तकरीबन चार साल पहले की बात है एक किताब आई थी - भारतीय डाक सदियों का सफरनामा लेखक थे अरविंद कुमार सिंह । डाक भवन दिल्ली के सभागार में किताब के विमोचन समारोह में भी शामिल हुआ था । यह किताब नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई थी और उस वक्त ट्रस्ट की कर्ताधर्ता पुलिस अधिकारी नुजहत हसन थी । बात आई गई हो गई । मैनें किताब को बगैर देखे सुने रख दिया था । कई बार इस किताब की चर्चा सुनी-पढ़ी । लेकिन अभी दो मजेदार वाकया हुआ जिसके बाद डाकिया,उसके मनोविज्ञान और डाक विभाग को जानने की इच्छा हुई । हुआ यह कि मैं पिछले दिनों अपनी सोसाइटी में खुले डाकघर में गया और वहां काउंटर पर बैठे सज्जन से कहा कि मुझे पचास पोस्टकार्ड दे दाजिए तो पहले तो उसने हैरत से मेरी ओर देखा और फिर दोहराया कि कितने पोस्टकार्ड चाहिए । मैंने फिर से उसे कहा कि पचास दे दीजिए । इसके बाद उन्होंने अपनी दराज खोलकर कार्ड गिनने शुरू कर दिए, लेकिन बीच बीच में वो मेरी ओर देख रहे थे । पोस्टकार्ड मुझे सौंपने और पैसे लेने के बीच में उस सज्जन की आंखों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे जो पैसे वापस करते समय उन्होंने मुझसे पूछ ही लिए । उन्होंने कहा कि आप इतने पोस्टकार्ड का क्या करेंगे - जबतक मैं कुछ बोलता तबतक उन्होंने खुद ही जबाव दे दिया कि शायद आप कोई मार्केटिंग कंपनी चलाते हैं और अपने ग्राहकों को किसी उत्पाद के बारे में जानकारी देना चाहते हैं और पोस्टकार्ड से सस्ता और सुरक्षित माध्यम कुछ और हो नहीं सकता । मैं उनके अनुमान को गलत साबित नहीं करना चाहता था इस वजह से मुस्कुराता हुआ डाकघर से निकल गया ।
दरअसल मैं पोस्टकार्ड का इस्तेमाल छोटे पत्र लिखने में करता हूं । संचार के इस आधुनिक दौर में मेरा अब भी मानना है कि पत्र का स्थान फोन, एसएमएस या फिर ईमेल भी नहीं ले सकते । पत्रों का अपना एक महत्व होता है जिसे पढ़ते वक्त आप पत्र लिखनेवाले की भावनाओं को महसूस कर सकते हैं । मुझे अब भी याद आता है कि जब मैं अपने गांव वलिपुर में रहा करता था तो हर दिन नियम से सुबह-सुबह डाकघर जाता था । तकरीबन बीस साल पहले की बात है उस वक्त लैंडलाइन फोन ने बस, मेरे घर में कदम ही रखा था लेकिन एसटीडी रेट इतने ज्यादा थे कि फोन पर बात नहीं हो सकती थी । हमारे घरों में फोन को लॉक करके रखा जाता था और रात ग्यारह बजने का इंतजार किया जाता था क्योंकि उस वक्त रात ग्यारह बजे के बाद एसटीडी की दरें काफी कम हो जाती थी । उस दौर में डाक लानेवाला डाकिया मेरे लिए पूरी दुनिया से जुड़ने और उसके जानने समझने का एकलौता माध्यम था । इस वजह से डाकिया हमारे समाज का हमारे इलाके का एक अहम वयक्ति होता था । मेरे साहित्यिक मित्र और प्रकाशक काफी पत्र-पत्रिकाएं भेजते थे इस वजह से हर रोज मेरे तीन चार पत्र होते ही थे । कभी कभार डाकिया इस बात से खफा भी होता था कि सिर्फ मेरे तीन पत्र की वजह से उसे तीन-चार किलोमीटर सायकल चलाना पड़ता है लेकिन बाद के दिनों में मैंने उससे दोस्ती कर ली थी । इसके दो फायदे हुए एक तो मेरे पत्र सुरक्षित मिल जाते थे और दूसरे वो पुस्तकों के वीपीपी आदि भी घर तक ले आते थे ।
दूसरा वकया भी डाकिया से ही जुडा़ है । मैं जब भी कहीं लंबे समय के लिए बाहर जाता हूं तो यह वयवस्था करके जाता हूं कि मेरी डाक मेरे अस्थायी पते पर रिडायरेक्ट कर दी जाएं । इस बार यह हुआ कि मैं कीं बाहर गया था । जब लौटकर आया तो महीने भर से कोई डाक नहीं आने पर मेरा माथा ठनका । मैं अपने पास के डाकघर में पहुंचा और पोस्टमास्टर से शिकायत की तो उन्होंने मेरे इलाके के डाकिया को बुलाया और पूछताछ की तो डाकिया ने बेहद मासूमियत से जबाव दिया कि इनकी डाक तो रिडायरेक्ट हो रही थी तो मैंने सोचा कि ये यहां से चले गए हैं सो अब मैं ही इनकी डाक को उसी पते पर रिडायरेक्ट कर देता हूं । डाकिया का यह जबाव इतना मासूमियत भरा और अपनापन लिए था कि मैं कुछ कह नहीं पाया और उन्हें वस्तुस्थिति बताकर डाकघर से बाहर निकल आया । आज के इस भागमभाग के दौर में कौन इतना ध्यान रखता है कि अमुक वयक्ति को इस पते पर डाक रिडायरेक्ट होना है । कूरियर के बढ़ते चलने वाले इस दौर में निजी कंपनियों से आप ये अपेक्षा कर हरी नहीं सकते । दोनों वाकयों से संबंधित अलग-अलग अध्याय इस किताब में हैं- भारतीय पोस्टकार्ड और सरकारी वर्दी में सबका चहेता ।
