हिंदी में स्त्री विमर्श का इतिहास बहुत पुराना नहीं है । हिंदी साहित्य में माना जाता है कि राजेन्द्र यादव ने अपनी पत्रिका हंस में स्त्री विमर्श की गंभीर शुरुआत की थी। दरअसल स्त्री विमर्श पश्चिमी देशों से आयातित एक कांसेप्ट है जिसको राजेन्द्र यादव ने भारत में झटक लिया और खूब शोर शराबा मचाकर स्त्री विमर्श के सबसे बड़े पैरोकार के तौर पर अपने आपको स्थापित कर लिया । हंस का मंच था ही उनके पास । इंगलैंड और अमेरिका में उन्नीसवीं शताब्दी में फेमिनिस्ट मूवमेंट से इसकी शुरुआत हुई । दरअसल यह आंदोलन लैंगिंक समानता के साथ साथ समाज में बराबरी के हक की लड़ाई थी जो बाद में राजनीति से होती हुए साहित्य कला और संस्कृति तक आ पहुंची । फिर तो साहित्य में एक के बाद एक महिला लेखकों की कृतियों की ओर आलोचकों का ध्यान गया और एक नई दृष्टि से उनका मूल्यांकन शुरू हुआ । बाद में यह आंदोलन विश्व के कई देशों से होता हुआ भारत तक पहुंचा ।
भारत में खासतौर पर हिंदी में जब इसकी शुरुआत हुई तो इसमें कमोबेश लैंगिक समानता का मुद्दा ही केंद्र में रहा और सारे बहस मुहाबिसे उसके इर्द गिर्द ही चलते रहे । राजेन्द्र यादव के पास उनकी अपनी पत्रिका हंस थी और उन्होंने उसमें स्त्री की देह मुक्ति से संबंधित कई लेख और कहानियां छापी और हिंदी साहित्य में नब्बे के अंतिम दशक और उसके बाद के सालों में एक समय तो ऐसा लगने लगा कि स्त्री विमर्श विषयक कहानियां ही हिंदी के केंद्र में आ गई हों । यूरोपीय देशों से आयातित इस अवधारणा का जब देसीकरण हुआ तो हमारे यहां कई ऐसी महिला लेखिकाएं सामने आई जो अपनी रचनाओं में उनकी नायिकाएं देह से मुक्ति के लिए छटपटाती नजर आने लगी । उपन्यास हो या कहानी वहां देह मुक्ति का ऐसा नशा उनके पात्रों पर चढ़ा कि वो घर परिवार समाज सब से विद्रोह करती और पुरानी सामाजिक परंपराओं को छिन्न भिन्न करती दिखने की कोशिश करने लगी । साहित्यिक लेखन तक तो यह सब ठीक था लेकिन जब तोड़फोड़ और देह से मुक्त होने की छटपटाहट कई स्त्री लेखिकाओं ने अपनी जिंदगी में आत्मसात करने की कोशिश की तो लगा कि सामाजिक ताना बाना ही चकनाचूर हो जाएगा । कई स्त्री लेखिकाएं तो डंके की चोट पर यह कहने लगी की यह हमारी देह है हम जब चाहें जैसे चाहें जिसके साथ चाहें उसका इस्तेमाल करें । हम क्यों पति नाम के एक खूंटे से बंधकर अपनी जिंदगी तबाह कर दें । परिवार नाम की संस्था के अंदर की गुलामी उन्हें मंजूर नहीं थी और वो बोहेमियन जिंदगी जीने के सपने देखने लगी । मर्दों की बराबरी में वो यह तर्क देती नजर आने लगी कि अगर मर्द कई स्त्रियों से संबंध बना सकता है तो स्त्रियां कई मर्दों से संबंध क्यों नहीं बना सकती हैं । कई स्त्री लेखिकाएं अपने भाषण में पुरुषों के खिलाफ आग उगलने लगी । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में स्त्री विमर्श के नाम पर न्यूनतम मर्यादाओं का भी पालन नहीं हो सका और मान्यताओं और परंपराओं पर प्रहार करने की जिद ने लेखन को बदतमीज और अश्लील लेखन में तब्दील कर दिया । हिंदी में ऐसे उपन्यासों और कहानियों की बाढ़ आ गई जिसमें रचनात्मकता कम और सेक्सुअल अनुभव ज्यादा आने लगे । सेक्सुअल अनुभव के नाम पर जुगुप्साजनक अश्लीलता परोसी जाने लगी । पाठकों को भी इस तरह के लेखन में फौरी आनंद आने लगा और कुछ कहानियां और उपन्यास अपने सेक्स प्रसंगों की वजह से चर्चित भी हुई । हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ने भी मौके का फायदा उठाया और लगे हाथों अपना विवादित लेख होना सोना खूबसूरत दुश्मन के साथ लिख कर उसे वर्तमान साहित्य में प्रकाशित करवा लिया । उनकी विवादित और सेक्स प्रसंगों से भरपूर कहानी हासिल भी उसी दौर में प्रकाशित हुई । हासिल में मौजूद लंबे लंबे सेक्स प्रसंगों की तो होना सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ की भाषा को लेकर उस वक्त हिंदी में अच्छा खासा बवाल मचा । जब इस तरह की रचनाएं चर्चित होने लगी तो कई लेखिकाओं को सेक्स प्रसंगों को सार्वजनिक करके अपनी रचनाओं को सफल करवाने का आसान नुस्खा मिल गया और वो यूरेका यूरेका चिल्लाने लगी । उनकी यूरेका में सेक्स प्रसंगों की भरमार थी । उस दौर की कई कहानियों और उपन्यासों में भी जबरदस्ती ठूसे सेक्स प्रसंगों को देखा जा सकता है, जो फौरी तौर पर तो लोकप्रिय हुआ लेकिन उसके बाद उन रचनाओं का और उन लेखिकाओं का कहीं अता पता नहीं चल पाया । अमेरिका और इंगलैंड में भी स्त्री लेखन के नाम पर सेक्स परोसा गया है लेकिन हिंदी में जिस तरह से वो कई बार भौंडे और जुगुप्सा जनक रूप में छपा वो स्त्री विमर्श के नाम पर कलंक है । राजेन्द्र यादव के लेख पर प्रतिक्रिया देते हुए एक उभरती हुई लेखिका, जिसके बारे में कहा जाता है कि वो एके 47 लेकर लेखन करती हैं , ने लिखा- दरअसल तो ये सारे विचार एक अकेले राजेन्द्र यादव के नहीं बल्कि उस पूरी जमात के हैं जो अपने आठ इंची अंग की ऐंठ में औरतों को कुचलती दबोचती और उनपर चढ़ चढ़ बैठती है । इस तरह की भाषा में स्त्री मुक्ति का अंहकारी दौर शुरू हुआ । स्त्री विमर्श के नाम पर दरअसल पुरुष विरोध का लेखन शुरू हो गया । जिसमें वही लेखिका श्रेष्ठ विमर्श करनेवाली मानी जाने लगी जो सबसे अपमानजनक और बदतमीज भाषा में पुरुषों को गाली देते हुए अपनी बात कह सकें । गाली गलौच का यह दौर लगभग सात आठ साल तक निर्बाध गति से चलता रहा । अब भी कई लेखिकाओं को लगता है कि सभी पुरुष उनको दबोचने और उनपर चढ़ बैठने के ललक पाले ही घूमते रहते हैं । लेकिन ऐसा है नहीं । उनकी गलतफहमी का इलाज नहीं है लेकिन जिस तरह से हिंदी साहित्य के पाठकों ने एक के बाद एक उस तरह की लेखिकाओं को हाशिए पर डाल दिया उससे यह साबित होता है कि देह मुक्ति के नाम पर , स्त्री विमर्श के नाम पर, स्त्रियों को पुरुषों की गुलामी से मुक्त कराने का नारा देनेवाला जो लेखन था उसमें तार्किकता की कमी थी । भारत में हमेशा से स्त्रियों को समाज में बहुत उंचा दर्जा दिया गया है । हमारे यहां पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों पर जोर जुल्म और अत्याचार भी किए गए लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सभी पुरुषों को लाइन में खड़े कर गोली मार देनी चाहिए ।
स्त्री विमर्श के नाम पर इस तरह की लेखिकाओं की पौध को राजेन्द्र यादव का ना केवल प्रश्रय और प्रोत्साहन मिला बल्कि उस तरह की बदतमीज लेखन को यादव जी ने वैधता प्रदान करने की भी भरसक कोशिश की । हंस का मंच उनके पास था ही लेकिन कहते हैं ना कि काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती है । वही हुआ और स्त्री विमर्श की जो यह बदमाश कंपनी थी उसका लेखन एक बार तो पाठकों को शॉक दे पाया लेकिन पाठकों ने कई कई बार छप रहे उस तरह के लेखन को सिरे से खारिज कर दिया । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में जो स्त्री विमर्श की आंधी चल रही या चलाई जा रही थी वो थम सी गई और उसका जो गर्द ओ गुबार था वह भी कहां गुम हो गया पता ही नहीं चल पाया । अब एक बार फिर से हिंदी में कुछ नई लेखिकाएं आई हैं जो स्त्री विमर्श के नाम पर गंभीरता से लेखन कर रही हैं और अपनी कृतियों के बूते पर स्त्री की आजादी की जोरदार वकालत भी कर रही है । वहां स्त्रियों का दर्द है, उनकी जेनुइन समस्याएं हैं, उनको दूर करने और सामने लाने की छटपटाहट है । यह हिंदी के लिए सुखद संकेत है । सुथद यह भी है कि स्त्री विमर्श के नाम पर जो पुरुष विरोध की चाल चली गई थी जिसके झांसे में लेखिकाएं आ गई थी वो भी उससे मुक्त होकर अब उस दायरे से बाहर निकल कर लिख रही हैं ।
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