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Thursday, May 26, 2011

कुंठा @ प्रेम डॉट कॉम

विमल कुमार हिंदी पाठकों के बीच एक जाना पहचाना नाम है । लिक्खाड़ पत्रकार हैं, तमाम पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य और साहित्येतर विषयों पर लेख और टिप्पणियां प्रकाशित होती रहती है । अच्छे कवि भी हैं और कविता के लिए 1987 में ही भारत भूषण पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं । इसके अलावा हिंदी अकादमी भी उनको पुरस्कृत कर चुकी है लेकिन अपने उसूलों की खातिर वो पुरस्कार ठुकरा भी चुके हैं । पत्रकारिता और कविता लेखन के अलावा व्यंग्य और कहानियां भी लिखते हैं और कई संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं । अब उनका नया उपन्यास आया है,जिसका शीर्षक उत्तर आधुनिक है – चांद@ आसमान डॉट कॉम । इस उपन्यास के शीर्षक से ये भ्रम होता है कि यह तकनीक की दुनिया में आ रही क्रांति और बदलाव को केंद्र में रखकर लिखी गई कृति होगी लेकिन उपन्यास पढ़ने के बाद यह भ्रम टूट जाता है । इस उपन्यास के ब्लर्ब पर लिखा है - चांद@ आसमान डॉट कॉम का रूपक कल्पना और यथार्थ के बीच मनुष्य की आवाजाही का रूपक है जहां मनुष्य अपने लिए कुछ हासिल कर भी कुछ हासिल कर नहीं पाता है । वह त्रिशंकु की तरह फंसा रहता है । विमल कुमार ने अपने इस उपन्यास में प्रेम की गहरी तड़प के जरिए मनुष्य की इस त्रिशंकु स्थिति को अपने वक्त के आइने में ढूंढने की कोशिश की है । यह एक प्रेमकथा ही नहीं बल्कि अपने समय की एक त्रासद कथा भी है । ब्लर्ब में मैं सिर्फ यह जोड़ना चाहता हूं कि विमल कुमार का यह उपन्यास प्रेम में असफल होने की कुंठा कथा है और इसे समय की त्रासद कथा बनाने की लेखक ने जो कोशिश की है, उसमें वो सफलता प्राप्त नहीं कर पाया है । इस उपन्यास का केंद्रीय पात्र मिहिर में साहस का घोर अभाव है । पत्नी और बच्चों के घर में होते हुए वह प्रेम की तलाश में भटकता रहता है लेकिन प्रेम को परणिति तक पहुंचाने का साहस उसमें नहीं है । उसकी पत्नी नंदिता का एक वाक्य उसके पूरे व्यक्तित्व को परिभाषित कर देता है – मिहिर तुम्हारे साथ सबसे बड़ी बात यह है कि तुम कल्पना में जीते हो। यह क्यों नहीं देखते कि तुम्हारे पांवों के नीचे कोई जमीन है या नहीं । यह पूरा वाक्य इस उपन्यास पर भी लागू होता है जहां कल्पना के आधार पर बगैर किसी जमीन के सिर्फ व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर कथा कहने की कोशिश की गई है ।
दरअसल इस उपन्यास की कथा इसके केंद्रीय पात्र मिहिर उसकी पत्नी नंदिता और उसकी प्रेमिका सुगन्धा के इर्द-गिर्द चलती है । उपन्यास में बहुधा यह लगता है रहता है कि मिहिर के बहाने लेखक अपनी बात कह रहा है, अपने जीवनानुभवों को बांट रहा है । इस उपन्यास में लेखक ने पत्र या डायरी के अंशों का इस्तेमाल करके पाठकों को एक नए तरह के कथास्वाद देने की कोशिश की है । यह माना जाता है कि पत्र और डायरी की जो प्रकृति होती है वह लेखक की आत्मकथा की तरह की ही होती है । पत्र और डायरी अपने स्वभाव से ही निजी