पिछले लगभग एक दशक के प्रकाशनों पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि कई वरिष्ठ पत्रकारों/संपादकों की मीडिया और उससे जुड़ें विषयों पर किताबें प्रकाशित हुई हैं । इन पुस्तकों में जो समानता दिखाई देती है वो यह है कि पत्रकारों, संपदकों ने पूर्व में लिखे लेखों को संयोजित कर एक थीम, आकर्षक शीर्षक और चर्चित समकालीन वरिष्ठ पत्रकार की गंभीर भूमिका के साथ पुस्तकाकार छपवाया है । मेरे जानते इसकी शुरुआत उदयन शर्मा के लेखों के संग्रह के प्रकाशित होने के साथ हुई थी । उसके बाद आलोक मेहता और मधुसूदन आनंद के प्रयासों राजेन्द्र माथुर के लेखों का संग्रह सपनों में बनता देश छपा था। ये दोनों प्रयास अपने वरिष्ठों के निधन के बाद उनके लेखन से अगली पीढ़ी को परिचित करवाने की एक ईमानदार कोशिश थी । लेकिन बाद में कई वरिष्ठ पत्रकारों के लेखों के संग्रह प्रकाशित होने शुरी हुए । दो हजार तीन में प्रभाष जोशी के लेखों का संग्रह हिंदू होने का धर्म छपा, जिसमें उन्होंने लगभग पचास पन्नों की लंबी भूमिका लिखी । लगभग उसी वक्त अरविंद मोहन की किताब मीडिया की खबर प्रकाशित हुई थी । दो हजार आठ में एक बार फिर से प्रभाष जोशी के अखबारी लेखों के चार संकलन एक साथ प्रकाशित हुए । सिर्फ प्रभाष जोशी या अरविंद मोहन ही इस सूची में नहीं है । कई वरिष्ठ लेखकों ने इस तरह की किताबें छपवाई हैं । जब ये किताबें छप कर बाजार में आ रही थी तो वो दौर मीडिया के विस्तार का दौर था और अखबारों और न्यूज चैनलों के विस्तार की वजह से पत्रकारिता पढ़ाने के संस्थान धड़ाधड़ खुल रहे थे, जिसमें पढ़नेवाले छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा थी । यह महज एक संयोग था या फिर बाजार को ध्यान में रखकर ऐसा हो रहा था इसका निर्णय होना अभी शेष है । लेकिन जिस तरह से पूर्व प्रकाशित अखबारी लेखों का संकलन पत्रकारिता को ध्यान में रखकर किया गया या जा रहा है उससे यह तो साफ प्रतीत होता ही है कि यह बाजार को भुनाने की या फिर बाजार से अपना हिस्सा लेने की कोशिश है ।
अब इस कड़ी में प्रिंट और टीवी में काम कर चुके पत्रकार प्रभात शुंगलू की किताब - यहां मुखौटे बिकते हैं प्रकाशित हुई है । इस किताब का ब्लर्ब राजदीप सरदेसाई ने लिखा है । राजदीप के मुताबिक प्रभात अलग अलग विषयों पर लिखते हैं । चाहे वो धारा 377 हो या फिर एमएफ हुसैन लेकिन इन सबके बीच प्रभात के लेखन में एक बात समान है - वह है भारत के संविधान में मौजूद उदारवादी मूल्यों में उनकी अटल प्रतिबद्धता । राजदीप के अलावा प्रभात ने अपने पत्रकार बनने और टीवी में आने के बाद फिर से लिखना शुरू करने की दिलचस्प दास्तां लिखी है । प्रभात के लेखन में अंग्रेजी के शब्द बहुतायत में आते हैं और लेखक के मुताबिक वो आम बोलचाल की भाषा है । इसके लिए उनके अपने तर्क भी हैं और तथ्य भी । पर मेरा मानना है कि दूसरी भाषा के शब्दों से परहेज ना करें लेकिन अगर आप हिंदी में लिख रहे हैं और वहां दूसरी भाषा से बेहतर और आसान शब्द मौजूद हैं तो फिर आम बोलचाल के नाम पर दुराग्रह उचित नहीं है । लेकिन प्रबात के लेखों में यह चीज एक जिद की तरह आती है गोया वो कोई नया प्रयोग कर रहे हैं या कोई नई भाषा गढ़ रहे हैं ।
इस किताब में तीन अलग अलग खंड हैं- सियासत, शख्सियत और समाज । इन तीन खानों में प्रभात ने अपने लेखों का बांटा है । प्रभात की एक खासियत है कि वो गंभीर विषयों पर भी व्यंग्यात्मक शैली में अपनी कलम चलाते हैं । चाहे वो कौन बनेगा वीक प्रधानमंत्री हो या फिर यहां मुखौटे बिकते हैं या फिर पांडु ब्रदर्स एंड सन्स हो या फिर हुसैन,तुम माफी मत मांगना हर जगह एक तंज नजर आता है जिसे प्रभात की शैली के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है । कौन बनेगा वीक प्रधानमंत्री में आडवाणी पर तंज कसते हुए प्रभात कहते हैं- एक पल के लिए अगर मान भी लें कि आप प्रधानमंत्री बन भी जाते हैं तो क्या आज शपथ लेकर कह पाएंगे कि सत्ता का कंट्रोल और रिमोट कंट्रोल दोनों आपके हाथ में होगा - राजनाथ, जेटली नरेन्द्र मोदी और वरुण गांधी के हाथ में नहीं । मोहन भागवत के हाथ में नहीं । प्रमोद मुथल्लिक के हाथ में नहीं । वहीं पांडु ब्रदर्स एंड सन्स में प्रभात गठजोड़ की राजनीति पर व्यंग्यात्मक शैली में लिखते हैं- अजित सिंह ने फिर बीजेपी का दामन थामा है । कैलकुलेशन किया 4 सीटें भी जीती दो मिनिस्टर बर्थ पक्की । एक अपनी और एक अनु की । गडकरी के बीजेपी अध्यक्ष का पद संभालने के बाद अपने लेख कुहासे में नेतृत्व में प्रभात लिखते हैं - पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद भी गडकरी का नागपुर प्रेम कुलांचे मारता नजर आया । आगे लिखते हैं कि गडकरी पांव छूने को चाटुकारिता मानते हैं लेकिन अद्यक्ष बनने के बाद राजनाथ, आडवाणी सुषमा के पांव छूकर आशीर्वाद लिया वो शीर्ष नेताओं के प्रति उनकी श्रद्धा थी । अब गड़करी हनुमान होते तो अपना सीना चीरकर दिखला देते ।
प्रभात शुंगलू की इस किताब में चूंकि अखबारी लेखों के संग्रह हैं इसलिए कई बातें संपूर्णता में नहीं आ पाई । कई लेख विस्तार की मांग करते हैं जैसे करगिल से जुड़े प्रभात के लेखों में एक अलग किताब की गुंजाइश नजर आती है । प्रभात शुंगलू करगिल युद्ध को कवर करनेवाले गिने चुने पत्रकारों में एक हैं, उन्हें उस दौर के अपने अनुभवों पर गंभीरता पूर्वक विस्तार से लिखना चाहिए ताकि एक स्थायी महत्व की किताब सामने आए, जल्दबाजी में करगिल पर अखबार के स्पेस के हिसाब से लिखकर और फिर उसे अपनी किताब में छपवाकर प्रबात ने अपरिपक्वता का परिचय दिया है । यहां मुखौटे बिकते हैं प्रभात शुंगलू की पहली किताब है और पहली बार किताब छपने के उत्साह में कई हल्की चीजें भी चली गई हैं, जिनका कोई स्थायी महत्व नहीं है, जैसे मुंबई की अस्मिता से खिलवाड़ जैसे लेखों का स्थायी महत्व नहीं हो सकता है । इस किताब का सिर्फ इतना महत्व है दो हजार नौ के शुरुआत से लेकर लगभग सवा साल की महत्वपूर्ण घटनाएं और इसपर लेखक का नजरिया आपको एक जगह मिल जाएगा । प्रभात की यह किताब इस बात का संकेत जरूर देती है कि अगर वो गंभीरता से विषय विशेष पर और उसके हर पहलू पर विस्तार से लिखें तो गंभीर किताब बन सकती है ।
Translate
Monday, September 27, 2010
Thursday, September 23, 2010
संवैधानिक संस्था की साख पर बट्टा
