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Wednesday, December 22, 2010

लीक ने उतारा मुखौटा

इस बात के पर्याप्त सबूत हैं रहे हैं कि भारत के मुस्लिम समुदाय में कुछ तत्व ऐसे हैं, जिनको लश्कर ए तोयबा का समर्थन हासिल है। लेकिन ज्यादा बडा़ खतरा कट्टरपंथी हिंदू संगठनों का हो सकता है । ये संगठन मुस्लिम समुदाय से धार्मिक तनाव और राजनीतिक कट्टरता पैदा करते हैं । ये कथित बातें कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोमर को 20 जुलाई 2009 को कहा । दरअसल ये कथित बातचीत रोमर और राहुल के बीच तब हुई जब अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आई हुई थी और प्रधानमंत्री ने उनके सम्मान में दावत दी थी । उस दावत में जब रोमर ने राहुल से लश्कर की गतिविधियों और भारत पर आसन्न खतरे के बारे में पूछा तब राहुल गांधी ने उनसे यह बातें कही थी । दोनों के बीच की बातचीत भारत अमेरिका डिप्लोमैटिक संदेशों में दर्ज है । जिसका खुलासा विकिलीक्स ने किया है । जाहिर सी बात है कि इस खुलासे के बाद देशभर में बहस छिड़ गई । बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राहुल गांधी के इस बयान को बचकाना करार दिया । लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि जिस वयक्ति में कांग्रेस देश का भविष्य़ देख रही है, जिस वयक्ति को देश के सर्वोच्च पद के लिए तैयार किया जा रहा है, वो शख्स इतनी हल्की बातें कैसे कर सकता है । हल्की इसलिए कि एक ओर जहां भारत आतंकवाद से जूझ रहा है और पूरे विश्व में आतंकवाद और उसके आका पाकिस्तान के खिलाफ माहौल बनाने में जुटा है, वहीं देश पर शासन करनेवाली पार्टी का एक अहम नेता हिंदू कट्टरपंथियों को लश्कर से बड़ा खतरा बता रहा है । क्या ये मान लिया जाए कि राहुल गांधी विश्व के सबसे खूंखार आतंकी संगठन लश्कर-ए-तोयबा से अंजान हैं, क्या यह भी मान लिया जाए कि राहुल गांधी संयुक्त राष्ट्र संघ के उस प्रस्ताव से भी अंजान हैं जिसमें लश्कर को आतंकी संगठन घोषित कर विश्व मानवता के लिए खतरा बताते हुए उसपर पाबंदी लगा दी गई है। जिसके बाद से लश्कर ने अपना नाम बदल लिया । क्या यह भी मान लिया जाए कि मुंबई हमले के बाद भारत सरकार ने पाकिस्तान को जो तमाम डॉजियर सौंपे थे उसकी जानकारी भी राहुल गांधी को नहीं है । क्या यह भी मान लिया जाए कि राहुल गांधी को लश्कर के खिलाफ भारत के मुहिम की जानकारी नहीं थी । यह संभव ही नहीं है कि इन सारी बातों से राहुल गांधी अनजान हों ।
दरअसल कांग्रेस पार्टी देश की अल्पसंख्यक आबादी की तुष्टीकरण के लिए किसी भी हद तक जा सकती है । कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं पर बारीकी से नजर रखनेवालों का मानना है कि वोट बैंक की राजनीति के लिए कांग्रेस का एक तबका इस तरह के बयानबाजी करता रहता रहता है । 26/11 के मुंबई हमलों के बाद उस वक्त केंद्र में मंत्री और किसी जमाने में महाराष्ट्र के कद्दावर नेता ए आर अंतुले ने एटीएस चीफ हेमंत करकरे की शहादत पर सवाल खड़े किए थे । अंतुले ने कहा था कि हेमंत करकरे की मौत को संदेहास्पद करार दिया था और साथ ही यह भी जोडा़ ता कि मालेगांव धमाकों की जांच कर रहे थे । इशारों-इशारों में उन्होंने करकरे की शहादत को मालेगांव धमाके की जांच से जोड़ दिया था । उस वक्त पूरा राष्ट्र मुंबई हमले के जख्मों को झेल रहा था, लिहाजा अंतुले के बयान की चौतरफा आलोचना शुरू हो गई । पाकिस्तानी मीडिया ने भी इसे खूब प्रचारित करना शुरू कर दिया । दबाव बढ़ता देखकर कांग्रेस ने उस बयान से पल्ला झाड़ लिया और बाद में अंतुले को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा । उस वक्त का अंतुले का बयान भी अल्पसंख्यकों को ध्यान में रखते हुए किया गया था । अभी हाल ही में विकिलीक्स ने इस बात का खुलासा भी किया था कैसे दो हजार चार के आमचुनाव में कांग्रेस ने मुंबई हमलों को भुनाने की कोशिश की थी । कुछ दिनों पहले देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भी भगवा आतंक का जुमला फेंककर एक बहस को जन्म देने की कोशिश की थी । जब उनके बयान पर बवाल शुरु हुआ तो कांग्रेस ने उसको उनकी वयक्तिगत राय करार दे दिया ।
