एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ के टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला और उसके पहले हजारो करोड़ के कॉमनवेल्थ घोटाला और मुंबई के आदर्श सोसाइटी घोटालों के शोरगुल के बीच सुदूर दक्षिण के राज्य कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदुरप्पा पर भी जमीन के घोटाले के संगीन इल्जाम लगे हैं । दरअसल यह पहली बार हो रहा है कि देश के दूसरे सबसे बड़े राजनैतिक दल भारतीय जनता पार्टी के किसी मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाटाचार के इतने संगीन आरोप लगे हों । हो सकता है कि इस घोटाले के बाद येदुरप्पा को राहत मिल जाए और वो कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने रहें । लेकिन अगर हम पार्टी विद अ डिफरेंस का दावा करनेवाली भारतीय जनता पार्टी में घट रही राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण करें तो इस पार्टी के सिद्धांतों और कार्यकलाप में कई अहम बदलाव रेखांकित किए जा सकते हैं । दो साल पहले बनी कर्नाटक की सरकार पर आए दिन स्थायित्व पर खतरा मंडराता रहता है । मुख्यमंत्री येदुरप्पा पर अपने बेटों को फायदा पहुंचाने के आरोप के पहले पिछले पंद्रह महीने में वहां तीन मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में बर्खास्त किया गया । तीन मंत्रियों में कृष्णैय्या सेट्टी को पैसा कमाने के लिए अपने पद के दुरुपयोग की वजह से हटाया गया । एक और मंत्री हलप्पा पर बलात्कार का आरोप लगा था जिसके बाद उन्हें मंत्रीपद से हाथ धोना पड़ा । यह सिलसिला यहीं नहीं रुका, सरकारी नौकरियों में धांधली के आरोप में रामचंद्र गौड़ा की बर्खास्तगी हुई । एक और मंत्री डी सुधाकर पर भी सरकारी कार्यक्रमों में नियमों के विपरीत धन आवंटन का गंभीर आरोप लगा । कयास लगाए जा रहे थे कि येदुरप्पा अपने मंत्रिमंडल में बदलाव के वक्त इनकी छुट्टी कर देंगे लेकिन सुधाकर किसी तरह से बचने में कामयाब रहे । इसके अलावा कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं की ख्याति किसी से छुपी नहीं है । उनके खिलाफ भी सीआईडी और लोकायुक्त की जांच चल रही है । सूबे में अवैध खनन का मामला सुपीम कोर्ट तक आया था । पिछले साल तो रेड्डी बंधुओं ने केंद्रीय नेताओं की शह पर पूरी कर्नाटक सरकार को बंधक बना लिया था और उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई करने में खुद को अक्षम पाने के बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री दिल्ली आकर फूट-फूटकर रोए भी थे । बाद में किसी तरह से समझौता हुआ और सरकार बच पाई । एक लाचार मुख्यमंत्री के रूप जाने वाले येदुरप्पा ने बाद में मंत्रिमंडल में बदलाव कर सरकार पर अपनी मजबूत पकड़ होने के संकेत तो दिए हैं लेकिन तीन दलित मंत्रियों को एक साथ हटाने का एक गलत संदेश पूरे प्रदेश में गया । लेकिन येदुरप्पा सरकार पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं ।
दूसरी अहम राजनीतिक घटना जो बीजेपी में हुई वो थी झारखंड में जेएमएम के साथ सरकार बनाना । झारखंड में सत्ता में वापस आने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने बार-बाऱ धोखा देने वाले और पार्टी की सरेआम फजीहत करानेवाले शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा से समझौता कर सरकार बनाई । भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी जेएमएम के नेताओं के साथ गलबहियां करते बीजेपी नेताओं की तस्वीर देशभर के अखबारों में प्रमुखता से छपी । इन तस्वीरों से बीजेपी का चाल चरित्र और चेहरा तीनों उजागर हो गए । झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन पर भ्रष्टाचार से लेकर हत्या तक के कई मुकदमे चल रहे हैं । अपने पीए शशिनाथ झा की हत्या के संगीन इल्जाम भी उनपर हैं । सीबीआई की चार्जशीट