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Monday, September 27, 2010

बाजार को भुनाने की चाहत

पिछले लगभग एक दशक के प्रकाशनों पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि कई वरिष्ठ पत्रकारों/संपादकों की मीडिया और उससे जुड़ें विषयों पर किताबें प्रकाशित हुई हैं । इन पुस्तकों में जो समानता दिखाई देती है वो यह है कि पत्रकारों, संपदकों ने पूर्व में लिखे लेखों को संयोजित कर एक थीम, आकर्षक शीर्षक और चर्चित समकालीन वरिष्ठ पत्रकार की गंभीर भूमिका के साथ पुस्तकाकार छपवाया है । मेरे जानते इसकी शुरुआत उदयन शर्मा के लेखों के संग्रह के प्रकाशित होने के साथ हुई थी । उसके बाद आलोक मेहता और मधुसूदन आनंद के प्रयासों राजेन्द्र माथुर के लेखों का संग्रह सपनों में बनता देश छपा था। ये दोनों प्रयास अपने वरिष्ठों के निधन के बाद उनके लेखन से अगली पीढ़ी को परिचित करवाने की एक ईमानदार कोशिश थी । लेकिन बाद में कई वरिष्ठ पत्रकारों के लेखों के संग्रह प्रकाशित होने शुरी हुए । दो हजार तीन में प्रभाष जोशी के लेखों का संग्रह हिंदू होने का धर्म छपा, जिसमें उन्होंने लगभग पचास पन्नों की लंबी भूमिका लिखी । लगभग उसी वक्त अरविंद मोहन की किताब मीडिया की खबर प्रकाशित हुई थी । दो हजार आठ में एक बार फिर से प्रभाष जोशी के अखबारी लेखों के चार संकलन एक साथ प्रकाशित हुए । सिर्फ प्रभाष जोशी या अरविंद मोहन ही इस सूची में नहीं है । कई वरिष्ठ लेखकों ने इस तरह की किताबें छपवाई हैं । जब ये किताबें छप कर बाजार में आ रही थी तो वो दौर मीडिया के विस्तार का दौर था और अखबारों और न्यूज चैनलों के विस्तार की वजह से पत्रकारिता पढ़ाने के संस्थान धड़ाधड़ खुल रहे थे, जिसमें पढ़नेवाले छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा थी । यह महज एक संयोग था या फिर बाजार को ध्यान में रखकर ऐसा हो रहा था इसका निर्णय होना अभी शेष है । लेकिन जिस तरह से पूर्व प्रकाशित अखबारी लेखों का संकलन पत्रकारिता को ध्यान में रखकर किया गया या जा रहा है उससे यह तो साफ प्रतीत होता ही है कि यह बाजार को भुनाने की या फिर बाजार से अपना हिस्सा लेने की कोशिश है ।
अब इस कड़ी में प्रिंट और टीवी में काम कर चुके पत्रकार प्रभात शुंगलू की किताब - यहां मुखौटे बिकते हैं प्रकाशित हुई है । इस किताब का ब्लर्ब राजदीप सरदेसाई ने लिखा है । राजदीप के मुताबिक प्रभात अलग अलग विषयों पर लिखते हैं । चाहे वो धारा 377 हो या फिर एमएफ हुसैन लेकिन इन सबके बीच प्रभात के लेखन में एक बात समान है - वह है भारत के संविधान में मौजूद उदारवादी मूल्यों में उनकी अटल प्रतिबद्धता । राजदीप के अलावा प्रभात ने अपने पत्रकार बनने और टीवी में आने के बाद फिर से लिखना शुरू करने की दिलचस्प दास्तां लिखी है । प्रभात के लेखन में अंग्रेजी के शब्द बहुतायत में आते हैं और लेखक के मुताबिक वो आम बोलचाल की भाषा है । इसके लिए उनके अपने तर्क भी हैं और तथ्य भी । पर मेरा मानना है कि दूसरी भाषा के शब्दों से परहेज ना करें लेकिन अगर आप हिंदी में लिख रहे हैं और वहां दूसरी भाषा से बेहतर और आसान शब्द मौजूद हैं तो फिर आम बोलचाल के नाम पर दुराग्रह उचित नहीं है । लेकिन प्रबात के लेखों में यह चीज एक जिद की तरह आती है गोया वो कोई नया प्रयोग कर रहे हैं या कोई नई भाषा गढ़ रहे हैं ।
