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Friday, March 30, 2012

अखिलेश की चुनौती

उत्तर प्रदेश चुनाव में समाजवादी पार्टी की जीत के बाद राजनीतिक टिप्पणीकार सूबे में बदलाव की उम्मीद कर रहे हैं । सूबे की जनता में अपने युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को लेकर जबरदस्त उत्साह है । मायावती के शासनकाल के दौरान सांस्थानिक भ्रष्टाचार से त्रस्त और उसके पहले मुलायम सिंह यादव के राज में गुंडई से पस्त जनता को अखिलेश में एक ऐसा ताजा चेहरा दिखाई दिया जो प्रदेश को गुंडागर्दी से दूर कर सकता है । जनता ने प्रचंड बहुमत से अखिलेश को देश के सबसे बड़े राज्य का सबसे युवा मुख्यमंत्री चुन लिया । लेकिन जनता के इस विश्वास के बाद अखिलेश से उनकी अपेक्षाएं भी सातवें आसमान पर जा पहुंची हैं । अखिलेश को जनता की इन लगातार बढ़ती अपेक्षाओं पर उतरने की बहुत बड़ी चुनौती है । जब अखिलेश सूबे के मुख्यमंत्री बने तो राजनीतिक पंडितों का आकलन था कि उनके चाचा शिवपाल यादव हर कदम पर बाधाएं खड़ी करेंगे लेकिन यह आकलन इस वजह से गलत साबित हुआ कि मुलायम ने अपने राजनीतिक कौशल से उनको साध लिया और यह इंतजाम कर दिया कि शिवपाल अपने भतीजे की राह में रोड़े ना अटका सकें । जिस वक्त शिवपाल को केंद्र की राजनीति में जाने का प्रस्ताव दिया गया उसी वक्त यह तय हो गया था कि शिवपाल अगर सूबे में मंत्री बनते हैं तो अपने मंत्रालय तक सीमित रहेंगे। इसके अलावा आजम खां को भी स्पीकर बनाने का दांव चलकर मुलायम ने उस बाधा को भी खत्म कर दिया ।
तमाम राजनीतिक पंडितों की भविष्वाणियों के उलट अखिलेश के लिए जो सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रहे हैं वो हैं उनके पिता मुलायम सिंह यादव। अखिलेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने पिता की छाया से निकलकर खुद को स्थापित और साबित करने की है । जब अखिलेश मुख्यमंत्री बने तो उनके सामने जो पहला बड़ा काम था वो था मंत्रिमंडल गठन का और मंत्रियों के बीच विभागों के बंटवारे का । अखिलेश को अपना मंत्रिमंडल बनाने में पसीने छूट गए और विभागों का बंटवारा तो हफ्ते भर से ज्यादा वक्त तक नहीं हो पाया । मंत्रियों को विभागों का वंटवारा होने के पहले एक मंत्रिमंडल विस्तार उनको करना पड़ा, जिसमें मुलायम के आदमियों को जगह दी गई । आजाद भारत के इतहास में ऐसा कम ही हुआ है कि अपने बल पर बहुमत पानेवाली पार्टी सरकार बनाने के बाद पहले मंत्रिमंडल विस्तार करे फिर मंत्रियों के बीच विभागों का बंटवारा । अखिलेश के मंत्रिमंडल पर मुलायम सिंह यादव की गहरी छाप और छाया साफ दिखाई देती है । मुलायम के तमाम विश्वस्त सहयोगियों को मंत्रिमंडल में जगह दी गई । हद तो तब हो गई पूर्ण बहुमत के बावजूद निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को मंत्री बनाकर उनकी पसंद का मंत्रालय सौंप दिया गया । अखिलेश ने जब अपने मंत्रियों के बीच विभागों का वंटवारा किया तो अपनी पसंद के मंत्रियों को कम अहम मंत्रालय दे सके । अभिषेक मिश्रा उनकी पसंद हैं, पढ़े लिखे समझदार युवा नेता हैं । प्रबंधन में वो सिद्धहस्त हैं लेकिन उनको मंत्रालय मिला प्रोटोकॉल, जहां करने के लिए बहुत कुछ है नहीं । इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मंत्रालयों के बंटवारे में भी अखिलेश की नहीं बल्कि मुलायम सिंह यादव की चली । अखिलेश का जो मंत्रिमंडल है उसे चाचाओं का मंत्रिमंडल कहा जा सकता है जिसमें अधिकांश मुलायम के सहयोगी और हमउम्र रह चुके हैं और अखिलेश को बच्चा समझते हैं । अखिलेश के सामने अपने पिता के इन सहयोगियों से काम करवाने की बेहद कड़ी चुनौती होगी । हर मंत्री अखिलेश को बच्चा और खुद को मुलायम का समकालीन मानता है । उनसे काम करवाना अखिलेश के लिए मुश्किल हो सकता है ।