होते हैं और वो ज्यादातर अपने बेहद करीबियों को ही संबोधित किए जाते हैं । पत्रों में कोई भी व्यक्ति अपनी भावनाओं और विचारों को बगैर किसी लाग-लपेट के अभिवयक्त करता है जिसके केंद्र में वह स्वंय होता है । उपन्यास में जब इस टूल का इस्तेमाल किया जाता है तो लेखक की कोशिश या मंशा यह होती है कि खुद को नेपथ्य में रखकर पत्र तथा डायरी के माध्यम से अपनी बात पाठकों के सामने रखे । पत्रों और डायरी का इस्तेमाल इस तरह से करता है कि पाठकों से एक कनेक्ट स्थापित हो सके । विमल कुमार ने भी अपने इस उपन्यास में अपनी बात डायरी और पत्रों के माध्यम से बखूबी कहने का प्रयास किया है । कुछ बेहद रूमानी पत्र इस उपन्यास में हैं ।
एक दूसरी बात जो इस उपन्यास की उल्लेखनीय है वह यह कि विमल कुमार लिखते वक्त बेहद अंतरंग क्षणों में भी राजनीति के प्रसंगों को ले आते हैं । उदाहरण के तौर पर जब वो उनकी प्रेमिका सुंगंधा की बांहों में होते हैं और उनके दिमाग में राजनीति की सौदेबाजी या आज की भाषा में कहें तो व्यावहारिकता का एक जबरदस्त द्वंद चलता है । लेखक या यों कहें कि उपन्यास के नायक का यह द्वंद उन अंतरंग क्षणों भी उसे शिबू सोरेन और भाजपा की सौदेबाजी की ही याद दिलाता है । दूसरे जब वह अपनी पत्नी के साथ विस्तर पर होते हैं तो भी उनके दिमाग में रूमानियत के बजाए संसद की बहस का ही स्मरण होता है । आखिर पच्चीस साल से पत्रकारिता कर रहे लेखक का कल्पना लोक भी उसे आसपास के वातावरण के इर्द गिर्द ही रहेगा। कुल मिलाकर अगर हम विमल कुमार के इस उपन्यास चांद@ आसमान डॉट कॉम पर विचार करें तो लगता है कि लेखक ने एक नए तरीके से आत्मकथा कहने का प्रयास अवश्य किया है जिसमें डायरी और पत्रों का प्रयत्नपूर्वक इस्तेमाल किया है । लेकिन नई शैली के बावजूद यह उपन्यास महानगरीय जीवन की एक बेहद साधारण कहानी भर बन कर रह गई है जो एक पत्रकार की असफल प्रेम कहानी जैसी लगती है । जिस प्रेम को लेकर खुद लेखक ही आश्वस्त नहीं है ।

Tuesday, May 17, 2011

गांधी को भुनाने की कोशिश

कुछ दिनों पहले ही हिंदी-अंग्रेजी में एक साथ प्रकाशित बेवसाइट फेस एंड फैक्ट्स के प्रबंध संपादक जय प्रकाश पांडे का बेहद गुस्से में फोन आया । उन्होंने बताया कि न्यूयॉर्क टाइम्स के पूर्व कार्यकारी संपादक जोसेफे लेलीवेल्ड ने महात्मा गांधी का अपमान करते हुए एक किताब लिखी है -ग्रेट सोल- महात्मा गांधी एंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया- जिसमें गांधी को समलैंगिक करार दिया है । जब मैंने उनसे पूछा कि उन्हें यह बात कहां से पता चली तो उन्होंने कहा कि ब्रिटेन के अखबार डेली मेल ने एक लेख छापा है जिसका शीर्षक है - गांधी लेफ्ट हिज वाइफ टू लिव विद मेल लवर । यह लेख जोसेफ लेलीवेल्ड की नई किताब के हवाले से छापी गई थी । उन्होंने तत्काल मुझसे प्रतिक्रिया मांगी ताकि उसको प्रकाशित किया जा सके । चूंकि मैंने ना तो किताब पढ़ी थी और ना ही डेली मेल का लेख पढ़ा था इसलिए मैंने गांधी से जुड़ी एक कहानी सुना दी-एक बार गांधी जी ट्रेन से सफर कर रहे थे, किसी