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Saturday, April 28, 2012

डर्टी पिक्टर पर डर्टी पॉलिटिक्स

फिल्म डर्टी पिक्चर को एक निजी टेलीविजन चैनल पर प्रसारित नहीं करने की सलाह देकर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है । फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों से लेकर बौद्धिक वर्ग के बीच इस बात को लेकर डिबेट शुरू हो गई है । सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने एक निजी टेलीविजन चैनल को भेजे अपनी सलाह में केबल टेलीविजन नेटवर्क रूल 1994 का सहारा लिया और उसके सबरूल 5 और 6 का हवाला देते हुए फिल्म डर्टी पिक्चर के प्रसारण को रात ग्यारह बजे के बाद करने की सलाह दी । केबल टेलीविजन रूल यह कहता है कि किसी भी चैनल को बच्चों के नहीं देखने लायक कार्यक्रम के प्रसारण की इजाजत उस वक्त नहीं दी जा सकती जिस वक्त बच्चे सबसे ज्यादा टीवी देखते हों। सूचना और प्रसारण मंत्रालय यह मानकर चल  रहा है कि रात ग्यारह बजे के बाद अपेक्षाकृत कम बच्चे टीवी देखते हैं । सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को इस बात की जानकारी कहां से मिली कि दोपहर बारह बजे सबसे ज्यादा संख्या में बच्चे टीवी देखते हैं । उसका आधार क्या है । क्या इस बात का कोई वैज्ञानिक आधार है या फिर टीआरपी के दस हजार बक्सों से किए जाने वाले विश्लेषण के आधार पर यह मान लिया गया है कि दिन में ज्यादा संख्या में बच्चे टीवी देखते हैं । क्या रात ग्यारह बजे के बच्चे टीवी नहीं देखते हैं । मंत्रालय के आला अफसर अबतक उसी पुरातन काल में जी रहे हैं जब यह माना जाता था कि बच्चे खा पीकर रात नौ बजे तक सो जाते हैं । समाज में हो रहे बदलाव और बच्चों के बदलते लाइफ स्टाइल को मंत्रालय नजरअंदाज कर रहा है । महानगर की अगर बात छोड़ भी दें तो किस शहर में अब बच्चे ग्यारह बजे तक सोते होंगे, वो भी छुट्टी वाले दिन। मंत्रालय को लगता है कि वो निजी टीवी चैनल पर डर्टी पिक्चर का प्रसारण रुकवाकर बच्चों और किशोरों को इस फिल्म को देखने से रोक लेंगे । आज बच्चों के लिए इंटरनेट का एक्सेस इतना आसान है कि उन्हें रोक पाना मुमकिन ही नहीं है । किशोरों के हाथ में जो मोबाइल फोन है उसमें भी इंटरनेट की सुविधा मौजूद है । समाज बदल रहा है, विचार बदल रहे हैं, बदल रही है लोगों की सोच, लेकिन सूचना और प्रसारण मंत्रालय में बैठे कर्ता-धर्ता अबतक पाषाणकाल में ही जी रहे हैं । उन्हें तो खुद को बदलना होगा और अगर किसी एक्ट में इस तरह के प्रावधान हैं तो पुराने पड़ चुके उन नियम कानून में भी बदलाव की दरकार है ।   लेकिन लगता है कि यहां मूल कारण बच्चे नहीं कुछ और हैं जिसका खुलासा होना चाहिए।
दक्षिण भारतीय हिरोइन स्लिक स्मिता की जिंदगी पर बनी इस फिल्म को पहले तो सेंसर बोर्ड ने एडल्ट सर्टिफिकेट दिया लेकिन बाद में जब इस फिल्म के टीवी पर दिखाने के अधिकार का करार हुआ तो बोर्ड ने करीब पचास से ज्यादा दृश्य और डॉयलॉग पर कैंची चलाने के बाद इस फिल्म को यूए यानि यूनिवर्सल एडल्ट का दर्जा दे दिया । एडल्ट फिल्म और यूनिवर्सल एडल्ट फिल्म में बुनियादी फर्क है । सोलह साल से कम उम्र के बच्चे सिनेमा हॉल में एडल्ट यानि वयस्क फिल्में नहीं देख सकते हैं भले ही वो अपने माता पिता के साथ क्यों ना हों । लेकिन जिस फिल्म को सेंसर बोर्ड युनिवर्सल एडल्ट फिल्म का प्रमाण पत्र देती है उसको बच्चे अपने अभिभावक के साथ जाकर देख सकते हैं । माना यह गया था कि कई फिल्में बच्चे अपने माता पिता के साथ देख सकते हैं ताकि उनके मन में उठने वाले प्रश्नों का उत्तर उनके साथ बैठे मां-बाप दे सकें।  डर्टी पिक्चर को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाला केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने टीवी पर दिखाए जाने के लिए जब यूए सर्टिफिकेट दिया है तो नियमानुसार डर्टी पिक्चर को टीवी पर नहीं दिखाए जाने की सलाह देना सरासर गलत है । अगर बच्चे अपने घर में माता पिता की मौजूदगी में डर्टी पिक्टर देखना चाहें तो देखें । और ऐसा पहली बार नहीं होता कि यूए प्रमाण पत्र मिली फिल्म टीवी पर दिखाई जाती । इसके पहले भी इस श्रेणी की कई फिल्में निजी चैनलों पर दिन और शाम के वक्त दिखाई जा चुकी है । लंबी सूची है जिसको यहां गिनाने का कोई मतलब नहीं है ।  
अब अगर हम उन तर्कों पर विचार करें जिसके आधार पर डर्टी पिक्चर के प्रसारण को रात ग्यारह बजे के बाद करने लायक माना गया तो क्या वही तर्क मनोरंजन चैनल पर दिखाए जा रहे धारावाहिकों पर लागू नहीं होते । ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब एक चैनल पर सबसे ज्यादा दर्शक संख्या वाले वक्त पर इस जंगल से मुझे बचाओ जैसे धारावाहिक दिखाए गए जिसमें नायिकाएं बेहद कम कपड़ों में झरने के नीचे नहाती हुई दिखाई गई । बिग बॉस में चाहे वो अस्मित और वीणा मलिक के एक ही बिस्तर में लेटकर अंतरंग संवाद के दृश्य हों या फिर राहुल महाजन और उसकी नायिका पायल रोहतगी के स्वीमिंग पूल में तैरने के दृश्य हों क्या वो एडल्ट की श्रेणी में नहीं आते । हाल ही में एक सीरियल में लंबे लंबे चुंबन दृश्य दिखाए गए तो उस वक्त मंत्रालय ने क्या कर लिया । हमारे देश में सच का सामना जैसे कार्यक्रम भी दिखाए गए जिसमें सीधे सीधे पूछा जाता था कि आपने पत्नी के अलावा कितनी महिलाओं से जिस्मानी संबंध बनाए । उसे भी रात ग्यारह बजे के बाद दिखाने के लिए उक्त चैनल को राजी करने में सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पसीने छूट गए थे । एक चैनल पर राखी सावंत का शो आता था जिसमें इस तरह के संवाद होते थे जिसको सुनकर वयस्क भी असहज हो जाते थे ।
मंत्रालय का तर्क है कि उनके पास प्री सेंसरशिप का अधिकार नहीं है । ठीक है मान लिया कि आपके पास वो अधिकार नहीं है । लेकिन क्या रात ग्यारह बजे से पहले वैसे दृश्यों को दिखाने वाले चैनलों के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई की गई या सिर्फ चेतावनी देकर खानापूरी कर ली गई । अब भी कई चैनलों पर ऐसे धारावाहिक चल रहे हैं जिनके संवाद इतने अश्लील होते हैं कि आप परिवार के साथ बैठकर देखने में खुद को असहज महसूस करते हैं लेकिन मंत्रालय के अधिकारियों को उस वक्त केबल टेलीविजन रेगुलेशन एक्ट की याद नहीं आती है । क्यों । 
दूसरी जो अहम बात है वह भी समझ से परे है । इस फिल्म में शानदार भूमिका निभाने के लिए फिल्म की नायिका विद्या बालन को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया । उनकी भूमिका की जोरदार प्रशंसा की गई । अब यहां भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय बुरी तरह से फंसता नजर आ रहा है । नियमों के मुताबिक जिस भी फिल्म को किसी भी क्षेत्र में चाहे वो अभिनय हो या फिर गीत से लेकर साउंड रिकॉर्डिंग तक में अगर राष्ट्रीय पुरस्कार मिलता है तो उस फिल्म को टैक्स फ्री करना पड़ता है । साथ ही उस फिल्म को दूरदर्शन पर दिखाने की भी परंपरा है । अब अगर मंत्रालय यह मानता है कि यह फिल्म बच्चों के देखने लायक नहीं है तो क्या दूरदर्शन पर भी इसका प्रसारण रात ग्यारह बजे के बाद ही किया जाएगा या फिर दूरदर्शन पर डर्टी पिक्चर का प्रसारण ही नहीं किया जाएगा । दूरदर्शन की पहुंच केबल टीवी से कहीं ज्यादा है यह बात तो प्रामाणिक है । क्या डर्टी पिक्टर को टैक्स फ्री किया जाएगा या फिर इस नियम की भी काट मंत्रालय निकाल लेगा । कुल मिलाकर देखा जाए तो इस पूरे मामले में सूचना और प्रसारण मंत्रालय की खासी किरकिरी हुई है और अब वक्त आ गया है कि मंत्रालय अपने फैसले लेने के पहले उससे जुड़े सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार करे ।