इन दोनों वाकयों के बाद मैंने अरविंद सिंह की किताब निकाली और उसको पढ़ना शुरू किया । सदियों के सफरनामा में डाक विभाग से जुड़ी हर छोटी बड़ी और रोचक जानकारियां मौजूद हैं । जैसै कि हम डाक बंगला का नाम हमेशा से सुनके रहे हैं , कई बार उन डाक बंगलों में रुकने और रहने का मौका भी मिला है लेकिन यह नहीं सोचा कि इसको जाक बंगला क्यों कहते हैं । अरविंद सिंह ने अपनी इस किताब में यह बताया है कि क्यों इन सरकारी गेस्ट हाउसों को डाक बंगला कहा जाता है- इसका उद्भव डाकविभाग के लिए हुआ था । सड़कों के किनारे उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दिनों तक होटल या सरया नाममात्र की थी । इसी नाते डाक बंगले और विश्राम गृह बनाए गए । ये सरकारी नियंत्रण में थे और वहां पर खिदमतगार चौकीदार और पोर्टर सेवा में उपलब्ध रहते थे.....लॉर्ड डलहौजी के जमाने में कई और डाक बंगले बने । डाक बंगले पुरानी डाक चौकियों के ही उन्नत रूप थे । सन 1863-64 तक डाकविभाग के हाथों में ही इन डाक बंगलों का प्रबंध रहा । इस वर्ष ही डाक विभाग ने डाक बंगलों से मुक्ति पा ली । अरविंद ने इस प्रणाली के बारे में प्रसिद्ध लेखक चेखव की चर्चित कहानी ट्रेवलिंग विथ मेल के जरिए रूस में इस तरह की वयवस्था का उदाहरण दिया है । इस तरह की कई रोचक जानकारियों के अलावा डाक विभाग और डाकिया के बारे में कई शोधपरक जानकारियां भी पेश की गई हैं । मसलन स्वतंत्रता संग्राम में डाक विभाग और डाकियों की भूमिका पर एरक पूरा अध्याय है । 1857 की क्रांति के वक्त उत्तर प्रदेश में आंदोलनकारियों के 8 हरकारों को गिरफ्तार कर फांसी पर चढ़ा दिया गया था । इस तरह की कई घटनाएं इस किताब में दर्ज हैं जो अबतक या तो अछूती रही हैं या फिर बेहतर तरीके से रेखांकित नहीं हो पाई । इस किताब में डाक विभाग के एक ऐसे महकमे का उल्लेख भी है जो हर साल तकरीबन ढाई करोड़ ऐसे पत्रों को गंतव्य तक पहुंचाता है जिनपर या तो पता लिखा ही नहीं होता है या फिर ऐसा पता लिखा होता है जिसे इलाके के चप्पे-चप्पे से वाकिफ डाकिया भी नहीं ढूंढ पाता है । इस विभाग रिटर्न लेटर ऑफिस कहा जाता है । इसके अलावा डाक विभाग की उन ऐतिहासिकत इमारतों के चित्र और रोचक विवरण भी इस किताब में है जिन्हें हम देखते तो हैं पर इस बात का एहसास तक नहीं होता है कि वो कितनी अहम इमारतें हैं ।
अरविंद सिंह ने बेहद श्रमपूर्वक शोध के बाद यह पुस्तक लिखी है । इसके पहले डाक विभाग पर कुछ छिटपुट किताबें आई हैं । मुल्कराज आनंद ने अंग्रेजी में एक किताब लिखी थी- स्टोरी ऑफ द इंडियन पोस्ट ऑफिस । लेकिन अरविंद सिंह की किताब मुल्कराज आनंद की किताब से बहुत आगे जाती है । इस वजह से अरविंद की किताब को प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी मूल्यवान मानती हैं । मुझे तो यह किताब इस लिहाज से अहम लगी कि कि यह एक ऐसे महकमे के इतिहास का दस्तावेजीकरण है जो दशकों से हमारे जीवन और समाज का ना केवल अंग रहा है बल्कि हमें गहरे तक प्रभावित भी करता रहा है । नेशनल बुक ट्रस्ट ने इस किताब को हिंदी के अलावा अंग्रेजी,उर्दू और असमिया में भी प्रकाशित कर बड़ा काम किया है । अभी अभी अरविंद सिंह की नई किताब - डाक टिकटों पर भारत दर्शन - भी नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापी है । यह भी अपनी तरह की एक अनूठी और कह सकते हैं कि हिंदी में पहली किताब है । यह बात संतोष देती है कि हिंदी में भी इन विषयों पर काम शुरू हो गया है ।
No comments:
Post a Comment