स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो गांधी ने देखा कि एक आदमी उनसे मिलने की कोशिश कर रहा है और उनके समर्थक उसे रोक रहे हैं वो लगातार मिन्नतें कर रहा था लेकिन लोग उनको गांधी तक पहुंचने नहीं दे रहे थे । गांधी ने जब यह देखा तो उन्होंने अपने पास के लोगों से मामले की जानकारी चाही । गांधी को बताया गया कि जो आदमी उनसे मिलने की जिद कर रहा है, दरअसल वह एक लेखक है और उसने गांधी को केंद्र में रखकर एक किताब- ROGUE OF INDIA - लिखी है । वह उस किताब पर गांधी जी के दस्तखत चाहता है । लोगों को लग रहा था जिस किताब का शीर्ष की इतना अपमानित करनेवाला है उसमें भीतर तो और भी विषवमन होगा । इस वजह से उसे गांधी से मिलने से रोका जा रहा था । गांधी को जब पूरी बात पता चली तो उन्होंने उस वयक्ति को अपने पास बुलाया, प्यार से बिठाया और हाल-चाल पूछने के बाद उसकी लिखी किताब पर अपने हस्ताक्षर कर उसको वापस लौटा दिया । उसके जाने के बाद गुस्साए गांधी के समर्थकों ने बापू से पूछा कि उन्होंने उस वयक्ति की किताब पर हस्ताक्षर क्यों किए जो आपको ROGUE OF INDIA बता रहा है । गांधी जी ने मुस्कुराते हुए जबाव दिया कि सबको अपनी राय बनाने और उसे व्यक्त करने का हक है । यह कहानी सुनाकर तो मैं उस वक्त निकल गया लेकिन मेरे मन में गांधी पर लिखी लेलीवेल्ड की किताब पढ़ने की इच्छा बढ़ने लगी । दो तीन किताब की दुकानों पर फोन करने पर पता चला कि यह किताब अभी भारत में उपलब्ध नहीं है । फिर मैंने डेली मेल का लेख पढ़ा । उसको पढ़ने के बाद पूरा तो नहीं लेकिन माजरा कुछ-कुछ समझ में आने लगा । इस बीच मुंबई के एक अखबार ने डेली मेल के लेख के हवाले से यह खबर छाप दी कि एक जर्मन व्यक्ति गांधी का 'सेक्रेट लव' था । इस लेख के छपने के बाद बवाल मचना था सो मचा । बगैर पढ़े-देखे आनन-फानन में गुजरात विधानसभा ने सूबे में किताब पर पाबंदी लगाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी । महाराष्ट्र में भी ऐसी ही मांग उठी कि लेलीवेल्ड की किताब पर बैन लगा दिया जाए । केंद्र सरकार के मंत्री भी इसमें राष्ट्रपिता का अपमान देखने लगे । यह सबकुछ सिर्फ एक लेख की बिना पर होने लगा, बगैर किताब पढ़े । लेकिन अब यह किताब भारत में उपलब्ध है । मुझे लग रहा था कि गांधी के बारे में इस किताब में कुछ नया खुलासा होगा लेकिन पढ़ने के बाद निराशा हुई और लगा कि डेली मेल का लेख बेहद सनसनीखेज और सत्य से परे था । दरअसल पश्चिमी देशों में किताब को हिट कराने का यह घिसा पिटा फॉर्मूला है । किताब के बाजार में आते ही उसके बारे में उत्सुकता का एक ऐसा वातावरण तैयार किया गया और प्रकाशक या फिर लेखक के रणनीतिकारों ने बिक्री बढ़ाने के लिए गांधी की इस जीवनी के कुछ चुनिंदा अंश लीक किए ताकि मीडिया में खबर बन सके और वो लोग ऐसा करने में कामयाब भी हो गए । गांधी और हरमन कैलेनबाख के संबंध के बारे में गांधी के कुछ पत्रों को इस तरह से प्रचारित किया गया कि लेखक लेलीवेल्ड ने कुछ महान खोज कर डाली हो । गांधी के बारे में कुछ ऐसा सत्य उद्घाटित कर दिया हो जो पहले से ज्ञात नहीं था । जबकि गांधी के जिन पत्रों को आधार बनाकर लेलीवेल्ड ने कुछ बातें की है वो पत्र सालों से राष्ट्रीय अभिलेखागार में और साबरमती आश्रम में मौजूद हैं । जब गांधी और कैलेनबाख के संबंधों को आधार बनाकर अखबारों में लेख और समीक्षाएं छपी तो दुनियाभर में गांधी के प्रशंसको ने इसका विरोध शुरू कर दिया । यह विरोध जितना तीव्र होता गया किताब की बिक्री उतनी ही ज्यादा बढ़ती चली गई ।
