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Tuesday, June 7, 2011

विचारों की 'परिक्रमा'

हिंदी में पत्रिकाओ का बेहद लंबा इतिहास रहा है । उन्नीसवीं सदी हिंदी भाषा और लाहित्य में नवजागरण का काल माना जाता है । यह भी तथ्य है कि हिंदी का पहला समाचार पत्र उदंत मार्तंड 30 मई, 1826 का प्रकाशन कलकत्ता से हुआ था, जिसके प्रथम संपादक बाबू जुगुल किशोर सुकुल थे । लेकिन हिंदी की पहली साहित्यिक पत्रिका कवि वचन सुधा थी जिसे संपादक भारतेंदु हरिश्चंद्र थे । भारतेंदु ने जब इस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया उसके बाद से हिंदी में कई साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हो गया । भारतेंदु युग में साहित्यिक पत्रिका के दो प्रमुख केंद्र- बनारस और पटना थे । भारतेंदु युग के बाद जब साहित्यिक पत्रिका का प्रसार और विकास हुआ तो ना केवल कलकत्ता बल्कि इलाहाबाद भी पत्रिकाओं के नए केंद्र बने जहां से कई कालजयी पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जो बाद में हिंदी की थाती बने । बिहार में हिंदी पत्रिकारिता की शुरुआत का बेहद दिलचस्प इतिहास है । बिहार में माना जाता है कि हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत 1874 में हुई जिसके जनक पंडित केशवराम भट्ट थे । पंडित केशवराम भट्ट ने 1872 में कलकत्ता से बिहार बंधु का प्रकाशन शुरू किया था । तब उस पत्रिका को कलकत्ता से प्रकाशित करने की वजह बिहार में हिंदी छापाखाना का नहीं होना था । उस दौर में बिहार में सिर्फ उर्दू प्रेस हुआ करते थे जिसकी वजह से पंडित केशवराम भट्ट को कलकत्ता से बिहार बंधु का प्रकाशन प्रारंभ करना पड़ा था । लेकिन उससे भी दिलचस्प कहानी इस पत्रिका के बिहार लौटने की है । दो साल तक कलकत्ता से प्रकाशन होने के बाद जब पंडित भट्ट को यह महसूस हुआ कि कलकत्ता में हिंदी के प्रूफ रीडर नहीं मिल रहे तो उन्होंने यह तय किया किया कि अब बिहार की राजधानी पटना से ही उसका प्रकाशन किया जाए । इस निर्णय के बाद 1874 से पटना से बिहार बंधु का प्रकाशन शुरू हुआ । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है जिसपर कभी विस्तार से बात होगी । हम बात हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं की कर रहे थे । भारतेंदु युग से द्विवेदी युग तक देश में हिंदी साहित्यिक पत्रिकाओं के चार केंद्र विकसित हो चुके थे । इसके बाद देश के अन्य इलाकों से भी साहित्यिक पत्रिकाओं की शुरुआत हुई ।
लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जब हिंदी में लघु पत्रिकाओं की शुरुआत हुई तो 1957 में बनारस से विष्णुचंद्र शर्मा ने कवि का प्रकाशन शुरू किया । कालांतर में हिंदी में कई पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ जि्सने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया । जिसमें आलोचना, पहल, सिर्फ, ध्वजभंग, दस्तावेज, समीक्षा, तद्वभव आदि प्रमुख हैं । जैसे जैसे समय बीतता गया साहित्यिक पत्रिकाओं का केंद्र भी देश की राजधानी दिल्ली की ओर बढ़ने लगा । जब 1986 में राजेन्द्र यादव ने दिल्ली से हंस का पुनर्प्रकाशन शुरू किया तो साहित्यिक पत्रकारिता के केंद्र में दिल्ली का स्थान अहम हो गया । हंस ने नई कहानी आंदोलन के अवांगार्द राजेन्द्र यादव के संपादन में साहित्यक पत्रकारिता को एक नई धार और तेवर दोनों दिए। पिछले ढाई दशक में हंस ने ना केवल हिंदी की सबसे अच्छी कहानियां छापी बल्कि दलित और स्त्री विमर्श के साथ अपने समय की प्रासंगिक मुद्दों और बहसों को उठाकर हिंदी साहित्यक पत्रकारिता का एक नया इतिहास रच दिया । हंस और उसके संपादक से तमाम असहमतियों के बावजूद यह कहा जा सकता है कि – आप उसे पसंद ना करें लेकिन आप उसको इग्नोर नहीं कर सकते । दूसरी एक पत्रिका जिससे उम्मीद जगी थी वो थी समयांतर जिसके यशस्वी संपादक पंकज विष्ठ हैं । पंकज विष्ठ के लेखन में एक आग है लेकिन बाद के दिनों में पंकज जी ने वयक्तिगत राग द्वेष को अपने संपादकीय का विषय बना दिया । नतीजा यह हुआ कि जो एक पूरी पीढ़ी पंकज जी की ओर उम्मीद भरी दृष्टि लगाए बैठी थी उसका मोहभंग हुआ । और अब तो दरबारी लाल की वजह से समयांतर यह हालत हो गई है जैसी कि अभिनेताओं के बीच राजू श्रीवास्तव की है ।
