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Wednesday, December 29, 2010

बिनायक पर बवाल क्यों ?

छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने मानवाधिकार कार्यकर्ता और पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के उपाध्यक्ष बिनायक सेन को राजद्रोह के मामले में उम्र कैद की सजा सुनाई है । बिनायक सेन को यह सजा कट्टर नक्सलियों के साथ संबंध रखने और उनको सहयोग देने के आरोप साबित होने के बाद सुनाई गई है । अदालत द्वारा बिनायक सेन को उम्रकैद की सजा सुनाए जाने के बाद देशभर के मुट्ठी भर चुनिंदा वामपंथी लेखक बुद्धिजीवी आंदोलित हो उठे हैं । उन्हें लगता है कि न्यायपालिका ने बिनायक सेन को सजा सुनाकर बेहद गलत किया है और उसने राज्य की दमनकारी नीतियों का साथ दिया है । उन्हें यह भी लगता है कि यह विरोध की आवाज को कुचलने की एक साजिश है । बिनायक सेन को हुए सजा के खिलाफ वामपंथी छात्र संगठन से जुड़े विद्यार्थी और नक्सलियों के हमदर्द दर्जनों बुद्विजीवी दिल्ली के जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए और जमकर नारेबाजी की । बेहद उत्तेजक और घृणा से लबरेज भाषण दिए गए । जंतर मंतर पर जिस तरह के भाषण दिए जा रहे थे वो बेहद आपत्तिजनक थे, वहां बार-बार यह दुहाई दी जा रही थी कि राज्य सत्ता विरोध की आवाज को दबा देती है और अघोषित आपातकाल का दौर चल रहा है । वहां मौजूद एक वामपंथी विचारक ने शंकर गुहा नियोगी और सफदर हाशमी की हत्या को सरकार-पूंजीपति गठजोड़ का नतीजा बताया । उनका तर्क था जब भी राज्य सत्ता के खिलाफ कोई आवाज अपना सिर उठाने लगती है तो सत्ता उसे खामोश करने का हर संभव प्रयास करता है । शंकर गुहा नियोगी और सफदर हाशमी की हत्या तो इन वामंपंथी लेखकों-विचारकों को याद रहती है, उसके खिलाफ डंडा-झंडा लेकर साल दर साल धरना प्रदर्शन विचार गोष्ठियां भी आयोजित होती है । लेकिन उसी साहिबाबाद में नवंबर में पैंतालीस साल के युवा मैनेजर की मजदूरों द्वारा पीट-पीट कर हत्या किए जाने के खिलाफ इन वामपंथियों ने एक भी शब्द नहीं बोला । मजदूरों द्वारा मैनेजर की सरेआम पीट-पीटकर नृशंस तरीके से हत्या पर इनमें से किसी ने भी मुंह खोलना गंवारा नहीं समझा । कोई धरना प्रदर्शन या बयान तक जारी नहीं हुआ क्योंकि मैनेजर तो पूंजीपतियों का नुमाइंदा होता है लिहाजा उसकी हत्या को गलत करार नहीं दिया जा सकता है । लेकिन हमारे देश के वामपंथी यह भूल जाते हैं कि गांधी के इस देश में हत्या और हिंसा को किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता है । शंकर गुहा नियोगी या सफदर की हत्या जिसकी पुरजोर निंदा की जानी चाहिए और दोषियों को किसी भी तीमत पर नहीं बख्शा जाना चाहिए लेकिन उतने ही पुरजोर तरीके से फैक्ट्री के मैनेजर की हत्या का भी विरोध होना चाहिए और उसके मुजरिमों को भी उतनी ही सजा मिलनी चाहिए जितनी नियोगी और सफदर के हत्यारे को । दो अलग-अलग हत्या के लिए दो अलग अलग मापदंड नहीं हो सकते ।
ठीक उसी तरह से अगर बिनायक सेन के कृत्य राजद्रोह की श्रेणी में आते हैं तो उन्हें इसकी सजा मिलनी ही चाहिए और अगर निचली अदालत से कुछ गलत हुआ है तो वो हाईकोर्ट या फिर सुप्रीम कोर्ट से निरस्त हो जाएगा। अदालतें सबूत और गवाहों के आधार पर फैसला करती हैं । आप अदालतों के फैसले की आलोचना तो कर सकते हैं लेकिन उन फैसलों को वापस लेने के लिए धरना प्रदर्शन करना घोर निंदनीय है । भारत के संविधान में न्याय की एक प्रक्रिया है – अगर निचली अदालत से किसी को सजा मिलती है तो उसके बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का विकल्प खुला है । अगर निचली अदालत में कुछ गलत हुआ है तो उपर की अदालत उसको हमेशा से सुधारती रही हैं । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां निचली अदालत से मुजरिम बरी करार दिए गए हैं लेकिन उपरी अदालत उनको कसूरवार ठहराते हुए सजा मुकर्रर करती रही है । दिल्ली के चर्चित मट्टू हत्याकांड में आरोपा संतोष सिंह को निचली अदालत ने बरी कर दिया लेकिन उसे उपर की अदालत से जमा मिली । ठीक उसी तरह से निचली अदालत से दोषी करार दिए जाने के बाद भी कई मामलों में उपर की अदालत ने मुजरिमों को बरी किया हुआ है । लोकतंत्र में संविधान के मुताबिक एक तय प्रक्रिया है और संविधान और लोकतंत्र में आस्था रखनेवाले सभी जिम्मेदार नागरिक से उस तय संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करने की अपेक्षा की जाती है ।