में तो हत्या के अलावा भी कुछ इतर कारण भी दर्ज हैं । कहा तो यह भी जाता है कि सत्ता मोह में पार्टी ने इतनी हड़बड़ी दिखाई कि अध्य़क्ष गडकरी ने वरिष्ठ नेताओं तक को इस गठजोड़ की भनक नहीं लगने दी । राजनीतिक हलकों में तैर रही खबरों के मुताबिक पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने संघ के अपने आकाओं से हरी झंडी लेकर ना केवल सत्ता वापसी की रणनीति बनाई बल्कि उसे अंजाम तक भी पहुंचाया । अगर इन बातों में जरा भी सचाई है तो वह और भी चौंकानेवाली है क्योंकि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बात जोर शोर से करता रहा है ।
लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वंयसंवक संघ के प्रचारक रहे और बाद में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने बाइस से पच्चीस अप्रैल उन्नीस सौ पैंसठ के बीच पांच लंबी तकरीर दी थी । राजनैतिक अवसरवाद पर जोर देते हुए पंडित जी ने कहा था- किसी भी सिद्धांत को नहीं मानने वाले अवसरवादी लोग देश की राजनीति में आ गए हैं । राजनीतिक दल और राजनेताओं के लिए ना तो कोई सिद्धांत मायने रखता है ना ही उनके सामने कोई व्यापक उद्देश्य या फिर कोई एक सर्वमान्य दिशा निर्देश हैं । कोई भी नेता किसी पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टी में जाने को गलत नहीं मानता । राजनीति दलों के गठबंधन और विलय में भी कोई सिद्धांत या मतभेद काम नहीं करता है - वो विशुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करने के लिए या सत्ता पाने के लिए किया जा रहा है । पंडित जी ने यह सब सन पैंसठ में कहा था । उन्हें क्या मालूम कि जिस पार्टी को उन्होंने अपनी मेहनत और निष्ठा से खड़ा किया है वह भी उन्ही रास्तों पर चल पड़ेगी जिसके वो खिलाफ थे । झारखंड में तो साफ तौर पर यह रेखांकित किया जा सकता है कि सिर्फ सत्ता हासिल करने के लिए बीजेपी ने जेएमएम के साथ हाथ मिलाया ।
अपने उसी भाषण में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने यह भी कहा था कि राजनीति दलों और नेताओं के इन्हीं कृत्यों की वजह से जनता के मानस में उनको लेकर एक अविश्वास की स्थिति पैदा होती जा रही है । राजनीतिज्ञों को लेकर शायद ही कोई वजह बची हो जिसकी बिना पर देश की जनता के बीच उनकी साख कायम हो सके । यह स्थिति बेहद चिंतनीय है । सवाल यह उठता है कि क्या आज की भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ अपने नेता दीनदयाल उपाध्याय के सिद्धांतो से अलग रास्ते पर चल निकली है । क्या यही वजह है कि कांग्रेस सरकार पर लगातार भ्रष्टाचार के दलदल में डूबते जाने के बावजूद बीजेपी कोई राजनीतिक फायदा नहीं उठा पा रही है । कर्नाटक और झारखंड में पार्टी के कृत्यों से आज देश के जनमानस में पार्टी की साख कायम नहीं हो पा रही है । पार्टी नेतृत्व को लेकर देश की जनता और उनके खुद के कॉडर के मन में एक दुविधा की स्थिति है । अब वक्त आ गया है जब बीजेपी और संघ के नेताओं को बैठकर आत्ममंथन करना चाहिए और सत्तालोलुप पार्टी नेताओं पर लगाम लगानी चाहिए ताकि पंडित उपाध्याय जैसे संघ के नेताओं की आत्मा को शांति मिल सके ।
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Monday, November 22, 2010
Tuesday, November 9, 2010
भविष्य को नर्क बनने से रोको
