Translate

Thursday, September 23, 2010

संवैधानिक संस्था की साख पर बट्टा

एक बार फिर देश में एक संवैधानिक पद पर हुई नियुक्ति विवादों के घेरे में आ गई है । मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर भारत सरकार के दूरसंचार सचिव की नियुक्ति लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज के विरोध को दरकिनार करते हुए कर दी गई । मुख्य सतर्कता आयुक्त का चुनाव प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कमिटी करती है जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा गृह मंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता होते हैं । अब तक परंपरा यह रही है कि आम सहमति के आधार पर ही मुख्य सतर्कता आयुक्त का चयन होता है लेकिन इस बार लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की आपत्तियों को धता बताते हुए दूरसंचार सचिव पी जे थॉमस के नाम पर मुहर लगा दी गई । आम सहमति की परंपरा इसलिए बनाई गई थी ताकि इस संवैधानिक संस्था में शासक दल और विपक्षी दल दोनों का विश्वास बना रहे । उसकी जांच पर किसी तरह का सवाल ना उठे और विपक्षी दल भी सीवीसी की जांच पर पक्षपात का आरोप ना लगा सकें, इसलिए जब इस संस्था का गठन किया गया था तो यह तय किया गया था कि सीवीसी के चयन में नेता प्रतिपक्ष की राय को अहमियत दी जाएगी । लेकिन यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रधानमंत्री की मौजूदगी वाली इस समिति ने मान्य परंपरा का ध्यान नहीं रखा ।
पी जे थॉमस के मुख्य सतर्कता आयुक्त बनने के बाद यह सवाल सुरसा की तरह मंह बाए खड़ा हो गया है टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन के घोटाले की जांच वो वयक्ति कैसे कर सकता है जो इस पद पर आने के पहले खुद दूरसंचार सचिव रहा हो । यह भी तथ्य है कि टू जी स्पेक्ट्रम का आवंटन थॉमस के मंत्रालय में आने के पहले हो चुका था लेकिन साथ ही दूसरा तथ्य यह भी है कि बीते अगस्त में जब जब पी जे थॉमस दूरसंचार सचिव थे तो उस वक्त मंत्रालय ने एक नोट तैयार किया था जिसमें यह कहा गया था कि स्पेक्ट्रम आवंटन नीतिगत मामला है और इसमें जिसमें सीवीसी या सीएजी की जांच की कोई भूमिका बनती नहीं है । इस नोट के अलावा भी दूरसंचार मंत्रालय के सचिव होने के नाते थॉमस कई बार इस तरह के किसी घोटाले से इंकार करते हुए बेहद मजबूती से अपने मंत्रालय का बचाव भी करते रहे हैं । अब जब वही पी जे थॉमस देश के मुख्य सतर्कता आयुक्त बन गए हैं तो क्या यह मान लिया जाए कि टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की जांच सीवीसी नहीं करेगी और आवंटन का सच हमेशा के लिए दफन हो जाएगा ।
दूसरी अहम बात जिसको लेकर पी जी थॉमस की नियुक्ति पर विवाद है वो है उनका दागदार दामन । उन्नीस सौ तिहत्तर बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर थॉमस का करियर कई बार विवादों में रहा है । थॉमस जब केरल में खाद्य और आपूर्ति विभाग के सचिव हुआ करते थे तो उस वक्त ही मलेशिया से पॉम आयल के आयात को लेकर घपला हुआ था जिसने सुदूर दक्षिण के इस राज्य की राजनीति में भूचाल ला दिया था । उस घोटाले के छींटे थॉमस के दामन पर भी पड़े थे । तब जोर-शोर से यह मांग उठी थी कि खाद्य सचिव होने के नाते पी जे थॉमस की भूमिका की जांच की जाए लेकिन केंद्र सरकार के इजाजत नहीं मिलने से जांच नहीं हो पाई थी । पॉम ऑयल घोटाले का जिन्न एक बार तब फिर बाहर निकला था जब थॉमस को सूबे का मुख्य सचिव बनाने की बात चली थी । शुरुआत में राज्य सरकार ने थोड़ी हिचक जरूर दिखाई थी लेकिन बाद में उनको केरल का मुख्य सचिव बना दिया गया था । इस तरह के अफसर जिनपर कई तरह के आरोप लगे हों और जिनका करियर बेदाग नहीं रहा हो उनको मुख्य सतर्कता आयुक्त बनाने के लिए एक मान्य परंपरा को तोड़ने की क्या आवश्यकता थी । विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने नियुक्ति के पहले की बैठक में इन बातों को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज करवा दी थी लेकिन ना तो प्रधानमंत्री ने और ना ही गृह मंत्री ने नेता विपक्ष की राय को तवज्जो दी । सीवीसी के पैनल में दो और अपेक्षाकृत बेहतर नाम थे जिनकी उम्मीदवारी को दरकिनार कर थॉमस के नाम को स्वीकृति दी गई । सवाल यह उठता है कि सरकार थॉमस को लेकर इतना आग्रही क्यों थी । क्या यहां भी मनमोहन सिंह के सामने गठबंधन सरकार की मजबूरी थी । क्या यहां भी दूरसंचार मंत्री ए राजा या फिर उनकी पार्टी के सुप्रीमो करुणानिधि की सिफारिश थी जिसे ठुकराना मनमोहन सिंह के लिए मुश्किल था क्योंकि करुणानिधि की पार्टी के सांसदों के बल पर यूपीए-2 की बुनियाद टिकी है ।
इन सबसे इतर जो एक बड़ा सवाल है वो यह कि इस संवैधानिक संस्था में अब विपक्षी दलों का कितना विश्वास रह जाएगा । जिसके मुखिया का दामन ही दागदार हो और प्रमुख विपक्षी दल उनपर आरोपों की झड़ी लगा रहे हों उनकी जांच पर वो कैसे भरोसा करेगी । होना तो यह चाहिए था कि सरकार एक ऐसे वयक्ति को इस पद पर नियुक्त करती जिनका करियर बेदाग होता और उसकी छवि ऐसी होती जिसपर सहज किसी को भी भरोसा हो सकता था । अगर देश के मुख्य सतर्कता आयुक्त की विश्वसनीयता पर जरा भी सवाल खड़ा होता है तो वो इस संवैधानिक संस्था को ना केवल कमजोर करता है बल्कि लोगों का भरोसा भी खत्म करता है । इस मामले में यही हुआ है जिससे मनमोहन सरकार की छवि को तो धक्का लगा ही है इस संवैधानिक संस्था की साख पर भी बट्टा लगा है ।

No comments: