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Saturday, June 18, 2011

कांग्रेस का संघ ऑब्सेशन

काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़नेवाले योद्धाओं और केंद्र सरकार के बीच तलवारें खिंच गई हैं । लोकपाल बिल पर टीम अन्ना ने सरकार पर सीधे-सीधे धोखाधड़ी का आरोप लगया । सरकार ने भी अन्ना और उनके सहयोगियों के प्रति कड़ा रुख अपना लिया है । दोनों पक्षों के बीच जारी रस्साकशी के बीच अन्ना हजारे ने फिर से जंतर-मंतर पर अनशन करने का ऐलान कर दिया है। सरकार इस बात पर अमादा है कि लोकपाल बिल में उसकी ही चले । जनलोकपाल के कड़े प्रावधानों को डाल्यूट कर दिया जाए । अगर कांग्रेस के प्रधानमंत्री बेहद ईमानदार हैं तो उन्हें लोकपाल के दायरे में आने में दिक्कत क्या है । अगर जजों से ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है तो उनको लोकपाल के दायरे में लाने में सरकार घबरा क्यों रही है । दरअसल सरकार की मंशा ही उसे फिर से लटका देने की है और उसका ठीकरा वो टीम अन्ना पर ठोंकना चाहती है । इसकी पृष्ठभूमि कुछ दिनों पहले से तैयार हो रही थी । बाबा रामदेव के अनशन पर पुलिसिया कार्रवाई करने के बाद से ही सरकार के हौसले बुलंद हो गए थे। उसके बाद के कांग्रेस नेताओं के बयानों को एक साथ जोड़कर देखें तो कांग्रेसी रणनीति की तस्वीर साफ तौर पर नजर आती है । रामदेव के अनशन खत्म होने के चंद घंटों के भीतर ही कांग्रेस के बड़बोले महासचिव दिग्विजय सिंह ने बाबा के अनशन को नाटक करार दिया । दिग्विजय के बयान के कुछ ही देर बाद कांग्रेस के बड़े नेता और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी उनसे भी आगे बढ़ते हुए बाबा रामदेव के आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रायोजित बता कर उनपर जोरदार हमला बोला । सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाले वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी यहीं नहीं रुके उन्होंने ये दावा भी कर डाला कि रामदेव के पीछे पूरी भगवा ब्रिगेड है । उन्होंने यहां तक कह डाला कि जो पार्टी चुनावों में हार गई है वो अब बाबा को आगे बढ़ाकर आंदोलन चला रही है । आंदोलन के पीछे सरकार को अस्थिर करने की साजिश है । जाहिर सी बात है कि वित्त मंत्री का इशारा भारतीय जनता पार्टी की ओर था । हैरत की बात है कि प्रणब मुखर्जी जैसा मंझा हुआ राजनेता बाबा के अनशन खत्म होने के बाद यह बात कहता है कि उनके आंदोलन को संघ का समर्थन था । यही बात अब कुछ कांग्रेसी अन्ना और उनेक सहयोगियों के बारे में कहने लगे हैं । टीम अन्ना पर भी भगवा ब्रिगेड का एजेंडा आगे बढाने का आरोप लगा है । लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या प्रणब मुखर्जी को यह बात तब नहीं पता थी जब वो अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ बाबा रामदेव की अगुवाई करने दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुंचे थे । क्या सरकार को अन्ना के अतीत के बारे में पता नहीं था जब रातों रात लोकपाल कमेटी के बारे में सरकारी गजट जारी किया गया । क्या दिल्ली के पांच सितारा होटल में बाबा रामदेव के साथ बैठने वाले केंद्रीय मंत्रियों को इस बात का पता नहीं था कि बाबा संघ के इशारे पर सरकार को अस्थिर करने की साजिश रच रहे हैं । क्या अन्ना के साथ बैठकों का दौर जारी होने तक यह पता नहीं था कि वो बीजेपी और संघ के मुखौटा है । क्या ये मान लिया जाए कि पूरी यूपीए सरकार संघ का एजेंडा चला रहे अन्ना और बाबा की चाल भांपने में नाकाम रही ।
दरअसल ऐसा है नहीं । ये कांग्रेस पार्टी की पुरानी फितरत है । जब भी किसी व्यक्ति या संगठन को डिस्क्रेडिट करना हो तो उसका नाम संघ के साथ जोड़कर ये संदेश दो कि ये लोग सांप्रदायिक ताकतों के हाथ खेल रहे हैं ।संघ का हौवा दिखाकर कांग्रेस वर्षों से वोट बैंक की राजनीति करती रही है । कांग्रेस की यह एक बड़ी ट्रेजडी है । आजादी के आंदोलन में जो राष्ट्रवाद कांग्रेस की ताकत हुआ करती थी उसको पार्टी ने थाली में परोस कर संघ और बीजेपी को पेश कर दिया । राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक बनाने के चक्कर में कांग्रेस ने अपनी ताकत खो दी । अब कांग्रेस में कोई राष्ट्रवाद की बात नहीं करता । उनके नेताओं ने यह मान लिया है कि देश, देशहित, देशप्रेम आदि आदि की बात करना सांप्रदायिकता है और जो इन बातों की पैरोकारी करेगा वो सांप्रदायिक है या फिर सांप्रदायिक ताकतों के हाथ की कठपुतली ।