कानपुर में दस साल की लड़की दिव्या के साथ कक्षा में ही बलात्कार की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है । दस साल की मासूम के साथ पहले कक्षा में दरिंदों ने बलात्कार किया । इस वारदात के बाद स्कूल प्रशासन ने उसके कपड़े बदलवाकर घर भिजवा दिया । स्कूल में हुए इस वहशियाना हरकत से को वो मासूम झेल नहीं पाई और बाद में अस्पताल में उसकी मौत हो गई । इस घटना में स्कूल प्रशासन की संवेदनहीनता और स्थनीय पुलिस की लापरवाही से पूरी इंसानियत शर्मसार हो गई है । दस साल की स्कूली छात्रा से विद्या के मंदिर में ऐसा घिनौना खेल खेला गया जिससे एक बार फिर से बच्चों की सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं । हाल के दिनों में स्कूलों में बच्चों के यौन शोषण की घटनाएं बढ़ी हैं ।इन बढ़ती घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए कड़े कानून की आवश्यकता है । जब भी कोई ऐसी वारदात सामने आती है और मीडिया में इस पर हंगामा मचता है तो केंद्र सरकार चिंता जताती है लेकिन फिर सो जाती है । स्कूली बच्चों की सुरक्षा को लेकर कड़े कानून बनाने के सवाल पर संबद्ध मंत्रालय की ढिलाई से सरकार भी कठघरे में आ जाती है । दिल्ली में एक कैब ड्राइवर की बच्चों के यौन शोषण की करतूत का पर्दाफाश हुआ था तब भी महिला और बाल विकास मंत्रालय ने इस तरह की वारदातों को रोकने के लिए कठोर कानून बनाने का आश्वासन दिया था । अब संसद का शीतकालीन सत्र आनेवाला है तो प्रस्तावित कानून को लेकर मंत्रालय की सक्रियता सामने नहीं आ रही है ।
कुछ दिनों पहले मद्रास हाईकोर्ट ने एक फिजिकल ट्रेनिंग इंस्ट्रक्टर की निचली अदालत द्वारा दी गई दस साल की सजा बरकरार रखी थी । इंस्ट्रक्टर ने चौथी कक्षा में पढ़नेवाली एक छात्रा का बलात्कार किया था । आरोप साबित होने पर निचली अदालत ने उस दस साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई थी । अपने फैसले के दौरान मद्रास हाईकोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने कहा था कि हमारे समाज में बच्चों की बढ़ती यौन शोषण की घटनाओं के खिलाफ राज्य और केंद्र सरकार के अलावा गैर सरकारी संस्थाएं सक्रिय हैं और उसपर काबू पाने के लिए कई तरह के उपाय किए जा रहे हैं । कानून मंत्रालय ने इस दिशा में कठोर कानून बनाने की दिशा में पहल भी की है लेकिन समाज में इस तरह के बढ़ते खतरे पर लगाम लगाने के लिए एक बेहद ही कड़े कानून की आवश्यकता है । इस तरह की घटनाओं में जो मुजरिम होता है वह छात्रों और उसके परिवारवालों के विश्वास की हत्या करता है । स्कूली बच्चों के यौन शोषण के अपराधियों से जबतक कड़ाई से नहीं निबटा जाएगा तबतक इसी वारदातों पर काबू पाना मुश्किल है ।
दरअसल यौन शोषण या रेप के केस में अदालती कार्रवाई में होनेवाली देरी और कानूनी उलझनों और पेचीदिगियों से मामला उलझ जाता है और कानून की खामियों का फायदा उठाकर आरोपी बच निकलते हैं । स्कूल में घटी वारदातों में स्कूल प्रशासन आमतौर पर मामले को दबाना चाहता है जिससे न्याय की उम्मीद और धूमिल हो जाती है । चाहे कानपुर का केस हो या फिर चेन्नई के स्कूल में चौथी कक्षा की छात्रा से रेप का मामला हो दोनों जगह यह देखा गया कि शुरुआत में स्कूल मामले को हल्के में लेकर दबाने की कोशिश करते हैं । इससे केस कमजोर होता है, अदालती प्रक्रिया में देरी होती है । हमारे देश में रेप को लेकर जो कानून हैं उसमें जल्दी न्याय मिलना मुश्किल होता है । चेन्नई रेप केस में चौथी की बच्ची को इंसाफ मिलने में तकरीबन आठ साल लगे । यह तो उसी बच्ची के परिवारवालों की हिम्मत थी जिसकी वजह से मुजरिम को सजा मिली । इस तरह के केस में जरूरत इस बात की है कि कानूनन त्वरित कार्रवाई हो, मुजरिमों को सख्त से सख्त सजा मिले । इसके अलावा कानून में इस बात का भी प्रावधान हो कि अगर स्कूल इस तरह के मामले को दबाने की कार्रवाई करता है तो स्कूल प्रबंधन को भी सजा हो ।