Tuesday, April 24, 2012

दिग्गज नेताओं की कमी से हलकान कांग्रेस

देश की सबसे बड़ी और पुरानी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस इन दिनों एक अजीब से संकट से जूझ रही है । उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पार्टी संगठन में फेरबदल कर उसे मजबूती प्रदान करना चाहती है । इस बात को लेकर पार्टी में खासी मशक्कत हो रही है लेकिन जनाधार वाले नेताओं की खासी कमी महसूस की जा रही है । पार्टी में फिलहाल जो नेता मौजूद हैं उसमें राजनीतिक कौशल या जनाधार की कमी है जिसके बूते वो विरोधियों को टक्कर दे सके । अब अगर हम राज्यवार बात करें तो बिहार के विधानसबा चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति को सालभर से ज्यादा हो गए लेकिन अब तक पार्टी वहां एक ढंग का प्रदेश अध्यक्ष नहीं ढूंढ पा रही है । अब भी महबूब अली कैसर के भरोसे ही पार्टी चल रही है । समस्या यह है कि वहां नीतीश कुमार को टक्कर देने की बात तो दूर उनके आस पास का भी कोई नेता कांग्रेस में दिखाई नहीं दे रहा है । यही हालत उत्तर प्रदेश की भी है जहां किसी नेता के पास मुलायम सिंह यादव या मायावती जैसा जनाधार नहीं है । बेनी वर्मा या श्री प्रकाश जायसवाल या सलमान खुर्शीद जैसे नेता उत्तर प्रदेश से आते हैं लेकिन विधानसभा चुनाव में जनता ने उन्हें उनकी असली जगह दिखा दी थी । रही बात आर पी एन सिंह और जितिन प्रसाद जैसे युवा नेताओं की तो उन्हें अभी अपने आप को प्रूव करना बाकी है । यही हाल गुजरात का हैं जहां इस साल के अंत में विधानसभा के चुनाव होने हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी के सामने अर्जुन मोढवाडिया और शक्ति सिंह गोहिल जैसे नेता हैं जो कहीं से भी मोदी की लोकप्रियता के आगे टिकते नहीं हैं । गुजरात में एक जमाने में अहमद पटेल जैसे नेता हुए जो इमरजेंसी के बाद कांग्रेस विरोध के लहर के बावजूद 1977 के लोकसभा चुनाव में जीत हासिल की । उसके बाद भी दो लोकसभा चुनाव में जीत का परचम फहराया । गुजरात के बाद अगर हम बात महाराष्ट्र की करें को वहां विलासराव देशमुख और सुशील कुमार शिंदे के बाद कोई दमदार नेता नजर नहीं आता । इन दोनों नेताओं के नाम आदर्श घोटाले में आने के बाद पार्टी का संकट और बढ़ गया है । मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण की छवि भले ही अच्छी हो लेकिन उनका राज्य में कोई बड़ा जनाधार नहीं है । बंगाल और उड़ीसा में भी पार्टी की यही गत है । उड़ीसा में भी पार्टी के पास नवीन पटनायक के करिश्मे को चुनौती देनेवाला नेता नहीं है । बंगाल में तो खैर संगठन कभी मजबूत हो ही नहीं पाया और ममता बनर्जी को कांग्रेस अपने साथ रख नहीं पाई । मध्यप्रदेश में पार्टी के पास भले ही दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ जैसे नेता हैं लेकिन तीनों की रुचि केंद्र में ज्यादा है । दक्षिण भारत में तो कांग्रेस की हालत और बुरी है । तमिलनाडु में तो कांग्रेस काफी दिनों से डीएमके और एआईएडीएमके की अंगुली पकड़कर ही राजनीति करती रही है । जी के मूपनार के बाद वहां भी कोई मजबूत कांग्रेसी हुआ नहीं जो करुणानिधि और जयललिता को टक्कर दे सके । वाई एस राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद आंध्र प्रदेश में पार्टी अनाथ सी हो गई लगती है । पिछले लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने जोरदार प्रदर्शन किया था लेकिन अब कमजोर नेतृत्व की वजह से वहां की समस्याएं लगातार बढ़ती जा रही है । कर्नाटक में पार्टी के पास जरूर एस एम कृष्णा, मोइली जैसे नेता हैं लेकिन लोकप्रियता में येदुरप्पा उनपर भारी पड़ते हैं । पंजाब में ले देकर कैप्टन अमरिंदर सिंह बचते हैं जिसे लोगों ने विधानसभा चुनाव में नकार दिया । लब्बोलुआब यह कि कांग्रेस पार्टी इन दिनों मजबूत और जुझारू नेताओं की कमी से परेशान है । आज कांग्रेस में जो भी बड़े नेता हैं उनकी प्रतिभा को संजय गांधी ने पहचाना और युवा कांग्रेस के रास्त से उन्हें राजनीति का रास्ता दिखाया। चाहे वो अंबिका सोनी हो, कमलनाथ हों, अहमद पटेल हों, सुरेश पचौरी हों । दरअसल राजीव गांधी की पार्टी की कमान संभालने के बाद से ही कांग्रेस में दूसरी पंक्ति के नेताओं को तैयार करने का कोई प्रयास नहीं किया गया । राजीव गांधी के कई सखा राजनीति में जरूर आए लेकिन वो लंबे समय तक टिक नहीं पाए । राजीव के बाद तो कांग्रेस की हालत और बदतर हो गई और सीताराम केसरी के अध्यक्ष रहते तो एक बारगी यह लगा कि कांग्रेस खत्म ही हो जाएगी । लेकिन सोनिया गांधी ने पार्टी को तो संभाल लिया लेकिन नेताओं की पौध सींचने का काम नहीं हो पाया । अब जरूर राहुल गांधी ने इस कमी को महसूस किया और पार्टी में दूसरी पक्ति के युवा नेताओं को तैयार करने का काम शुरू किया । राहुल गांधी ने अलवर के जीतेन्द्र सिंह, सिरसा से अशोक तंवर, मध्यप्रदेश से मीनाक्षी नटराजन और तमिलनाडु से माणिक टैगोर को हैंडपिक किया और उन्हें लोकसभा का टिकट दिलवाकर संगठन में अहम भूमिका दी । राहुल के चुने गए इन नेताओं ने अपने इलाके में विपक्ष के दिग्गजों को लोकसभा चुनाव में शिकस्त दी । माणिक टैगोर ने तो वाइको को हराया, मीनाक्षी ने बीजेपी के गढ़ मंदसौर से तो अशोक तंवर ने चौटाला के गढ़ सिरसा से जीत हासिल की। अब इन नेताओं में ही कांग्रेस का भविष्य है । जितिन प्रसाद,सचिन पायलट और दीपेन्द्र हुडा तो राजनीतिक वंशवाद की उपज हैं । राहुल गांधी की इस बात के लिए तारीफ की जा सकती है कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा दिया और युवक कांग्रेस और एनएसयूआई में चुनाव करवाने की कोशिश की । राहुल गांधी ने संगठन को मजबूत करने के लिए दो हजार आठ से टैलेंट हंट शुरू किया जिसे आम आदमी का सिपाही नाम दिया गया । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से सक्रिय रहे अब्दुल हफीज गांधी और उत्तर पू्र्व की सजरीटा इस टैलेंट हंट की उपज हैं । एक उत्तर प्रदेश में तो दूसरी उत्तर पूर्व में पार्टी के लिए मजबूती से काम कर रहे हैं । लेकिन राहुल गांधी ने जिस काम की शुरुआत की है उसके नतीजे इतनी जल्दी नहीं मिलेंगे,उसमें वक्त लगेगा, तबतक कांग्रेस पार्टी में नेताओं की कमी महसूस होती रहेगी और कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के लिए सूबों से लेकर केंद्रीय संगठन में नेताओं का चुनाव एक अपहिल टास्क होगा ।

