कुछ दिनों पहले दिल्ली में बीसवां अतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला समाप्त हुआ । दरअसल यह मेला एक साहित्यिक उत्सव की तरह होता है जिसमें पाठकों की भागीदारी के साथ साथ देशभर के लेखक भी जुटते हैं और परस्पर वयक्तिगत संवाद संभव होता है । इस बार के मेले की विशेषता रही किताबों का ताबड़तोड़ विमोचन और कमी खली राजेन्द्र यादव की जो बीमारी की वजह से मेले में शिरकत नहीं कर सके । एक अनुमान के मुताबिक इस बार के पुस्तक मेले में हिंदी की तकरीबन सात से आठ सौ किताबों का विमोचन हुआ । हिंदी के हर प्रकाशक के स्टॉल पर हर दिन किसी ना किसी का संग्रह विमोचित हो रहा था । इस बार फिर से नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी ने सबसे ज्यादा किताबें विमोचित की होंगी, ऐसा मेरा अमुमान है । इस अनुमान का आधार प्रकाशकों से मिलनेवाले विमोचन के एसएमएस रूपी निमंत्रण हैं । मेले में इस बार शिद्दत से हंस संपादक राजेन्द्र यादव की कमी महसूस हुई । राजेन्द्र यादव एक छोटे से ऑपरेशन के बाद से ठीक होने की प्रक्रिया में हैं और इस प्रक्रिया में उनका बिस्तर से उठ पाना मुश्किल है । लिहाजा वो पुस्तक मेले में नहीं आ पाए । सिर्फ मेला ही क्यों दिल्ली का हिंदी समाज हंस के दरियागंज दफ्तर में उनकी अनुपस्थिति को महसूस कर रहा है। हिंदी साहित्य का एक स्थायी ठीहा आजकल उनकी अनुपस्थिति की वजह से वीरान ही नहीं उदास भी है । हम सबलोग उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना कर रहे हैं ताकि दिल्ली के हिंदी जगहत की जिंदादिली वापस आ सके ।
वापस लौटते हैं पुस्तक मेले पर । पुस्तक मेले में इतनी बड़ी संख्या में किताबों के विमोचन को देखते हुए लगता है कि हिंदी में पाठकों की कमी का रोना नाजायज है । अगर पाठक नहीं हैं तो फिर इतनी किताबें क्यों छप रही हैं । मेरा मानना है कि सिर्फ सरकारी खरीद के लिए इतनी बड़ी संख्या में पुस्तकें नहीं छप सकती हैं । एक बार फिर से हिंदी के कर्ता-धर्ताओं को इस पर विचार करना चाहिए और डंके की चोट पर यह ऐलान भी करना चाहिए कि हिंदी सिर्फ पाठकों के बूते ही चलेगी भी और बढेगी भी । इससे ना केवल लेखकों का विश्वास बढेगा बल्कि पाठकों की कमी का रोना रोनेवालों को भी मुंहतोड़ जबाव मिल पाएगा । छात्रों की परीक्षा के बावजूद मेले में लोगों की सहभागिता के आधार पर मेरा विश्वास बढ़ा है । मेले में जो किताबें विमोचित या जारी हुई उसमें कवि-संस्कृतिकर्मी यतीन्द्र मिश्र के निबंधों का संग्रह विस्मय का बखान (वाणी प्रकाशन), कवि तजेन्दर लूथरा का कविता संग्रह अस्सी घाट पर बांसुरीवाला(राजकमल प्रकाशन), हाल के दिनों में अपनी कहानियों से हिंदी जगत को झकझोरनेवाली लेखिका जयश्री राय का उपन्यास –औरत जो नदी है(शिल्पायन, दिल्ली) अशोक वाजपेयी के अखबारों में लिखे टिप्पणियों का संग्रह- कुछ खोजते हुए के अलावा झारखंड की उपन्यासकार महुआ माजी का नया उपन्यास मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ (राजकमल प्रकाशन) – और पत्रकार और कहानीकार गीताश्री की शोधपरक पुस्तक सपनों की मंडी प्रमुख है । हिंदी में शोध के आधार पर साहित्यिक या गैर साहित्यिक लेखन बहुत ज्यादा हुआ नहीं है । जो हुआ है उसमें विषय विशेष की सूक्षमता से पड़ताल नहीं गई है । विषय विशेष को उभारने के लिए जिस तरह से उसके हर पक्ष की सूक्ष्म डिटेलिंग होनी चाहिए थी उसका आभाव लंबे समय से हिंदी जगत को खटक रहा था। अपने ज्ञान,प्रचलित मान्यताओं, पूर्व के लेखकों के लेखन और धर्म ग्रंथों को आधार बनाकर काफी लेखन हुआ है । लेकिन तर्क और प्रामाणिकता के अभाव में उस लेखन को बौद्धिक जगत से मान्यता नहीं मिल पाई । लेखकों की नई पीढ़ी में यह काम करने की छटपटाहट लक्षित की जा सकती है। इस पीढ़ी के लेखकों ने श्रमपूर्वक गैर साहित्यिक विषयों पर बेहद सूक्ष्म डीटेलिंग के साथ लिखना शुरू किया । नई पीढ़ी की उन्हीं चुनिंदा लेखकों में एक अहम नाम है गीताश्री का। कुछ दिनों पहले एक के बाद एक बेहतरीन कहानियां लिखकर कहानीकार के रूप में शोहरत हासिल कर चुकी पत्रकार गीताश्री ने तकरीबन एक दशक तक शोध और यात्राओं और उसके अनुभवों के आधार पर देह व्यापार की मंडी पर पर यह किताब लिखी है । गीताश्री ने अपनी इस किताब में अपनी आंखों से देखा हुआ और इस पेशे के दर्द को झेल चुकी और झेल रही महिलाओं से सुनकर जो दास्तान पेश की है उससे पाठकों के हृदय की तार झंकृत हो उठती है । उम्मीद की जा सकती है कि गीताश्री की इस किताब से हिंदी में जो एक कमी महसूस की जा रही थी वो पूरी होगी ।
कवि तजेन्दर लूथरा के कविता संग्रह का नाम अस्सी घाट पर बांसुरीवाला चौंकानेवाला है । संग्रह के विमोचन के बाद जब मैंने नामवर सिंह से इस कविता संग्रह के शीर्ष के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि जबतक वो बनारस में थे तबतक उन्होंने अस्सी घाट पर बांसुरी वाले को नहीं देखा था । लेकिन नामवर सिंह ने तजेन्दर की कविताओं को बेहतर बताया । हलांकि कवि का दावा है कि उन्होंने अस्सी घाटपर बजाप्ता बांसुरीवाले को बांसुरी बजाते देखा है और वहीं से इस कविता को उठाया है । मैंने भी तजेन्दर की कई कविताएं पढ़ी और सुनी हैं । उनकी कविताओं की एक विशेषता जिसे हिंदी के आलोचकों को रेखांकित करना चाहिए वो यह है कि वहां कविता के साथ साथ कहानी भी समांतर रूप से चलती है । तजेन्दर की कविताएं ज्यादातर लंबी होती हैं और उसमें जिस तरह से समांतर रूप से एक कहानी भी साथ साथ चलती है उससे पाठकों को दोनों का आस्वाद मिलता है । तजेन्दर की कविताओं के इस पक्ष पर हिंदी में चर्चा होना शेष है । मैं आमतौर पर कविता संग्रहों पर नहीं लिखता हूं क्योंकि मैं मानता हूं कि आज की ज्यादातर कविताएं सपाटबयानी और नारेबाजी की शिकार होकर रह गई हैं । लेकिन तजेन्दर की कविताओं में नारेबाजी या फैशन की क्रांति नहीं होने से यह थोड़ी अलग है । कभी विस्तार से इस कविता संग्रह पर लिखूंगा ।
महुआ माजी का पहला उपन्यास मैं बोरिशाइल्ला ठीक ठाक चर्चित हुआ था । अब एक लंबे अंतराल के बाद उनका जो दूसरा उपन्यास आया है उसे लेखिका विकिरण, प्रदूषण और विस्थापन से जुड़े आदिवासियों की गाथा बताया है । लेखिका के मुताबिक इसमें द्वितीय विश्वयुद्ध से हुए विध्वंस से लेकर वर्तमान तक को समेटा गया है । विजयमोहन सिंह इसे जंगल जीवन की महागाथा बताते हैं लेकिन देखना होगा कि हिंदी के पाठक इस उपन्यास को किस तरह से लेते हैं । रचनाओं को परखने की आलोचकों की नजर पाठकों से इतर होती है और बहुधा उनकी राय भी अलग ही होती है ।
पुस्तक मेले के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट के नए और युवा निदेशक एम ए सिकंदर से भी लंबी बातचीत हुई । दरअसल मेले में कुछ प्रकाशकों ने आयोजन की तिथि और व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े किए थे । एनबीटी के निदेशक ने साफ तौर पर यह स्वीकार किया कि बच्चे कम संख्या में आ पाए लेकिन जिस तरह से ट्रस्ट ने दिल्ली के कॉलेजों में एक अभियान चलाया उससे पुस्तक मेले में छात्रों की भागीदारी बढ़ी । बातचीत के क्रम में सिकंदर साहब ने जो एक अहम बात कही वो यह कि एनबीटी विश्व पुस्तक मेले को हर साल आयोजित करने की संभावनाओं को तलाश रहा है । अगर यह हो पाता है तो हिंदी समेत अन्य भाषाओं के लिए भी बेहतरीन काम होगा ।
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