इस तरह के मामले में सख्त कानून के अलावा स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा को लेकर एक राष्ट्रीय नीति की भी जरूरत है । जिसमें स्कूलों के अलावा विभिन्न शिक्षा बोर्डों को भी शामिल किया जाए । अभी अलग अलग शिक्षा बोर्ड और अलग अलग सूबों में इस तरह के केस के लिए अलग-अलग गाइडलाइंस है । एकीकृत गाइडलाइंस में स्कूलों को यह निर्देश दिए जाएं कि वो अपने यहां होनेवाली शिकायतों पर त्वरित कार्रवाई करे । स्कूल प्रबंधन के लिए यह अनिवार्य करने की आवश्यकता है कि ऐसे मामलों में फौरन पुलिस को इत्तला करे और मुजरिमों को पकड़ने में पुलिस का सहयोग करने के अलावा जांच में भी सहयोग करे । अगर स्कूल ऐसा नहीं करता है तो संस्थान को बंद करने तक का कानूनी प्रावधान होने चाहिए । अगर ऐसा हो पाता है तो देश के भविष्य इन बच्चों का भविष्य नर्क बनने से बच जाएगा ।
कुछ दिनों पहले मद्रास हाईकोर्ट ने एक फिजिकल ट्रेनिंग इंस्ट्रक्टर की निचली अदालत द्वारा दी गई दस साल की सजा बरकरार रखी थी । इंस्ट्रक्टर ने चौथी कक्षा में पढ़नेवाली एक छात्रा का बलात्कार किया था । आरोप साबित होने पर निचली अदालत ने उस दस साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई थी । अपने फैसले के दौरान मद्रास हाईकोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने कहा था कि हमारे समाज में बच्चों की बढ़ती यौन शोषण की घटनाओं के खिलाफ राज्य और केंद्र सरकार के अलावा गैर सरकारी संस्थाएं सक्रिय हैं और उसपर काबू पाने के लिए कई तरह के उपाय किए जा रहे हैं । कानून मंत्रालय ने इस दिशा में कठोर कानून बनाने की दिशा में पहल भी की है लेकिन समाज में इस तरह के बढ़ते खतरे पर लगाम लगाने के लिए एक बेहद ही कड़े कानून की आवश्यकता है । इस तरह की घटनाओं में जो मुजरिम होता है वह छात्रों और उसके परिवारवालों के विश्वास की हत्या करता है । स्कूली बच्चों के यौन शोषण के अपराधियों से जबतक कड़ाई से नहीं निबटा जाएगा तबतक इसी वारदातों पर काबू पाना मुश्किल है ।
दरअसल यौन शोषण या रेप के केस में अदालती कार्रवाई में होनेवाली देरी और कानूनी उलझनों और पेचीदिगियों से मामला उलझ जाता है और कानून की खामियों का फायदा उठाकर आरोपी बच निकलते हैं । स्कूल में घटी वारदातों में स्कूल प्रशासन आमतौर पर मामले को दबाना चाहता है जिससे न्याय की उम्मीद और धूमिल हो जाती है । चाहे कानपुर का केस हो या फिर चेन्नई के स्कूल में चौथी कक्षा की छात्रा से रेप का मामला हो दोनों जगह यह देखा गया कि शुरुआत में स्कूल मामले को हल्के में लेकर दबाने की कोशिश करते हैं । इससे केस कमजोर होता है, अदालती प्रक्रिया में देरी होती है । हमारे देश में रेप को लेकर जो कानून हैं उसमें जल्दी न्याय मिलना मुश्किल होता है । चेन्नई रेप केस में चौथी की बच्ची को इंसाफ मिलने में तकरीबन आठ साल लगे । यह तो उसी बच्ची के परिवारवालों की हिम्मत थी जिसकी वजह से मुजरिम को सजा मिली । इस तरह के केस में जरूरत इस बात की है कि कानूनन त्वरित कार्रवाई हो, मुजरिमों को सख्त से सख्त सजा मिले । इसके अलावा कानून में इस बात का भी प्रावधान हो कि अगर स्कूल इस तरह के मामले को दबाने की कार्रवाई करता है तो स्कूल प्रबंधन को भी सजा हो ।
इस तरह के मामले में सख्त कानून के अलावा स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा को लेकर एक राष्ट्रीय नीति की भी जरूरत है । जिसमें स्कूलों के अलावा विभिन्न शिक्षा बोर्डों को भी शामिल किया जाए । अभी अलग अलग शिक्षा बोर्ड और अलग अलग सूबों में इस तरह के केस के लिए अलग-अलग गाइडलाइंस है । एकीकृत गाइडलाइंस में स्कूलों को यह निर्देश दिए जाएं कि वो अपने यहां होनेवाली शिकायतों पर त्वरित कार्रवाई करे । स्कूल प्रबंधन के लिए यह अनिवार्य करने की आवश्यकता है कि ऐसे मामलों में फौरन पुलिस को इत्तला करे और मुजरिमों को पकड़ने में पुलिस का सहयोग करने के अलावा जांच में भी सहयोग करे । अगर स्कूल ऐसा नहीं करता है तो संस्थान को बंद करने तक का कानूनी प्रावधान होने चाहिए । अगर ऐसा हो पाता है तो देश के भविष्य इन बच्चों का भविष्य नर्क बनने से बच जाएगा ।
Saturday, November 6, 2010
फासीवाद का दर्शन
