मानने वाले गुलजार की नज्म देखिए – और तुम ऐसे गई जैसे /शहर की बिजली चली जाए अचानक जैसे/और मुझको/बंद कमरे में बहुत देर तलक कुछ भी दिखायी नहीं दिया/आंखें तारीकी से मानूस हुई तो.../फिर से दरवाजे का खाका सा नजर आया/ । सिर्फ गुलजार ही नहीं बेवफायी पर बशीर बद्र की नज्में भी बेहतरीन हैं । इसके अलावा विदेशी उपन्यासों में, मीडिया में, फिल्मों में और इंटरनेट की बेवफाइयों पर भी अहम लेख हैं । कुल मिलाकर यह अंक पठीनय तो है ही संग्रहणीय भी है । बेवफाई सुपर विशेषांक -2 का भी ऐलान है जिसमें नोवोकोब का प्रसिद्ध उपन्यास लोलिता भी प्रकाश्य है । आखिरकार लोलिता भी तो अंत में बेवफाई पर ही खत्म होती है । कालिया जी का यह प्रयोग काबिल-ए-तारीफ है ।
Friday, July 16, 2010
समकालीन साहित्य में सार्थक हस्तक्षेप
हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं का लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है । दरअसल हिंदी में लघु पत्रिका आंदोलन की शुरुआत छठे दशक में व्यावसायिक पत्रिका के जवाब के रूप में की गई । इस आंदोलन का श्रेय हम हिंदी के वरिष्ठ कवि विष्णुचंद्र शर्मा को दे सकते हैं । उन्होंने 1957 में बनारस से कवि का संपादन प्रकाशन शुरू किया था । कालांतर में और भी कई लघु पत्रिकाएं वयक्तिगत प्रयासों और प्रकाशन संस्थानों से निकली जिसने हिंदी साहित्य की तामम विधाओं को ना केवल समृद्ध किया बल्कि उसका विकास भी किया । 1967 में नामवर सिंह के संपादन में आलोचना, सत्तर के दशक में विश्वनाथ तिवारी के संपादन में दस्तावेज, ज्ञानरंजन के संपादन में पहल । बाद में देश निर्मोही के संपादन में पल-प्रतिपल के शुरुआती अंको ने उम्मीद जगाई थी लेकिन बाद के उसके अंक कमजोर निकले । अब भी रुक-रुक कर उसका प्रकाशन हो रहा है । लेकिन 1986 में राजेन्द्र यादव के संपादन में निकली पत्रिका हंस ने पूरे परिदृश्य को बदल दिया । इसी महीने हंस के प्रकाशन के पच्चीस साल पूरे हो रहे हैं । व्यक्तिगत प्रयासों से इतने लंबे समय तक नियमित रूप से मेरे जानते हिंदी साहित्य की कोई पत्रिका नहीं निकली । अखिलेश के संपादन मे तद्भव के अंक ने भी पाठकों और आलोचकों का ध्यान अपनी ओर खींचा ।
लेकिन मुझे लगता है कि साठ के दशक में शुरु हुआ लघु पत्रिका आंदोलन अपनी राह से भटक गया है । उसने ना केवल अपना चरित्र बल्कि स्वरूप भी खो दिया है । लघु पत्रिका आंदोलन और उसकी विरासत से अनजान अबोध लोग संपादक बने जा रहे हैं । लेकिन उन्हें ना तो लघु पत्रिकाओं के दायित्व की परवाह है और ना ही इसके चरित्र की । दरअसल संपादन एक बेहद कठिन कर्म है । इसमें व्यक्तिगत संबंधों को तरजीह दिए बगैर काम करना पड़ता है लेकिन आज तो साहित्यिक पत्रिकाओं में तुम मेरी मैं तेरी वाली स्थिति व्याप्त है । पत्रिकाएं सौदेबाजी का अखाड़ा बनती जा रही है । आज किसी भी लघु पत्रिका के संपादक में इतना साहस है कि वो किसी भी स्थापित साहित्यकार की रचना को लौटा सके । बड़े नाम को छापने के चक्कर में हो यह रहा कि किसी का रिसर्च पेपर, किसी का भाषण, किसी का वक्तव्य छप रहा है । इससे संपादकों की दृष्टि की दयनीयता और दरिद्रता का पता चलता है । आज अगर हम कुछ लघु पत्रिका संपादकों को छोड़ दें तो अधिकांश में रचनाओं के चयन की दृष्टि का घोर अभाव दिखाई देता है ।