अब कुछ दिनों पहले पार्टी में खुद को अल्पसंख्यकों का पैरोकार मानने वाले कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी यह कहकर सनसनी फैला दी कि अपनी मौत के चंद घंटे पहले करकरे ने उन्हें फोन कर यह बताया था कि वो हिंदू संगठनों से मिल रही धमकियों से परेशान हैं । दिग्विजय सिंह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं सो उनकी बात को मीडिया में खासी तवज्जों मिली । लेकिन बाद में कुछ अखबारों ने करकरे की कॉल डिटेल छापकर दिग्विजय के बयान को संदेहास्पद बना दिया । बाद में महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर आर पाटिल ने भी दिग्विजय के बयान की हवा निकाल दी । पाटिल ने कहा कि महकमे के पास कोई ऐसा रिकॉर्ड नहीं है जिससे दिग्विजय और करकरे के बीच की बातचीत की पुष्टि होती हो । यहां एक बार फिर सवाल खड़ा होता है कि अगर उस वक्त करकरे ने दिग्विजय सिंह से अपनी जान का खतरा बताया था तो दिग्गी राजा दो साल तक चुप्पी क्यों साधे रहे । देश यह जानना चाहता है करकरे की आशंका के मद्देनजर दिग्विजय खामोश क्यों रहे । दरअसल ये संदेहास्पद खामोशी कांग्रेस की सियासत का हिस्सा है । दिग्विजय सिंह पहले भी इस तरह की खामोशी साधते रहे हैं । दिल्ली कते बटला हाउस एनकाउंटर के डेढ साल बाद उनको अचानक से इलहाम होता है कि वो एनकाउंटर फर्जी था । दिग्विजय को इस ज्ञान की प्राप्ति आजमगढ़ के संजरपुर में होती है । जहां वो कहते हैं कि उन्होंने बटला हाउस एनकाउंटर के फोटोग्राफ्स देखे हैं जिनमें आतंकवादियों के सर में गोली लगी है । उनके मुताबिक दहशतगर्दों के खिलाफ एनकाउंटर में इस तरह से गोली लगना नामुमकिन है । जाहिर है इशारा और इरादा दोनों साफ था । अदालत और सरकारी जांच में ये सही साबित हुए मुठभेड़ पर सवाल खड़ा कर दिग्विजय क्या हासिल करना चाह रहे थे, यह आईने की तरह साफ था । उस वक्त भी कांग्रेस ने उनके इस बयान को उनकी वयक्तिगत राय बताकर पल्ला झाड लिया था ।
कुछ दिनों पहले राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की तुलना प्रतिबंधित संगठन सिमी से कर दी थी । सिमी और संघ की तुलना करने के अलावा राहुल कोई ठोस सबूत या तर्क अपने इस बयान के समर्थन में पेश नहीं कर पाए । राहुल गांधी अगर अपने इस बयान को लेकर गंभीर थे तो उन्हें अपनी सरकार पर दबाव डालना चाहिए था कि संघ के खिलाफ कार्रवाई करें । लेकिन उस बयान की मंशा किसी तरह की कार्रवाई या देश के प्रति चिंता नहीं बल्कि सिर्फ राजनीतिक फायदा था । अगर हम अंतुले, चिदंबरम और फिर दिग्विजय सिंह के बयानों से राहुल गांधी के बयान को जोड़कर देखें तो एक महीन सी रेखा नजर आती है जिससे एक ऐसी राजनीति की तस्वीर बनती है जहां एक खास समुदाय के वोटरों को लुभाने के लिए खाका तैयार किया जा रहा है । जाहिर सी बात है कि उसके केंद्र में उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव है । बिहार की जनता ने राहुल गांधी के करिश्मे पर पानी फेर दिया । राहुल के ताबड़तोड़ दौरे और यूथ ब्रिगेड को वहां उतारने का भी कोई नतीजा नहीं निकला और पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले वहां पार्टी को आधी सीटें मिली । अब चुनौती उत्तर प्रदेश में अपनी साख और सीट दोनों बचाने की है । लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को उम्मीद से ज्यादा सीटें मिल गई थी । अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को ठीक-ठाक सीटें नहीं मिल पाती हैं तो राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल खडे़ होने शुरू हो जाएंगे क्योंकि राहुल गांधी और उनके रणनीतिकारों ने उत्तर प्रदेश को राहुल गांधी की प्रयोगशाला के तौर पर प्रचारित किया हुआ है ।

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