आधुनिक भारत के इतिहास में या यों कहें कि बीसवीं शताब्दी के विश्व इतिहास में महात्मा गांधी एक ऐसी शख्सियत है जिसके व्यक्तित्व की गुत्थी सुलझाना विद्वानों के लिए एक बड़ी चुनौती है । महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के इतने आयाम हैं कि एक को पकड़ो तो दूसरा छूट जाता है । गांधी विश्व के इकलौते ऐसे शख्स हैं जिनकी मृत्यु के साठ साल बाद भी उनपर और उनके विचारों और लेखन पर लगातार शोध और लेखन हो रहा है । न्यूयॉर्क टाइम्स के पूर्व कार्यकारी संपादक ने भी गांधी और उनके व्यक्तित्व को अपने तरीके से उद्धाटित करने का असफल प्रयास किया है । साठ के दशक में लेलीवेल्ड भारत में न्यूयॉर्क टाइम्स के प्रतिनिधि थे । चूंकि वो भारत को नजदीक से देख समझ चुके थे इसलिए उनसे गांधी को और उनके पत्रों के आधार पर इस तरह के सनसनीखेज निष्कर्षों की उम्मीद नहीं थी । अब हम जोसेफ लेलीवेल्ड की किताबों के कुछ अंश पर नजर डालते हैं जिससे लेखक की मंसा साफ हो जाती है -गांधी अगर प्रेम में नहीं थे तो भी वो आर्किटेक्ट हरमन कैलेनबाख के प्रति आकर्षित थे । 1909 में लंदन से भेजे एक पत्र में गांधी ने कैलेनबाख को लिखा था- तुम्हारी तस्वीर मेरे शयनकक्ष में मैंटलपीस पर रखी है जो मेरे बिस्तर के ठीक सामने है । फिर वो आगे लिखते हैं कि रुई के फाहे और वैसलीन नियमित तौर पर याद दिलाते हैं । इसके आगे गांधी ने लिखा कि मुद्दा तुम्हें और मुझे यह दिखाने का है कि तुमने कितनी पूर्णता से मेरे शरीऱ पर कब्जा कर लिया है, यह एक प्रतिशोधपूर्ण गुलामी है (पृ-89)” अब हम कब्जा शब्द का क्या अर्थ निकालें या फिर पेट्रोलियम जेली के इस्तेमाल का क्या अर्थ निकालें जो आज की तरह उस वक्त भी किसी भी काम के लिए मरहम के तौर पर उपयोग में आता था । विश्वसनीय अनुमान तो यह हो सकता है कि लंदन के होटल के कमरे में वैसलीन एनीमा के लिए रही होगी जो गांधी की नियमित दिनचर्या में शामिल था या फिर फिर यह किसी और उमंग के पहले की छाया रहा हो जो उत्साह गांधी ने बूढे होने पर मालिश के लिए दिखाया था । मालिश के प्रति गांधी का लगाव सर्वज्ञात था और देश भर के दौरों के बीच वो महिलाओं से मालिश करवाने में रुचि रखते थे । मालिश की भी उनके जीवनकाल में काफी चर्चा होती थी और वह चर्चा कभी खत्म नहीं हुई ।