एक बार फिर देश में एक संवैधानिक पद पर हुई नियुक्ति विवादों के घेरे में आ गई है । मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर भारत सरकार के दूरसंचार सचिव की नियुक्ति लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज के विरोध को दरकिनार करते हुए कर दी गई । मुख्य सतर्कता आयुक्त का चुनाव प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कमिटी करती है जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा गृह मंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता होते हैं । अब तक परंपरा यह रही है कि आम सहमति के आधार पर ही मुख्य सतर्कता आयुक्त का चयन होता है लेकिन इस बार लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की आपत्तियों को धता बताते हुए दूरसंचार सचिव पी जे थॉमस के नाम पर मुहर लगा दी गई । आम सहमति की परंपरा इसलिए बनाई गई थी ताकि इस संवैधानिक संस्था में शासक दल और विपक्षी दल दोनों का विश्वास बना रहे । उसकी जांच पर किसी तरह का सवाल ना उठे और विपक्षी दल भी सीवीसी की जांच पर पक्षपात का आरोप ना लगा सकें, इसलिए जब इस संस्था का गठन किया गया था तो यह तय किया गया था कि सीवीसी के चयन में नेता प्रतिपक्ष की राय को अहमियत दी जाएगी । लेकिन यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रधानमंत्री की मौजूदगी वाली इस समिति ने मान्य परंपरा का ध्यान नहीं रखा ।
पी जे थॉमस के मुख्य सतर्कता आयुक्त बनने के बाद यह सवाल सुरसा की तरह मंह बाए खड़ा हो गया है टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन के घोटाले की जांच वो वयक्ति कैसे कर सकता है जो इस पद पर आने के पहले खुद दूरसंचार सचिव रहा हो । यह भी तथ्य है कि टू जी स्पेक्ट्रम का आवंटन थॉमस के मंत्रालय में आने के पहले हो चुका था लेकिन साथ ही दूसरा तथ्य यह भी है कि बीते अगस्त में जब जब पी जे थॉमस दूरसंचार सचिव थे तो उस वक्त मंत्रालय ने एक नोट तैयार किया था जिसमें यह कहा गया था कि स्पेक्ट्रम आवंटन नीतिगत मामला है और इसमें जिसमें सीवीसी या सीएजी की जांच की कोई भूमिका बनती नहीं है । इस नोट के अलावा भी दूरसंचार मंत्रालय के सचिव होने के नाते थॉमस कई बार इस तरह के किसी घोटाले से इंकार करते हुए बेहद मजबूती से अपने मंत्रालय का बचाव भी करते रहे हैं । अब जब वही पी जे थॉमस देश के मुख्य सतर्कता आयुक्त बन गए हैं तो क्या यह मान लिया जाए कि टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की जांच सीवीसी नहीं करेगी और आवंटन का सच हमेशा के लिए दफन हो जाएगा ।
दूसरी अहम बात जिसको लेकर पी जी थॉमस की नियुक्ति पर विवाद है वो है उनका दागदार दामन । उन्नीस सौ तिहत्तर बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर थॉमस का करियर कई बार विवादों में रहा है । थॉमस जब केरल में खाद्य और आपूर्ति विभाग के सचिव हुआ करते थे तो उस वक्त ही मलेशिया से पॉम आयल के आयात को लेकर घपला हुआ था जिसने सुदूर दक्षिण के इस राज्य की राजनीति में भूचाल ला दिया था । उस घोटाले के छींटे थॉमस के दामन पर भी पड़े थे । तब जोर-शोर से यह मांग उठी थी कि खाद्य सचिव होने के नाते पी जे थॉमस की भूमिका की जांच की जाए लेकिन केंद्र सरकार के इजाजत नहीं मिलने से जांच नहीं हो पाई थी । पॉम ऑयल घोटाले का जिन्न एक बार तब फिर बाहर निकला था जब थॉमस को सूबे का मुख्य सचिव बनाने की बात चली थी । शुरुआत में राज्य सरकार ने थोड़ी हिचक जरूर दिखाई थी लेकिन बाद में उनको केरल का मुख्य सचिव बना दिया गया था । इस तरह के अफसर जिनपर कई तरह के आरोप लगे हों और जिनका करियर बेदाग नहीं रहा हो उनको मुख्य सतर्कता आयुक्त बनाने के लिए एक मान्य परंपरा को तोड़ने की क्या आवश्यकता थी । विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने नियुक्ति के पहले की बैठक में इन बातों को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज करवा दी थी लेकिन ना तो प्रधानमंत्री ने और ना ही गृह मंत्री ने नेता विपक्ष की राय को तवज्जो दी । सीवीसी के पैनल में दो और अपेक्षाकृत बेहतर नाम थे जिनकी उम्मीदवारी को दरकिनार कर थॉमस के नाम को स्वीकृति दी गई । सवाल यह उठता है कि सरकार थॉमस को लेकर इतना आग्रही क्यों थी । क्या यहां भी मनमोहन सिंह के सामने गठबंधन सरकार की मजबूरी थी । क्या यहां भी दूरसंचार मंत्री ए राजा या फिर उनकी पार्टी के सुप्रीमो करुणानिधि की सिफारिश थी जिसे ठुकराना मनमोहन सिंह के लिए मुश्किल था क्योंकि करुणानिधि की पार्टी के सांसदों के बल पर यूपीए-2 की बुनियाद टिकी है ।
इन सबसे इतर जो एक बड़ा सवाल है वो यह कि इस संवैधानिक संस्था में अब विपक्षी दलों का कितना विश्वास रह जाएगा । जिसके मुखिया का दामन ही दागदार हो और प्रमुख विपक्षी दल उनपर आरोपों की झड़ी लगा रहे हों उनकी जांच पर वो कैसे भरोसा करेगी । होना तो यह चाहिए था कि सरकार एक ऐसे वयक्ति को इस पद पर नियुक्त करती जिनका करियर बेदाग होता और उसकी छवि ऐसी होती जिसपर सहज किसी को भी भरोसा हो सकता था । अगर देश के मुख्य सतर्कता आयुक्त की विश्वसनीयता पर जरा भी सवाल खड़ा होता है तो वो इस संवैधानिक संस्था को ना केवल कमजोर करता है बल्कि लोगों का भरोसा भी खत्म करता है । इस मामले में यही हुआ है जिससे मनमोहन सरकार की छवि को तो धक्का लगा ही है इस संवैधानिक संस्था की साख पर भी बट्टा लगा है ।
पी जे थॉमस के मुख्य सतर्कता आयुक्त बनने के बाद यह सवाल सुरसा की तरह मंह बाए खड़ा हो गया है टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन के घोटाले की जांच वो वयक्ति कैसे कर सकता है जो इस पद पर आने के पहले खुद दूरसंचार सचिव रहा हो । यह भी तथ्य है कि टू जी स्पेक्ट्रम का आवंटन थॉमस के मंत्रालय में आने के पहले हो चुका था लेकिन साथ ही दूसरा तथ्य यह भी है कि बीते अगस्त में जब जब पी जे थॉमस दूरसंचार सचिव थे तो उस वक्त मंत्रालय ने एक नोट तैयार किया था जिसमें यह कहा गया था कि स्पेक्ट्रम आवंटन नीतिगत मामला है और इसमें जिसमें सीवीसी या सीएजी की जांच की कोई भूमिका बनती नहीं है । इस नोट के अलावा भी दूरसंचार मंत्रालय के सचिव होने के नाते थॉमस कई बार इस तरह के किसी घोटाले से इंकार करते हुए बेहद मजबूती से अपने मंत्रालय का बचाव भी करते रहे हैं । अब जब वही पी जे थॉमस देश के मुख्य सतर्कता आयुक्त बन गए हैं तो क्या यह मान लिया जाए कि टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की जांच सीवीसी नहीं करेगी और आवंटन का सच हमेशा के लिए दफन हो जाएगा ।
