काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़नेवाले योद्धाओं और केंद्र सरकार के बीच तलवारें खिंच गई हैं । लोकपाल बिल पर टीम अन्ना ने सरकार पर सीधे-सीधे धोखाधड़ी का आरोप लगया । सरकार ने भी अन्ना और उनके सहयोगियों के प्रति कड़ा रुख अपना लिया है । दोनों पक्षों के बीच जारी रस्साकशी के बीच अन्ना हजारे ने फिर से जंतर-मंतर पर अनशन करने का ऐलान कर दिया है। सरकार इस बात पर अमादा है कि लोकपाल बिल में उसकी ही चले । जनलोकपाल के कड़े प्रावधानों को डाल्यूट कर दिया जाए । अगर कांग्रेस के प्रधानमंत्री बेहद ईमानदार हैं तो उन्हें लोकपाल के दायरे में आने में दिक्कत क्या है । अगर जजों से ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है तो उनको लोकपाल के दायरे में लाने में सरकार घबरा क्यों रही है । दरअसल सरकार की मंशा ही उसे फिर से लटका देने की है और उसका ठीकरा वो टीम अन्ना पर ठोंकना चाहती है । इसकी पृष्ठभूमि कुछ दिनों पहले से तैयार हो रही थी । बाबा रामदेव के अनशन पर पुलिसिया कार्रवाई करने के बाद से ही सरकार के हौसले बुलंद हो गए थे। उसके बाद के कांग्रेस नेताओं के बयानों को एक साथ जोड़कर देखें तो कांग्रेसी रणनीति की तस्वीर साफ तौर पर नजर आती है । रामदेव के अनशन खत्म होने के चंद घंटों के भीतर ही कांग्रेस के बड़बोले महासचिव दिग्विजय सिंह ने बाबा के अनशन को नाटक करार दिया । दिग्विजय के बयान के कुछ ही देर बाद कांग्रेस के बड़े नेता और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी उनसे भी आगे बढ़ते हुए बाबा रामदेव के आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रायोजित बता कर उनपर जोरदार हमला बोला । सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाले वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी यहीं नहीं रुके उन्होंने ये दावा भी कर डाला कि रामदेव के पीछे पूरी भगवा ब्रिगेड है । उन्होंने यहां तक कह डाला कि जो पार्टी चुनावों में हार गई है वो अब बाबा को आगे बढ़ाकर आंदोलन चला रही है । आंदोलन के पीछे सरकार को अस्थिर करने की साजिश है । जाहिर सी बात है कि वित्त मंत्री का इशारा भारतीय जनता पार्टी की ओर था । हैरत की बात है कि प्रणब मुखर्जी जैसा मंझा हुआ राजनेता बाबा के अनशन खत्म होने के बाद यह बात कहता है कि उनके आंदोलन को संघ का समर्थन था । यही बात अब कुछ कांग्रेसी अन्ना और उनेक सहयोगियों के बारे में कहने लगे हैं । टीम अन्ना पर भी भगवा ब्रिगेड का एजेंडा आगे बढाने का आरोप लगा है । लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या प्रणब मुखर्जी को यह बात तब नहीं पता थी जब वो अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ बाबा रामदेव की अगुवाई करने दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुंचे थे । क्या सरकार को अन्ना के अतीत के बारे में पता नहीं था जब रातों रात लोकपाल कमेटी के बारे में सरकारी गजट जारी किया गया । क्या दिल्ली के पांच सितारा होटल में बाबा रामदेव के साथ बैठने वाले केंद्रीय मंत्रियों को इस बात का पता नहीं था कि बाबा संघ के इशारे पर सरकार को अस्थिर करने की साजिश रच रहे हैं । क्या अन्ना के साथ बैठकों का दौर जारी होने तक यह पता नहीं था कि वो बीजेपी और संघ के मुखौटा है । क्या ये मान लिया जाए कि पूरी यूपीए सरकार संघ का एजेंडा चला रहे अन्ना और बाबा की चाल भांपने में नाकाम रही ।
दरअसल ऐसा है नहीं । ये कांग्रेस पार्टी की पुरानी फितरत है । जब भी किसी व्यक्ति या संगठन को डिस्क्रेडिट करना हो तो उसका नाम संघ के साथ जोड़कर ये संदेश दो कि ये लोग सांप्रदायिक ताकतों के हाथ खेल रहे हैं ।संघ का हौवा दिखाकर कांग्रेस वर्षों से वोट बैंक की राजनीति करती रही है । कांग्रेस की यह एक बड़ी ट्रेजडी है । आजादी के आंदोलन में जो राष्ट्रवाद कांग्रेस की ताकत हुआ करती थी उसको पार्टी ने थाली में परोस कर संघ और बीजेपी को पेश कर दिया । राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक बनाने के चक्कर में कांग्रेस ने अपनी ताकत खो दी । अब कांग्रेस में कोई राष्ट्रवाद की बात नहीं करता । उनके नेताओं ने यह मान लिया है कि देश, देशहित, देशप्रेम आदि आदि की बात करना सांप्रदायिकता है और जो इन बातों की पैरोकारी करेगा वो सांप्रदायिक है या फिर सांप्रदायिक ताकतों के हाथ की कठपुतली ।
अगर यह मान भी लिया जाए कि अन्ना और बाबा को संघ का समर्थन हासिल है तो उससे क्या आंदोलन का उद्देश्य कमजोर हो जाता है । क्या जिन सवालों को लेकर अन्ना हजारे या बाबा रामदेव आंदोलन कर रहे हैं वो बेमानी हो जाते हैं । क्या आज हमारे देश में भ्रष्टाचार और काला धन राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है । क्या देश और जनता से जुड़े इन मुद्दों को राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी को समर्थन देने का हक नहीं है ।