Thursday, April 19, 2012

ममता का तुगलकी रवैया

पश्चिम बंगाल की जनता ने बड़ी उम्मीदों से ममता बनर्जी का साथ दिया था और उसी उम्मीद पर सवार होकर ममता ने बंगाल में लेफ्ट पार्टियों का डब्बा गोल कर दिया था । अब तो विश्व की प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम ने भी ममता बनर्जी को सौ ताकतवर शख्सियतों में शुमार कर लिया है । जनता के विशाल बहुमत मिलने से नेताओं के बेअंदाज होने का जो खतरा होता है ममता बनर्जी उसकी शिकार हो गई । जब से ममता बनर्जी सत्ता में आई हैं उनसे अपनी और अपनी नीतियों की आलोचना बर्दाश्त नहीं हो पा रही है । वह अपने और अपनी नीतियों की आलोचना करनेवालों के खिलाफ लगातार कार्रवाई कर रही हैं । पहले सरकारी सहायता प्राप्त पुस्तकालयों में सिर्फ आठ अखबारों की खरीद को मंजूरी और बाकी सभी अखबारों पर पाबंदी लगा कर अखबरों को यह संदेश देने की कोशिश की गई कि सरकार के खिलाफ लिखना बंद करें । ममता बनर्जी की सरकार पर आरोप यह लगे कि उन अखबारों की सरकारी खरीद पर पाबंदी लगाई गई जो लगातार ममता और उनकी नीतियों के खिलाफ लिख रहे थे । जब देशभर में ममता बनर्जी के इस कदम की जमकर आलोचना हुई तो चंद अखबारों को और खरीद की सूची में जोड़ककर उसे संतुलित करने की कोशिश करने का दिखावा किया गया । पिछले दिनों ममता और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं का कार्टून बनाने वाले को जेल की हवा खिलाकर ममता बनर्जी ने अपनी फासीवादी छवि और चमका ली है । जाधवपुर विश्वविद्यालय के विज्ञान के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा पर आरोप है कि उन्होंने ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं के कार्टून ईमेल पर सर्कुलेट किए । उन कार्टून में ममता बनर्जी और रेल मंत्री मकुल रॉय के बीच दिनेश त्रिवेदी से निपटने की मंत्रणा है जो कि ममता को नागवार गुजरी । प्रोफेसर महापात्रा पर अन्य धाराओं के अलावा आउटरेजिंग द मॉडेस्टी ऑफ वुमेन लगा दी गई है, जिसमें साल भर की सजा का प्रावधान है। लेकिन ममता बनर्जी पुलिस की कार्रवाई को जायज ठहरा रही है। उनकी पार्टी के नेता कोलकाता पुलिस के कदम को उचित करार दे रहे हैं ।
विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जीत और बार बार केंद्र सरकार से अपनी बात मनवा लेने से ममता के हौसले सातवें आसमान पर हैं । उन्हें लगता है कि वो बहुत बड़ी नेता हो गई हैं, हो भी गई हैं लेकिन अभी वो बड़े नेता के बड़प्पन को हासिल नहीं कर पाई है । उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि बड़ा नेता वह होता है जिसमें अपनी आलोचनाओं को सुनने और सामना करने का माद्दा होता है । इस संबंध में 1939 का एक वाकया याद आता है । गांधी जी ट्रेन य़ात्रा कर रहे थे, उनके साथ उनके सहयोगी महादेव देसाई भी थे । अचानक महात्मा गांधी के डब्बे में एक युवक आया उसके हाथ में गोंविंद दास कौंसुल की किताब महात्मा गांधी -द ग्रेट रोग(Rogue) ऑफ इंडिया थी । वह युवक उस किताब पर गांधी जी की सम्मति लेना चाहता था । जब वो किताब लेकर गांधी की ओर बढ़ा तो महादेव देसाई ने उसके हाथ से किताब झटक ली और उसका शीर्षक देखकर वो उसे फेंकने ही वाले थे कि इतने में गांधीजी की नजर उस पर पड़ गई । उन्होंने महादेव देसाई से लेकर वह किताब देखी और उस युवक को अपने पास बुलाकर उससे उसकी इच्छा पूछी । युवक जिसका नाम रणजीत था उसने पुस्तक लेखक का पत्र देकर गांधी जी से उस किताब पर उनकी राय पूछी । बगैर क्रोधित हुए गांधी ने किताब को उलटा पलटा और फिर उस पर लिखा- मैंने किताब को उलटा पुलटा और इस नतीजे पर पहुंचा कि शीर्षक से मुझे कोई आपत्ति नहीं है । लेखक जो भी उचित समझे उसे लिखने की छूट होनी चाहिए । ये गांधी थे जो अपनी आलोतना से जरा भी नहीं विचलित होते थे और आलोचना करने वाले को भी अभिवयक्ति की छूट देते थे ।
लेकिन गांधी के ही देश में आज एक नेता का कार्टून बनाने पर एक प्रोफेसर को जेल की हवा खानी पड़ती है । लगता है कि ममता बनर्जी कार्टून के माध्यम को दरअसल समझ नहीं पाई, उनके कदमों से ऐसा ही प्रतीत होता है । दरअसल कार्टूनिस्ट उन्हीं राजनेताओं के कार्टून बनाते हैं जिनकी शख्सियत में कुछ खास बात होती है । आम राजनेताओं के कार्टून कम ही बनते हैं । पूर् विश्व में कार्टून एक ऐसा माध्यम है जिसके सहारे कभी कभी तो पूरी व्यवस्था पर तल्ख टिप्पणी की जाती है जो लोगों को गुदगुदाते हुए अपनी बात कहती है और बहुधा किसी राजनेता या समाज के अहम लोगों के क्रियाकलापों को परखते हैं । आज ममता बनर्जी जैसी नेत्री कार्टून जैसे माध्यम की भावना को समझे बगैर कलाकार को जेल भिजवाने जैसा काम कर रही है उससे उनका कद राजनीति में छोटा ही हो रहा है । किसी प्रोफेसर को झुग्गी झोपड़ी वालों का समर्थन करने पर जेल जाना पड़ता है। उनकी पार्टी के नेता अपेन विरोधियों के साथ वयक्तिगत संबंध नहीं बनाने की वकालत करते हैं । उनकी पार्टी के सांसद खुलेआम यह ऐलान करते हैं कि संसद के सेंट्रल हॉल में वो लेफ् के नेताओं के साथ नहीं बैठ सकते । इस तरह की राजनीतिक छुआछूत का माहौल इस देश में पहले कभी नहीं बना था । यह सही है कि लेफ्ट के शासन काल में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर जमकर अत्याचार हुए । टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन का आरोप है कि लेफ्ट के इशारे पर तृणमूल के कई कार्यकर्ताओं की हत्या भी की गई। लेकिन इन तमाम बातों को आदार बनाकर जिस तरह से ममता विरोधियों की आवाज दबाने का प्रयास किया जा रहा है वह घोर निंदनीय है । ममता बनर्जी को याद होगा कि जब वो लेफ्ट के खिलाफ लड़ाई लड़ रही थी तो उस वक्त बंगाल के बुद्धिजीवियों ने उनका खुलकर साथ दिया था । अब वही बुद्धिजीवी ममता के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं । बंगाल में अभिव्यक्ति की आजादी को बचाने के लिए सड़क पर उतरे लोगों के साथ भी पुलिस ने बदतमीजी की लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। अब वक्त आ गया है कि ममता बनर्जी को भारतीय राजनीति में अपनी गंभीर छवि के बारे में शिद्दत से सोचना चाहिए नहीं तो उनके लिए इतिहास के अंधेरे में गुम होने का खतरा पैदा हो जाएगा । क्योंकि वो किसी पार्टी की मुख्मंत्री नहीं बल्कि पूरे बंगाल की सीएम हैं । लेफ्ट को भी बंगाल ने कई बार भारी बहमनुत से जिताया था लेकिन जब सूबे की आवाम को लगा कि जिसको वो शासन की बागडोर सौंप रहे हैं उस पार्टी में और उस पार्टी के नेताओं में शासन में आने के बाद तटस्थता नहीं रहती है तो उसे भी उखाड़ फेंका । लेफ्ट ने भी वोट बैंक की खातिर तसलीमा नसरीन को बंगाल से निकालने की गलती की थी । जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा । अब ममता भी वही गलती दोहरा रही हैं । क्या इतिहास से वो कोई सबक नहीं लेना चाहती ।