तकरीबन दो बर्ष बाद विनोदी स्वभाव के गांधी ने अपने दोस्त से समझौते के लिए एक अर्ध-सहमति पत्र बनाया था जिसमें वैसे नामों का प्रयोग किया गया था जिसे हम मजाकिया कह सकते हैं । उम्र में अपने से दो वर्ष छोटे कैलेनबाख को लोअर हाउस और खुद को अपर हाउस कहते थे ।.....कैलेनबाख के यूरोप दौरे के पहले 29 जुलाई 1911 को आपसी सहमति पत्र में अपर हाउस ने लोअर हाउस से यह वादा करवाया था कि उनकी गैरहाजिरी में कोई विवाह नहीं करेगा और ना ही किसी महिला की ओर ललचाई नजरों से देखेगा । इसके बाद दोनों हाउसों ने आपस में ज्यादा प्रेम और फिर और ज्यादा प्रेम का वादा किया । यह उस वक्त की बात है जब 1908 में गांधी की जेल यात्राओं और 1909 में उनकी लंदन यात्रा की अवधि को छोड़कर साथ रहते हुए तकरीबन तीन बर्ष बीत चुके थे । यहां यह बात स्मरणीय है कि हमारे पास सिर्फ गांधी के पत्र हैं जो हमेशा से डियर लोअर हाउस से शुरू होते हैं । हम अगर गांधी के पत्रों में लिखे गए अन्य संदर्भों और घटनाओं को छोड़ दें तो उससे ही दोनों के बीच के प्रेम के सूत्र निकलते हैं । पत्रों की व्याख्या हमेशा से दो तरह से की जा सकती है - एक तो हम अनुमानों के समंदर में डूब उतरा सकते हैं और दूसरा तरीका यह हो सकता है कि यह देखें कि दो व्यक्ति अपनी यौन इच्छाओं ते दमन के लिए अपने प्रयासों के बारे में क्या कहते सोचते हैं ।
जोसेफ लेलीवेल्ड ने इन्हीं पत्रों को आधार बनाकर गांधी के सेक्स जीवन के बारे में लिखा है लेकिन लिखते वक्त लेलीवेल्ड यह भूल गए कि गांधी में अपनी कामुकता को लेकर सार्वजनिक रूप से बात करने का अद्वितीय साहस था । 1906 में गांधी ने बह्मचर्य को अपना लिया था और उसके बाद से वो अपनी कामेच्छाओं के बारे में खुलकर लिखते बोलते थे और अपनी निजता का त्याग कर चुके थे । मालिश कराने के उनके शौक को लेलीविल्ड ने कामेच्छा से जोड़ने की कोशिश की है । लेकिन उन्हें यह याद दिलाने की जरूरत है कि मालिश कराना और एनीमा लेना गांधी की दिनचर्या में उनकी जिंदगी के आखिर तक बना रहा । सिर्फ इन बातों को आधार बनाकर गांधी के सेक्स जीवन की इस गलीज व्याख्या के लिए जोसेफ लेलीवेल्ड को जीवनी लिखने की जरूरत नहीं थी । अगर गांधी पर लिखी जीवनियों से इस किताब की तुलना करें तो यह एक बेहद कमजोर कृति है । दरअसल यह कृति गांधी की सही मायने में जीवनी भी नहीं है और ना ही गांधी के बारे में जानने की इच्छा रखनेवाले शुरुआती पाठकों के लिए उपयोगी किताब है । इस पूरी किताब में पढ़ते वक्त यह महसूस होता है कि लेखक यह मानकर चल रहा है कि पाठक को गांधी के बारे में उनके क्रियाकलापों के बारे में जानकारी है और अपनी इसी आग्रह के बिनाह पर किताब चलती रहती है । अंत में सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि जोसेफ लेलीवेल्ड ने अपने तरीके से गांधी के पुरुष मित्रों के संबंध को व्याख्यायित किया है और इसका उन्हें हक भी है । किताब पर पाबंदी लगाने या देश भर इसे प्रतिबंधित करने की कोई आवश्यकता नहीं है । खुद गांधी भी अगर जीवित होते तो इसपर पाबंदी के खिलाफ होते ।

Sunday, May 8, 2011

तद्भव और अन्य पत्रिकाएं

हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं का एक समृद्ध इतिहास रहा है और हिंदी के विकास में इनकी एक ऐतिहासिक भूमिका भी रही है । व्यावसायिक पत्रिकाओं के विरोध में शुरू हुआ लघु पत्रिकाओं के इस आंदोलन ने एक वक्त हिंदी साहित्य में विमर्श के लिए एक बड़ा और अहम मंच प्रदान किया था । लेकिन बदलते वक्त के साथ इन पत्रिकाओं की भूमिका भी बदलती चली गई । नब्बे के दशक में तो आलम यह था कि कई ऐसे व्यक्ति जो लेखक के रूप में हिंदी जगत में मान्यता नहीं पा सके उन्होंने किसी तरह से जुगाड़ लगा कर एक पत्रिका छाप ली । लेखक ना बन पाने की टीस संपादक बनकर दूर होने लगी । फिर तो यह फॉर्मूला चल निकला और एकल अंकी पत्रिका के संपादकों की हिंदी में बाढ़ आ गई । लगभग एक दशक में इस तरह की सभी पत्रिकाएं कहां बिला गई यह पता भी नहीं चला । उस दौर में कई पत्रिकाएं ऐसी भी निकली जिसने हिंदी साहित्य को गहरे तक प्रभावित ही नहीं किया बल्कि अपनी उपस्थिति से उसमें सार्थक हस्तक्षेप भी किया । इस तरह की एक गंभीर पत्रिका का प्रकाशन लखनऊ से कहानीकार अखिलेश ने शुरू की-तद्भव ( संपादक अखिलेश,18/20 इंदिरानगर, लखनऊ-226016, उत्तर प्रदेश) । अबतक इस पत्रिका के तेइस अंक निकल चुके हैं और हर अंक ने अपनी सामग्री की वजह से हिंदी जगत का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया । अपने संवादकीय में अखिलेश हर बार कोई विचारोत्तजक मुद्दा उठाते रहे हैं जिसपर पर्याप्त बहस की गुंजाइश भी रहती है ।
इस बार के अपने संपादकीय में अखिलेश ने इंटरनेट पर छप रहे लेखों और साहित्य को पुस्तकों की उपयोगिता का तुलनात्मक विवेचन किया है । अपने संपादकीय की शुरुआत ही अखिलेश करते हैं - इन दिनों कुछ लोगों द्वारा इस बात की चिंता प्रकट की जाती है कि इंटरनेट का विस्तार किताबों के वर्तमान स्वरूप को समाप्त कर देगा जाहिर है यहां आशय छपी हुई पुस्तकों से है । इस बात के समर्थन और विरोध की बातें कहते हुए अखिलेश फिल्मों तक पहुंचते हैं और कहते हैं कि - सिनेमा के अभ्युदय में भी साहित्य की समाप्ति का दुस्वपन देखा गया था । टेलीविजन को सिनेमा और साहित्य दोनों का संहारक माना गया । रंगीन टेलीविजन के खिलाफ तो बकायदा वैचारिक संघर्ष हुआ था और कंप्यूटर की भर्त्सना में बौद्धिक दुनिया ने विराट प्रतिरोध दर्ज किया था । इतना ही नहीं हमारे कुछ महत्वपूर्ण कवियों ने कंप्यूटर की निंदा करते हुए अपनी कविता में उसे ना छूने तक की प्रतिज्ञा की थी । अपने इस पूरे संपादकीय में अखिलेश तकनीक को लेकर हिंदी के द्वंद को सामने लाते हैं । इसके साथ ही इशारों-इशारों में इंटरनेट और ब्लॉग में फैली अराजकता पर भी सवाल खड़े करते हैं । यह सही है कि इंटरनेट और ब्लाग की दुनिया एक वैकल्पिक मीडिया के तौर पर सामने आया, साथ ही विचारों को अभिवयक्त करने का एक मंच प्रदान किया । इंटरनेट पर हिंदी में काफी महत्वपूर्ण काम किया जा रहा है लेकिन चंद लोग इसका इस्तेमाल व्यक्ति विशेष को बदनाम करने से लेकर लाभ-लोभ की आशा में ब्लैकमेलिंग के हथियार के तौर पर करते हैं । ब्लाग जगत के मूर्धन्य लोगों को आत्म नियंत्रण जैसा कोई मैकेनिज्म विकसित करना होगा । अगर ऐसा नहीं होता है तो सरकारी नियंत्रण की मांग उठेगी जो इसके हित में नहीं होगी ।