तकरीबन हर संपादक संयोजन कर रहा है लेकिन इस सत्य को स्वीकार करने का साहस कितने लोगों के पास है । अगर संपादक की दृष्टि सुलझी हुई हो तो पत्रिका का एक स्वरूप बनता है लेकिन अगर आप सिर्फ संयोजन कर रहे हों तो उसकी एक स्पष्ट रूपरेखा आपके दिमाग हो वर्ना पूरी पत्रिका बिखर जाती है ।
लघु पत्रिकाओं का एक अहम दायित्व स्थानीय पत्रिकाओं को मौका देकर उसे साहित्य के परिदृश्य पर उभारने का भी होता है । पर आज के तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक नए लेखकों की रचनाओं को तरजीह नहीं देते हैं । उन्हें तो बड़े नाम चाहिए ताकि पाठक उसके प्रभाव में आकर पत्रिका खरीद सके । अच्छा होता अगर लघु पत्रिका के संपादक बडे़ नामों को छापने का मोह छोड़कर स्थानीय और नई प्रतिभाओं को उभारते । लेकिन साहस की कमी और बाजार की नासमझी उन्हें ऐसा करने से रोक देती है । हिंदी के वामपंथी लेखक हमेशा से बाजार और उसके प्रभाव का शोर मचाते रहते हैं । लेकिन उन्हें ना तो बाजार की समझ है और ना ही बाजार की ताकत का एहसास । उन्हें तो हिंदी की ताकत का भी एहसास नहीं है । अगर हिंदी का बाजार बन रहा है तो तकलीफ किस बात की । क्या लेखकों को यह अच्छा नहीं लगेगा कि उनकी कृतियां हजारों में बिके । आज हिंदी में कोई भी किताब पांच सौ से ज्यादा नहीं छपती है और उसको भी बिकने में सालभर लग जाते हैं । पांच सौ किताबों के बिकने की बात प्रकाशक मानकर अगर दूसरा संस्करण छाप देता है तो लेखकों के पांव जमीन पर पड़ते ही नहीं है । हिंदी में बाजारवाद का शोर मचानेवालों से मेरा अनुरोध है कि पहले वो बाजार को समझें, उसपर विचार करें और उसके बाद अपने विचार वयक्त करें । ऐसा नहीं है कि साहित्यकि पत्रिकाएं खूब बिक रही हैं । इनका भी वही हाल है । अगर हंस, ज्ञनोदय, कथादेश और तद्भव को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई लघु पत्रिका होगी जो हजार प्रति छपती होगी । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी ।
अभी-अभी हिंदी में एक नई पत्रिका लेखक-पत्रकार अशोक मिश्र के संपादन में आई है- रचना क्रम । पहले अंक में इस बात के संकेत हैं कि पत्रिका छमाही निकला करेगी । यह अंक ओम भारती के अतिथि संपादन में निकली है । तकरीबन डेढ सौ पन्नों की इस पत्रिका में तमाम तरह की रचनाएँ हैं । नामवर के भाषण से लेकर चंद्रकांत देवताले की कविताएं, अरुंधति राय का लंबा साक्षात्कार, रवीन्द्र कालिया और तेजिंदर के उपन्यास अंश के अलावा कई वैचारिक लेख भी हैं । लगता है कि इस अंक की योजना काफी पहले बन गई थी इस वजह से रवीन्द्र कालिया के उपन्यास अंश के इंट्रो में शीघ्र प्रकाश्य छप गया है । जबकि कालिया जी का उपन्यास 17 रानाडे रोड काफी पहले प्रकाशित होकर धूम मचा रहा है । महेश कटारे की कहानी इस अंक की बेहतरीन कहानियों में से एक है । जबकि मुशरर्फ आलम जौकी की कहानी इस अंक की सबसे कमजोर कहानी है । मुशर्रफ के साथ जो एक बड़ी दिक्कत है वो यह है कि कहानियों के विषय का