हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार उदय प्रकाश प्रसिद्ध कथाकार हैं । उनकी कहानियों का मैं प्रशंसक हूं । उनकी कविताओं को भी पाठकों का एक बड़ा वर्ग पसंद करता है । उदय प्रकाश ने जब भी कोई भी कहानी लिखी उसको साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिखा । लेकिन शोहरत के साथ साथ उदय प्रकाश का विवादों से भी गहरा नाता रहा है । जब उन्होंने गोरखपुर में गोरक्षपीठ के कर्ताधर्ता और बीजेपी सांसद योगी आदित्यनाथ के हाथो पहला 'नरेन्द्र स्मृति सम्मान' लिया था तो उस वक्त अच्छा खासा बवाल मचा था । पूरे साहित्य जगत में उदय की जमकर आलोचना हुई थी । दरअसल उदय प्रकाश सार्वजनिक जीवन में कई दशकों से वामपंथी आदर्शों की दुहाई देते रहे हैं । लेकिन इस सम्मान ग्रहण के बाद उनके चेहरे का लाल रंग धुधंला होकर भगवा हो गया प्रतीत होता है । दरअसल उदय को नजदीक से जानने वालों का दावा है कि उदय प्रकाश हमेशा से अवसरवादी रहे हैं और जब भी, जहां भी मौका मिला है उन्होंने इसे साबित भी किया है । परिस्थितियों के अनुसार उदय प्रकाश अपनी प्राथमिकताएं और प्रतिबद्धताएं तय करते हैं और एक रणनीति के तहत उसपर अमल भी करते हुए उसका लाभ उठाते हैं ।
अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही है तो उदय प्रकाश ने अपने कविता संग्रह- सुनो कारीगर- को लगभग दर्जनभर साहित्यकारों को समर्पित किया था, जिसमें नामवर भी थे और काशीनाथ सिंह भी और नंदकिशोर नवल भी थे और भारत भारद्वाज भी । जाहिर तौर पर ये एक साथ दर्जनभर से ज्यादा साहित्यकारों/आलोचकों को साधने की कोशिश थी ।अपनी रचनाओं को लेकर आलोचकों का ध्यान खीचने की कोशिश भी थी । बाद में जब शिवनारायण सिंह संस्कृति मंत्रालय में उच्च पद पर थे तो उनको भी अपना एक कविता संग्रह समर्पित कर दिया था । यह अजीब संयोग था कि उसी वक्त के आसपास उदय प्रकाश को भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की फैलोशिप मिल गई । इस बात में कितनी सच्चाई है कि शिवनारायण सिंह ने उदय प्रकाश को फेलोशिप दिलाने में मदद की इसका तो पता नहीं लेकिन उस वक्त दिल्ली के साहित्य जगत के जानकारों दोनों घटनाओं को जोड़ा भी था ।
उदय प्रकाश भारत भवन की पत्रिका पूर्वग्रह से भी जुडे़ रहे हैं, यह उस वक्त की बात थी जब मध्य प्रदेश में साहित्य और संस्कृति की दुनिया में अशोक वाजपेयी का डंका बजा करता था और वो ही साहित्य और संस्कृति के कर्ताधर्ता हुआ करते थे । लेकिन जब किसी वजह से उदय प्रकाश को पूर्वग्रह से बाहर होना पड़ा था तो खबरों के मुताबिक उदय जी ने अशोक वाजपेयी और उनकी मित्रमंडली को 'भारत भवन के अल्सेशियंस' तक कह डाला था । जाहिर है उसके बाद से अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश साहित्य के दो अलग-अलग छोर पर रहे । लेकिन वर्षों बाद उदय प्रकाश को अशोक वाजपेयी में फिर से संभावना नजर आई और उन्होंने अशोक वाजपेयी जी के जन्मदिन पर उदय ने जिस अंदाज में वाजपेयी को शुभाकमनाएं अर्पित की उसके बाद दोनों के बीच जमी बर्फ पिघली । रिश्तों में आई गर्माहट के बाद साहित्यिक हलके में इस बात की जोरदार चर्चा हुई थी कि अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश के बीच लंबी मुलाकात हुई। यहां भी एक संयोग घटित हुआ । उस मुलाकात के बाद उदय प्रकाश को लखटकिया वैद सम्मान मिला । बार-बार उदय प्रकाश के साथ जो संयोग घटित होता है उससे लेखकों को ईर्ष्या होती है लेकिन यही हैं उदय प्रकाश की प्राथमिकताएं और प्रतिबद्धता जिसकी वजह से इस तरह के संयोग घटित होते रहे हैं ।