तद्भव के नए अंक में प्रसिद्ध कथाकार और अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए मशहूर विभूति नारायण राय की आनेवाली किताब के दो अंश छपे हैं - हाशिमपुरा 22 मई । 1987 में मेरठ के भीषण दंगों के दौरान विभूति नारायण राय बगल के जिले गाजियाबाद के पुलिस कप्तान थे । उन दंगों के दौरान उत्तर प्रदेश की पीएसी ने अंल्पसंख्यकों पर जिस तरह से जुल्म किए थे, उसके बारे में विभूति नारायण राय किताब लिख रहे हैं । यह पूरी घटना दिल दहला देने वाली है कि किस तरह 22-23 मई 1987 की रात को दिल्ली-गाजियाबाद बॉर्डर पर स्थित मकनपुर गांव के पास ट्रकों में भरकर लाए गए लोगों को पीएसी के जवानों ने अपनी गोली का शिकार बनाया था । पुलिस कप्तान के तौर पर जब राय सूचना मिलने के बाद उस जगह पहुंचे तो लाशों के ढेर के बीच सरकंडे को पकड़ कर नहर में झूलता एक जीवित व्यक्ति उन्हें मिला जिसका नाम बाबूदीन था । उसने पूरी घटना पुलिस कप्तान और उस वक्त के जिलाधिकारी नसीम जैदी को बतलाई । इस पूरे लेख में दो अधिकारियों के भय के उस मनोदशा का भी चित्रण है जहां उन्हें लगता है कि सुबह अफवाह फैलने के बाद उनके जिले में भी दंगा भड़क सकता है । यहां यह भी बताते चलें कि 1987 में चौथी दुनिया में सबसे पहले इस नरसंहार का खुलासा हुआ था । इसके अलावा तद्भव के इस अंक में वरिष्ठ साहित्यकार काशीनाथ सिंह की दो कहानियां खरोंच और पायल पुरोहित प्रकाशित है । काशीनाथ सिंह ने इस बार अपनी कहानियों में एक अलग ही तरह का प्रयोग किया है जो पाठकों को चौंकाती है । कविताओं में बद्री नारायण और प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएं उल्लेखनीय हैं जबकि जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएं उनकी तुलना में काफी कमजोर है । जितेन्द्र अपनी कविताओं को संभाल नहीं पा रहे हैं और उनके कथन में भटकाव को साफ तौर पर देखा जा सकता है ।
पुस्तक समीक्षाओं पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका- समीक्षा ( संपादक-सत्यकाम, 3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली-110002) का भी नया अंक आया है । मैं लंबे अरसे से इस पत्रिका को देख पढ़ रहा हूं । जब से सामयिक प्रकाशन ने इस पत्रिका का अधिग्रहण किया है तो कुछ बदलाव तो लक्षित किए जा सकते हैं लेकिन लेकिन घूम फिर कर वही-वही लेखक फिर से छप रहे हैं जो सालों से छपते आ रहे हैं । हां इतना अवश्य हुआ है कि महेश भारद्वाज ने कुछ नए लेखकों के लिए पत्रिका का सिंहद्वार खोल दिया है । अप्रैल में प्रकाशित अंक में वर्ष 2010 में प्रकाशित किताबों का लेखा-जोखा प्रकाशित होना चकित करता है । 2011 के तकरीबन चार महीने बीत जाने के बाद पिछले वर्ष का लेखा-जोखा छापना मेरी समझ से बाहर है । इन चार महीनों में तो हिंदी में कई अहम किताबें छपकर आ गई, खुद समायिक से ही कई किताबें छप गई । इस तरह के लेख से एक तो यह लगता है कि प्लानिंग के स्तर पर कुछ खामियां है जिसे दूर किया जा सकता है ताकि पत्रिका की ताजगी और लेखों की प्रासंगिकता बनी रही । इस पत्रिका के संस्थापक संपादक गोपाल राय जी ने इस बार प्रेमचंद की किताबों के बहाने एक अच्छा लेख लिखा है । संपादकीय में सत्यकाम ने कई हल्की बातें कह दी हैं,गौर करिए - पत्रिकाओं के