चीन से एक दिल दहला देनेवाली खबर आई है । कानून का जबरदस्ती और कड़ाई से पालन करवाने की कई खबरें चीन से आती ही रहती हैं लेकिन अभी जो खबर बाहर निकल कर आई है वो एक विकसित राष्ट्र और शासन करनेवाली पार्टी की विचारधारा पर कलंक की तरह है । चीन के पूर्वी तट के पास सीमिंग में एक छत्तीस वर्षीय महिला ने एक बच्चे के रहते दूसरे संतान को जन्म देने का इरादा किया और गर्भवती हो गई । जब उसका गर्भ आठ महीने का हो गया तो सरकारी अधिकारियों को इस बात का पता चला । इस जानकारी के बाद तकरीबन दो दर्जन सरकारी चीनी अधिकारियों ने उस महिला के घर पर धावा बोल दिया । आठ माह की गर्भवती पर सरकारी अधिकारियों ने लात-घूंसों की बरसात कर दी । उसके दोनों हाथ पीछे बांधकर उसके सिर को दीवार से टकराया और पेट पर कई प्रहार किए ताकि गर्भपात हो जाए । जब वो कामयाब नहीं हुए तो सरकारी अधिकारियों ने आईयिंग नाम की उस महिला को घसीट कर अस्पताल में भर्ती करवाया और गर्भपात का इंजेक्शन लगवा कर जबरन आठ माह के गर्भ को गिरवा दिया ।
बच्चा पेट में इतना बड़ा हो गया था कि गर्भपात के बावजूद उसके कुछ अंश पेट में रह गए थे जिसको निकालने के लिए आईयिंग की मंजूरी के बगैर ऑपरेशन भी करना पड़ा, एक ऐसा ऑपरेशन जिसमें उसकी जान भी जा सकती थी। इंसानियत को शर्मसार कर देनेवाली यह घटना चीन में होने वाली अन्य ज्यादतियों की तरह दबकर रह जाती । लेकिन उस महिला ने अस्पताल में अपने फोटो खींचने की इजाजत दे दी । नतीजा यह हुआ कि उसी दास्तां और चोट के निशान वाले फोटोग्राफ इंटनेट के जरिए सारी दुनिया के सामने आ गए ।
दरअसल चीन ने बढ़ती जनसंख्या का पर काबू करने के लिए एक संतान नीति लागू किया हुआ है । वहां जुड़वां बच्चों के अपवाद को छोड़कर दूसरी संतान पैदा करने पर पूरी तरह से पाबंदी है। इस नीति का उल्लंघन करनेवाले को भारी जुर्माना चुकाना पड़ता है । इस कानून की आड़ में ही कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारीवाले सरकारी अफसरों ने हैवानियत का नंगा नाच किया । चीन के उन सरकारी अधिकारियों को ना तो उस महिला का दर्द समझ में आया , ना ही उस महिला के पति की भवानाओं को समझने की कोशिश की और ना ही उनपर उस महिला के दस साल की बच्ची की गुहार काम आई जो पिछले आठ महीने से अपने घर में छोटे भाई बहन की राह देख रही थी । चीन में जिस विचारधारा के आधार पर वहां का शासन चल रहा है वहां ना तो भावनाओं की कद्र है ना ही संवेदना के लिए कोई जगह है । वहां तो दबाई जाती है सिर्फ आवाज । थ्येनमान चौक पर छात्रों को टैंक से कुचले जाने की घटना अब भी लोगों के जेहन में है ।
हाल ही में प्रकाशित एमनेस्टी इंटरनेशनल की रुपोर्ट के मुताबिक चीन में अब भी पांच लाख लोग बगैर किसी गंभीर इल्जाम के जेल की हवा खा रहे हैं । वहां बगैर किसी जुर्म के घर में कैद कर देना, लोगों की व्यक्तिगत आजादी पर सरकारी निगरानी, आम आदमी की आवाज को दबाने के लिए पुलिस फोर्स का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल आम बात है । चीन की जेल में बंद मानवाधिकार कार्यकर्ता ली जियाबो को जब शांति का नोबल पुरस्कार दिया गया तो उसके बाद वहां की सरकार की भौंहे तन गई । चीनी सरकार को लगा कि ली जियाबो को नोबल पुरस्कार मिलने से देश में मानवाधिकार के लिए काम करनेवाले लोगों की सक्रियता बढ़ सकती है लिहाजा ली के नजदीकी लोगों की निगरानी तेज कर दी गई । बगैर किसी शक या संदेह के हफ्तेभर में तकरीबन चालीस लोगों को हाउस अरेस्ट कर दिया गया । ली के समर्थक संगठनों पर जबरदस्ती शुरू कर दी गई । ली जियाबो से नजदीकी के शक में शंघाई के एक हाउस चर्च पर पहले निगरानी शुरू की गई फिर कई दिनों तक पुलिस ने उसे अपने घेर में ले लिया । चर्च के नेता झू योंग और उनकी पत्नी के घर से निकलने पर ना केवल पाबंदी लगा दी गई बल्कि घर का जरूरी सामान खरीदने के लिए पुलिस के घेरे में निकलने पर मजबूर किया गया । जनता की सरकार और लोगों के बीच समानता के सिद्धांत की वकालत करनेवाली इस विचारधारा के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यहां कहा कुछ जाता है और किया कुछ जाता है । दरअसल ऐसा सिर्फ चीन में नहीं होता है जहां भी इस विचारधारा का बोलबाला है वहां ऐसी ही तानाशाही पूर्ण रवैया देखने को मिलता है ।