बात यह भी नहीं है । दरअसल कांग्रेस की इस रणनीति को समझने के लिए हमें कुछ पहले चलना होगा । अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद जब लोकपाल को लेकर सरकार दबाव में आ गई थी और उसने यह मान लिया था कि सिविल सोसाइटी के सदस्यों के साथ मिल बैठकर लोकपाल बिल के मसौदे को तैयार किया जाएगा और उस बिल को संसद के मॉनसून सत्र में पेश कर दिया जाएगा । लोकपाल कमेटी के साथ दो तीन बैठकों के बाद सरकारी नुमाइंदो को यह अहसास हो गया कि सिविल सोसाइटी के सदस्यों से आसानी से अपनी बातें नहीं मनवा पाएगी । फिर वही खेल शुरू हुआ । सिविल सोसाइटी के सदस्यों पर व्यक्तिगत हमले शुरू हुए । उनकी संपत्ति और उनके आंदोलन को चलाने के आय के स्त्रोत को लेकर खबरें सामने आने लगी । सावधान अन्ना की टोली ने अपने संगठन की बेवसाइट पर अपने व्यक्तिगत संपत्ति और सहयोग राशि के स्त्रोत का खुलासा कर कांग्रेस के षडयंत्र की हवा निकाल दी । उसी तरह से बाबा रामदेव और उनके योग ट्रस्ट की संपत्तियों को लेकर सवाल खड़े किए गए । मकसद सिर्फ बाबा को डिस्क्रेडिट करना था, जिसमें कुछ हद तक सरकार कामयाब भी रही । बाबा रामदेव ने अगर गलत तरीके से संपत्ति अर्जित की है तो उसकी जांच अबतक हो हो जानी चाहिए थी। लेकिन मंशा जांच कराने की नहीं बदनाम करने की है । सरकार ने काले धन के खिलाफ अनशन का ऐलान कर चुके बाबा रामदेव को ज्यादा तवज्जो देकर अन्ना और उनकी टोली को दरकिनार करने का खेल भी खेला । बाबा को अहमियत देने के फैसले के बाद ही प्रणब मुखर्जी समेत सरकार के चार कैबिनेट मंत्री बाबा से मिलने एयरपोर्ट जा पहुंचे । जनता के बीच यह संदेश देने की कोशिश की गई कि बाबा सरकार के लिए बेहद अहम हैं और सरकार काला धन के खात्मे के लिए प्रतिबद्ध है । लेकिन बाबा रामदेव के साथ बात नहीं बनी । जो सरकार अन्ना के खिलाफ बाबा को खड़ा करना चाहती थी उसकी ही कार्रवाई ने बाबा और अन्ना को और मजबूती से एक कर दिया । बाबा रामदेव के खिलाफ पुलिस कार्रवाई के विरोध में अन्ना हजारे एक दिन के लिए राजघाट पर उपवास पर बैठे । तपती दोपहरी में लोगों की भीड़ ने सरकार को यह संकेत दे दिया कि भ्रष्टाचार और काला धन के मुद्दे को सरकार हल्के में नहीं ले सकती । काला धन और भ्रष्टाचार आज देश में एक ऐसा मुद्दा बन चुका है जिसको लेकर जनता सरकार से कोई ठोस कार्रवाई चाहती है । वक्त आ गया है कि सरकार अपनी हरकतों से बाज आए, कांग्रेस पार्टी बजाए हमलावर होने के लोगों की सुने । जिन मुद्दों को अन्ना हजारे या बाबा रामदेव उठा रहे हैं उनको तवज्जो दे और उसके सर्वमान्य हल खोजने की दिशा में सार्थक पहल करे, ताकि जनता के बीच सरकार को लेकर विश्वास कायम हो सके । लोकतंत्र में सरकार से लोक का भरोसा उठना अच्छा संकेत नहीं होता । सोनिया गांधी और प्रणब मुखर्जी से बेहतर इसे कोई नहीं समझ सकता क्योंकि दोनों लंबे समय तक इंदिरा गांधी के साथ रहे हैं, इमरजेंसी लगाने के दौरान भी और इमरजेंसी खत्म के होने के बाद भी ।
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Saturday, June 18, 2011
Friday, June 10, 2011
नक्सलियों को रोकने की कवायद
अभी कुछ दिनों पहले केंद्र सरकार की तरफ से वनवासियों और आदिवासियों के कल्याण और उनके हितों का ध्यान रखने के लिए कई सकारात्मक कदम उठाए गए हैं और अनेक पहल के संकेत भी मिले हैं । भ्रष्टाचार के आरोपों से चौतरफा घिरी और विपक्ष के हमलों से हलकान केंद्र सरकार को अब देश के जंगलों और पिछड़े इलाके में रहनेवाले आदिवासियों और जंगल आधारित उत्पादों पर आधारित जीवन बसर करनेवाले लोगों की याद आई है। केंद्र सरकार की तरफ से ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि वो जंगली पेड़ों और उससे जुड़े उत्पाद को छोड़कर अन्य जंगली उत्पादों जैसे बांस, महुआ तेंदू पत्ता आदि का समर्थन मूल्य तय करने के बारे में गंभीरता से विचार कर रही है । सरकार इनकी बिक्री और भंडारण के लिए कृषि उत्पाद और बिक्री कमीशन के अलावा फूड कॉर्पेरेशन ऑफ इंडिया की तर्ज पर संस्थाएं बनाना चाहती है । ये जंगली उत्पाद लाखों वनवासियों के जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन है लेकिन पुरानी सरकारी नीतियों में इतनी खामियां हैं कि वनवासियों को अपने वाजिब हक के लिए भी खासी मशक्कत करनी पड़ती है। सरकार के इस फैसले के पीछे राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक वजहें तो हैं ही,पर्यावरण संरक्षण भी एक महत्वपूर्ण कारक हैं । पहली बात तो यह कि सरकार ऐसा करके राजनैतिक तौर पर यह संदेश देना चाहती है कि वो आदिवासियों और जंगल में रहनेवाले लोगों के हितों को लेकर गंभीर है । इस राजनैतिक कारण के पीछे हम सोनिया गांधी के कुछ दिनों पहले पार्टी के मुखपत्र कांग्रेस संदेश लिखे उनके लेख में इसके संकेत पकड़ सकते हैं । अपने लेख में सोनिया गांधी ने सरकार को जंगली इलाकों में समावेशी विकास करने की सलाह दी थी । सोनिया गांधी का उक्त लेख छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ के जवानों की जघन्य हत्या के बाद छपा था । सोनिया गांधी के अपने लेख में नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास के कामों पर जोर देने की सलाह दी थी । ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार ने वहीं से क्यू लेते हुए जंगली उत्पादों का समर्थन मूल्य तय करने की योजना बनाई ।