दूसरी अहम बात जिसको लेकर पी जी थॉमस की नियुक्ति पर विवाद है वो है उनका दागदार दामन । उन्नीस सौ तिहत्तर बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर थॉमस का करियर कई बार विवादों में रहा है । थॉमस जब केरल में खाद्य और आपूर्ति विभाग के सचिव हुआ करते थे तो उस वक्त ही मलेशिया से पॉम आयल के आयात को लेकर घपला हुआ था जिसने सुदूर दक्षिण के इस राज्य की राजनीति में भूचाल ला दिया था । उस घोटाले के छींटे थॉमस के दामन पर भी पड़े थे । तब जोर-शोर से यह मांग उठी थी कि खाद्य सचिव होने के नाते पी जे थॉमस की भूमिका की जांच की जाए लेकिन केंद्र सरकार के इजाजत नहीं मिलने से जांच नहीं हो पाई थी । पॉम ऑयल घोटाले का जिन्न एक बार तब फिर बाहर निकला था जब थॉमस को सूबे का मुख्य सचिव बनाने की बात चली थी । शुरुआत में राज्य सरकार ने थोड़ी हिचक जरूर दिखाई थी लेकिन बाद में उनको केरल का मुख्य सचिव बना दिया गया था । इस तरह के अफसर जिनपर कई तरह के आरोप लगे हों और जिनका करियर बेदाग नहीं रहा हो उनको मुख्य सतर्कता आयुक्त बनाने के लिए एक मान्य परंपरा को तोड़ने की क्या आवश्यकता थी । विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने नियुक्ति के पहले की बैठक में इन बातों को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज करवा दी थी लेकिन ना तो प्रधानमंत्री ने और ना ही गृह मंत्री ने नेता विपक्ष की राय को तवज्जो दी । सीवीसी के पैनल में दो और अपेक्षाकृत बेहतर नाम थे जिनकी उम्मीदवारी को दरकिनार कर थॉमस के नाम को स्वीकृति दी गई । सवाल यह उठता है कि सरकार थॉमस को लेकर इतना आग्रही क्यों थी । क्या यहां भी मनमोहन सिंह के सामने गठबंधन सरकार की मजबूरी थी । क्या यहां भी दूरसंचार मंत्री ए राजा या फिर उनकी पार्टी के सुप्रीमो करुणानिधि की सिफारिश थी जिसे ठुकराना मनमोहन सिंह के लिए मुश्किल था क्योंकि करुणानिधि की पार्टी के सांसदों के बल पर यूपीए-2 की बुनियाद टिकी है ।
इन सबसे इतर जो एक बड़ा सवाल है वो यह कि इस संवैधानिक संस्था में अब विपक्षी दलों का कितना विश्वास रह जाएगा । जिसके मुखिया का दामन ही दागदार हो और प्रमुख विपक्षी दल उनपर आरोपों की झड़ी लगा रहे हों उनकी जांच पर वो कैसे भरोसा करेगी । होना तो यह चाहिए था कि सरकार एक ऐसे वयक्ति को इस पद पर नियुक्त करती जिनका करियर बेदाग होता और उसकी छवि ऐसी होती जिसपर सहज किसी को भी भरोसा हो सकता था । अगर देश के मुख्य सतर्कता आयुक्त की विश्वसनीयता पर जरा भी सवाल खड़ा होता है तो वो इस संवैधानिक संस्था को ना केवल कमजोर करता है बल्कि लोगों का भरोसा भी खत्म करता है । इस मामले में यही हुआ है जिससे मनमोहन सरकार की छवि को तो धक्का लगा ही है इस संवैधानिक संस्था की साख पर भी बट्टा लगा है ।
Monday, September 13, 2010
पाठकों से छल करते कहानीकार
चंद दिनों पहले की बात है मेरी पत्नी किताबों की दुकान से चित्रा मुदगल की किताब- गेंद और अन्य कहानियां खरीद लाई । इस संग्रह के उपर दो मासूम बच्चों की तस्वीर छपी है और नीचे लिखा है बच्चों पर केंद्रित कहानियों का अनूठा संकलन । मुझे भी लगा कि पेंग्विन से चित्रा जी कहानियों का नया संग्रह आया है । लेकिन जब मैंने उसे उलटा पुलटा तो लगा कि उसमें तो चित्रा जी की पुरानी कहानियां छपी हैं । उसके बाद जब मैंने अपनी वयक्तिगत लाइब्रेरी को खंगालना शुरू किया तो पता चला कि चित्रा मुदगल के पांच कहानी संकलन मेरे पास हैं । भूख जो ज्ञानगंगा, दिल्ली से प्रकाशित हुई है, दस प्रतिनिधि कहानियां जो किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं, चर्चित कहानियां जो सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं, इसके अलावा डायमंड बुक्स से प्रकाशित संग्रह भी मेरी नजर से गुजर चुका है । और अंत में सामयिक प्रकाशन ने ही चित्रा मुदगल की संपूर्ण कहानियों का संग्रह आदि-अनादि के नाम से तीन खंडों में छापा है । इन सारे संग्रहों में घूम फिर कर वही-वही कहानियां प्रकाशित हैं । हिंदी साहित्य में यह काम सिर्फ चित्रा मुदगल ने नहीं किया है । ज्यादातर कहानीकारों ने साहित्य में ये घपला किया है । हिंदी साहित्य को लंबे समय से नजदीक से देखनेवालों का कहना है कि हिंदी में ये खेल हिमांशु जोशी ने शुरू किया । जानकारों की मानें तो इस प्रवृत्ति के प्रणेता हिमांशु जोशी ही हैं । कहनेवाले तो यहां तक कहते हैं कि जोशी जी की उतनी कहानियां नहीं हैं जितने उनके संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । कहीं से चर्चित कहानियां, कहीं से प्रतिनिधि कहानियां, कहीं से फलां तथा अन्य कहानियां, कहीं से प्रेम कहानियां, कहीं से बच्चों की कहानियां, कहीं से अमुक वयक्ति की पसंद की कहानियां । हद तो तब हो गई जब कहानीकार अपनी उम्र और सालगिरह के हिसाब से संग्रह छपवाने लगे । ऐसा नहीं है कि सिर्फ हिमांशु जोशी और चित्रा मुदगल ने ही यह काम किया है । हिंदी के कमोबेश सभी कहानीकारों ने इस तरह से पाठकों को छला है । वरिष्ठ कहानीकार गंगा प्रसाद विमल के भी कई संग्रह हैं जिनमें कहानियों का दुहराव है । चंद लोगों के नाम लेने का मकसद सिर्फ इतना है कि मेरी बातें हवाई ना लगे और वो तथ्यों पर आदारित हों ।
दरअसल इस पूरे खेल का मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना है। पैसा कमाने की इस दौड़ में हिंदी के कहानीकार यह भूल जा रहे हैं कि वो पाठकों के साथ कितना बड़ा छल कर रहे हैं । चमचमाते कवर और नए शीर्षक को देखकर कोई भी पाठक अपने महबूब लेखक- लेखिका की किताबें खरीदे लेता है । लेकिन जब वो घर आकर उसे पलटता है तो अपने को ठगा महसूस करने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं बचता है । पैसे की हानि के साथ साथ टूटता-दरकता है उसका विश्वास । वो विश्वास जो एक पाठक अपने प्रिय लेखक पर करता है । पाठकों के इसी विश्वास की बनियाद साहित्य की सबसे बड़ी ताकत है और जब उसमें ही दरार पड़ती है तो यह सीधे-सीधे साहित्य का नुकसान है जो फौरी तौर पर तो नजर नहीं आएगा लेकिन इसके दूरगामी परिणाम होंगे । जल्दी पैसे कमाने की होड़ में हिंदी का कहानीकार यह भूल जा रहा है कि अगर उसने यह प्रवृत्ति नहीं छोड़ी तो उसको पाठक मिलने बंद हो जाएंगे । अभी ही वो पाठकों की कमी का रोना रोते हैं लेकिन एक अगर एक बार पाठकों का भरोसा लेखकों से उठ गया तो क्या अंजाम होगा इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है ।