Monday, April 16, 2012

भ्रम, भटकाव और भाजपा

चंद दिनों पहले ही देश के प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने अपने नए अवतार के बत्तीस साल पूरे किए । बत्तीस साल एक ऐसी उम्र होती है जहां से किसी संगठन की एक साफ छवि उभर कर सामने आ जाती है । तीन दशक से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती यह खड़ी हो गई है कि वो जनता के सामने साबित करे कि उसमें कांग्रेस का विकल्प देने का दम है । यह बात सौ फीसदी सही है कि अब देश में गठबंधन की सरकारों का दौर है और आगे भी यह जारी रहेगा । लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली सत्तारूढ गठबंधन के विकल्प के तौर पर भारतीय जनता पार्टी को ना केवल लीड लेनी होगी बल्कि जनता को यह भरोसा भी देना होगा कि उसेक नेतृत्व में वह एक बेहतर राजनैतिक विकल्प दे सकती है । पार्टी की स्थापना के बत्तीस साल बाद भी अगर वर्तमान पार्टी अध्यक्ष अपने अगले कार्यकाल को लेकर निश्चिंत नहीं हो तो यह पार्टी के अंदर सबकुछ ठीक नहीं होने का संकेत मात्र है । उसके पहले भी जिस तरह से पार्टी के कुछ सांसदों ने ही छत्तीसगढ़ की अपनी ही रमन सिंह सरकार पर कोल ब्लॉक में आवंटन की गड़बड़ियों को लेकर हमले किए उससे भी यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि पार्टी के अनुशासन में कमी आई है । जिस तरह से कर्नाटक में येदुरप्पा ने खुद को मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए लगभग बगावत कर दी थी वह भी यह साबित करते है कि पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं है । भारतीय जनता पार्टी हमेशा से पार्टी विद अ डिफरेंस का दावा करती रही है, अपने चाल चरित्र और चेहरे की दुहाई भी देती रही है, लेकिन गाहे बगाहे उनके चाल चरित्र और चेहरे पर प्रश्न उठते है। चाहे वो बंगारू लक्ष्मण का पार्टी अध्यक्ष रहते कैमरे पर घूस लेना हो, या फिर पार्टी सांसद दिलीप सिंह जूदेव का पैसे लेकर यह गर्वोक्ति कि - पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं हो , या फिर पार्टी विधायकों का विधान सभा के अंदर अश्लील फिल्में देखने का मामला हो । यह सब वो प्रसंग हैं जिनको लेकर पार्टी की बदनामी हुई  ।

भारतीय जनता पार्टी के लिए जो इस वक्त बेहद चिंता की बात है वह यह कि पार्टी में जो भी राजनैतिक फैसले हो रहे हैं वो विवादित हो जा रहे हैं । पार्टी के फैसलों के खिलाफ पार्टी के ही वरिष्ठ नेता खड़े हो जा रहे हैं और पार्टी फोरम से लेकर मीडिया तक में खुलकर आलाकमान के फैसलों पर रोष जता रहे हैं । ताजा मामला रक्षा मंत्रालय और सेनाध्यक्ष के विवाद के बीच का है । सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह की चिट्टी लीक होने के मामले में पार्टी नेताओं के अलग अलग सुर रहे । सुबह बीजेपी नेताओं का स्टैंड अलग था, संसद में अलग और शाम होते होते वह भी बदल जाता है । इससे लोगों के मन में भ्रम पैदा होता है पार्टी और उसके नेताओं को लेकर । इसका दूरगामी परिणाम यह होगा कि पार्टी को लेकर लोगों के मन में निर्णायक छवि नहीं बन पाएगी । दूसरा बड़ा मामला रहा झारखंड राज्यसभा चुनाव में पार्टी के विधायकों की भूमिका को लेकर । किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के लिए ऐसी स्थिति क्यों बनती है कि वो यह फैसला ले कि उनकी पार्टी के विधायक राज्यसभा चुनाव में हिस्सा नहीं लेगें । हलांकि झारखंड में सत्ता में बने रहने की मजबूरी ने उसे इस निर्णय को बदलने को मजबूर कर दिया । राज्यसभा के लिए टिकटों के बंटवारो को लेकर भी पार्टी अध्यक्ष नितिन गड़करी की आलोचना हुई । झारखंड में एक धनकुबेर को पार्टी के समर्थन को लेकर संसदीय दल में यशवंत सिन्हा ने इतना हल्ला मचाया कि आडवाणी को यह कहकर उनको शांत करना पड़ा कि वो अध्यक्ष से इस संबंध में बात करेंगे । बाद में पार्टी ने उनको समर्थन देने के अपने फैसले को भी बदला ।

इसके पहले के फैसलों पर भी सवाल खड़े होते रहे हैं । विवाद होता रहा है । उत्तर प्रदेश चुनाव के वक्त बहुजन समाज पार्टी से निकाले गए और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करोड़ों की गड़बड़ियों के आरोपी रहे बाबू सिंह कुशवाहा को बीजेपी में शामिल करने के अध्यक्ष के फैसलों पर आडवाणी और सुषमा समेत कई नेताओं ने विरोध जताया था लेकिन गड़करी ने किसी की एक नहीं सुनी । नतीजा सबके सामने है । दरअसल बीजेपी में नेताओं के अलग अलग बयान इस बात की मुनादी कर रहे हैं कि पार्टी में भ्रम के हालात हैं । माना यह जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वरदहस्त पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को हासिल है जिसकी वजह से वो पार्टी के आला नेताओं को दरकिनार कर मनमाने फैसले लेते हैं । पहले तो उनके इस मनमाने फैसले पर सवाल नहीं उठते थे लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में पार्टी की करारी हार के बाद गडकरी के फैसलों पर सवाल खड़े होने लगे हैं । 

सत्ता हासिल करने के लिए सिद्धांतों की जो तिलांजलि पार्टी ने दी है उसका अंदेशा लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रचारक और बाद में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने 22 से 25 अप्रैल 1965 के बीच दिए अपने पांच लंबे भाषणों में जता दी थी । अब से लगभग पांच दशक पहले पंडित जी ने राजनैतिक अवसरवादिता पर बोलते हुए कहा था- किसी भी सिद्धांत को नहीं मानने वाले अवसरवादी लोग देश की राजनीति में आ गए हैं । राजनीतिक दल और राजनेताओं के लिए ना तो कोई सिद्धांत मायने रखता है और ना ही उनके सामने कोई व्यापक उद्देश्य सा फिर कोई एक सर्वमान्य दिशा निर्देश है.....राजनीतिक दलों में गठबंधन और विलय में भी कोई सिद्धांत और मतभेद काम नहीं करता । गठबंधन का आधार विचारधारा ना होकर विशुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अथवा सत्ता पाने के लिए किया जा रहा है । पंडित जी ने जब ये बातें 1965 में कही होंगी तो उन्हें इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि उन्हीं के सिद्धातों की दुहाई देकर बनाई गई पार्टी पर भी सत्ता लोलुपता इस कदर हावी हो जाएगी । 
यूपीए सरकार पर जिस तरह से अएक के बाद एक घोटलों के आरोप लग रहे हैं , जिस तरह से यूपीए पर बैड गवर्नेंस के इल्जाम लग रहे हैं उसने भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को निश्चिंत कर दिया है कि दो हजार चौदह में पार्टी केंद्र में सरकार बनाएगी । इसी निश्चिंतता में पार्टी के आला नेता जनता के पास जाने के बजाए दिल्ली में ट्विटर पर राजनीति कर रहे हैं । उन्हें लग रहा है कि कांग्रेस से उब चुकी जनता उनके हाथ में सहर्ष सत्ता सौंप देगी । लेकिन यहां पार्टी के आला नेता यह भूल जाते हैं कि इस देश की जनता में जबतक आप संघर्ष करते नहीं दिखेंगे तबतक उनका भरोसा कायम नहीं होगा । भारतीय जनता पार्टी ने पिछले सालों में कोई बड़ा राजनैतिक आंदोलन खडा़ नहीं किया जबकि यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार के संगीन इल्जाम लगे । वी पी सिंह ने बोफेर्स सौदे में 64 करोड़ की दलाली पर इतना बड़ा आंदोलन खडा़ कर दिया था कि देश की सत्ता बदल गई थी । दरअसल भारतीय जनता पार्टी के इतिहास से न तो सबक लेना चाहती है और न ही इतिहास में हुई गलतियों को दुहराने से परहेज कर रही है । नतीजा पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में भ्रम की स्थिति है जो पार्टी के लिए अच्छी स्थिति नहीं है । अगर इस भ्रम और भटकाव को नहीं रोका गया तो दिल्ली दूर ही रहेगी ।