अब तक जंगल के इलाकों में ठेकेदार और वहां सक्रिय दलाल अपने इलाके के उत्पादों की खरीद फरोख्त में मनमानी कर रहे हैं । जंगल के उन उत्पादों के बारे में कोई ठोस सरकारी नीति नहीं होने या फिर दोषपूर्ण सरकारी नियमों की वजह से दलाल चांदी काट रहे हैं और आदिवासियों का जमकर शोषण हो रहा है । उन इलाकों में बिचौलिए ही जंगली उत्पादों की कीमतें तय करते हैं और भोले-भाले गरीब आदिवासियों को उनकी मेहनत के उचित मूल्य से महरूम कर देते हैं । बिचौलियों की यही भूमिका और ज्यादती उन इलाके में माओवादियों को वनवासियों के बीच अपनी जमीन पुख्ता करने का मौका देती है । आदिवासियों के हक की बात करके और उनके शोषण के खिलाफ आवाज उठाकर माओवादियों ने आदिवासियों का दिल जीता और उनके बीच अपनी पकड़ भी मजबूत बनाई । अगर सरकार उन इलाकों में जंगली उत्पादों की बिक्री व्यवस्था को दुरुस्त कर और उसके भंडारण के लिए उचित इंतजाम कर सके तो यह एक बड़ी सफलता होगी । फूड कॉर्पोरशेन जैसी कोई संस्था बनाकर अगर जंगली उत्पादों के उन्हीं इलाकों में भंडारण की व्यवस्था हो सके तो आदिवासियों को उनके उत्पादों पर ज्यादा दाम मिल पाएगा । इसका एक बड़ा फायदा यह होगा कि उन इलाकों में नक्सलियों और माओवादियों की लोकप्रियता कम होगी और उनको कमजोर किया जा सकेगा ।
इस तरह की योजना बनाते समय सरकार को देश के अलग-अलग इलाकों के लिए अलहदा योजना बनानी होगी । पूरे देश में अगर एकीकृत समर्थन मूल्य की नीति बनाई जाती हो तो वह दोषपूर्ण होगी क्योंकि देश के अलग-अलग हिस्सों में इन उत्पादों की सप्लाई और उसका बाजार अलग है । इसके अलावा यह भी जरूरी है कि कास इलाके को ध्यान में रखकर वहां इन उच्पादों के भंडारण का इंतजाम किया जा सके ताकि जब बाजार में मूल्य अधिक मिल रहा हो उस वक्त उन उत्पादों को बेचकर आदिवासियों को ज्यादा मुनाफा हो । इस वयवस्था को बनाते वक्त सरकार को यह भी द्यान देना होगा कि फूड कॉर्पोरेशन की तरह यहां अमियमितताएं और भ्रष्टाचार नहीं हो । अगर सरकार इस तरह की वयवस्था बनाने में नाकाम रहती है तो आदिवासी और उनके उत्पाद निजी ठेकेदारों और दलालों के चंगुल से मुक्त होकर सरकारी और अर्धसरकारी दलालों के चंगुल में फंस जाएगी ।
दूसरी अहम बदलाव जिसपर सरकार विचार कर रही है या यों कहें कि केंद्रीय कैबिनेट ने फैसला ले लिया है लह ये कि बांस को लकड़ी ना मानकर घास माना जाए लेकिन इसका नोटिफिकेशन होना अभी शेष है । भारतीय वन अधिनियम के तहत अब तक बांस को लकड़ी माना जाता रहा है जिसकी वजह से किसी को भी बांस को काटने के लिए तमाम सरकारी महकमों से इजाजत लेनी पड़ती है । इस इजाजत की जड़ से भ्रष्टाचार पनपता है और शोषण की भी नींव पड़ती है । बांस को घास मानने की बहस बेहद लंबी है और काफी समय से चल रही है । वनस्पति विज्ञान में भी बांस को घास ही माना गया है । लेकिन अंग्रेजो के जमाने के कानून में बदलाव की फिक्र हमें आजादी के 40 साल बाद हो रही है । अगर बांस को लकड़ी मानने के कानून से आजाद कर दिया जाता है तो तकरीबन दस हजार करोड़ की बांस आधारित उद्योग से बनवासियों से काफी लाभ मिलेगा और देश में नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव को भी कम किया जा सकेगा ।
अब तक जंगल के इलाकों में ठेकेदार और वहां सक्रिय दलाल अपने इलाके के उत्पादों की खरीद फरोख्त में मनमानी कर रहे हैं । जंगल के उन उत्पादों के बारे में कोई ठोस सरकारी नीति नहीं होने या फिर दोषपूर्ण सरकारी नियमों की वजह से दलाल चांदी काट रहे हैं और आदिवासियों का जमकर शोषण हो रहा है । उन इलाकों में बिचौलिए ही जंगली उत्पादों की कीमतें तय करते हैं और भोले-भाले गरीब आदिवासियों को उनकी मेहनत के उचित मूल्य से महरूम कर देते हैं । बिचौलियों की यही भूमिका और ज्यादती उन इलाके में माओवादियों को वनवासियों के बीच अपनी जमीन पुख्ता करने का मौका देती है । आदिवासियों के हक की बात करके और उनके शोषण के खिलाफ आवाज उठाकर माओवादियों ने आदिवासियों का दिल जीता और उनके बीच अपनी पकड़ भी मजबूत बनाई । अगर सरकार उन इलाकों में जंगली उत्पादों की बिक्री व्यवस्था को दुरुस्त कर और उसके भंडारण के लिए उचित इंतजाम कर सके तो यह एक बड़ी सफलता होगी । फूड कॉर्पोरशेन जैसी कोई संस्था बनाकर अगर जंगली उत्पादों के उन्हीं इलाकों में भंडारण की व्यवस्था हो सके तो आदिवासियों को उनके उत्पादों पर ज्यादा दाम मिल पाएगा । इसका एक बड़ा फायदा यह होगा कि उन इलाकों में नक्सलियों और माओवादियों की लोकप्रियता कम होगी और उनको कमजोर किया जा सकेगा ।