यह घपला सिर्फ इस रूप में नहीं आया है । हिंदी में कई ऐसे कहानीकार हैं जिनकी लंबी कहानी किसी पत्रिका में छपी फिर उसी लंबी कहानी को उपन्यास के रूप में प्रकाशित करवा लिया गया । वर्तमान साहित्य के कहानी महाविशेषांक में हिंदी की बेहद समादृत और वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती की लंबी कहानी ऐ लड़की प्रकाशित हुई थी । जिसे बाद में स्वतंत्र रूप से उपन्यास के रूप में छापा-छपवाया गया । इसी तरह से दूधनाथ सिंह की लंबी कहानी नमो अंधकारम भी पहले तो कहानी के रूप में प्रकाशित-प्रचारित हुई लेकिन कालांतर में वो एक उपन्यास के रूप में छपा । यही काम हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार भी कर चुके हैं जिन्होंने हंस में प्रकाशित अपनी लंबी कहानियों को डबल स्पेस में टाइप करवाकर उपन्यास बना दिया । एक ही रचना कहानी भी है और वही रचना उपन्यास भी एक ही समय पर यह कैसे संभव है लेकिन हिंदी में ऐसा धड़ल्ले से हुआ है । यह पाठकों के साथ छल नहीं तो क्या है । अपने फायदे के लिए पाठकों को ठगना कितना अनैतिक है इसका फैसला तो भविष्य में होगा ।
बाजारवाद और बाजार को पानी पी पी कर सोते जागते गरियानेवाले हिंदी के इन लेखकों से यह पूछा जाना चाहिए कि वो बाजार की ताकतों के हाथ क्यों खेल रहे हैं । क्या व्यक्तिगत फायदे के लिए बाजार की शक्तियों के आगे घुटने टेक देने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है । सारे सिद्धांत और सारे वाद क्या सिर्फ कागजों में या उनके आग उगलते भाषणों में ही नजर आएंगे या फिर सारी क्रांति पड़ोसी के घर से शुरू होंगी । हिंदी में बार-बार नैतिकता की बात उठाने वाले लेखकों-आलोचकों की इस मसले पर चुप्पी हैरान करनेवाली है । पिछले लगभग दो तीन दशक से कहानीकारों का पाठकों के साथ यह धोखा जारी है लेकिन कहीं किसी कोने से कोई आवाज नहीं उठी । किसी लेखक ने इस प्रवृत्ति पर आपत्ति नहीं उठाई । प्रगतिशीलता और साहित्यक शुचिता की बात करनेवाले वामपंथी लेखकों को भी कहानीकारों का यह छल नजर नहीं आया बल्कि वो तो खुले तौर पर इस खेल में शामिल नजर आते हैं । मार्क्सवाद को अपने कंधे पर ढोनेवाले मार्क्सवादी लेखकों-आलोचकों को यह धोखा नजर नहीं आया या नजर आने के बावजूद आंखें मूंदे बैठे रहे । लेखक संगठनों तक ने इस धोखेबाजी पर कुछ ना बोलना ही उचित समझा । उनसे कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है क्योंकि लेखक संगठन लगभग मृतप्राय हैं और जो बचे हैं वो भी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की तरह अपने नेताओं के जेबी संगठन मात्र बनकर रह गए हैं ।
कुछ कहानीकारों का यह तर्क है कि अलग-अलग प्रकाशकों से अलग-अलग नामों से कहानी संग्रह छपवाने का मूल मकसद वृहत्तर पाठक समुदाय तक पहुंचना है । अपने इस कृत्य के तर्क में कई कहानीकार यह भी कहते हैं कि एक प्रकाशन से संस्करण खत्म होने के बाद ही वो दूसरे प्रकाशक के यहां से अपनी कहानियां छपवाते हैं । लेकिन यह दोनों तर्क एक सफेद झूठ की तरह है । कई संकलन मेरे सामने रखे हैं जिनका प्रकाशन वर्ष या तो एक ही वर्ष में है या फिर अगले वर्ष । हिंदी प्रकाशन जगत को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि अभी हिंदी में यह स्थिति नहीं आई है कि किसी कहानी संग्रह का एक संस्करण छह माह में या एक साल में खत्म हो जाए । इसके पीछे चाहे संग्रह के कम खरीदार हों या फिर प्रकाशकों का घपला । जहां तक वृहत्तर पाठक समुदाय तक पहुंचने की बात है तो यह अलग-अलग नाम से अलग-अलग प्रकाशन संस्थानों से छपवाने से कैसे संभव है ,यह फॉर्मूला भी अभी सामने आना शेष है ।
अब वक्त आ गया है कि हिंदी के तमाम वरिष्ठ लेखक इस बात पर गंभीरता से विचार करें और पाठकों के साथ दशकों से हो रहे इस छल पर मिल बैठकर बात करें और उसे रोकने के लिए तुरंत कोई कदम उठाएं वर्ना हिंदी के पाठक ही इस बात का फैसला कर देंगे । पाठक अगर फैसला करेंगे तो वो दिन हिंदी के कहानीकारों के लिए बहुत बुरा दिन होगा और फिर उस फैसले पर पुनर्विचार का कोई मौका भी नहीं होगा क्योंकि जिस तरह से लोकतंत्र में वोटर का फैसला अंतिम होता है उसी तरह से साहित्य में पाठक का फैसला अंतिम और मान्य होता है ।
दरअसल इस पूरे खेल का मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना है। पैसा कमाने की इस दौड़ में हिंदी के कहानीकार यह भूल जा रहे हैं कि वो पाठकों के साथ कितना बड़ा छल कर रहे हैं । चमचमाते कवर और नए शीर्षक को देखकर कोई भी पाठक अपने महबूब लेखक- लेखिका की किताबें खरीदे लेता है । लेकिन जब वो घर आकर उसे पलटता है तो अपने को ठगा महसूस करने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं बचता है । पैसे की हानि के साथ साथ टूटता-दरकता है उसका विश्वास । वो विश्वास जो एक पाठक अपने प्रिय लेखक पर करता है । पाठकों के इसी विश्वास की बनियाद साहित्य की सबसे बड़ी ताकत है और जब उसमें ही दरार पड़ती है तो यह सीधे-सीधे साहित्य का नुकसान है जो फौरी तौर पर तो नजर नहीं आएगा लेकिन इसके दूरगामी परिणाम होंगे । जल्दी पैसे कमाने की होड़ में हिंदी का कहानीकार यह भूल जा रहा है कि अगर उसने यह प्रवृत्ति नहीं छोड़ी तो उसको पाठक मिलने बंद हो जाएंगे । अभी ही वो पाठकों की कमी का रोना रोते हैं लेकिन एक अगर एक बार पाठकों का भरोसा लेखकों से उठ गया तो क्या अंजाम होगा इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है ।