अखिलेश यादव ने जब सूबे की कमान संभाली को उनको विरासत में जो नौकरशाही मिली वो राजनीति में आकंठ डूबी और करीब करीब भ्रष्ट हो चुकी थी । उत्तर प्रदेश की नौकरशाही में हर अफसर किसी न किसी राजनेता का आदमी है । कोई मुलायम का तो कोई मायावती का तो कोई बीजेपी का । अखिलेश के सामने इस राजनीतिक और भ्रष्ट अफसरशाहों पर लगाम लगाने की चुनौती है । सूबे में अहम पदों पर अफसरों की तैनाती में मुलायम सिंह यादव की छाप ही देखी जा सकती है । अखिलेश की सचिवों की तैनाती में भी मुलायम की ही चली, जो मुलायम के शासन काल में पंचम तल पर बैठते थे उनकी फिर से वापसी हुई है । ऐसे में इस युवा मुख्यमंत्री की चुनौती और बढ़ जाती है कि उनको उन अफसरों से काम करवाना है जिनकी राजनैतिक आस्था कहीं और है और वो अपनी नियुक्ति के लिए अखिलेश नहीं बल्कि किसी और को जिम्मेदार मानता है । इसके अलावा बेलगाम और सांस्थानिक भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने वाले अफसरों और बाबुओं को काबू में करना और उनसे रचनात्मक और विकास के काम करवाना भी टेढी खीर साबित हो सकता है । यहीं पर अखिलेश के राजनैतिक और प्रशासनिक कौशल की परीक्षा होगी । अगर वो सफल हो जाते हैं तो इतिहास पुरुष बन जाएंगे और अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो इतिहास में गुम हो जाएंगें ।
तीसरी बड़ी चुनौती भी अखिलेश के सामने मुलायम सिंह यादव के साथी संगी हैं और जिन्होंने पिछले पांच साल तक इस आस में नेताजी का साथ दिया कि सत्ता बदलेगी तो उसका स्वाद चखेंगे । इस आस के उल्लास का उत्पात में बदलते चले जाना और फिर उसका अपराध की सीमा में प्रवेश कर जाना अखिलेश को सीधे चुनौती दे रहा है । सात मार्च से लेकर बारह मार्च तक जिस तरह से समाजवादी पार्टी के समर्थकों ने उत्पात मचाया वो आने वाले दिनों का एक संकेत तो देता ही है । भदोही, सीतापुर, इलाहाबाद, बरेली, अंबेडकरनगर हरदोई, मुरादाबाद, प्रतापगढ़, औरैया में जिस तरह से हत्याएं हुई और समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने आगजनी और रंगदारी की उससे एक बार फिर से उत्तर प्रदेश में अपराध और अपराधियों के बोलबाला होने का खतरा मंडराने लगा है । जिस तरह से अखिलेश यादव के शपथ ग्रहण समारोह के बाद सपाइयों ने मंच पर चढ़कर उत्पात किया वो भी आने वाले समय की बानगी पेश कर रहा था । अखिलेश ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले और बाद में भी अपराधमुक्त उत्तर प्रदेश का वादा किया था जिसकी मंत्रिमंडल गठन में ही धज्जी उड़ गई । जिस तरह से बाहुबली निर्दलीय विधायक राजा भैया को मुलायम के दबाव में मंत्रिमंडल में शामिल करना पड़ा उससे अखिलेश की बड़ी फजीहत हुई । इसके अलावा ब्रह्माशंकर शंकर त्रिपाठी, दुर्गा यादव, शिव कुमार बेरिया, राजकिशोर सिंह जैसे आपराधिक छवि के लोगों के साथ कैबिनेट में बैठकर अपराधमुक्त प्रदेश का वादा जरा खोखला लगता है ।
अखिलेश यादव युवा हैं, उत्तर प्रदेश को लेकर उनका एक सपना है, उसको वो पूरा भी करना चाहते हैं लेकिन इसके लिए उन्हें घर और पिता की छाया और उनकी मित्र मंडली से बाहर निकलना होगा और कुछ कड़े और बड़े फैसले लेने होंगे । चुनाव के वक्त जिस तरह से डी पी यादव को पार्टी में नहीं लेने पर वो अड़ गए थे उसी तरह के कड़े फैसलों की ही प्रतीक्षा उत्तर प्रदेश की जनता कर रही है । अखिलेश को भी मालूम है कि उनके पास ज्यादा समय नहीं है और वक्त रहते अगर गुंडों पर काबू और विकास की पहिए को रफ्तार नहीं दी गई तो जनता की अदालत में उनका भविष्य तय हो जाएगा । जनता की अदालत में फैसला आने में भले ही पांच साल लग जाए लेकिन लोकतंत्र में उस फैसले को मानने के अलावा कोई विकल्प बचता नहीं है । उसको सभी को स्वीकार करना पड़ता है, अखिलेश को भी ।

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