इस तरह की योजना बनाते समय सरकार को देश के अलग-अलग इलाकों के लिए अलहदा योजना बनानी होगी । पूरे देश में अगर एकीकृत समर्थन मूल्य की नीति बनाई जाती हो तो वह दोषपूर्ण होगी क्योंकि देश के अलग-अलग हिस्सों में इन उत्पादों की सप्लाई और उसका बाजार अलग है । इसके अलावा यह भी जरूरी है कि कास इलाके को ध्यान में रखकर वहां इन उच्पादों के भंडारण का इंतजाम किया जा सके ताकि जब बाजार में मूल्य अधिक मिल रहा हो उस वक्त उन उत्पादों को बेचकर आदिवासियों को ज्यादा मुनाफा हो । इस वयवस्था को बनाते वक्त सरकार को यह भी द्यान देना होगा कि फूड कॉर्पोरेशन की तरह यहां अमियमितताएं और भ्रष्टाचार नहीं हो । अगर सरकार इस तरह की वयवस्था बनाने में नाकाम रहती है तो आदिवासी और उनके उत्पाद निजी ठेकेदारों और दलालों के चंगुल से मुक्त होकर सरकारी और अर्धसरकारी दलालों के चंगुल में फंस जाएगी ।
दूसरी अहम बदलाव जिसपर सरकार विचार कर रही है या यों कहें कि केंद्रीय कैबिनेट ने फैसला ले लिया है लह ये कि बांस को लकड़ी ना मानकर घास माना जाए लेकिन इसका नोटिफिकेशन होना अभी शेष है । भारतीय वन अधिनियम के तहत अब तक बांस को लकड़ी माना जाता रहा है जिसकी वजह से किसी को भी बांस को काटने के लिए तमाम सरकारी महकमों से इजाजत लेनी पड़ती है । इस इजाजत की जड़ से भ्रष्टाचार पनपता है और शोषण की भी नींव पड़ती है । बांस को घास मानने की बहस बेहद लंबी है और काफी समय से चल रही है । वनस्पति विज्ञान में भी बांस को घास ही माना गया है । लेकिन अंग्रेजो के जमाने के कानून में बदलाव की फिक्र हमें आजादी के 40 साल बाद हो रही है । अगर बांस को लकड़ी मानने के कानून से आजाद कर दिया जाता है तो तकरीबन दस हजार करोड़ की बांस आधारित उद्योग से बनवासियों से काफी लाभ मिलेगा और देश में नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव को भी कम किया जा सकेगा ।
Tuesday, June 7, 2011
विचारों की 'परिक्रमा'
हिंदी में पत्रिकाओ का बेहद लंबा इतिहास रहा है । उन्नीसवीं सदी हिंदी भाषा और लाहित्य में नवजागरण का काल माना जाता है । यह भी तथ्य है कि हिंदी का पहला समाचार पत्र उदंत मार्तंड 30 मई, 1826 का प्रकाशन कलकत्ता से हुआ था, जिसके प्रथम संपादक बाबू जुगुल किशोर सुकुल थे । लेकिन हिंदी की पहली साहित्यिक पत्रिका कवि वचन सुधा थी जिसे संपादक भारतेंदु हरिश्चंद्र थे । भारतेंदु ने जब इस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया उसके बाद से हिंदी में कई साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हो गया । भारतेंदु युग में साहित्यिक पत्रिका के दो प्रमुख केंद्र- बनारस और पटना थे । भारतेंदु युग के बाद जब साहित्यिक पत्रिका का प्रसार और विकास हुआ तो ना केवल कलकत्ता बल्कि इलाहाबाद भी पत्रिकाओं के नए केंद्र बने जहां से कई कालजयी पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जो बाद में हिंदी की थाती बने । बिहार में हिंदी पत्रिकारिता की शुरुआत का बेहद दिलचस्प इतिहास है । बिहार में माना जाता है कि हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत 1874 में हुई जिसके जनक पंडित केशवराम भट्ट थे । पंडित केशवराम भट्ट ने 1872 में कलकत्ता से बिहार बंधु का प्रकाशन शुरू किया था । तब उस पत्रिका को कलकत्ता से प्रकाशित करने की वजह बिहार में हिंदी छापाखाना का नहीं होना था । उस दौर में बिहार में सिर्फ उर्दू प्रेस हुआ करते थे जिसकी वजह से पंडित केशवराम भट्ट को कलकत्ता से बिहार बंधु का प्रकाशन प्रारंभ करना पड़ा था । लेकिन उससे भी दिलचस्प कहानी इस पत्रिका के बिहार लौटने की है । दो साल तक कलकत्ता से प्रकाशन होने के बाद जब पंडित भट्ट को यह महसूस हुआ कि कलकत्ता में हिंदी के प्रूफ रीडर नहीं मिल रहे तो उन्होंने यह तय किया किया कि अब बिहार की राजधानी पटना से ही उसका प्रकाशन किया जाए । इस निर्णय के बाद 1874 से पटना से बिहार बंधु का प्रकाशन शुरू हुआ । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है जिसपर कभी विस्तार से बात होगी । हम बात हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं की कर रहे थे । भारतेंदु युग से द्विवेदी युग तक देश में हिंदी साहित्यिक पत्रिकाओं के चार केंद्र विकसित हो चुके थे । इसके बाद देश के अन्य इलाकों से भी साहित्यिक पत्रिकाओं की शुरुआत हुई ।
लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जब हिंदी में लघु पत्रिकाओं की शुरुआत हुई तो 1957 में बनारस से विष्णुचंद्र शर्मा ने कवि का प्रकाशन शुरू किया । कालांतर में हिंदी में कई पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ जि्सने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया । जिसमें आलोचना, पहल, सिर्फ, ध्वजभंग, दस्तावेज, समीक्षा, तद्वभव आदि प्रमुख हैं । जैसे जैसे समय बीतता गया साहित्यिक पत्रिकाओं का केंद्र भी देश की राजधानी दिल्ली की ओर बढ़ने लगा । जब 1986 में राजेन्द्र यादव ने दिल्ली से हंस का पुनर्प्रकाशन शुरू किया तो साहित्यिक पत्रकारिता के केंद्र में दिल्ली का स्थान अहम हो गया । हंस ने नई कहानी आंदोलन के अवांगार्द राजेन्द्र यादव के संपादन में साहित्यक पत्रकारिता को एक नई धार और तेवर दोनों दिए। पिछले ढाई दशक में हंस ने ना केवल हिंदी की सबसे अच्छी कहानियां छापी बल्कि दलित और स्त्री विमर्श के साथ अपने समय की प्रासंगिक मुद्दों और बहसों को उठाकर हिंदी साहित्यक पत्रकारिता का एक नया इतिहास रच दिया । हंस और उसके संपादक से तमाम असहमतियों के बावजूद यह कहा जा सकता है कि – आप उसे पसंद ना करें लेकिन आप उसको इग्नोर नहीं कर सकते । दूसरी एक पत्रिका जिससे उम्मीद जगी थी वो थी समयांतर जिसके यशस्वी संपादक पंकज विष्ठ हैं । पंकज विष्ठ के लेखन में एक आग है लेकिन बाद के दिनों में पंकज जी ने वयक्तिगत राग द्वेष को अपने संपादकीय का विषय बना दिया । नतीजा यह हुआ कि जो एक पूरी पीढ़ी पंकज जी की ओर उम्मीद भरी दृष्टि लगाए बैठी थी उसका मोहभंग हुआ । और अब तो दरबारी लाल की वजह से समयांतर यह हालत हो गई है जैसी कि अभिनेताओं के बीच राजू श्रीवास्तव की है ।
साहित्यक पत्रिकाओं की इस भीड़ में एक बात जो दब कर रह गई । हुआ यह कि कहानी कविता और आलोचना की आंधी में वैचारिक लेख और साहित्येतर विषय इन पत्रिकाओं से गायब होते चले गए । हिंदी में गंभीर वैचारिक पत्रिका की कमी अखरने लगी । साहित्येतर विषयों पर केंद्रित होने या फिर उन विषयों पर विचार विमर्श का मंच देनेवाली पत्रिता नहीं रही । हिंदी के गंभीर पाठकों को हमेशा से लगता रहा कि उनकी भाषा में भी मेनस्ट्रीम या फिर सेमिनार जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हो । लेकिन कई बार कोशिश भी हुई लेकिन वो परवान नहीं चढ़ सकी । पहले तो वैचारिक पत्रिका के दावे किए गए लेकिन बाद में वो समाचार पत्रिका में तब्दील हो गए या फिर एक दो अंकों के बाद अमियतकालीन हो गए । यहां मैं जानबूझकर उन पत्रिकाओं के नाम नहीं दे रहा और उनको अनियतकालीन इस वजह स कह रहा हूं क्यों उनके बंद होने का औपचारिक ऐलान नहीं हुआ ।
लेकिन दिल्ली से अप्रैल 2008 में हिंदी में एक ऐसी पत्रिका की शुरुआत हुई जिसने वैचारिक पत्रिका की उस कमी को पूरा किया और तब से लेकर अब तक यह पत्रिका लगातार निकल रही है । इस पत्रिका का नाम है विचार परिक्रमा() और इसके संपादक हैं शरद गोयल । पत्रिका ने पूर्व में कई अंक विषय विशेष पर फोकस किए जिनमें मीडिया और विकलांगों पर निकले विशेषांक की खासी चर्चा हुई । पत्रिका का ताजा अंक किन्नरों पर केंद्रिंत है । किन्नर हमारे समाज के ही अंग हैं लेकिन समाज से मिल रहे उपेक्षा की उनकी जो पीड़ा है उसके इस अंक में सामने लाने की कोशिश की गई है । किन्नरों को हमारे समाज में किसी तरह का कोई अधिकार नहीं प्राप्त है । आमतौर पर उनको या तो अपराधी या फिर सेक्स ट्रेड में लिप्त समझकर हेय दृष्टि से देखा जाता है । उनको छक्का कहकर उनका मजाक उड़ाया जाता है । मजाक उड़ाने वाले उनकी पीड़ा को नहीं समझ सकते । ये वो लोग हैं जो अपने ही समाज के बीच उपेक्षा का दंश झेलने को अभिशप्त हैं । लेकिन हमारे समाज में कहीं कहीं किन्नरों को खुशी के मौके पर शुभ मानकर उनका आशीर्वाद भी लिया जाता है । बच्चों के जन्म या फिर नए घर में प्रवेश के वक्त किन्नरों का गाया गीत बेहद शुभ माना जाता है । पिछले दिनों कई किन्नरों ने समाज के कई क्षेत्र में अपना एक मुकाम हासिल कर यह साबित कर दिया उनको अगर मौका मिले और उनमें हौसला हो तो वो भी किसी तरह की उचांई हासिल कर सकते हैं । चाहे वो शबनम मौसी हों या फिर टेलीविजन शो में सलमान के साथ ठुमके लगा रही लक्ष्मी हो । विचार परिक्रमा के इस अंक में ज्योति और शशिकांत के लेख खासतौर पर इस अंक की उपल्बधि हैं । इसके अलावा की कई विचारोत्तेजक लेख इस पत्रिका में प्रकाशित हैं जो हमारे समाज के इस उपेक्षित समुदाय के दर्द को उभारता हुआ है । उम्मीद की जानी चाहिए कि यह पत्रिका इसी तरह से निकलती रहे और हिंदी में वैचारिक लेखन में जो एक वैक्यूम आ गया था उसको सफलतापूर्व भरता रहे । लेकिन इस बात की भी जरूरत है कि इस पत्रिका को हिंदी के गंभीर पाठकों तक पहुंचाने की और बेहतर कोशिश की जानी चाहिए ताकि एक विशाल पाठक वर्ग को इसका लाभ मिल सके ।
लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जब हिंदी में लघु पत्रिकाओं की शुरुआत हुई तो 1957 में बनारस से विष्णुचंद्र शर्मा ने कवि का प्रकाशन शुरू किया । कालांतर में हिंदी में कई पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ जि्सने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया । जिसमें आलोचना, पहल, सिर्फ, ध्वजभंग, दस्तावेज, समीक्षा, तद्वभव आदि प्रमुख हैं । जैसे जैसे समय बीतता गया साहित्यिक पत्रिकाओं का केंद्र भी देश की राजधानी दिल्ली की ओर बढ़ने लगा । जब 1986 में राजेन्द्र यादव ने दिल्ली से हंस का पुनर्प्रकाशन शुरू किया तो साहित्यिक पत्रकारिता के केंद्र में दिल्ली का स्थान अहम हो गया । हंस ने नई कहानी आंदोलन के अवांगार्द राजेन्द्र यादव के संपादन में साहित्यक