यह घपला सिर्फ इस रूप में नहीं आया है । हिंदी में कई ऐसे कहानीकार हैं जिनकी लंबी कहानी किसी पत्रिका में छपी फिर उसी लंबी कहानी को उपन्यास के रूप में प्रकाशित करवा लिया गया । वर्तमान साहित्य के कहानी महाविशेषांक में हिंदी की बेहद समादृत और वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती की लंबी कहानी ऐ लड़की प्रकाशित हुई थी । जिसे बाद में स्वतंत्र रूप से उपन्यास के रूप में छापा-छपवाया गया । इसी तरह से दूधनाथ सिंह की लंबी कहानी नमो अंधकारम भी पहले तो कहानी के रूप में प्रकाशित-प्रचारित हुई लेकिन कालांतर में वो एक उपन्यास के रूप में छपा । यही काम हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार भी कर चुके हैं जिन्होंने हंस में प्रकाशित अपनी लंबी कहानियों को डबल स्पेस में टाइप करवाकर उपन्यास बना दिया । एक ही रचना कहानी भी है और वही रचना उपन्यास भी एक ही समय पर यह कैसे संभव है लेकिन हिंदी में ऐसा धड़ल्ले से हुआ है । यह पाठकों के साथ छल नहीं तो क्या है । अपने फायदे के लिए पाठकों को ठगना कितना अनैतिक है इसका फैसला तो भविष्य में होगा ।
बाजारवाद और बाजार को पानी पी पी कर सोते जागते गरियानेवाले हिंदी के इन लेखकों से यह पूछा जाना चाहिए कि वो बाजार की ताकतों के हाथ क्यों खेल रहे हैं । क्या व्यक्तिगत फायदे के लिए बाजार की शक्तियों के आगे घुटने टेक देने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है । सारे सिद्धांत और सारे वाद क्या सिर्फ कागजों में या उनके आग उगलते भाषणों में ही नजर आएंगे या फिर सारी क्रांति पड़ोसी के घर से शुरू होंगी । हिंदी में बार-बार नैतिकता की बात उठाने वाले लेखकों-आलोचकों की इस मसले पर चुप्पी हैरान करनेवाली है । पिछले लगभग दो तीन दशक से कहानीकारों का पाठकों के साथ यह धोखा जारी है लेकिन कहीं किसी कोने से कोई आवाज नहीं उठी । किसी लेखक ने इस प्रवृत्ति पर आपत्ति नहीं उठाई । प्रगतिशीलता और साहित्यक शुचिता की बात करनेवाले वामपंथी लेखकों को भी कहानीकारों का यह छल नजर नहीं आया बल्कि वो तो खुले तौर पर इस खेल में शामिल नजर आते हैं । मार्क्सवाद को अपने कंधे पर ढोनेवाले मार्क्सवादी लेखकों-आलोचकों को यह धोखा नजर नहीं आया या नजर आने के बावजूद आंखें मूंदे बैठे रहे । लेखक संगठनों तक ने इस धोखेबाजी पर कुछ ना बोलना ही उचित समझा । उनसे कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है क्योंकि लेखक संगठन लगभग मृतप्राय हैं और जो बचे हैं वो भी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की तरह अपने नेताओं के जेबी संगठन मात्र बनकर रह गए हैं ।
कुछ कहानीकारों का यह तर्क है कि अलग-अलग प्रकाशकों से अलग-अलग नामों से कहानी संग्रह छपवाने का मूल मकसद वृहत्तर पाठक समुदाय तक पहुंचना है । अपने इस कृत्य के तर्क में कई कहानीकार यह भी कहते हैं कि एक प्रकाशन से संस्करण खत्म होने के बाद ही वो दूसरे प्रकाशक के यहां से अपनी कहानियां छपवाते हैं । लेकिन यह दोनों तर्क एक सफेद झूठ की तरह है । कई संकलन मेरे सामने रखे हैं जिनका प्रकाशन वर्ष या तो एक ही वर्ष में है या फिर अगले वर्ष । हिंदी प्रकाशन जगत को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि अभी हिंदी में यह स्थिति नहीं आई है कि किसी कहानी संग्रह का एक संस्करण छह माह में या एक साल में खत्म हो जाए । इसके पीछे चाहे संग्रह के कम खरीदार हों या फिर प्रकाशकों का घपला । जहां तक वृहत्तर पाठक समुदाय तक पहुंचने की बात है तो यह अलग-अलग नाम से अलग-अलग प्रकाशन संस्थानों से छपवाने से कैसे संभव है ,यह फॉर्मूला भी अभी सामने आना शेष है ।
अब वक्त आ गया है कि हिंदी के तमाम वरिष्ठ लेखक इस बात पर गंभीरता से विचार करें और पाठकों के साथ दशकों से हो रहे इस छल पर मिल बैठकर बात करें और उसे रोकने के लिए तुरंत कोई कदम उठाएं वर्ना हिंदी के पाठक ही इस बात का फैसला कर देंगे । पाठक अगर फैसला करेंगे तो वो दिन हिंदी के कहानीकारों के लिए बहुत बुरा दिन होगा और फिर उस फैसले पर पुनर्विचार का कोई मौका भी नहीं होगा क्योंकि जिस तरह से लोकतंत्र में वोटर का फैसला अंतिम होता है उसी तरह से साहित्य में पाठक का फैसला अंतिम और मान्य होता है ।
Thursday, September 9, 2010
स्त्री, दलित, मुसलमान- बजाते रहो
दिल्ली के साहित्यिक प्रेमियों को हर साल 28 अगस्त का इंतजार रहता है । साहित्यिकारों को तो खासतौर पर । हर साल यह दिन दिल्ली में एक उत्सव की तरह मनाया जाता है । दिल्ली के सारे साहित्यकार एक जगह इकट्ठा होते हैं, जमकर खाते पीते हैं । महानगर की इस भागदौड़ और आपाधापी की जिंदगी में कई लोग तो ऐसे भी होते हैं जो साल भर बाद इस दिन ही मिलते हैं । उत्सव सरीखे जश्न का यह मौका होता है वरिष्ठ लेखक और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव के जन्मदिन का । मैं नब्बे के दशक के शुरुआत में दिल्ली आया । शुरुआत के कुछ वर्ष छोड़ दें तो तब से लेकर तकरीबन हर साल यादव जी के जन्मदिन के जश्न का गवाह रहा हूं, एक बार तो बिन बुलाए भी पहुंच गया। कई लोगों से मैं पहली बार राजेन्द्र यादव के जन्मदिन के मौके पर ही मिला । हिंदी के वरिष्ठतम लेखकों में से एक श्रीलाल शुक्ल जी से मेरी पहली मुलाकात राजेन्द्र जी के जन्मदिन के मौके पर हुई थी । उस वर्ष राजेन्द्र जी का जन्मदिन कवि उपेन्द्र कुमार के पार्क स्ट्रीट के सरकारी बंगले पर ही मनाया गया था । श्रीलाल जी से मुलाकात और साहित्यकार के अलावा उनके सतरंगे वयक्तित्व से परचित होना मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य की तरह था । यादव जी के जन्मदिन के मौके पर ही मैंने प्रभाष जोशी को उनका पांव छूते देखा । खैर ये अवांतर प्रसंग हैं जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी ।
इस बार अपने जन्मदिन से कुछ रोज पहले राजेन्द्र जी की तबियत इतनी बिगड़ गई थी कि उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा था । पता चला था कि शरीर में सुगर की कमी हो गई । अस्पताल से भरपूर मिठास लेकर यादव जी घर लौटे थे । मेरी इस दौरान लगातार बात होती रही , मैं लगातार पूछता रहा कि इस बार जन्मदिन का जश्न कहां हो रहा है । लेकिन यादव जी टालते रहे । फिर एक दिन फोन किया और जश्न-ए-जन्मदिन के बारे में दरियाफ्त की तो पता चला कि वो तो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानि एम्स में भर्ती हैं । जब और हालचाल जानने की कोशिश में बात आगे बढ़ी तो राजेन्द्र जी ने बताया कि वो कुछ टेस्ट के लिए भर्ती हुए हैं, चिंता की बात नहीं है । बातचीत करने के बाद लगा कि शायद इस बार यादव जी का जन्मदिन ना मनाया जाए । लेकिन सत्ताइस अगस्त की शाम को लेखक अजय नावरिया का एक संदेश प्राप्त हुआ- राजेन्द्र यादव जी अपनी जिंदगी के बयासीवें