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Monday, March 14, 2011

लोक से दूर होती कविता !

एक दिन दफ्तर के साथियों से कविता पर बात शुरू हुई । मेरे मन में सवाल बार-बार कौध रहा था खि अब कोई दिनकर, बच्चन या श्याम नारायण पांडे जैसी कविताएं कोई क्यों नहीं लिखता । आज जिस तरह की कविताएं लिखी जा रही हैं वो सिर्फ कुछ खास लोगों की समझ में आती है और एक सीमित दायरे में ही उसका प्रचार प्रसार और सम्मान मिलता है , लोक के बीच ना तो उन्हें प्रियता हासिल होती है और ना ही वो लोगों की जुबान पर चढ़ जाता है । कविता के मामले में मेरी जानकारी बिल्कुल नहीं है लेकिन बहुधा मन में यह सवाल उठता है कि छंद वाली कविता या फिर जोश या जुनून पैदा करनेवाली कविता क्यों नहीं लिखी जा रही है । आज भी दिनकर की पंक्तियां- रे रोक युधिष्ठिर को ना यहां जाने दे उसको स्वर्ग धीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर या फिर बच्चन की – बैर बढ़ाते मंदिर मस्जिद, मेल कराती मधुशाला या फिर श्याम नारायण पांडे की – रण बीच चौकड़ी भर-भर कर,चेतक बन गया निराला था, राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा को पाला था- जैसी कविता क्यों नहीं लिखी जा रही है । मेरे इन सवालों पर मेरे एक मित्र ने कहा कि प्रगतिवादियों के विकास ने और साहित्य पर वामपंथियों के दबदबे ने इस तरह की कविता को बहुत नुकसान पहुंचाया । मैंने जब इसका विरोध किया तो वो और मजबूती से अपनी बात कहने लगे । उनका तर्क था कि जिस तरह से हिंदी में एक खास तरह की विचारधारा वाली कविता का दौर शुरू हुआ और मार्क्सवादी आलोचकों ने उसको जिस तरह से उठाया उसने कविता का बड़ा नुकसान किया । उनका तर्क था कि मार्क्सवादी आलोचकों ने विचारधाऱा वाली कविता को श्रेष्ठ साबित करने के लिए छंद में कविता लिखनेवालों को मंचीय कवि कहकर मजाक उड़ाना शुरू कर दिया । पूरे हिंदी साहित्य में ऐसा परिदृश्य निर्मित कर दिया गया कि अगर आप छंदोबद्ध कविता करते हैं और मंच पर सुर में कविता पाठ करते हैं तो आप प्रतिष्ठित कवि या गंभीर कवि नहीं हैं । उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा कि इस दुष्प्रचार का नतीजा यह हुआ कि आगे आनेवाली पीढ़ी ने छंद वाली कविता लिखना बंद कर दिया । मंच पर जाना बंद कर दिया । कविता का जो संवाद लोक से होता वह बंद हो गया । मंच पर होनेवाली कवि गोष्ठी से लोगों में पढ़ने का जो एक संस्कार बनता था वह खत्म हो गया । किसी कवि की अगर कोई रचना लोगों को पसंद आती थी तो श्रोता उसकी किताब ढूंढते थे और खोजकर उसको ना केवल खरीदते थे बल्कि पढ़कर उसपर चर्चा करते थे । इस तरह से समाज में कवि और कविता को लेकर एक संस्कार एक समझ विकसित होती थी । लेकिन कवि गोष्ठी के खत्म होने या फिर कमरों में सिमट जाने से कवियों का जो एक वृहत्तर संवाद होता था उसका दायरा भी सिमट गया । इसका नतीजा यह हुआ कि पाठकों में भी कमी आई, रचना का प्रचार प्रसार कम से कमतर होता चला गया । पाठकों को नई रचनाओं के बारे में जानकारी नहीं मिल पाई जिसके आभाव में कविता संग्रह या तो प्रकाशकों के पास सालों साल रहते रहे या फिर सरकारी खरीद के बूते लाइब्रेरी शोभा बढ़ाते रहे ।
मेर मित्र अपनी बातें इस मजबूती से कह रहे थे कि हम तीन लोग भावविभोर होकर उनको सुन रहे थे । बीच बीच में टोका टाकी उनको और मजबूती प्रदान कर रही थी लेकिन उनके तर्कों में ताकत थी जिस वजह से हम उन्हें सुनना चाह रहे थे । नई पीढ़ी के कवियों के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा कि नए लड़कों को लगने लगा कि अगर वो विचारधाऱा की या आम आदमी की यथार्थवादी कविता नहीं लिखेंगे तो हिंदी साहित्य में उनकी नोटिस नहीं ली जाएगी, उनकी पहचान नहीं बन पाएगी, उनको पुरस्कार आदि नहीं मिल पाएगा । यह उस माहौल का नतीजा था जो मार्क्सवादी आलोचकों और उस दौर के कर्ता-धर्ताओं ने बनाया था । लेकिन जिस यथार्थवाद और आम आदमी की आड़ में पूरा आंदोलन चल रहा