Thursday, April 12, 2012

स्त्री विमर्श की बदमाश कंपनी

हिंदी में स्त्री विमर्श का इतिहास बहुत पुराना नहीं है । हिंदी साहित्य में माना जाता है कि राजेन्द्र यादव ने अपनी पत्रिका हंस में स्त्री विमर्श की गंभीर शुरुआत की थी। दरअसल स्त्री विमर्श पश्चिमी देशों से आयातित एक कांसेप्ट है जिसको राजेन्द्र यादव ने भारत में झटक लिया और खूब शोर शराबा मचाकर स्त्री विमर्श के सबसे बड़े पैरोकार के तौर पर अपने आपको स्थापित कर लिया । हंस का मंच था ही उनके पास । इंगलैंड और अमेरिका में उन्नीसवीं शताब्दी में फेमिनिस्ट मूवमेंट से इसकी शुरुआत हुई । दरअसल यह आंदोलन लैंगिंक समानता के साथ साथ समाज में बराबरी के हक की लड़ाई थी जो बाद में राजनीति से होती हुए साहित्य कला और संस्कृति तक आ पहुंची । फिर तो साहित्य में एक के बाद एक महिला लेखकों की कृतियों की ओर आलोचकों का ध्यान गया और एक नई दृष्टि से उनका मूल्यांकन शुरू हुआ । बाद में यह आंदोलन विश्व के कई देशों से होता हुआ भारत तक पहुंचा ।
भारत में खासतौर पर हिंदी में जब इसकी शुरुआत हुई तो इसमें कमोबेश लैंगिक समानता का मुद्दा ही केंद्र में रहा और सारे बहस मुहाबिसे उसके इर्द गिर्द ही चलते रहे । राजेन्द्र यादव के पास उनकी अपनी पत्रिका हंस थी और उन्होंने उसमें स्त्री की देह मुक्ति से संबंधित कई लेख और कहानियां छापी और हिंदी साहित्य में नब्बे के अंतिम दशक और उसके बाद के सालों में एक समय तो ऐसा लगने लगा कि स्त्री विमर्श विषयक कहानियां ही हिंदी के केंद्र में आ गई हों । यूरोपीय देशों से आयातित इस अवधारणा का जब देसीकरण हुआ तो हमारे यहां कई ऐसी महिला लेखिकाएं सामने आई जो अपनी रचनाओं में उनकी नायिकाएं देह से मुक्ति के लिए छटपटाती नजर आने लगी । उपन्यास हो या कहानी वहां देह मुक्ति का ऐसा नशा उनके पात्रों पर चढ़ा कि वो घर परिवार समाज सब से विद्रोह करती और पुरानी सामाजिक परंपराओं को छिन्न भिन्न करती दिखने की कोशिश करने लगी । साहित्यिक लेखन तक तो यह सब ठीक था लेकिन जब तोड़फोड़ और देह से मुक्त होने की छटपटाहट कई स्त्री लेखिकाओं ने अपनी जिंदगी में आत्मसात करने की कोशिश की तो लगा कि सामाजिक ताना बाना ही चकनाचूर हो जाएगा । कई स्त्री लेखिकाएं तो डंके की चोट पर यह कहने लगी की यह हमारी देह है हम जब चाहें जैसे चाहें जिसके साथ चाहें उसका इस्तेमाल करें । हम क्यों पति नाम के एक खूंटे से बंधकर अपनी जिंदगी तबाह कर दें । परिवार नाम की संस्था के अंदर की गुलामी उन्हें मंजूर नहीं थी और वो बोहेमियन जिंदगी जीने के सपने देखने लगी । मर्दों की बराबरी में वो यह तर्क देती नजर आने लगी कि अगर मर्द कई स्त्रियों से संबंध बना सकता है तो स्त्रियां कई मर्दों से संबंध क्यों नहीं बना सकती हैं । कई स्त्री लेखिकाएं अपने भाषण में पुरुषों के खिलाफ आग उगलने लगी । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में स्त्री विमर्श के नाम पर न्यूनतम मर्यादाओं का भी पालन नहीं हो सका और मान्यताओं और परंपराओं पर प्रहार करने की जिद ने लेखन को बदतमीज और अश्लील लेखन में तब्दील कर दिया । हिंदी में ऐसे उपन्यासों और कहानियों की बाढ़ आ गई जिसमें रचनात्मकता कम और सेक्सुअल अनुभव ज्यादा आने लगे । सेक्सुअल अनुभव के नाम पर जुगुप्साजनक अश्लीलता परोसी जाने लगी । पाठकों को भी इस तरह के लेखन में फौरी आनंद आने लगा और कुछ कहानियां और उपन्यास अपने सेक्स प्रसंगों की वजह से चर्चित भी हुई । हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ने भी मौके का फायदा उठाया और लगे हाथों अपना विवादित लेख होना सोना खूबसूरत दुश्मन के साथ लिख कर उसे वर्तमान साहित्य में प्रकाशित करवा लिया । उनकी विवादित और सेक्स प्रसंगों से भरपूर कहानी हासिल भी उसी दौर में प्रकाशित हुई । हासिल में मौजूद लंबे लंबे सेक्स प्रसंगों की तो होना सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ की भाषा को लेकर उस वक्त हिंदी में अच्छा खासा बवाल मचा । जब इस तरह की रचनाएं चर्चित होने लगी तो कई लेखिकाओं को सेक्स प्रसंगों को सार्वजनिक करके अपनी रचनाओं को सफल करवाने का आसान नुस्खा मिल गया और वो यूरेका यूरेका चिल्लाने लगी । उनकी यूरेका में सेक्स प्रसंगों की भरमार थी । उस दौर की कई कहानियों और उपन्यासों में भी जबरदस्ती ठूसे सेक्स प्रसंगों को देखा जा सकता है, जो फौरी तौर पर तो लोकप्रिय हुआ लेकिन उसके बाद उन रचनाओं का और उन लेखिकाओं का कहीं अता पता नहीं चल पाया । अमेरिका और इंगलैंड में भी स्त्री लेखन के नाम पर सेक्स परोसा गया है लेकिन हिंदी में जिस तरह से वो कई बार भौंडे और जुगुप्सा जनक रूप में छपा वो स्त्री विमर्श के नाम पर कलंक है । राजेन्द्र यादव के लेख पर प्रतिक्रिया देते हुए एक उभरती हुई लेखिका, जिसके बारे में कहा जाता है कि वो एके 47 लेकर लेखन करती हैं , ने लिखा- दरअसल तो ये सारे विचार एक अकेले राजेन्द्र यादव के नहीं बल्कि उस पूरी जमात के हैं जो अपने आठ इंची अंग की ऐंठ में औरतों को कुचलती दबोचती और उनपर चढ़ चढ़ बैठती है । इस तरह की भाषा में स्त्री मुक्ति का अंहकारी दौर शुरू हुआ । स्त्री विमर्श के नाम पर दरअसल पुरुष विरोध का लेखन शुरू हो गया । जिसमें वही लेखिका श्रेष्ठ विमर्श करनेवाली मानी जाने लगी जो सबसे अपमानजनक और बदतमीज भाषा में पुरुषों को गाली देते हुए अपनी बात कह सकें । गाली गलौच का यह दौर लगभग सात आठ साल तक निर्बाध गति से चलता रहा । अब भी कई लेखिकाओं को लगता है कि सभी पुरुष उनको दबोचने और उनपर चढ़ बैठने के ललक पाले ही घूमते रहते हैं । लेकिन ऐसा है नहीं । उनकी गलतफहमी का इलाज नहीं है लेकिन जिस तरह से हिंदी साहित्य के पाठकों ने एक के बाद एक उस तरह की लेखिकाओं को हाशिए पर डाल दिया उससे यह साबित होता है कि देह मुक्ति के नाम पर , स्त्री विमर्श के नाम पर, स्त्रियों को पुरुषों की गुलामी से मुक्त कराने का नारा देनेवाला जो लेखन था उसमें तार्किकता की कमी थी । भारत में हमेशा से स्त्रियों को समाज में बहुत उंचा दर्जा दिया गया है । हमारे यहां पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों पर जोर जुल्म और अत्याचार भी किए गए लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सभी पुरुषों को लाइन में खड़े कर गोली मार देनी चाहिए ।
स्त्री विमर्श के नाम पर इस तरह की लेखिकाओं की पौध को राजेन्द्र यादव का ना केवल प्रश्रय और प्रोत्साहन मिला बल्कि उस तरह की बदतमीज लेखन को यादव जी ने वैधता प्रदान करने की भी भरसक कोशिश की । हंस का मंच उनके पास था ही लेकिन कहते हैं ना कि काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती है । वही हुआ और स्त्री विमर्श की जो यह बदमाश कंपनी थी उसका लेखन एक बार तो पाठकों को शॉक दे पाया लेकिन पाठकों ने कई कई बार छप रहे उस तरह के लेखन को सिरे से खारिज कर दिया । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में जो स्त्री विमर्श की आंधी चल रही या चलाई जा रही थी वो थम सी गई और उसका जो गर्द ओ गुबार था वह भी कहां गुम हो गया पता ही नहीं चल पाया । अब एक बार फिर से हिंदी में कुछ नई लेखिकाएं आई हैं जो स्त्री विमर्श के नाम पर गंभीरता से लेखन कर रही हैं और अपनी कृतियों के बूते पर स्त्री की आजादी की जोरदार वकालत भी कर रही है । वहां स्त्रियों का दर्द है, उनकी जेनुइन समस्याएं हैं, उनको दूर करने और सामने लाने की छटपटाहट है । यह हिंदी के लिए सुखद संकेत है । सुथद यह भी है कि स्त्री विमर्श के नाम पर जो पुरुष विरोध की चाल चली गई थी जिसके झांसे में लेखिकाएं आ गई थी वो भी उससे मुक्त होकर अब उस दायरे से बाहर निकल कर लिख रही हैं ।