साल में प्रवेश कर रहे हैं , इस मौके पर प्रेस क्लब में होने वाले आयोजन में आप आमंत्रित हैं । संदेश के बाद अजय नावरिया ने फोन भी किया । पता चला कि आयोजकों ने यह तय किया है कि इस बार यादव जी का जन्मदिन बेहद करीबी लोगों के साथ मनाया जाए । अजय नावरिया को उनकी इस मुहिम में साथ मिला उत्साह और उर्जा से लबरेज पत्रकार गीताश्री का । नियत समय पर हमलोग दिल्ली के रायसीना रोड स्थित प्रेस क्लब में इकट्ठा हुए । तीस चालीस आमंत्रित लोगों के साथ राजेन्द्र जी ने केक काटा । सबने हैप्पी बर्थ डे टू यू गाया, तालियां बजीं । लेकिन सबसे दिलचस्प रहा राजेन्द्र जी के दोस्त डाक्टर सक्सेना का गिफ्ट । सक्सेना जी ने यादव जी को एक ढोल दिया, जिसके एक ओर चिपका था- दलित, दूसरी ओर मुसलमान और तीसरी ओर स्त्री । संदेश यह था कि राजेन्द्र जी साहित्य में दलित, मुसलमान और स्त्रियों की समस्याओं का ढोल पीटते हैं तो अब उनके गले में असल की ही ढोल डाल दी जाए । डॉक्टर सक्सेना इसके पहले भी राजेन्द्र जी को बेहद अजूबे गिफ्ट देते रहे हैं । इसके पहले उन्होंने एक ऐसा मुखौटा भेंट किया था जिसमें दस सिर लगे थे यानि एक लेखक का दस चेहरा । उसके पहले हुक्का भेंटकर सबकों चौंका चुके थे । जिस तरह से सबको यादव जी के जन्मदिन का इंतजार रहता है उसी तरह हर किसी की यह जानने में भी दिलचस्पी रहती है कि डॉक्टर सक्सेना इस बार क्या भेंट लेकर आनेवाले हैं ।
बेहद आत्मीयता से फिर खाने-पीने का दौर शुरू हुआ । गीताश्री एक बेहतरीन होस्ट की तरह सबके खाने-पीने का ध्यान रख रही थी । जैसे ही उन्हें ये जानकारी मिलती कि कोई बगैर खाए जाने की बात कर रहा है किसी को उसके पीछे लगा देती और तबतक निश्चिंत होकर नहीं बैठती थी जबतक कि वो खाना खा नहीं लेता । इस आयोजन में निर्मला जैन, भारत भारद्वाज, असगर वजाहत, पंकज विष्ठ. साधना अग्रवाल के अलावा वरिष्ठ पत्रकार शाजी जमां, आशुतोष, अजीत अंजुम, परवेज अहमद और श्रीनंद झा भी मौजूद थे । अशोक वाजपेयी थोड़ी देर से जरूर पहुंचे लेकिन अंत तक डटे रहे । यहां भी अशोक जी के साथ एक मजेदार वाकया हुआ । अशोक जी राजेन्द्र जी, मिर्मला जैन के साथ बैठे बातें कर रहे थे । अचानक डॉक्टर सक्सेना अशोक जी के पास पहुंचे और कहा- अशोक जी जनसत्ता का आपका कॉलम बहुत अच्छा रहता है । आपकी भाषा बेहद शानदार है । यहां तक तो अशोक जी के चहरे पर वही भाव थे जो अपनी प्रशंसा सुनकर किसी भी वयक्ति के चहरे पर हो सकती है । लेकिन इसके बाद डॉक्टर सक्सेना ने जो कहा उससे अशोक जी के चेहरे की चमक गायब हो गई । डॉक्टर सक्सेना ने उनकी भाषा की प्रशंसा करते करते यह कह डाला कि आपकी भाषा में वही रवानगी और ताजगी है जो किसी जमाने में शिवानी के लेखन में महसूस की जा सकती थी । यह अगर सक्सेना जी का व्यंग्य था तो बेहद शानदार था और अगर अनजाने में गंभीरता पूर्वक यब बात कही गई थी तो अशोक जी कभी कभार में इसकी खबर जरूर लेंगे ।
सभी लोग यादव जी से मजे ले रहे थे और उन्हें बयासी साल का होने पर बधाई दे रहे थे । राजेन्द्र जी भी इस बेहद आत्मीय आयोजन से प्रसन्न दिख रहे थे । अपने साथी लेखकों से चुटकी भी ले रहे थे । यादव जी की जो एक खूबी है वो यह है कि उनके साथ रहकर साहित्यिक, गैर साहित्यिक, बच्चा, बूढ़ा, जवान कोई भी बोर नहीं हो सकता। यादव जी जैसे बयासी साल के जवान का जन्मदिन और गीताश्री जैसी जिंदादिल होस्ट ने राजेन्द्र जी के जश्न-ए-सालगिरह को एक यादगार लम्हा बना दिया था । अंत में मैं इतना ही कह सकता हूं कि – तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार ।
इस बार अपने जन्मदिन से कुछ रोज पहले राजेन्द्र जी की तबियत इतनी बिगड़ गई थी कि उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा था । पता चला था कि शरीर में सुगर की कमी हो गई । अस्पताल से भरपूर मिठास लेकर यादव जी घर लौटे थे । मेरी इस दौरान लगातार बात होती रही , मैं लगातार पूछता रहा कि इस बार जन्मदिन का जश्न कहां हो रहा है । लेकिन यादव जी टालते रहे । फिर एक दिन फोन किया और जश्न-ए-जन्मदिन के बारे में दरियाफ्त की तो पता चला कि वो तो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानि एम्स में भर्ती हैं । जब और हालचाल जानने की कोशिश में बात आगे बढ़ी तो राजेन्द्र जी ने बताया कि वो कुछ टेस्ट के लिए भर्ती हुए हैं, चिंता की बात नहीं है । बातचीत करने के बाद लगा कि शायद इस बार यादव जी का जन्मदिन ना मनाया जाए । लेकिन सत्ताइस अगस्त की शाम को लेखक अजय नावरिया का एक संदेश प्राप्त हुआ- राजेन्द्र यादव जी अपनी जिंदगी के बयासीवें साल में प्रवेश कर रहे हैं , इस मौके पर प्रेस क्लब में होने वाले आयोजन में आप आमंत्रित हैं । संदेश के बाद अजय नावरिया ने फोन भी किया । पता चला कि आयोजकों ने यह तय किया है कि इस बार यादव जी का जन्मदिन बेहद करीबी लोगों के साथ मनाया जाए । अजय नावरिया को उनकी इस मुहिम में साथ मिला उत्साह और उर्जा से लबरेज पत्रकार गीताश्री का । नियत समय पर हमलोग दिल्ली के रायसीना रोड स्थित प्रेस क्लब में इकट्ठा हुए । तीस चालीस आमंत्रित लोगों के साथ राजेन्द्र जी ने केक काटा । सबने हैप्पी बर्थ डे टू यू गाया, तालियां बजीं । लेकिन सबसे दिलचस्प रहा राजेन्द्र जी के दोस्त डाक्टर सक्सेना का गिफ्ट । सक्सेना जी ने यादव जी को एक ढोल दिया, जिसके एक ओर चिपका था- दलित, दूसरी ओर मुसलमान और तीसरी ओर स्त्री । संदेश यह था कि राजेन्द्र जी साहित्य में दलित, मुसलमान और स्त्रियों की समस्याओं का ढोल पीटते हैं तो अब उनके गले में असल की ही ढोल डाल दी जाए । डॉक्टर सक्सेना इसके पहले भी राजेन्द्र जी को बेहद अजूबे गिफ्ट देते रहे हैं । इसके पहले उन्होंने एक ऐसा मुखौटा भेंट किया था जिसमें दस सिर लगे थे यानि एक लेखक का दस चेहरा । उसके पहले हुक्का भेंटकर सबकों चौंका चुके थे । जिस तरह से सबको यादव जी के जन्मदिन का इंतजार रहता है उसी तरह हर किसी की यह जानने में भी दिलचस्पी रहती है कि डॉक्टर सक्सेना इस बार क्या भेंट लेकर आनेवाले हैं ।