पत्रकारिता को एक नई धार और तेवर दोनों दिए। पिछले ढाई दशक में हंस ने ना केवल हिंदी की सबसे अच्छी कहानियां छापी बल्कि दलित और स्त्री विमर्श के साथ अपने समय की प्रासंगिक मुद्दों और बहसों को उठाकर हिंदी साहित्यक पत्रकारिता का एक नया इतिहास रच दिया । हंस और उसके संपादक से तमाम असहमतियों के बावजूद यह कहा जा सकता है कि – आप उसे पसंद ना करें लेकिन आप उसको इग्नोर नहीं कर सकते । दूसरी एक पत्रिका जिससे उम्मीद जगी थी वो थी समयांतर जिसके यशस्वी संपादक पंकज विष्ठ हैं । पंकज विष्ठ के लेखन में एक आग है लेकिन बाद के दिनों में पंकज जी ने वयक्तिगत राग द्वेष को अपने संपादकीय का विषय बना दिया । नतीजा यह हुआ कि जो एक पूरी पीढ़ी पंकज जी की ओर उम्मीद भरी दृष्टि लगाए बैठी थी उसका मोहभंग हुआ । और अब तो दरबारी लाल की वजह से समयांतर यह हालत हो गई है जैसी कि अभिनेताओं के बीच राजू श्रीवास्तव की है ।
साहित्यक पत्रिकाओं की इस भीड़ में एक बात जो दब कर रह गई । हुआ यह कि कहानी कविता और आलोचना की आंधी में वैचारिक लेख और साहित्येतर विषय इन पत्रिकाओं से गायब होते चले गए । हिंदी में गंभीर वैचारिक पत्रिका की कमी अखरने लगी । साहित्येतर विषयों पर केंद्रित होने या फिर उन विषयों पर विचार विमर्श का मंच देनेवाली पत्रिता नहीं रही । हिंदी के गंभीर पाठकों को हमेशा से लगता रहा कि उनकी भाषा में भी मेनस्ट्रीम या फिर सेमिनार जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हो । लेकिन कई बार कोशिश भी हुई लेकिन वो परवान नहीं चढ़ सकी । पहले तो वैचारिक पत्रिका के दावे किए गए लेकिन बाद में वो समाचार पत्रिका में तब्दील हो गए या फिर एक दो अंकों के बाद अमियतकालीन हो गए । यहां मैं जानबूझकर उन पत्रिकाओं के नाम नहीं दे रहा और उनको अनियतकालीन इस वजह स कह रहा हूं क्यों उनके बंद होने का औपचारिक ऐलान नहीं हुआ ।
लेकिन दिल्ली से अप्रैल 2008 में हिंदी में एक ऐसी पत्रिका की शुरुआत हुई जिसने वैचारिक पत्रिका की उस कमी को पूरा किया और तब से लेकर अब तक यह पत्रिका लगातार निकल रही है । इस पत्रिका का नाम है विचार परिक्रमा() और इसके संपादक हैं शरद गोयल । पत्रिका ने पूर्व में कई अंक विषय विशेष पर फोकस किए जिनमें मीडिया और विकलांगों पर निकले विशेषांक की खासी चर्चा हुई । पत्रिका का ताजा अंक किन्नरों पर केंद्रिंत है । किन्नर हमारे समाज के ही अंग हैं लेकिन समाज से मिल रहे उपेक्षा की उनकी जो पीड़ा है उसके इस अंक में सामने लाने की कोशिश की गई है । किन्नरों को हमारे समाज में किसी तरह का कोई अधिकार नहीं प्राप्त है । आमतौर पर उनको या तो अपराधी या फिर सेक्स ट्रेड में लिप्त समझकर हेय दृष्टि से देखा जाता है । उनको छक्का कहकर उनका मजाक उड़ाया जाता है । मजाक उड़ाने वाले उनकी पीड़ा को नहीं समझ सकते । ये वो लोग हैं जो अपने ही समाज के बीच उपेक्षा का दंश झेलने को अभिशप्त हैं । लेकिन हमारे समाज में कहीं कहीं किन्नरों को खुशी के मौके पर शुभ मानकर उनका आशीर्वाद भी लिया जाता है । बच्चों के जन्म या फिर नए घर में प्रवेश के वक्त किन्नरों का गाया गीत बेहद शुभ माना जाता है । पिछले दिनों कई किन्नरों ने समाज के कई क्षेत्र में अपना एक मुकाम हासिल कर यह साबित कर दिया उनको अगर मौका मिले और उनमें हौसला हो तो वो भी किसी तरह की उचांई हासिल कर सकते हैं । चाहे वो शबनम मौसी हों या फिर टेलीविजन शो में सलमान के साथ ठुमके लगा रही लक्ष्मी हो । विचार परिक्रमा के इस अंक में ज्योति और शशिकांत के लेख खासतौर पर इस अंक की उपल्बधि हैं । इसके अलावा की कई विचारोत्तेजक लेख इस पत्रिका में प्रकाशित हैं जो हमारे समाज के इस उपेक्षित समुदाय के दर्द को उभारता हुआ है । उम्मीद की जानी चाहिए कि यह पत्रिका इसी तरह से निकलती रहे और हिंदी में वैचारिक लेखन में जो एक वैक्यूम आ गया था उसको सफलतापूर्व भरता रहे । लेकिन इस बात की भी जरूरत है कि इस पत्रिका को हिंदी के गंभीर पाठकों तक पहुंचाने की और बेहतर कोशिश की जानी चाहिए ताकि एक विशाल पाठक वर्ग को इसका लाभ मिल सके ।
Sunday, June 5, 2011
प्रकाशकों को चुनौती
हिंदी में इस बात को लेकर हाल के दिनों में लागतार चिंता प्रकट की जा रही है कि इंटरनेट और सूचना क्रांति के विस्फोट में छपी हुई किताबों की महत्ता या यों कहें उनका वर्तमान स्वरूप खत्म हो जाएगा । इस चिंता ने हिंदी में एक नई बहस को जन्म दिया था कि क्या हिंदी से छपी हुई किताबें खत्म हो जाएंगी। इसके पक्ष और विपक्ष में कई तरह के विचार आए हैं और इसपर पत्रिकाओं, अखबारों और खुद इंटरनेट और ब्लॉग पर जोरदार बहस जारी है। लेकिन अभी अमेरिका से आई एक खबर ने हिंदी साहित्य की चिंता और बढ़ा दी है और छपी हुई किताबों के पक्ष में बात करने वालों की पेशानी पर बल पड़ गए हैं और विरोधियों के हौसले बुलंद हो गए हैं। इंटरनेट के जरिए किताबों का कारोबार करनेवाली कंपनी अमेजन ने ऐलान किया है कि उसकी बेवसाइट पर छपी हुई किताबों को ई बुक्स ने बिक्री के लिहाज