Friday, April 6, 2012

नहीं बदला मानदेय का अर्थशास्त्र

बात नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों की है । उस वक्त मैं अपने शहर जमालपुर से दिल्ली आया था । अखबारों में लिखना पढ़ना तो अपने शहर से ही शुरू कर चुका था । लिहाजा दिल्ली आने के बाद जब बोरिया बिस्तर लगा और पढ़ाई शुरू हुई तो उसके साथ साथ अखबारों के दफ्तर में इस उम्मीद में चक्कर काटने लगा कि कोई असाइनमेंट मिले ताकि घर से मिलनेवाले पैसे के अलावा कुछ और पैसों का इंतजाम हो सके । दिल्ली विश्वविद्यालय के पास के मुहल्ले विजयनगर में रहता था और वहां से सौ नंबर की बस पकड़कर कनॉट प्लेस पहुंचता था जहां हिंदुस्तान और इंडिया टुडे के दफ्तर थे । उसके अलावा रफी मार्ग स्थित इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी की बिल्डिंग में, जहां कई अखबारों के दफ्तर थे, जाकर कुछ काम लेता था । छात्र जीवन के दौरान फ्रीलांसिंग से जितने भी पैसे मिल जाते थे वो बोनस होते थे । उसी वक्त देश की शीर्ष पाक्षिक पत्रिका में दो किताबों पर एक समीक्षा लिखने का अवसर मिला । अगर मेरी स्मृति साथ दे रही है तो ये साल उन्नीस सौ तिरानवे की बात है – मेरी लिखी समीक्षा उक्त पाक्षिक पत्रिका में छपी पूरे एक पन्ने में । बेहद खुशी हुई । दिल्ली आने के बाद पहली बार किसी राष्ट्रीय पत्रिका में पूरे पन्ने पर जगह मिली, अखबारों में तो लेख वगैरह छप ही रहे थे । दो महीने बीतने के बाद एक लिफाफे में उक्त समीक्षा का मेहनताना आया, लिफाफा खोला तो उसमें एक हजार रुपए का चेक था । खुशी दुगनी हो गई । उस वक्त हजार रुपए बहुत हुआ करते थे । बाद में तो यह सिलसिला चल निकला और अखबारों और पत्रिकाओं में लिखकर चेक आने की प्रतीक्षा करने लगा । हम तीन लोग एक फ्लैट में रहते थे । साथ रह रहे दोस्तों को भी मेरी डाक में आनेवाले चेक का अंदाजा हो गया था और वो भी अखबार पत्रिकाओं के लिफाफे का इंतजार करने लगे थे । क्योंकि जिस दिन लिफाफा आता था उस दिन जश्न तय होता था । किंग्सवे कैंप के सम्राट या विक्रांत होटल में जाकर खाना खाना ।
अभी हाल में तकरीबन दो साल पहले उक्त पत्रिका में फिर से मेरे द्वारा लिखी गई एक पन्ने की समीक्षा छपी । दो महीने बाद फिर से चेक आया लेकिन राशि वही एक हजार रुपए । अचानक से मेरे दिमाग में एक बात कौंधी कि डेढ़ दशक बाद भी एक पृष्ठ समीक्षा लिखने के उतने ही पैसे, कोई बदलाव नहीं । फिर मैंने सोचना शुरू किया और अखबारों और पत्र पत्रिकाओं से लेखकों को मिलने वाले मानदेय सा मेहनताना पर विचार किया तो लगा कि तकरीबन पंद्रह साल बाद भी लेखकों को कोई इंक्रीमेंट नहीं मिला है । मानदेय कमोबेश वही है जो दस-बारह साल पहले थे। इस बीच अखबारों और पत्रिकाओं के मूल्य और उनमें छपनेवाले विज्ञापनों की दरें कई कई गुना बढ़ गई लेकिन लेखकों को मिलने वाले मानदेय में कोई इजाफा नहीं हुआ । दरअसल फ्रीलांसरों के बारे में किसी ने सोचने की जहमत ही नहीं उठाई, लगा ये तो जरूरतमंद है जितने पैसे दोगे उतने में ही काम करेगा । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में स्वतंत्र लेखन करनेवालों को जरूरतमंद मान लिया गया। हिंदी के लेखकों को अखबारों या पत्रिकाओं में लेख लिखने के एवज में जो पैसे मिलते हैं वह बहुत ही कम और लेखकों की प्रतिष्ठा के अनुरूप को कतई नहीं है । अब तो कई अखबारों में कम से कम लेखों का हिसाब रहने लगा है नहीं तो कुछ दिनों पहले तक तो हालत यह थी कि संपादकीय विभाग या लेखा विभाग में बैठा बाबू जितने की पेमेंट लगा दे उस से ही लेखकों को संतोष करना पड़ता था । अब भी कई अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में हजार शब्दों के एक लेख के लिए लेखकों को पांच सौ से लेकर सात सौ रुपए तक ही दिए जा रहे हैं । लेकिन लेखक लिख रहे हैं और खुशी-खुशी लिख रहे हैं । हिंदी में ना कहने की प्रवृत्ति या यों कहें कि साहस नहीं है उन्हें लगता है कि अगरर मना किया तो ये पांच सौ रुपये भी मिलने बंद हो जाएंगे ।