बेहद आत्मीयता से फिर खाने-पीने का दौर शुरू हुआ । गीताश्री एक बेहतरीन होस्ट की तरह सबके खाने-पीने का ध्यान रख रही थी । जैसे ही उन्हें ये जानकारी मिलती कि कोई बगैर खाए जाने की बात कर रहा है किसी को उसके पीछे लगा देती और तबतक निश्चिंत होकर नहीं बैठती थी जबतक कि वो खाना खा नहीं लेता । इस आयोजन में निर्मला जैन, भारत भारद्वाज, असगर वजाहत, पंकज विष्ठ. साधना अग्रवाल के अलावा वरिष्ठ पत्रकार शाजी जमां, आशुतोष, अजीत अंजुम, परवेज अहमद और श्रीनंद झा भी मौजूद थे । अशोक वाजपेयी थोड़ी देर से जरूर पहुंचे लेकिन अंत तक डटे रहे । यहां भी अशोक जी के साथ एक मजेदार वाकया हुआ । अशोक जी राजेन्द्र जी, मिर्मला जैन के साथ बैठे बातें कर रहे थे । अचानक डॉक्टर सक्सेना अशोक जी के पास पहुंचे और कहा- अशोक जी जनसत्ता का आपका कॉलम बहुत अच्छा रहता है । आपकी भाषा बेहद शानदार है । यहां तक तो अशोक जी के चहरे पर वही भाव थे जो अपनी प्रशंसा सुनकर किसी भी वयक्ति के चहरे पर हो सकती है । लेकिन इसके बाद डॉक्टर सक्सेना ने जो कहा उससे अशोक जी के चेहरे की चमक गायब हो गई । डॉक्टर सक्सेना ने उनकी भाषा की प्रशंसा करते करते यह कह डाला कि आपकी भाषा में वही रवानगी और ताजगी है जो किसी जमाने में शिवानी के लेखन में महसूस की जा सकती थी । यह अगर सक्सेना जी का व्यंग्य था तो बेहद शानदार था और अगर अनजाने में गंभीरता पूर्वक यब बात कही गई थी तो अशोक जी कभी कभार में इसकी खबर जरूर लेंगे ।
सभी लोग यादव जी से मजे ले रहे थे और उन्हें बयासी साल का होने पर बधाई दे रहे थे । राजेन्द्र जी भी इस बेहद आत्मीय आयोजन से प्रसन्न दिख रहे थे । अपने साथी लेखकों से चुटकी भी ले रहे थे । यादव जी की जो एक खूबी है वो यह है कि उनके साथ रहकर साहित्यिक, गैर साहित्यिक, बच्चा, बूढ़ा, जवान कोई भी बोर नहीं हो सकता। यादव जी जैसे बयासी साल के जवान का जन्मदिन और गीताश्री जैसी जिंदादिल होस्ट ने राजेन्द्र जी के जश्न-ए-सालगिरह को एक यादगार लम्हा बना दिया था । अंत में मैं इतना ही कह सकता हूं कि – तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार ।
Saturday, September 4, 2010
हिंदी साहित्य में लालूवाद
अभी इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कौड़ा पर अरबों रुपये के घोटाले के आरोप लगे । मधु कौड़ा से जुड़ी खबरें हर रोज मीडिया में सुर्खियां बनती रही । उसके कई सहयोगियों के नाम भी सामने आने लगे । मधु कौड़ा और उनके सहयोगियों के बारे में तफ्तीश शुरू हुई । इस बीच अचानक से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व रेल मंत्री लालू यादव ने एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर यह सफाई दी कि उनका मधु कौड़ा से कोई लेना देना नहीं है । लालू की इस सफाई से लोगों को हैरानी भी हुई । कई पत्रकारों ने प्रेस कांफ्रेंस में उनसे सवाल भी पूछा कि वो क्यों सफाई दे रहे हैं,जबकि उनका नाम कहीं से मधु कौड़ा के घोटाले में शामिल नहीं है । लालू यादव ने अपने ही अंदाज में बात को हवा में उड़ा दिया और कहा कि उन्हें अपने स्त्रोंतो से पता चला कि लोग उनपर शक कर रहे हैं सो उन्होंने मुनासिब समझा कि सफाई दी जाए । ठीक इसी तरह का वाकया अब हिंदी साहित्य में सामने आया है । विभूति-कालिया प्रकरण में जब विवाद ठंड़ा पड़ने लगा तो अचानक से पिछले हफ्ते हिंदी के वरिष्ठ कवि और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता के अपने कॉलम कभी-कभार में लालू यादव के तर्ज पर इस विवाद को पर्दे के पीछे से हवा देने के आरोपों पर अपनी सफाई दी । अशोक वाजपेयी ने लिखा- इस बीच एक और अफवाह फैलाई गई । कुंवर नारायण और मैं इस प्रसंग में ज्ञानपीठ की अध्यक्ष इंदु जैन से मिले हैं । अव्वल तो इस प्रसंग को लेकर कुंवर जी से मेरी बात तक नहीं हुई । दूसरे इंदू जैन से कोई बीस बरस पहले नाश्ते पर एक सौजन्य भेंट हुई थी जब मुझे नवभारत टाइम्स के संपादक का पद ऑफर किया गया था । उसके बाद उनसे कभी नहीं मिला । तीसरे जो कुछ मैं इस विवाद में चाहता हूं उसे खुलकर बता चुका हूं – गुप कोई काम करना मेरी आदत में शामिल नहीं है । पर इस झूठ को सरासर फैलाने का काम शुरू किया गया । इस प्रकरण में अशोक जी ने के विक्रम सिंह से लेकर विजय मोहन सिंह और केदार नाथ सिंह का नाम भी लिया । लेकिन सवाल यह उठता है कि अशोक जी को सफाई देने की जरूरत क्यों पड़ी । ऐसी कौन सी अफवाह फैलाई जा रही थी कि अशोक जी जैसे गंभीर लेखक को अपने लोकप्रिय साप्ताहिक स्तंभ में सफाई देने की जरूरत पड़ी ।
दूसरी बात जो अशोक वाजपेयी ने अपने स्तंभ में उठाई वो नैतिकता और लेखकों के अपमान की । अशोक वाजपेयी के मुंह से नैतिकता की बात भी उसी तरह लगती है जैसे कि लालू यादव के मुंह से । साहित्य जगत उन्नीस सौ चौरासी के अशोक वाजपेयी के बयान को भूला नहीं है । भोपाल गैस त्रासदी के आसपास ही अशोक वाजपेयी ने एशिया पोएट्री का आयोजन किया था । तब वो मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के चहेते अफसर और भारत भवन के कर्ता-धर्ता थे । जब भोपाल गैस त्रासदी में हजारों लोगों की जान गई तो उसी शहर में कविता पर उक्त आयोजन पर सवाल खड़े होने लगे थे। तब अशोक वाजपेयी ने बयान दिया था कि मरनेवालों के साथ कोई मर नहीं जाता । अशोक वाजपेयी का वह बयान बेहद अमानवीय और मनुष्यता के खिलाफ था और एक लेखक और वयक्ति की संवेदनहीनता का सबसे बड़ा नमूना।
साहित्य में स्वतंत्रता और जनपक्षधरता की बात करनेवाले अशोक वाजपेयी मूलत: नौकरशाह हैं और भारत में अफसरशाही की कंडीशनिंग इस तरकह से होती है कि वहां ना तो संवेदना के लिए कोई जगह होती है और ना ही नैतिकता के लिए । आप खुद इस बात का अंदाजा लगाइये कि जिस शहर में तकरीबन पच्चीस हजार लोग काल के गाल में समा गए हों उसी शहर के अफसर अशोक वाजपेयी का उक्त बयान कितना संवेदनहीन है । उस एक बयान के लिए ही अशोक वाजपेयी को माफ नहीं किया जा सकता है । आज अशोक वाजपेयी नैतिकता की दुहाई देते हैं लेकिन तब उनकी नैतिकता कहां चली गई थी जब संस्कृति मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार हथिया लिया था । गौरतलब है कि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है लेकिन वो संबद्ध तो संस्कृति मंत्रालय से ही है । नैतिकता का उपदेश देने के पहले अशोक जी को खुद के गिरेबां में झांक कर देख लेना चाहिए । यहां भी वो लालू यादव के पद चिन्हों पर ही चलते नजर आ रहे हैं । घोटालों के आरोप से घिरे लालू यादव भी गाहे बगाहे नैतिकता और राजनैतिक शुचिता की बात करते हैं ।