हमारे देश में भी वामपंथी विचारधारा को माननेवाले हमेशा से तानाशाही और फासीवाद के विरोध करते रहे हैं । उनका यह विरोध सिर्फ दिखावे के लिए और अपने हित में उसका उपयोग करने के लिए होता है । चीन में हुई उस मार्मिक घटना के बारे में जानते ही जेहन में कौंध गई प्रख्यात कवि और शायर कैफी आजमी की बेगम शौकत कैफी की किताब- याद की रहगुजर- का एक प्रसंग। कैफी के एक साल के लड़के खैयाम की असायमयिक मौत हो गई थी जिसने उनको और उनकी पत्नी शौकत को अंदर से तोड़कर रख दिया था । हर वक्त, हर पल अपने पहले संतान की मौत का गम झेल रही शौकत और उनके पति कैफी दोनों वामपंथी विचारधारा से जुड़े संगठन भारतीय जन नाट्य संघ यानि इप्टा में सक्रिय थे । जलसे, जुलूस, प्रदर्शन रोज के काम थे । लेकिन जब बेटे का गम लिए शौकत अपने कॉमरेडों के पास जाती तो उनके साथी कन्नी काट जाते थे, साथियों की संवेदनहीनता से शौकत को बेहद दुख पहुंचा । अपनी किताब में शौकत ने इस दर्द को बयां करते हुए लिखा- अहिस्ता अहिस्ता मुझे एहसास होने लगा कि लोग गमजदा लोगों से घबराने लगते हैं और चुपचाप उठकर चले जाते हैं । मैंने यह सोचकर अपने गम पर काबू पाने की कोशिश शुरू की ।
लेकिन पूरा मामला यहीं खत्म नहीं होता है । संवेदनहीनता की पराकाष्ठा पर पहुंचना अभी बाकी था । कुछ दिनों बाद शौकत आजमी फिर से गर्भवती हुई । अपने पहले बच्चे की मौत का गम भुलाने की कोशिश में लगी शौकत के लिए यब सुकून देनेवाला पल था । लेकिन अपना सबकुछ पार्टी पर न्योछावर करने के लिए उनकी पार्टी ने क्या हुक्म सुनाया आप शौकत की ही जुबानी सुनिए- शबाना होने को थी । क्योंकि मेरा पहला बच्चा गुजर गया था इसलिए मैं तो बहुत खुश थी लेकिन पार्टी को यह बात पसंद नहीं आई । ऑर्डर हुआ एबॉर्शन करवा दिया जाए । क्योंकि कैफी अंडर-ग्राउंड हैं । मैं बेरोजगार हूं । बच्चे की जिम्मेदारी कौन लेगा । मुझे बेहद तकलीफ पहुंची । यह आपबीती है एक ऐसे कॉमरेड की और एक ऐसे पार्टी की जो जनपक्षधरता और वयक्तिगत आजादी का सबसे ज्यादा शोर मचाती है, जो तानाशाही के खिलाफ होने का लगातार दंभ भरती है । लेकिन वक्त पड़ने पर इस विचारधारा का पालन करने और करवानेवाले सबसे बड़े तानाशाह के तौर पर उभरते हैं।
अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब पार्टी की बात नहीं माने जाने पर सीपीएम ने अपने वरिष्ठ सदस्य सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया । अगर सोमनाथ चटर्जी की मानें तो इस निष्कासन के पहले ना तो उन्हें कोई नोटिस दिया गया और ना ही पार्टी की नीति निर्धारण करनेवाली सर्वोच्च समिति पोलित ब्यूरो के सभी सत्रह सदस्यों की सहमति ली गई । सिर्फ पांच सदस्यों ने महासचिव के इशारे पर आनन फानन में सोमनाथ चटर्जी जैसे पार्टी के कद्दावर नेता को बाहर का दरवाजा दिखा दिया । अपनी किताब -–कीपिंग द फेथ- मेमॉयर ऑफ अ पार्लियामेंटेरियन में यह दावा किया है उनका निष्कासन पार्टी के संविधान के खिलाफ और अलोकतांत्रिक था । पार्टी संविधा तो दूर की बात है, राजनीति में एक सामान्य परंपरा है कि नोटिस देने के बाद पार्टी से निष्कासन होता है । लेकिन सोमनाथ के मामले में सीपीएम ने इस सामान्य से नियम का भी पालन नहीं किया । ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो उस विचारधारा से जुड़े लोगों, संगठन और सरकार के हैं जो सबसे ज्यादा जनपक्षधरता,सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक प्रक्रिया, नागरिक स्वतंत्रता, समान अधिकार, समान अवसर आदि के बारे में दुहाई देते हैं । कथनी और करनी के इसी फर्क ने इस विचारधारा की बुनियाद पर टिकी कई शक्तिशाली व्यवस्थाओं से लोगों का मोहभंग कर दिया । नतीजा यह हुआ कि किसी जमाने में विश्व में एक वैकल्पिक विचारधारा के रूप में देखे जानेवाली यह व्यवस्था अब चीन और कुछ अन्य देशों में सरकार के सहारे अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं ।
