बात नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों की है । उस वक्त मैं अपने शहर जमालपुर से दिल्ली आया था । अखबारों में लिखना पढ़ना तो अपने शहर से ही शुरू कर चुका था । लिहाजा दिल्ली आने के बाद जब बोरिया बिस्तर लगा और पढ़ाई शुरू हुई तो उसके साथ साथ अखबारों के दफ्तर में इस उम्मीद में चक्कर काटने लगा कि कोई असाइनमेंट मिले ताकि घर से मिलनेवाले पैसे के अलावा कुछ और पैसों का इंतजाम हो सके । दिल्ली विश्वविद्यालय के पास के मुहल्ले विजयनगर में रहता था और वहां से सौ नंबर की बस पकड़कर कनॉट प्लेस पहुंचता था जहां हिंदुस्तान और इंडिया टुडे के दफ्तर थे । उसके अलावा रफी मार्ग स्थित इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी की बिल्डिंग में, जहां कई अखबारों के दफ्तर थे, जाकर कुछ काम लेता था । छात्र जीवन के दौरान फ्रीलांसिंग से जितने भी पैसे मिल जाते थे वो बोनस होते थे । उसी वक्त देश की शीर्ष पाक्षिक पत्रिका में दो किताबों पर एक समीक्षा लिखने का अवसर मिला । अगर मेरी स्मृति साथ दे रही है तो ये साल उन्नीस सौ तिरानवे की बात है – मेरी लिखी समीक्षा उक्त पाक्षिक पत्रिका में छपी पूरे एक पन्ने में । बेहद खुशी हुई । दिल्ली आने के बाद पहली बार किसी राष्ट्रीय पत्रिका में पूरे पन्ने पर जगह मिली, अखबारों में तो लेख वगैरह छप ही रहे थे । दो महीने बीतने के बाद एक लिफाफे में उक्त समीक्षा का मेहनताना आया, लिफाफा खोला तो उसमें एक हजार रुपए का चेक था । खुशी दुगनी हो गई । उस वक्त हजार रुपए बहुत हुआ करते थे । बाद में तो यह सिलसिला चल निकला और अखबारों और पत्रिकाओं में लिखकर चेक आने की प्रतीक्षा करने लगा । हम तीन लोग एक फ्लैट में रहते थे । साथ रह रहे दोस्तों को भी मेरी डाक में आनेवाले चेक का अंदाजा हो गया था और वो भी अखबार पत्रिकाओं के लिफाफे का इंतजार करने लगे थे । क्योंकि जिस दिन लिफाफा आता था उस दिन जश्न तय होता था । किंग्सवे कैंप के सम्राट या विक्रांत होटल में जाकर खाना खाना ।
अभी हाल में तकरीबन दो साल पहले उक्त पत्रिका में फिर से मेरे द्वारा लिखी गई एक पन्ने की समीक्षा छपी । दो महीने बाद फिर से चेक आया लेकिन राशि वही एक हजार रुपए । अचानक से मेरे दिमाग में एक बात कौंधी कि डेढ़ दशक बाद भी एक पृष्ठ समीक्षा लिखने के उतने ही पैसे, कोई बदलाव नहीं । फिर मैंने सोचना शुरू किया और अखबारों और पत्र पत्रिकाओं से लेखकों को मिलने वाले मानदेय सा मेहनताना पर विचार किया तो लगा कि तकरीबन पंद्रह साल बाद भी लेखकों को कोई इंक्रीमेंट नहीं मिला है । मानदेय कमोबेश वही है जो दस-बारह साल पहले थे। इस बीच अखबारों और पत्रिकाओं के मूल्य और उनमें छपनेवाले विज्ञापनों की दरें कई कई गुना बढ़ गई लेकिन लेखकों को मिलने वाले मानदेय में कोई इजाफा नहीं हुआ । दरअसल फ्रीलांसरों के बारे में किसी ने सोचने की जहमत ही नहीं उठाई, लगा ये तो जरूरतमंद है जितने पैसे दोगे उतने में ही काम करेगा । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में स्वतंत्र लेखन करनेवालों को जरूरतमंद मान लिया गया। हिंदी के लेखकों को अखबारों या पत्रिकाओं में लेख लिखने के एवज में जो पैसे मिलते हैं वह बहुत ही कम और लेखकों की प्रतिष्ठा के अनुरूप को कतई नहीं है । अब तो कई अखबारों में कम से कम लेखों का हिसाब रहने लगा है नहीं तो कुछ दिनों पहले तक तो हालत यह थी कि संपादकीय विभाग या लेखा विभाग में बैठा बाबू जितने की पेमेंट लगा दे उस से ही लेखकों को संतोष करना पड़ता था । अब भी कई अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में हजार शब्दों के एक लेख के लिए लेखकों को पांच सौ से लेकर सात सौ रुपए तक ही दिए जा रहे हैं । लेकिन लेखक लिख रहे हैं और खुशी-खुशी लिख रहे हैं । हिंदी में ना कहने की प्रवृत्ति या यों कहें कि साहस नहीं है उन्हें लगता है कि अगरर मना किया तो ये पांच सौ रुपये भी मिलने बंद हो जाएंगे ।