अशोक वाजपेयी ने लिखा है कि हिंदी लेखक समाज अपने सदस्यों के अपमान करनेवालों को सुख चैन से अपनी कुर्सी पर बैठने नहीं देगा । जो निर्लज्ज फिर भी उंची कुर्सी पर जमे हैं वे खुद जानते हैं कि उनका कद कितना नीचा हो गया है । आज अशोक वाजपेयी को हिंदी साहित्य समाज के अपमान की याद आ रही है लेकिन वो खुद हिंदी के लेखकों का कितनी बार अपमान कर चुके हैं , कितनी बार उसका मजाक उड़ा चुके हैं यह उनको याद दिलाने की जरूरत है । अशोक वाजपेयी जब साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद का चुनाव हारे थे तब हिंदी के लेखकों के खिलाफ विषवमन किया था । अपनी हार से तिलमिलाए अशोक वाजपेयी ने कहा था कि – जिन हिंदी के लेखकों को महीनों-महीने रखा, खिलाया पिलाया, हवाई जहाज से यात्राएं करवाई उन्होंने ही मुझे धोखा दिया । उनके निशाने पर हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक और एक कवि थे । आज वही अशोक वाजपेयी हिंदी के लेखकों के अपमान करनेवालों के निर्लज्ज कह रहे हैं । क्या यही भाषा एक वरिष्ठ लेखक को इस्तेमाल करनी चाहिए । क्या लिखते लिखते अशोक वाजपेययी मर्यादा भूल जाते हैं या फिर व्यक्तिगत खुन्नस लेखक पर हावी हो जा रहा है । जिनको वो निर्लज्ज कह रहे हैं उनका कद साहित्य में अशोक वाजपेयी से कई गुना बड़ा है, उम्र में तो उनसे बड़े हैं ही ।
अपने उसी स्तंभ में अशोक वाजपेयी साहित्य के परिसर को मूल्यों का परिसर बताते हुए विभूति नारायण राय और रविन्द्र कालिया पर वार करते हैं । अभी इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब अशोक वाजपेयी महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति थे । तब उनपर एक बड़े परिसर में मूल्यों के दायित्व का निर्माण करने की महती जिम्मेदारी थी लेकिन उस वक्त भी वहां क्या-क्या गुल खिले थे वो किसी से छिपे नहीं हैं इस विषय पर कभी विस्तार से चर्चा होगी । अशोक जी हिंदी के मूर्धन्य रचनाकार हैं, किसी भी विवाद पर पूरा हिंदी जगत उनसे बगैर किसी पूर्वग्रह के हस्तक्षेप की उम्मीद करता है । लेकिन इस पूरे विवाद में अशोक जी पूर्वग्रहों से उपर नहीं उठ सके ।
दूसरी बात जो अशोक वाजपेयी ने अपने स्तंभ में उठाई वो नैतिकता और लेखकों के अपमान की । अशोक वाजपेयी के मुंह से नैतिकता की बात भी उसी तरह लगती है जैसे कि लालू यादव के मुंह से । साहित्य जगत उन्नीस सौ चौरासी के अशोक वाजपेयी के बयान को भूला नहीं है । भोपाल गैस त्रासदी के आसपास ही अशोक वाजपेयी ने एशिया पोएट्री का आयोजन किया था । तब वो मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के चहेते अफसर और भारत भवन के कर्ता-धर्ता थे । जब भोपाल गैस त्रासदी में हजारों लोगों की जान गई तो उसी शहर में कविता पर उक्त आयोजन पर सवाल खड़े होने लगे थे। तब अशोक वाजपेयी ने बयान दिया था कि मरनेवालों के साथ कोई मर नहीं जाता । अशोक वाजपेयी का वह बयान बेहद अमानवीय और मनुष्यता के खिलाफ था और एक लेखक और वयक्ति की संवेदनहीनता का सबसे बड़ा नमूना।
साहित्य में स्वतंत्रता और जनपक्षधरता की बात करनेवाले अशोक वाजपेयी मूलत: नौकरशाह हैं और भारत में अफसरशाही की कंडीशनिंग इस तरकह से होती है कि वहां ना तो संवेदना के लिए कोई जगह होती है और ना ही नैतिकता के लिए । आप खुद इस बात का अंदाजा लगाइये कि जिस शहर में तकरीबन पच्चीस हजार लोग काल के गाल में समा गए हों उसी शहर के अफसर अशोक वाजपेयी का उक्त बयान कितना संवेदनहीन है । उस एक बयान के लिए ही अशोक वाजपेयी को माफ नहीं किया जा सकता है । आज अशोक वाजपेयी नैतिकता की दुहाई देते हैं लेकिन तब उनकी नैतिकता कहां चली गई थी जब संस्कृति मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार हथिया लिया था । गौरतलब है कि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है लेकिन वो संबद्ध तो संस्कृति मंत्रालय से ही है । नैतिकता का उपदेश देने के पहले अशोक जी को खुद के गिरेबां में झांक कर देख लेना चाहिए । यहां भी वो लालू यादव के पद चिन्हों पर ही चलते नजर आ रहे हैं । घोटालों के आरोप से घिरे लालू यादव भी गाहे बगाहे नैतिकता और राजनैतिक शुचिता की बात करते हैं ।
अशोक वाजपेयी ने लिखा है कि हिंदी लेखक समाज अपने सदस्यों के अपमान करनेवालों को सुख चैन से अपनी कुर्सी पर बैठने नहीं देगा । जो निर्लज्ज फिर भी उंची कुर्सी पर जमे हैं वे खुद जानते हैं कि उनका कद कितना नीचा हो गया है । आज अशोक वाजपेयी को हिंदी साहित्य समाज के अपमान की याद आ रही है लेकिन वो खुद हिंदी के लेखकों का कितनी बार अपमान कर चुके हैं , कितनी बार उसका मजाक उड़ा चुके हैं यह उनको याद दिलाने की जरूरत है । अशोक वाजपेयी जब साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद का चुनाव हारे थे तब हिंदी के लेखकों के खिलाफ विषवमन किया था । अपनी हार से तिलमिलाए अशोक वाजपेयी ने कहा था कि – जिन हिंदी के लेखकों को महीनों-महीने रखा, खिलाया पिलाया, हवाई जहाज से यात्राएं करवाई उन्होंने ही मुझे धोखा दिया । उनके निशाने पर हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक और एक कवि थे । आज वही अशोक वाजपेयी हिंदी के लेखकों के अपमान करनेवालों के निर्लज्ज कह रहे हैं । क्या यही भाषा एक वरिष्ठ लेखक को इस्तेमाल करनी चाहिए । क्या लिखते लिखते अशोक वाजपेययी मर्यादा भूल जाते हैं या फिर व्यक्तिगत खुन्नस लेखक पर हावी हो जा रहा है । जिनको वो निर्लज्ज कह रहे हैं उनका कद साहित्य में अशोक वाजपेयी से कई गुना बड़ा है, उम्र में तो उनसे बड़े हैं ही ।
अपने उसी स्तंभ में अशोक वाजपेयी साहित्य के परिसर को मूल्यों का परिसर बताते हुए विभूति नारायण राय और रविन्द्र कालिया पर वार करते हैं । अभी इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब अशोक वाजपेयी महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति थे । तब उनपर एक बड़े परिसर में मूल्यों के दायित्व का निर्माण करने की महती जिम्मेदारी थी लेकिन उस वक्त भी वहां क्या-क्या गुल खिले थे वो किसी से छिपे नहीं हैं इस विषय पर कभी विस्तार से चर्चा होगी । अशोक जी हिंदी के मूर्धन्य रचनाकार हैं, किसी भी विवाद पर पूरा हिंदी जगत उनसे बगैर किसी पूर्वग्रह के हस्तक्षेप की उम्मीद करता है । लेकिन इस पूरे विवाद में अशोक जी पूर्वग्रहों से उपर नहीं उठ सके ।
Subscribe to:
Posts (Atom)