बच्चा पेट में इतना बड़ा हो गया था कि गर्भपात के बावजूद उसके कुछ अंश पेट में रह गए थे जिसको निकालने के लिए आईयिंग की मंजूरी के बगैर ऑपरेशन भी करना पड़ा, एक ऐसा ऑपरेशन जिसमें उसकी जान भी जा सकती थी। इंसानियत को शर्मसार कर देनेवाली यह घटना चीन में होने वाली अन्य ज्यादतियों की तरह दबकर रह जाती । लेकिन उस महिला ने अस्पताल में अपने फोटो खींचने की इजाजत दे दी । नतीजा यह हुआ कि उसी दास्तां और चोट के निशान वाले फोटोग्राफ इंटनेट के जरिए सारी दुनिया के सामने आ गए ।
दरअसल चीन ने बढ़ती जनसंख्या का पर काबू करने के लिए एक संतान नीति लागू किया हुआ है । वहां जुड़वां बच्चों के अपवाद को छोड़कर दूसरी संतान पैदा करने पर पूरी तरह से पाबंदी है। इस नीति का उल्लंघन करनेवाले को भारी जुर्माना चुकाना पड़ता है । इस कानून की आड़ में ही कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारीवाले सरकारी अफसरों ने हैवानियत का नंगा नाच किया । चीन के उन सरकारी अधिकारियों को ना तो उस महिला का दर्द समझ में आया , ना ही उस महिला के पति की भवानाओं को समझने की कोशिश की और ना ही उनपर उस महिला के दस साल की बच्ची की गुहार काम आई जो पिछले आठ महीने से अपने घर में छोटे भाई बहन की राह देख रही थी । चीन में जिस विचारधारा के आधार पर वहां का शासन चल रहा है वहां ना तो भावनाओं की कद्र है ना ही संवेदना के लिए कोई जगह है । वहां तो दबाई जाती है सिर्फ आवाज । थ्येनमान चौक पर छात्रों को टैंक से कुचले जाने की घटना अब भी लोगों के जेहन में है ।
हाल ही में प्रकाशित एमनेस्टी इंटरनेशनल की रुपोर्ट के मुताबिक चीन में अब भी पांच लाख लोग बगैर किसी गंभीर इल्जाम के जेल की हवा खा रहे हैं । वहां बगैर किसी जुर्म के घर में कैद कर देना, लोगों की व्यक्तिगत आजादी पर सरकारी निगरानी, आम आदमी की आवाज को दबाने के लिए पुलिस फोर्स का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल आम बात है । चीन की जेल में बंद मानवाधिकार कार्यकर्ता ली जियाबो को जब शांति का नोबल पुरस्कार दिया गया तो उसके बाद वहां की सरकार की भौंहे तन गई । चीनी सरकार को लगा कि ली जियाबो को नोबल पुरस्कार मिलने से देश में मानवाधिकार के लिए काम करनेवाले लोगों की सक्रियता बढ़ सकती है लिहाजा ली के नजदीकी लोगों की निगरानी तेज कर दी गई । बगैर किसी शक या संदेह के हफ्तेभर में तकरीबन चालीस लोगों को हाउस अरेस्ट कर दिया गया । ली के समर्थक संगठनों पर जबरदस्ती शुरू कर दी गई । ली जियाबो से नजदीकी के शक में शंघाई के एक हाउस चर्च पर पहले निगरानी शुरू की गई फिर कई दिनों तक पुलिस ने उसे अपने घेर में ले लिया । चर्च के नेता झू योंग और उनकी पत्नी के घर से निकलने पर ना केवल पाबंदी लगा दी गई बल्कि घर का जरूरी सामान खरीदने के लिए पुलिस के घेरे में निकलने पर मजबूर किया गया । जनता की सरकार और लोगों के बीच समानता के सिद्धांत की वकालत करनेवाली इस विचारधारा के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यहां कहा कुछ जाता है और किया कुछ जाता है । दरअसल ऐसा सिर्फ चीन में नहीं होता है जहां भी इस विचारधारा का बोलबाला है वहां ऐसी ही तानाशाही पूर्ण रवैया देखने को मिलता है ।