इस किताब में तीन अलग अलग खंड हैं- सियासत, शख्सियत और समाज । इन तीन खानों में प्रभात ने अपने लेखों का बांटा है । प्रभात की एक खासियत है कि वो गंभीर विषयों पर भी व्यंग्यात्मक शैली में अपनी कलम चलाते हैं । चाहे वो कौन बनेगा वीक प्रधानमंत्री हो या फिर यहां मुखौटे बिकते हैं या फिर पांडु ब्रदर्स एंड सन्स हो या फिर हुसैन,तुम माफी मत मांगना हर जगह एक तंज नजर आता है जिसे प्रभात की शैली के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है । कौन बनेगा वीक प्रधानमंत्री में आडवाणी पर तंज कसते हुए प्रभात कहते हैं- एक पल के लिए अगर मान भी लें कि आप प्रधानमंत्री बन भी जाते हैं तो क्या आज शपथ लेकर कह पाएंगे कि सत्ता का कंट्रोल और रिमोट कंट्रोल दोनों आपके हाथ में होगा - राजनाथ, जेटली नरेन्द्र मोदी और वरुण गांधी के हाथ में नहीं । मोहन भागवत के हाथ में नहीं । प्रमोद मुथल्लिक के हाथ में नहीं । वहीं पांडु ब्रदर्स एंड सन्स में प्रभात गठजोड़ की राजनीति पर व्यंग्यात्मक शैली में लिखते हैं- अजित सिंह ने फिर बीजेपी का दामन थामा है । कैलकुलेशन किया 4 सीटें भी जीती दो मिनिस्टर बर्थ पक्की । एक अपनी और एक अनु की । गडकरी के बीजेपी अध्यक्ष का पद संभालने के बाद अपने लेख कुहासे में नेतृत्व में प्रभात लिखते हैं - पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद भी गडकरी का नागपुर प्रेम कुलांचे मारता नजर आया । आगे लिखते हैं कि गडकरी पांव छूने को चाटुकारिता मानते हैं लेकिन अद्यक्ष बनने के बाद राजनाथ, आडवाणी सुषमा के पांव छूकर आशीर्वाद लिया वो शीर्ष नेताओं के प्रति उनकी श्रद्धा थी । अब गड़करी हनुमान होते तो अपना सीना चीरकर दिखला देते ।
प्रभात शुंगलू की इस किताब में चूंकि अखबारी लेखों के संग्रह हैं इसलिए कई बातें संपूर्णता में नहीं आ पाई । कई लेख विस्तार की मांग करते हैं जैसे करगिल से जुड़े प्रभात के लेखों में एक अलग किताब की गुंजाइश नजर आती है । प्रभात शुंगलू करगिल युद्ध को कवर करनेवाले गिने चुने पत्रकारों में एक हैं, उन्हें उस दौर के अपने अनुभवों पर गंभीरता पूर्वक विस्तार से लिखना चाहिए ताकि एक स्थायी महत्व की किताब सामने आए, जल्दबाजी में करगिल पर अखबार के स्पेस के हिसाब से लिखकर और फिर उसे अपनी किताब में छपवाकर प्रबात ने अपरिपक्वता का परिचय दिया है । यहां मुखौटे बिकते हैं प्रभात शुंगलू की पहली किताब है और पहली बार किताब छपने के उत्साह में कई हल्की चीजें भी चली गई हैं, जिनका कोई स्थायी महत्व नहीं है, जैसे मुंबई की अस्मिता से खिलवाड़ जैसे लेखों का स्थायी महत्व नहीं हो सकता है । इस किताब का सिर्फ इतना महत्व है दो हजार नौ के शुरुआत से लेकर लगभग सवा साल की महत्वपूर्ण घटनाएं और इसपर लेखक का नजरिया आपको एक जगह मिल जाएगा । प्रभात की यह किताब इस बात का संकेत जरूर देती है कि अगर वो गंभीरता से विषय विशेष पर और उसके हर पहलू पर विस्तार से लिखें तो गंभीर किताब बन सकती है ।

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