इस पूरे वाकए को बताने के पीछे मेरा मकसद उस सवाल से टकराने का है जो बार बार मेरे जेहन में कौंध रहे हैं । सवाल यह कि क्या हिंदी का लेखक सिर्फ लिखकर अपना जीवनयापन कर सकता है । अगर हम यह मान भी लें कि किसी लेखक का हर दिन कोई न कोई लेख किसी अखबार में छपता है, हलांकि यह मुमकिन है नहीं, फिर भी मान लेने में कोई हर्ज नहीं है । लेख के पारिश्रमिक को अगर हम बहुत उपर भी रखें और प्रति लेख पंद्रह सौ रुपए मानें तब भी महीने के पैंतालीस हजार होते हैं। क्या महानगर में सिर्फ पैंतालीस हजार के बूते पर जीवन चल सकता है । अभी के जो हालात हैं उसमें तो लगता है कि हिंदी का पूर्णकालिक लेखक अपने लेखन के बूते सरवाइव कर ही नहीं सकता है । इसका अगला सवाल यह उठता है कि क्यों कर हिंदी की हालत ऐसी है जबकि हिंदी का बाजार और उसमें देशी-विदेशी निवेश लगातार बढ़ता जा रहा है । इसके पीछे की अगर हम वजह ढूंढ़ते हैं तो वहां तस्वीर बेहद धुंधली सी नजर आती है । हिंदी के बढ़ते बाजार के बावजूद लेखकों को उचित पारिश्रमिक नहीं मिल पाने का कारण सिर्फ वह मानसिकता है जो यह सिखाता है कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों को ज्यादा पैसा क्यों दिया जाए , ये तो जरूरतमंद लोग हैं जितना दिया जाएगा याचक की तरह ले लेंगे और अहसान भी मानेंगे ।
अब अगर हम हिंदी की तुलना में अंग्रेजी की बात करें तो वहां के पत्र पत्रिकाओं में लेखकों को मिलनेवाले पैसे हिंदी की तुलना में कहीं ज्यादा है और भुगतान भी व्यवस्थित है । अंग्रेजी अखबारों में संपादकीय पृष्ठ पर एक लेख छपने के बाद कम से कम पांच हजार रुपये मिलते हैं और अगर आप सेलेब्रिटी राइटर हैं तो पारिश्रमिक की सीमा लेखक खुद तय करता या करती है । विदेशी अखबारों से मिलनेवाला पैसा तो और भी ज्यादा होता है । हिंदी की तुलना में अंग्रेजी के अखबार कम बिकते हैं लेकिन फिर भी लेखकों को मानदेय वहां ज्यादा है । दरअसल हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के कर्ता-धर्ता अब भी औपनिवेशिक ग्रंथि से मुक्त नहीं पाए हैं और अंग्रेजी उनके लिए अब भी मालिकों की भाषा है । लिहाजा अगर अंग्रेजी में लेखकों को ज्यादा पैसे मिलते हैं तो यह कहकर अपने कम देने को जायज ठहराते हैं कि वो अंग्रेजी है वहां आय ज्यादा है । लेकिन उस वक्त वो यह भूल जाते हैं कि हिंदी में पिछले दस सालों में हर अखबार के दर्जनों एडिशन शुरू हुए । प्रसार संख्या और विज्ञापनों में कई गुना इजाफा हुआ लेकिन नहीं बढ़ा तो सिर्फ लेखकों का मानदेय ।
अब वक्त आ गया है कि हिंदी पत्र पत्रिकाओं को चलानेवाले लोग या फिर संपादक एक बार अपने लेखकों को दिए जानेवाले मानदेय पर एक नजर डालें और उसमें समय के साथ सुधार करें । इससे लेखकों का तो भला होगा ही खुद हिंदी भाषा के साथ जुड़ने की लोगों की ललक भी बढ़ेगी । मैं एक किस्सा कई बार सुनाता हूं कि एक संपादक ने एक लेखक को एक पुस्तक समीक्षा के लिए अनुरोध पत्र भेजा और उनसे पूछा कि क्या पुस्तक उनको भेज दी जाए । लेखक महोदय ने उत्तर दिया- समीक्षा के लिए पुस्तक भेज दें, उक्त किताब पर लिखकर खुशी होगी लेकिन अगर पुस्तक के साथ मानदेय का चेक भी हो तो समीक्षा हुलसकर लिखूंगा । यह किस्सा बहुत कुछ कह देता है । आमीन ।
3 comments:
क्या बात कही !बहुत खूब! हर लेखक की दुखती रग पर हाथ धर दिया है आपने.madhu kankaria
क्या बात कही !बहुत खूब! हर लेखक की दुखती रग पर हाथ धर दिया है आपने.Madhu Kankaria
क्या बात कही !बहुत खूब! हर लेखक की दुखती रग पर हाथ धर दिया है आपने.Madhu Kankaria
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