दम पर आज साहित्य जिंदा है, वर्ना पुस्तकें पुस्तकालयों में जाकर कैद होने के लिए अभिशप्त हैं । ऐसी ही एक पत्रिका है नया पथ । यह जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय पत्रिका है । लेखक संघों में जनवादी लेख संघ ही सर्जानत्मक रूप से सक्रिय है और इसी पर साहित्य की आशा टिकी है । पता नहीं सत्यकाम किस आधार पर कह रहे हैं कि जलेस ही सर्जनात्मक रूप से सक्रिय है और साहित्य की आशा उसपर ही टिकी है । यहां सत्यकाम फतवेबाजी के दोष के शिकार हो गए हैं । उन्हें यह बताना चाहिए था कि किस तरह से साहित्य की आशा जलेस पर टिकी है । सत्यकाम की छवि एक समझदार शिक्षक की है उनसे इस तरह की बचकानी टिप्पणी की उम्मीद नहीं थी । लेखक संघ किस तरह से अपने कर्तव्य से च्युत हो चुके हैं यह पूरा हिंदी साहित्य जानता है । उनकी साहित्य जगत में अब कोई भूमिका शेष नहीं रह गई है क्योंकि लेखकों से जुडे़ किसी भी बड़े मसले पर वो हमेशा खामेश ही रहते हैं ।
पिछले दिनों एक गोष्ठी में एक मित्र ने आधारशिला ( संपादक दिवाकर भट्ट, बड़ी मुखानी,हलद्वानी, नैनीताल, उत्तराखंड -263139) का कवि त्रिलोचन पर केंद्रित अंक-बारंबार त्रिलोचन की प्रति दी । इस अंक का संपादन वाचस्पति ने किया है । इस अंक के संपादकीय से पता चला कि इसके पहले भी आधारशिला ने अपना एक अंक त्रिलोचन पर फोकस करते हुए निकाला था और दिवाकर भट्ट की मानें तो - आधारशिला का त्रिलोचन विशेषांक -एक त्रिलोचन इतने अपने पास, अपनी सामग्री व प्रस्तुति की दृष्टि से देश-विदेश में खासा चर्चित रहा । मुझे इस बात का अफसोस है कि देश-विदेश में चर्चित उक्त अंक मैं देख नहीं पाया । अगर इस अंक को देखें तो अतिथि संपादक ने पहले ही मान लिया है कि - कुछ निजी और सार्वजनिक कारणों से त्रिलोचन विषयक अत्यंत महत्वपूर्ण सामग्री अभी हम नहीं दे पा रहे हैं । इस याचित सामग्री का उपयोग हम यथासमय अवश्य करेंगे । बावजूद इसके इस अंक में कई महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हैं । कथाकार उदय प्रकाश का संस्मरणात्मक लेख-पथ पर बिखरा जीवन-बेहतरीन लेखों में से एक है । इस लेख के अलावा हिंदी के तमाम लेखकों के त्रिलोचन पर समय समय पर लिखे लेख इस अंक में हैं जिसमें शमशेर बहादुर सिंह, राजेश जोशी, लीलाधर जगूड़ी, रामविलास शर्मा, रमेशचंद्र शाह आदि के नाम शामिल हैं । त्रिलोचन पर केंद्रित य़ह अंक हिंदी में सानेट के जनक को जानने के लिहाज से अहम है ।
पिछले दिनों डाक में एक ऐसी पत्रिका मिली जिसके शीर्षक के मुझे चौंकाया । प्रवासी भारतीयों की मासिक पत्रिका- पत्रिका गर्भनाल ( संपादक सुषमा शर्मा, डीएक्सई-23, मीनाल रेसीडेंसी, जे के रोड भोपाल-462023) । मैं इसके कवर और शार्षक से यह अनुमान नहीं लगा पाया कि यह किस तरह की पत्रिका है । लेकिन उलटने पुलटने के बाद पता चला कि यह पत्रिका कमोबेश साहित्यक ही है । इसमे विदेशो में बसे कुछ भारतीयों के लेखों के अलावा देसी लेखकों की भी रचनाएं प्रकाशित हैं लेकिन दो अंक देखने के बाद भी मेरी यही राय है कि अभी इस पत्रिका का कोई ठोस स्वरूप नहीं बन पाया है ।