हमारे देश में भी वामपंथी विचारधारा को माननेवाले हमेशा से तानाशाही और फासीवाद के विरोध करते रहे हैं । उनका यह विरोध सिर्फ दिखावे के लिए और अपने हित में उसका उपयोग करने के लिए होता है । चीन में हुई उस मार्मिक घटना के बारे में जानते ही जेहन में कौंध गई प्रख्यात कवि और शायर कैफी आजमी की बेगम शौकत कैफी की किताब- याद की रहगुजर- का एक प्रसंग। कैफी के एक साल के लड़के खैयाम की असायमयिक मौत हो गई थी जिसने उनको और उनकी पत्नी शौकत को अंदर से तोड़कर रख दिया था । हर वक्त, हर पल अपने पहले संतान की मौत का गम झेल रही शौकत और उनके पति कैफी दोनों वामपंथी विचारधारा से जुड़े संगठन भारतीय जन नाट्य संघ यानि इप्टा में सक्रिय थे । जलसे, जुलूस, प्रदर्शन रोज के काम थे । लेकिन जब बेटे का गम लिए शौकत अपने कॉमरेडों के पास जाती तो उनके साथी कन्नी काट जाते थे, साथियों की संवेदनहीनता से शौकत को बेहद दुख पहुंचा । अपनी किताब में शौकत ने इस दर्द को बयां करते हुए लिखा- अहिस्ता अहिस्ता मुझे एहसास होने लगा कि लोग गमजदा लोगों से घबराने लगते हैं और चुपचाप उठकर चले जाते हैं । मैंने यह सोचकर अपने गम पर काबू पाने की कोशिश शुरू की ।
लेकिन पूरा मामला यहीं खत्म नहीं होता है । संवेदनहीनता की पराकाष्ठा पर पहुंचना अभी बाकी था । कुछ दिनों बाद शौकत आजमी फिर से गर्भवती हुई । अपने पहले बच्चे की मौत का गम भुलाने की कोशिश में लगी शौकत के लिए यब सुकून देनेवाला पल था । लेकिन अपना सबकुछ पार्टी पर न्योछावर करने के लिए उनकी पार्टी ने क्या हुक्म सुनाया आप शौकत की ही जुबानी सुनिए- शबाना होने को थी । क्योंकि मेरा पहला बच्चा गुजर गया था इसलिए मैं तो बहुत खुश थी लेकिन पार्टी को यह बात पसंद नहीं आई । ऑर्डर हुआ एबॉर्शन करवा दिया जाए । क्योंकि कैफी अंडर-ग्राउंड हैं । मैं बेरोजगार हूं । बच्चे की जिम्मेदारी कौन लेगा । मुझे बेहद तकलीफ पहुंची । यह आपबीती है एक ऐसे कॉमरेड की और एक ऐसे पार्टी की जो जनपक्षधरता और वयक्तिगत आजादी का सबसे ज्यादा शोर मचाती है, जो तानाशाही के खिलाफ होने का लगातार दंभ भरती है । लेकिन वक्त पड़ने पर इस विचारधारा का पालन करने और करवानेवाले सबसे बड़े तानाशाह के तौर पर उभरते हैं।
अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब पार्टी की बात नहीं माने जाने पर सीपीएम ने अपने वरिष्ठ सदस्य सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया । अगर सोमनाथ चटर्जी की मानें तो इस निष्कासन के पहले ना तो उन्हें कोई नोटिस दिया गया और ना ही पार्टी की नीति निर्धारण करनेवाली सर्वोच्च समिति पोलित ब्यूरो के सभी सत्रह सदस्यों की सहमति ली गई । सिर्फ पांच सदस्यों ने महासचिव के इशारे पर आनन फानन में सोमनाथ चटर्जी जैसे पार्टी के कद्दावर नेता को बाहर का दरवाजा दिखा दिया । अपनी किताब -–कीपिंग द फेथ- मेमॉयर ऑफ अ पार्लियामेंटेरियन में यह दावा किया है उनका निष्कासन पार्टी के संविधान के खिलाफ और अलोकतांत्रिक था । पार्टी संविधा तो दूर की बात है, राजनीति में एक सामान्य परंपरा है कि नोटिस देने के बाद पार्टी से निष्कासन होता है । लेकिन सोमनाथ के मामले में सीपीएम ने इस सामान्य से नियम का भी पालन नहीं किया । ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो उस विचारधारा से जुड़े लोगों, संगठन और सरकार के हैं जो सबसे ज्यादा जनपक्षधरता,सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक प्रक्रिया, नागरिक स्वतंत्रता, समान अधिकार, समान अवसर आदि के बारे में दुहाई देते हैं । कथनी और करनी के इसी फर्क ने इस विचारधारा की बुनियाद पर टिकी कई शक्तिशाली व्यवस्थाओं से लोगों का मोहभंग कर दिया । नतीजा यह हुआ कि किसी जमाने में विश्व में एक वैकल्पिक विचारधारा के रूप में देखे जानेवाली यह व्यवस्था अब चीन और कुछ अन्य देशों में सरकार के सहारे अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं ।
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