बिनायक सेन के केस में भी उनके परिवारवालों ने हाईकोर्ट जाने का एलान कर दिया है लेकिन बावजूद इसके ये वामपंथी नेता और बुद्धिजीवी अदालत पर दवाब बनाने के मकसद से धरना प्रदर्शन और बयानबाजी कर रहे हैं । दरअसल इन वामपंथियों के साथ बड़ी दिक्कत यह है कि अगर कोई भी संस्था उनके मन मुताबिक चले तो वह संस्था आदर्श है लेकिन अगर उनके सिद्धांतों और चाहत के खिलाफ कुछ काम हो गया तो वह संस्था सीधे-सीधे सवालों के घेरे में आ जाती है । अदालतों के मामले में भी ऐसा ही हुआ है, जो फैसले इनके मन मुताबिक होते हैं उसमें न्याय प्रणाली में इनका विश्वास गहरा जाता है लेकिन जहां भी उनके अनुरूप फैसले नहीं होते हैं वहीं न्याय प्रणाली संदिग्ध हो जाती है । रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद के पहले यही वामपंथी नेता कहा करते थे कि कोर्ट को फैसला करने दीजिए वहां से जो तय हो जाए वो सबको मान्य होना चाहिए । लेकिन जब इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला उनके मनमुताबिक नहीं आया तो अदालत की मंशा संदिग्ध हो गई । इस तरह के दोहरे मानदंड नहीं चल सकते । अगर हम वामपंथ के इतिहास को देखें तो उनकी भारतीय गणतंत्र और संविधान में आस्था हमेशा से शक के दायरे में रही है । जब भारत को आजादी मिली तो उसे शर्म करार देते हुए उसे महज गोरे बुर्जुआ के हाथों से काले बुर्जुआ के बीच शक्ति हस्तांतरण बताया था । यह भी ऐतिहासितक तथ्य़ है कि सीपीआई ने फरवरी उन्नीस सौ अडतालीस में नवजात राष्ट्र भारत के खिलाफ हथियारबंद विद्रोह शुरू किया था और उसपर काबू पाने में तकरीबन तीन साल लगे थे और वो भी रूस के शासक स्टालिन के हस्तक्षेप के बाद ही संभव हो पाया था । उन्नीस सौ पचास में सीपीआई ने संसदीय वयवस्था में आस्था जताते हुए आम चुनाव में हिस्सा लिया लेकिन साठ के दशक के शुरुआत में पार्टी दो फाड़ हो गई और सीपीएम का गठन हुआ । सीपीएम हमेशा से रूस के साथ-साथ चीन को भी अपना रहनुमा मानता था । तकरीबन एक दशक बाद सीपीएम भी टूटा और माओवादी के नाम से एक नया धड़ा सामने आया । सीपीएम तो सिस्टम में बना रहा लेकिन माओवादियों ने सशस्त्र क्रांति के जरिए भारतीय गणतंत्र को उखाड़ फेंकने का एलान कर दिया था । विचारधारा के अलावा भी वो वो हर चीज के लिए चीन का मुंह देखते थे । माओवादी में यकीन रखनेवालों का एक नारा उस वक्त काफी मशहूर हुआ था – चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन । माओवादी नक्सली अब भी सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भारतीय गणतंत्र को उखाड़ फेंकने की मंशा पाले बैठे हैं । क्या उस विचारधारा को समर्थन देना राजद्रोह नहीं है । नक्सलियों के हमदर्द हमेशा से यह तर्क देते हैं कि वो हिंसा का विरोध करते हैं लेकिन साथ ही वो यह जोड़ना नहीं भूलते कि हिंसा के पीछे राज्य की वो दमनकारी नीतियां हैं । देश में हो रही हिंसा का खुलकर विरोध करने के बजाए नक्सलियों को हर तरह से समर्थन देना कितना जायज है इसपर राष्ट्रव्यापी बहस होनी चाहिए । एंटोनी पैरेल ने ठीक कहा है कि – भारत के मार्क्सवादी पहले भी और अब भी भारत को मार्क्सवाद के तर्ज पर बदलना चाहते हैं लेकिन वो मार्क्सवाद में भारतीयता के हिसाब से बदलाव नहीं चाहते हैं । एंटोनी के इस कथन से यह साफ हो जाता है कि यही भारत में मार्क्स के चेलों की सबसे बड़ी कमजोरी है ।
बिनायक सेन अगर बकसूर हैं तो अदालत सो वो बरी हो जाएंगे लेकिन अगर कसूरवार हैं तो उन्हें सजा अवश्य मिलेगी । देश के तमाम बुद्दजीवियों को अगर देश के संविधान और कानून में आस्था है तो उनको धैर्य रखना चाहिए और न्यायिक प्रक्रिया पर दवाब बनाने के लिए किए जा रहे धरने प्रदर्शन को तत्काल रोका जाना चाहिए ।

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