साहित्यक पत्रिकाओं की इस भीड़ में एक बात जो दब कर रह गई । हुआ यह कि कहानी कविता और आलोचना की आंधी में वैचारिक लेख और साहित्येतर विषय इन पत्रिकाओं से गायब होते चले गए । हिंदी में गंभीर वैचारिक पत्रिका की कमी अखरने लगी । साहित्येतर विषयों पर केंद्रित होने या फिर उन विषयों पर विचार विमर्श का मंच देनेवाली पत्रिता नहीं रही । हिंदी के गंभीर पाठकों को हमेशा से लगता रहा कि उनकी भाषा में भी मेनस्ट्रीम या फिर सेमिनार जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हो । लेकिन कई बार कोशिश भी हुई लेकिन वो परवान नहीं चढ़ सकी । पहले तो वैचारिक पत्रिका के दावे किए गए लेकिन बाद में वो समाचार पत्रिका में तब्दील हो गए या फिर एक दो अंकों के बाद अमियतकालीन हो गए । यहां मैं जानबूझकर उन पत्रिकाओं के नाम नहीं दे रहा और उनको अनियतकालीन इस वजह स कह रहा हूं क्यों उनके बंद होने का औपचारिक ऐलान नहीं हुआ ।
लेकिन दिल्ली से अप्रैल 2008 में हिंदी में एक ऐसी पत्रिका की शुरुआत हुई जिसने वैचारिक पत्रिका की उस कमी को पूरा किया और तब से लेकर अब तक यह पत्रिका लगातार निकल रही है । इस पत्रिका का नाम है विचार परिक्रमा() और इसके संपादक हैं शरद गोयल । पत्रिका ने पूर्व में कई अंक विषय विशेष पर फोकस किए जिनमें मीडिया और विकलांगों पर निकले विशेषांक की खासी चर्चा हुई । पत्रिका का ताजा अंक किन्नरों पर केंद्रिंत है । किन्नर हमारे समाज के ही अंग हैं लेकिन समाज से मिल रहे उपेक्षा की उनकी जो पीड़ा है उसके इस अंक में सामने लाने की कोशिश की गई है । किन्नरों को हमारे समाज में किसी तरह का कोई अधिकार नहीं प्राप्त है । आमतौर पर उनको या तो अपराधी या फिर सेक्स ट्रेड में लिप्त समझकर हेय दृष्टि से देखा जाता है । उनको छक्का कहकर उनका मजाक उड़ाया जाता है । मजाक उड़ाने वाले उनकी पीड़ा को नहीं समझ सकते । ये वो लोग हैं जो अपने ही समाज के बीच उपेक्षा का दंश झेलने को अभिशप्त हैं । लेकिन हमारे समाज में कहीं कहीं किन्नरों को खुशी के मौके पर शुभ मानकर उनका आशीर्वाद भी लिया जाता है । बच्चों के जन्म या फिर नए घर में प्रवेश के वक्त किन्नरों का गाया गीत बेहद शुभ माना जाता है । पिछले दिनों कई किन्नरों ने समाज के कई क्षेत्र में अपना एक मुकाम हासिल कर यह साबित कर दिया उनको अगर मौका मिले और उनमें हौसला हो तो वो भी किसी तरह की उचांई हासिल कर सकते हैं । चाहे वो शबनम मौसी हों या फिर टेलीविजन शो में सलमान के साथ ठुमके लगा रही लक्ष्मी हो । विचार परिक्रमा के इस अंक में ज्योति और शशिकांत के लेख खासतौर पर इस अंक की उपल्बधि हैं । इसके अलावा की कई विचारोत्तेजक लेख इस पत्रिका में प्रकाशित हैं जो हमारे समाज के इस उपेक्षित समुदाय के दर्द को उभारता हुआ है । उम्मीद की जानी चाहिए कि यह पत्रिका इसी तरह से निकलती रहे और हिंदी में वैचारिक लेखन में जो एक वैक्यूम आ गया था उसको सफलतापूर्व भरता रहे । लेकिन इस बात की भी जरूरत है कि इस पत्रिका को हिंदी के गंभीर पाठकों तक पहुंचाने की और बेहतर कोशिश की जानी चाहिए ताकि एक विशाल पाठक वर्ग को इसका लाभ मिल सके ।

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