था वही कविता से दूर होता चला गया । हम काफी देर तक उनकी बातें सुनते रहे लेकिन अचानक से मेरे दूसरे मित्र ने हस्तक्षेप किया और उनको रोकते हुए कहा कि वो जिस तरह से पूरे परिदृश्य का सरलीकरण या सामान्यीकरण कर रहे हैं वो उचित नहीं है । अब दोनों थोड़े भिड़ने के अंदाज में बहस करने लगे । दूसरे मित्र का तर्क था कि बाद के दिनों में माहौल बदला और समादज के सामने कोई चुनौती नहीं थी कोई बड़ा लक्ष्य नहीं था । जोश और जुनून बाले दौर में देश की आजादी और उसके बाद की स्थितियां जिम्मेदार थी । बाद में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया तो भी वीररस से सराबोर कविताएं लिखी गई । उसके बाद इमरजेंसी के दौर में नागार्जुन ने भी कई लोकप्रिय कविताएं लिखी जो जनता की जुबान पर ही नहीं चढ़ी बल्कि जयप्रकाश आंदोलन के दौर में आंदोलनकारियों के लिए प्रेरक भी साबित हुई । कविता पर अच्छी बहस चल रही थी जिसमें मैं अपनी अज्ञानता की वजह से कोई खास हस्तक्षेप नहीं कर पा रहा था । लेकिन फिर भी बार बार मेरे मन में यह सवाल उठ रहा था कि आज की कविता जनता से दूर क्यों हो गई है ।
इस बहस के कुछ दिन बाद कवि मित्र तजेन्द्र लूथरा का संदेश मिला कि वो अपने घर पर एक कवि गोष्ठी का आयोजन कर रहे हैं जो अनौपचारिक होगा जिसमें कुछ कवि मित्र अपनी रचनाएं सुनाएंगे और मिल बैठकर बातें करेंगे । मेरी कवि गोष्ठी में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही लेकिन कुछ दिनों पहले कविता पर हो रही बहस और कवि मित्रों से मिलने का लोभ ने मुझसे हां करवा लिया । दिल्ली की ट्रैफिक से जूझता जब में उनके घर पहुंचा तो कवि गोष्ठी शुरू हो चुकी थी और युवा कवि राजेन्द्र शर्मा अपनी कविता का पाठ कर रहे थे । श्रोताओं में कवियत्रि शबनम, बिपिन चौधरी, गोल्डी मल्होत्रा, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, ममता जी, बरखा सिंह, मदन कश्यप, मिथिलेश श्रीवास्तव और वरिष्ठ कवि विष्णु नागर मौजूद थे । जो श्रोता ते वही कवि भी थे, मेरे जैसे दो लोग और थे जो शुद्ध रूप से श्राता थे । वहां भी साफ तौर पर छंद वाली कविता और यथार्थवादी कविता का फर्क मुझे दिखा लेकिन जिस तरह की कविता शबनम, गोल्डी मल्होत्रा, ममता जी और लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने सुनाई वो समस्याओं के अलावा कर्णप्रिय भी था । उस दिन मुझे जो एक खास बात नजर आई वो यह कि कविता में अब आरटीआई से लेकर पीआईएल जैसे शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है । मौजूद सभी कवियों को तीन तीन कविताएं सुनाने की छूट थी । तजेन्द्र शर्मा की कविता शब्द से बातचीत मुझे बेहद पसंद आई दूसरी कविता लुहार का डर समाज की कई प्रवृतियों पर चोट करती प्रतीत हुई । इस अनौपचारिक गोष्ठी का संचालन पत्रकार-कवि-उपन्यासकार अरुण आदित्य कर रहे थे । उनकी कविता एक फूल का बॉयोडाटा और कागज का आत्मकथ्य बड़े सवाल तो खड़े कर ही रही थी समाज को हकीकत का आईना भी दिखा रही थी । दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष बरखा सिंह ने भी कुछ गजलें गाकर सुनाई । विष्णु नागर और मदन कश्यप ने भी गंभीरता से अपनी बात अपनी कविता में कही ।उसी कवि गोष्ठी के बाद राजेन्द्र शर्मा ने एक छोटी सी पुस्तिका- गाथा पांवधोई की – मुझे दी । घर आकर जब उसे पलटा तो जानकर खुशी हुई कि सहारनपुर में पांवधोई नदी जो कि नाले में तब्दील हो गई थी उसका जीर्णोद्धार जिलाधिकारी आलोक कुमार ने स्थीनय जनता की मदद से करवाया । उत्तर प्रदेश में यह अपने तरह की अनोखी पहल थी जहां प्रशासन ने जनसहयोग से जनहित के एक ऐसे काम को अंजाम देकर अपनी ऐतिहासिक विरासत को संवारा । इस एक छोटी सी घटना से अगर उत्तर प्रदेश में प्रशासन और जन सहयोग का नया अध्याय शुरू हो सके तो सूबे के लोगों के लिए बेहतर होगा ।

2 comments:

mridula pradhan said...

bahut achcha lekh likhe hain.

Arun Aditya said...

aapne us goshthi kee yaad taza kar dee.