से मात दे दी है । अमेजन के मुताबिक अगर छपी हुई सौ किताबें बिक रही हैं तो ई बुक्स एक सौ पांच की संख्या में बिक रही हैं। ई बुक्स पढ़ने की सबसे मशहूर और लोकप्रिय डिवाइस किंडल बुक्स की छपी पुस्तकों की बिक्री को पीछे छोड़ना एक ऐतिहासिक घटना के तौर पर रेखांकित की जा रही है । दरअसल चार साल पहले ही अमेजन ने अपने बेवसाइट पर किंडल के जरिए ई बुक्स की बिक्री का अनूठा प्रयोग शुरू किया था । चार महीने पहले ही किंडल एडिशन ने पेपरबैक किताबों की बिक्री को पीछे छोड़ दिया था और अब समग्रता में उसने यह सफलता हासिल की है । अमेरिकी बेवसाइट अमेजन के मुताबिक यह हालत तो तब है जबकि कई पुस्तकों के किंडल संस्करण बिक्री के लिए उपलब्ध नहीं हैं । अमेजन के सीईओ जेफ बेजोस को भी पाठकों की रुचि में इस तरह के बदलाब की अपेक्षा तो थी पर यह इतनी जल्दी घटित हो जाएगा इसका अमुमान उन्हें नहीं था । दरअसल टेबलेट कंप्यूटर आने की वजह से लोगों के बीच ई बुक्स की लोकप्रियता काफी बढ़ी हैं और अब तो एप्पल के आई पैड की वजह से भी इसकी बिक्री को पंख लग सकते हैं ।
सवाल यह उठता है कि क्या आनेवाले दिनों में छपी हुई किताबों का भविष्य खत्म हो जाएगा । छपी किताबों का कारोबार करनेवाले प्रकाशकों पर संकट आनेवाला है। क्या अबतक कंप्यूटर पर लिखनेवाले लेखक भी ई बुक्स के ही जरिए पाठकों के बीच जाएंगे । कई उत्साही लोग तो इन सारे प्रश्नों के सकारात्मक जबाव दे रहे हैं । संभव है कि पश्चिम के विकसित देशों में यह बात आंशिक रूप से सच भी हो । आंशिक इस वजह से कि पश्चिमी देशों में सूचना के संजाल के तमाम विकास के बावजूद अब भी लाखों में किताबें बिक रही हैं । चाहे वो जोनाथन फ्रेंजन की फ्रीडम हो या टोनी ब्लेयर की आत्मकथा- अ जर्नी । इन सबने किताबों की बिक्री के पिछले सारे रिकॉर्ड को ध्वस्त कर दिया । अमेजन ने भले ही यह ऐलान किया है कि ई बुक्स ने किताबों की बिक्री को पीछे छोड़ दिया है लेकिन उसने बिक्री का कोई ठोस आंकड़ा पेश नहीं किया, उसने सिर्फ तुलनात्मक आंकड़ों के आधार पर ई बुक्स को ज्यादा लोकप्रिय बताया है । ना ही अमेजन ने इस बात का ऐलान किया कि बिक्री का यह आंकड़ा किस और कितनी अवधि का है । दूसरा अहम प्रश्न जो अमेजन की इस घोषणा के बाद मन में उठता है वह यह है कि अमेजन तक कितने लोगों की पहुंच है । अमेजन पर खरीद बिक्री वही लोग कर सकते हैं जिनते पास इंटरनेट हो या फिर जिन्हें इंटरनेट का एक्सेस हो । बेवसाइट के जरिए होनेवाले कारोबार में ग्राहकों की संख्या अवश्य बढ़ी है लेकिन अभी उस माध्यम के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी । जल्दबाजी इस वजह से क्योंकि यह पूरे ग्राहक वर्ग के मूड और स्वभाव का प्रतिनिधित्व नहीं करता है । इसलिए यह कहना उचित नहीं होगा कि ई बुक्स बिक्री और लोकप्रियता में किताबों को पटखनी दे देगा ।
लेकिन इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव और पहुंच को लेकर कुछ लोग साहित्य पर भी संकट देखने लगे हैं । उनका तर्क है सूचना संजाल के विस्तार से साहित्य नष्ट हो जाएगा । ऐसा नहीं है कि इस तरह के तर्क देनेवाले लोग नए हैं । इस तरह के लोग हर युग और काल में पाए जाते हैं । कुछ दशक पहले भारत में जब सिनेमा काफी लोकप्रिय होने लगा और पूरे देश में आम लोगों की जुबान पर इसकी चर्चा हुई तो उसमें भी साहित्य का दुश्मन माना गया और उसके खिलाफ मुकम्मल अभियान भी चला। उसके बाद भारत में टेलीविजन का अभ्युदय हुआ तो उसमें भी साहित्य के अंत का दु:स्वपन देखा गया । नतीजा यह हुआ कि साहित्यकारों की एक पूरी जमात टेलीविजन के खिलाफ खड़ी हो गई और जबरदस्त तरीके से उसको खारिज करने की कोशिश की गई । टेलीविजन कैमरा का विकास हुआ तो यथार्थवादी रचनाकारों को यह लगने लगा कि उनका भोगा हुआ यथार्थ जिन्हें वो अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकों के सामने लाते हैं उसे कैमरा सीधे पाठकों को दिखा देगा । उसी खतरे को भांपते हुए और बगैर माध्यम को समझे कैमरे का विरोध शुरू हो गया । लेकिन उस विरोध का कोई असर नहीं दिखा और टेलीविजन की लोकप्रियता और विस्तार इतना हुआ कि आज घर घर में टेलीविजन लगे हैं । टेलीविजन के बाद जब कंप्यूटर आया तो बकायदा उसके खिलाफ वैचारिक आंदेलन शुरू किया गया । कई कवियों ने अपनी कविता में कंप्यूटर को दानव कहते हुए उसका मजाक उड़ाया । लेकिन अब वही कवि और लेखक कंप्यूटर पर काम करते हुए अपने को सहज महसूस करते हैं । उन्हें अब ना तो उस माध्यम से कोई परहेज हैं और ना ही विरोध । दरअसल चाहे वो सिनेमा हो,टेलीविजन हो या फिर कंप्यूटर हो या फिर कोई अन्य तकनीकी या वैज्ञानिक अविष्कार, उनका मूल उद्देश्य मानव समाज की बेहतरी ही होता है। किसी भी बेहतर तकनीक का मुकाबला बेहतरीन तकनीक से ही किया जा सकता है ना कि पुरातन और समय के पीछे रह गए तकनीक से । जो लोग भी नई और बेहतर तकनीक का मुकाबला पुरानी तकनीक से करना चाहते हैं, इतिहास गवाह है कि वो हमेशा मुंह की ही खाते रहे हैं ।