चुनाव तो ठीक-ठाक करते हैं लेकिन जब कहानी लिखते हैं तो वो उनसे संभलता नहीं है और पूरा का पूरा बिखर जाता है । यही वजह है कि दर्जनों कहानियां लिखने के बाद मुशर्ऱफ आलम जौकी की पहचान एक कहानीकार के रूप में बन नहीं पा रही है । रचना क्रम में पत्रकार उमेश चतुर्वेदी की कहानी श्रद्धांजलि छपी है और पत्रिका की ओर से यह दावा किया गया है कि उमेश की यह पहली कहानी है । उमेश चतुर्वेदी की यह पहली कहानी नहीं है इसके पहले भी उनकी तीन-चार कहानियां प्रकाशित होकर पुरस्कृत हो चुकी हैं । संपादक को इनमें सावधानी बरतनी चाहिए नहीं तो आनेवाली पीढ़ी और शोधार्थियों के बीच भ्रम फैलेगा । कुल मिलाकर अशोक मिश्र की इस पत्रिका से एक उम्मीद जगती है और इसने समकालीन हिंदी परिदृ्शय में एक सार्थक हस्तक्षेप तो किया ही है । लेकिन संपादक से मेरा एक आग्रह है कि वो नए लोगों को तरजीह दें और स्थापित और बड़े साहित्यकारों की कूड़ा रचनाएं छापने से परहेज करें । विश्वास मानिए पत्रिका को एक बड़ा बाजार मिलेगा और साहित्य को कई प्रतिभाएं ।
लेकिन मुझे लगता है कि साठ के दशक में शुरु हुआ लघु पत्रिका आंदोलन अपनी राह से भटक गया है । उसने ना केवल अपना चरित्र बल्कि स्वरूप भी खो दिया है । लघु पत्रिका आंदोलन और उसकी विरासत से अनजान अबोध लोग संपादक बने जा रहे हैं । लेकिन उन्हें ना तो लघु पत्रिकाओं के दायित्व की परवाह है और ना ही इसके चरित्र की । दरअसल संपादन एक बेहद कठिन कर्म है । इसमें व्यक्तिगत संबंधों को तरजीह दिए बगैर काम करना पड़ता है लेकिन आज तो साहित्यिक पत्रिकाओं में तुम मेरी मैं तेरी वाली स्थिति व्याप्त है । पत्रिकाएं सौदेबाजी का अखाड़ा बनती जा रही है । आज किसी भी लघु पत्रिका के संपादक में इतना साहस है कि वो किसी भी स्थापित साहित्यकार की रचना को लौटा सके । बड़े नाम को छापने के चक्कर में हो यह रहा कि किसी का रिसर्च पेपर, किसी का भाषण, किसी का वक्तव्य छप रहा है । इससे संपादकों की दृष्टि की दयनीयता और दरिद्रता का पता चलता है । आज अगर हम कुछ लघु पत्रिका संपादकों को छोड़ दें तो अधिकांश में रचनाओं के चयन की दृष्टि का घोर अभाव दिखाई देता है ।तकरीबन हर संपादक संयोजन कर रहा है लेकिन इस सत्य को स्वीकार करने का साहस कितने लोगों के पास है । अगर संपादक की दृष्टि सुलझी हुई हो तो पत्रिका का एक स्वरूप बनता है लेकिन अगर आप सिर्फ संयोजन कर रहे हों तो उसकी एक स्पष्ट रूपरेखा आपके दिमाग हो वर्ना पूरी पत्रिका बिखर जाती है ।
लघु पत्रिकाओं का एक अहम दायित्व स्थानीय पत्रिकाओं को मौका देकर उसे साहित्य के परिदृश्य पर उभारने का भी होता है । पर आज के तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक नए लेखकों की रचनाओं को तरजीह नहीं देते हैं । उन्हें तो बड़े नाम चाहिए ताकि पाठक उसके प्रभाव में आकर पत्रिका खरीद सके । अच्छा होता अगर लघु पत्रिका के संपादक बडे़ नामों को छापने का मोह छोड़कर स्थानीय और नई प्रतिभाओं को उभारते । लेकिन साहस की कमी और बाजार की नासमझी उन्हें ऐसा करने से रोक देती है । हिंदी के वामपंथी लेखक हमेशा से बाजार और उसके प्रभाव का शोर मचाते रहते हैं । लेकिन उन्हें ना तो बाजार की समझ है और ना ही बाजार की ताकत का एहसास । उन्हें तो हिंदी की ताकत का भी एहसास नहीं है । अगर हिंदी का बाजार बन रहा है तो तकलीफ किस बात की । क्या लेखकों को यह अच्छा नहीं लगेगा कि उनकी कृतियां हजारों में बिके । आज हिंदी में कोई भी किताब पांच सौ से ज्यादा नहीं छपती है और उसको भी बिकने में सालभर लग जाते हैं । पांच सौ किताबों के बिकने की बात प्रकाशक मानकर अगर दूसरा संस्करण छाप देता है तो लेखकों के पांव जमीन पर पड़ते ही नहीं है । हिंदी में बाजारवाद का शोर मचानेवालों से मेरा अनुरोध है कि पहले वो बाजार को समझें, उसपर विचार करें और उसके बाद अपने विचार वयक्त करें । ऐसा नहीं है कि साहित्यकि पत्रिकाएं खूब बिक रही हैं । इनका भी वही हाल है । अगर हंस, ज्ञनोदय, कथादेश और तद्भव को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई लघु पत्रिका होगी जो हजार प्रति छपती होगी । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी ।
अभी-अभी हिंदी में एक नई पत्रिका लेखक-पत्रकार अशोक मिश्र के संपादन में आई है- रचना क्रम । पहले अंक में इस बात के संकेत हैं कि पत्रिका छमाही निकला करेगी । यह अंक ओम भारती के अतिथि संपादन में निकली है । तकरीबन डेढ सौ पन्नों की इस पत्रिका में तमाम तरह की रचनाएँ हैं । नामवर के भाषण से लेकर चंद्रकांत देवताले की कविताएं, अरुंधति राय का लंबा साक्षात्कार, रवीन्द्र कालिया और तेजिंदर के उपन्यास अंश के अलावा कई वैचारिक लेख भी हैं । लगता है कि इस अंक की योजना काफी पहले बन गई थी इस वजह से रवीन्द्र कालिया के उपन्यास अंश के इंट्रो में शीघ्र प्रकाश्य छप गया है । जबकि कालिया जी का उपन्यास 17 रानाडे रोड काफी पहले प्रकाशित होकर धूम मचा रहा है । महेश कटारे की कहानी इस अंक की बेहतरीन कहानियों में से एक है । जबकि मुशरर्फ आलम जौकी की कहानी इस अंक की सबसे कमजोर कहानी है । मुशर्रफ के साथ जो एक बड़ी दिक्कत है वो यह है कि कहानियों के विषय का चुनाव तो ठीक-ठाक करते हैं लेकिन जब कहानी लिखते हैं तो वो उनसे संभलता नहीं है और पूरा का पूरा बिखर जाता है । यही वजह है कि दर्जनों कहानियां लिखने के बाद मुशर्ऱफ आलम जौकी की पहचान एक कहानीकार के रूप में बन नहीं पा रही है । रचना क्रम में पत्रकार उमेश चतुर्वेदी की कहानी श्रद्धांजलि छपी है और पत्रिका की ओर से यह दावा किया गया है कि उमेश की यह पहली कहानी है । उमेश चतुर्वेदी की यह पहली कहानी नहीं है इसके पहले भी उनकी तीन-चार कहानियां प्रकाशित होकर पुरस्कृत हो चुकी हैं । संपादक को इनमें सावधानी बरतनी चाहिए नहीं तो आनेवाली पीढ़ी और शोधार्थियों के बीच भ्रम फैलेगा । कुल मिलाकर अशोक मिश्र की इस पत्रिका से एक उम्मीद जगती है और इसने समकालीन हिंदी परिदृ्शय में एक सार्थक हस्तक्षेप तो किया ही है । लेकिन संपादक से मेरा एक आग्रह है कि वो नए लोगों को तरजीह दें और स्थापित और बड़े साहित्यकारों की कूड़ा रचनाएं छापने से परहेज करें । विश्वास मानिए पत्रिका को एक बड़ा बाजार मिलेगा और साहित्य को कई प्रतिभाएं ।
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