अगर यह मान भी लिया जाए कि अन्ना और बाबा को संघ का समर्थन हासिल है तो उससे क्या आंदोलन का उद्देश्य कमजोर हो जाता है । क्या जिन सवालों को लेकर अन्ना हजारे या बाबा रामदेव आंदोलन कर रहे हैं वो बेमानी हो जाते हैं । क्या आज हमारे देश में भ्रष्टाचार और काला धन राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है । क्या देश और जनता से जुड़े इन मुद्दों को राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी को समर्थन देने का हक नहीं है ।
बात यह भी नहीं है । दरअसल कांग्रेस की इस रणनीति को समझने के लिए हमें कुछ पहले चलना होगा । अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद जब लोकपाल को लेकर सरकार दबाव में आ गई थी और उसने यह मान लिया था कि सिविल सोसाइटी के सदस्यों के साथ मिल बैठकर लोकपाल बिल के मसौदे को तैयार किया जाएगा और उस बिल को संसद के मॉनसून सत्र में पेश कर दिया जाएगा । लोकपाल कमेटी के साथ दो तीन बैठकों के बाद सरकारी नुमाइंदो को यह अहसास हो गया कि सिविल सोसाइटी के सदस्यों से आसानी से अपनी बातें नहीं मनवा पाएगी । फिर वही खेल शुरू हुआ । सिविल सोसाइटी के सदस्यों पर व्यक्तिगत हमले शुरू हुए । उनकी संपत्ति और उनके आंदोलन को चलाने के आय के स्त्रोत को लेकर खबरें सामने आने लगी । सावधान अन्ना की टोली ने अपने संगठन की बेवसाइट पर अपने व्यक्तिगत संपत्ति और सहयोग राशि के स्त्रोत का खुलासा कर कांग्रेस के षडयंत्र की हवा निकाल दी । उसी तरह से बाबा रामदेव और उनके योग ट्रस्ट की संपत्तियों को लेकर सवाल खड़े किए गए । मकसद सिर्फ बाबा को डिस्क्रेडिट करना था, जिसमें कुछ हद तक सरकार कामयाब भी रही । बाबा रामदेव ने अगर गलत तरीके से संपत्ति अर्जित की है तो उसकी जांच अबतक हो हो जानी चाहिए थी। लेकिन मंशा जांच कराने की नहीं बदनाम करने की है । सरकार ने काले धन के खिलाफ अनशन का ऐलान कर चुके बाबा रामदेव को ज्यादा तवज्जो देकर अन्ना और उनकी टोली को दरकिनार करने का खेल भी खेला । बाबा को अहमियत देने के फैसले के बाद ही प्रणब मुखर्जी समेत सरकार के चार कैबिनेट मंत्री बाबा से मिलने एयरपोर्ट जा पहुंचे । जनता के बीच यह संदेश देने की कोशिश की गई कि बाबा सरकार के लिए बेहद अहम हैं और सरकार काला धन के खात्मे के लिए प्रतिबद्ध है । लेकिन बाबा रामदेव के साथ बात नहीं बनी । जो सरकार अन्ना के खिलाफ बाबा को खड़ा करना चाहती थी उसकी ही कार्रवाई ने बाबा और अन्ना को और मजबूती से एक कर दिया । बाबा रामदेव के खिलाफ पुलिस कार्रवाई के विरोध में अन्ना हजारे एक दिन के लिए राजघाट पर उपवास पर बैठे । तपती दोपहरी में लोगों की भीड़ ने सरकार को यह संकेत दे दिया कि भ्रष्टाचार और काला धन के मुद्दे को सरकार हल्के में नहीं ले सकती । काला धन और भ्रष्टाचार आज देश में एक ऐसा मुद्दा बन चुका है जिसको लेकर जनता सरकार से कोई ठोस कार्रवाई चाहती है । वक्त आ गया है कि सरकार अपनी हरकतों से बाज आए, कांग्रेस पार्टी बजाए हमलावर होने के लोगों की सुने । जिन मुद्दों को अन्ना हजारे या बाबा रामदेव उठा रहे हैं उनको तवज्जो दे और उसके सर्वमान्य हल खोजने की दिशा में सार्थक पहल करे, ताकि जनता के बीच सरकार को लेकर विश्वास कायम हो सके । लोकतंत्र में सरकार से लोक का भरोसा उठना अच्छा संकेत नहीं होता । सोनिया गांधी और प्रणब मुखर्जी से बेहतर इसे कोई नहीं समझ सकता क्योंकि दोनों लंबे समय तक इंदिरा गांधी के साथ रहे हैं, इमरजेंसी लगाने के दौरान भी और इमरजेंसी खत्म के होने के बाद भी ।

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