इस पूरे वाकए को बताने के पीछे मेरा मकसद उस सवाल से टकराने का है जो बार बार मेरे जेहन में कौंध रहे हैं । सवाल यह कि क्या हिंदी का लेखक सिर्फ लिखकर अपना जीवनयापन कर सकता है । अगर हम यह मान भी लें कि किसी लेखक का हर दिन कोई न कोई लेख किसी अखबार में छपता है, हलांकि यह मुमकिन है नहीं, फिर भी मान लेने में कोई हर्ज नहीं है । लेख के पारिश्रमिक को अगर हम बहुत उपर भी रखें और प्रति लेख पंद्रह सौ रुपए मानें तब भी महीने के पैंतालीस हजार होते हैं। क्या महानगर में सिर्फ पैंतालीस हजार के बूते पर जीवन चल सकता है । अभी के जो हालात हैं उसमें तो लगता है कि हिंदी का पूर्णकालिक लेखक अपने लेखन के बूते सरवाइव कर ही नहीं सकता है । इसका अगला सवाल यह उठता है कि क्यों कर हिंदी की हालत ऐसी है जबकि हिंदी का बाजार और उसमें देशी-विदेशी निवेश लगातार बढ़ता जा रहा है । इसके पीछे की अगर हम वजह ढूंढ़ते हैं तो वहां तस्वीर बेहद धुंधली सी नजर आती है । हिंदी के बढ़ते बाजार के बावजूद लेखकों को उचित पारिश्रमिक नहीं मिल पाने का कारण सिर्फ वह मानसिकता है जो यह सिखाता है कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों को ज्यादा पैसा क्यों दिया जाए , ये तो जरूरतमंद लोग हैं जितना दिया जाएगा याचक की तरह ले लेंगे और अहसान भी मानेंगे ।
अब अगर हम हिंदी की तुलना में अंग्रेजी की बात करें तो वहां के पत्र पत्रिकाओं में लेखकों को मिलनेवाले पैसे हिंदी की तुलना में कहीं ज्यादा है और भुगतान भी व्यवस्थित है । अंग्रेजी अखबारों में संपादकीय पृष्ठ पर एक लेख छपने के बाद कम से कम पांच हजार रुपये मिलते हैं और अगर आप सेलेब्रिटी राइटर हैं तो पारिश्रमिक की सीमा लेखक खुद तय करता या करती है । विदेशी अखबारों से मिलनेवाला पैसा तो और भी ज्यादा होता है । हिंदी की तुलना में अंग्रेजी के अखबार कम बिकते हैं लेकिन फिर भी लेखकों को मानदेय वहां ज्यादा है । दरअसल हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के कर्ता-धर्ता अब भी औपनिवेशिक ग्रंथि से मुक्त नहीं पाए हैं और अंग्रेजी उनके लिए अब भी मालिकों की भाषा है । लिहाजा अगर अंग्रेजी में लेखकों को ज्यादा पैसे मिलते हैं तो यह कहकर अपने कम देने को जायज ठहराते हैं कि वो अंग्रेजी है वहां आय ज्यादा है । लेकिन उस वक्त वो यह भूल जाते हैं कि हिंदी में पिछले दस सालों में हर अखबार के दर्जनों एडिशन शुरू हुए । प्रसार संख्या और विज्ञापनों में कई गुना इजाफा हुआ लेकिन नहीं बढ़ा तो सिर्फ लेखकों का मानदेय ।
अब वक्त आ गया है कि हिंदी पत्र पत्रिकाओं को चलानेवाले लोग या फिर संपादक एक बार अपने लेखकों को दिए जानेवाले मानदेय पर एक नजर डालें और उसमें समय के साथ सुधार करें । इससे लेखकों का तो भला होगा ही खुद हिंदी भाषा के साथ जुड़ने की लोगों की ललक भी बढ़ेगी । मैं एक किस्सा कई बार सुनाता हूं कि एक संपादक ने एक लेखक को एक पुस्तक समीक्षा के लिए अनुरोध पत्र भेजा और उनसे पूछा कि क्या पुस्तक उनको भेज दी जाए । लेखक महोदय ने उत्तर दिया- समीक्षा के लिए पुस्तक भेज दें, उक्त किताब पर लिखकर खुशी होगी लेकिन अगर पुस्तक के साथ मानदेय का चेक भी हो तो समीक्षा हुलसकर लिखूंगा । यह किस्सा बहुत कुछ कह देता है । आमीन ।