किताबों के बरक्श ई बुक्स को खड़ा करनेवाले लोग चाहे अनचाहे किताबों की अंतरवस्तु को हाशिए पर धकेलते हैं।दोनों माध्यमों के बीच संघर्ष को रेखांकित करनेवाले लोग दरअसल यह भूल जाते हैं कि दोनों की अपनी अलग महत्ता है और अंतत वह महत्ता उसके अंतर्वस्तु को लेकर है उसके माध्यम को लेकर नहीं । किताबों में जो लेख, कहानी, उपन्यास या फिर कविता है, लोकप्रियता उसकी होती है । फिर चाहें वो कागज पर छपी हो या फिर वो कंप्यूटर पर मौजूद हो है तो वो रचना ही।
सवाल यह उठता है कि क्या आनेवाले दिनों में छपी हुई किताबों का भविष्य खत्म हो जाएगा । छपी किताबों का कारोबार करनेवाले प्रकाशकों पर संकट आनेवाला है। क्या अबतक कंप्यूटर पर लिखनेवाले लेखक भी ई बुक्स के ही जरिए पाठकों के बीच जाएंगे । कई उत्साही लोग तो इन सारे प्रश्नों के सकारात्मक जबाव दे रहे हैं । संभव है कि पश्चिम के विकसित देशों में यह बात आंशिक रूप से सच भी हो । आंशिक इस वजह से कि पश्चिमी देशों में सूचना के संजाल के तमाम विकास के बावजूद अब भी लाखों में किताबें बिक रही हैं । चाहे वो जोनाथन फ्रेंजन की फ्रीडम हो या टोनी ब्लेयर की आत्मकथा- अ जर्नी । इन सबने किताबों की बिक्री के पिछले सारे रिकॉर्ड को ध्वस्त कर दिया । अमेजन ने भले ही यह ऐलान किया है कि ई बुक्स ने किताबों की बिक्री को पीछे छोड़ दिया है लेकिन उसने बिक्री का कोई ठोस आंकड़ा पेश नहीं किया, उसने सिर्फ तुलनात्मक आंकड़ों के आधार पर ई बुक्स को ज्यादा लोकप्रिय बताया है । ना ही अमेजन ने इस बात का ऐलान किया कि बिक्री का यह आंकड़ा किस और कितनी अवधि का है । दूसरा अहम प्रश्न जो अमेजन की इस घोषणा के बाद मन में उठता है वह यह है कि अमेजन तक कितने लोगों की पहुंच है । अमेजन पर खरीद बिक्री वही लोग कर सकते हैं जिनते पास इंटरनेट हो या फिर जिन्हें इंटरनेट का एक्सेस हो । बेवसाइट के जरिए होनेवाले कारोबार में ग्राहकों की संख्या अवश्य बढ़ी है लेकिन अभी उस माध्यम के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी । जल्दबाजी इस वजह से क्योंकि यह पूरे ग्राहक वर्ग के मूड और स्वभाव का प्रतिनिधित्व नहीं करता है । इसलिए यह कहना उचित नहीं होगा कि ई बुक्स बिक्री और लोकप्रियता में किताबों को पटखनी दे देगा ।
लेकिन इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव और पहुंच को लेकर कुछ लोग साहित्य पर भी संकट देखने लगे हैं । उनका तर्क है सूचना संजाल के विस्तार से साहित्य नष्ट हो जाएगा । ऐसा नहीं है कि इस तरह के तर्क देनेवाले लोग नए हैं । इस तरह के लोग हर युग और काल में पाए जाते हैं । कुछ दशक पहले भारत में जब सिनेमा काफी लोकप्रिय होने लगा और पूरे देश में आम लोगों की जुबान पर इसकी चर्चा हुई तो उसमें भी साहित्य का दुश्मन माना गया और उसके खिलाफ मुकम्मल अभियान भी चला। उसके बाद भारत में टेलीविजन का अभ्युदय हुआ तो उसमें भी साहित्य के अंत का दु:स्वपन देखा गया । नतीजा यह हुआ कि साहित्यकारों की एक पूरी जमात टेलीविजन के खिलाफ खड़ी हो गई और जबरदस्त तरीके से उसको खारिज करने की कोशिश की गई । टेलीविजन कैमरा का विकास हुआ तो यथार्थवादी रचनाकारों को यह लगने लगा कि उनका भोगा हुआ यथार्थ जिन्हें वो अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकों के सामने लाते हैं उसे कैमरा सीधे पाठकों को दिखा देगा । उसी खतरे को भांपते हुए और बगैर माध्यम को समझे कैमरे का विरोध शुरू हो गया । लेकिन उस विरोध का कोई असर नहीं दिखा और टेलीविजन की लोकप्रियता और विस्तार इतना हुआ कि आज घर घर में टेलीविजन लगे हैं । टेलीविजन के बाद जब कंप्यूटर आया तो बकायदा उसके खिलाफ वैचारिक आंदेलन शुरू किया गया । कई कवियों ने अपनी कविता में कंप्यूटर को दानव कहते हुए उसका मजाक उड़ाया । लेकिन अब वही कवि और लेखक कंप्यूटर पर काम करते हुए अपने को सहज महसूस करते हैं । उन्हें अब ना तो उस माध्यम से कोई परहेज हैं और ना ही विरोध । दरअसल चाहे वो सिनेमा हो,टेलीविजन हो या फिर कंप्यूटर हो या फिर कोई अन्य तकनीकी या वैज्ञानिक अविष्कार, उनका मूल उद्देश्य मानव समाज की बेहतरी ही होता है। किसी भी बेहतर तकनीक का मुकाबला बेहतरीन तकनीक से ही किया जा सकता है ना कि पुरातन और समय के पीछे रह गए तकनीक से । जो लोग भी नई और बेहतर तकनीक का मुकाबला पुरानी तकनीक से करना चाहते हैं, इतिहास गवाह है कि वो हमेशा मुंह की ही खाते रहे हैं ।
किताबों के बरक्श ई बुक्स को खड़ा करनेवाले लोग चाहे अनचाहे किताबों की अंतरवस्तु को हाशिए पर धकेलते हैं।दोनों माध्यमों के बीच संघर्ष को रेखांकित करनेवाले लोग दरअसल यह भूल जाते हैं कि दोनों की अपनी अलग महत्ता है और अंतत वह महत्ता उसके अंतर्वस्तु को लेकर है उसके माध्यम को लेकर नहीं । किताबों में जो लेख, कहानी, उपन्यास या फिर कविता है, लोकप्रियता उसकी होती है । फिर चाहें वो कागज पर छपी हो या फिर वो कंप्यूटर पर मौजूद हो है तो वो रचना ही।
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