बीजेपी सांसद योगी आदित्यनाथ के हाथों सम्मान ग्रहण करने के बाद जब उदय पर चौतरफा हमले शुरू हुए तो अपने बचाव में उन्होंने बेहद लचर तर्कों का सहारा लिया । उदय प्रकाश ने कहा कि- एक नियोजित तरीके से मुझ पर आक्रमण करके बदनाम करने की घृणित जातिवादी राजनीति की जा रही है.....दरअसल इस हिंदू जातिवादी समाज में विचारधाराओं से लेकर राजनीति और साहित्य का जैसा छद्म और चतुर खेल खेला गया है, उसके हम सब शिकार हैं । मेरे परिवार में यह सच है कि कि कोई भी एक सदस्य ऐसा नहीं है ( इनमें मेरी पत्नी, बच्ची, बहू और पोता तक शामिल हैं और मेरे मित्र तथा पाठक भी ) जो किसी एक धर्म, क्षेत्र, जाति, नस्ल आदि से जुडे़ हों । लेकिन हिंदी साहित्य और ब्लॉगिंग में सक्रिय सवर्ण हिंदू उसी कट्टर वर्णाश्रम -व्यवस्थावदी माइंडसेट से प्रभावित पूर्व आधुनिक सामंती, अनपढ़ और घटिया लोग हैं -जिनके भीतर जैन, बौद्ध, नाथ, सिद्ध, ईसाइयत, दलित, इस्लाम आदि तमाम आस्थाओं और आइडेंटिटीज़ के प्रति घृणा और द्वेष है इसे वे भरसक ऊपर-ऊपर छिपाए रखने की चतुराई करते रहते हैं । मैंने जीवनभर इनका दंश और जहर झेला है और अभी भी झेल रहा हूं ।' अपनी लंबी सफाई के आखिर में धमकाने के अंदाज में सवर्ण लुटेरों के साम्राज्य को ध्वस्त करने का दावा भी करते हैं । उदय पर पहले भी जब-जब उनकी व्यक्तिवादी कहानियों को लेकर उंगली उठी थी तो किसी को मथुरा का पंडा, तो किसी को घनघोर अनपढ़ घोषित किया तो किसी को अफसर होकर साहित्य की दुनिया में अनाधिकार प्रवेश के लिए लताड़ा ।
इसके पहले जब वर्तमान साहित्य के मई दो हजार एक के अंक में उपेन्द्र कुमार की कहानी 'झूठ का मूठ' छपी थी तो अच्छा खास विवाद खड़ा हो गया था । साहित्य जगत में यह चर्चा जोर पकड़ी थी कि उक्त कहानी के केंद्र में उदय प्रकाश हैं । अब इस बात की तस्दीक तो कहानीकार उपेन्द्र कुमार ही कर सकते हैं कि उनकी कहानी झूठ का मूठ का लेखक कौन था । लेकिन जब उस कहानी पर साहित्य में विवाद हुआ था तो उस वक्त भी सफाई देते हुए उदय प्रकाश ने कहा था कि- दरअसल ऐसा है कि दिल्ली में गृह मंत्रालय के भ्रष्ट अधिकारियों का एक क्लब है जो नाइट पार्टी का आयोजन करता है । इसमें शराब पी जाती है और अश्लील चर्चा होती है । जो इसमें शामिल नहीं होता है, ये लोग उसपर हमला करते हैं । ये साहित्येतर लोग हैं जो अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोध तो करते हैं मगर गली-मोहल्ले के मवालियों के साथ बैठकर शराब पीते हैं ।' उनका इशारा किन लोगों की ओर था उसे भी अगर खुलकर कहते तो गृह मंत्रालय के भ्रष्ट अधिकारियों से साहित्य जगत का परिचय होता। दरअसल उदय प्रकाश की दिक्कत यही है कि जब भी उनकी आलोचना होती है तो वो अपना आपा खो देते है और साहित्यक मर्यादा भूलकर अपने विरोधियों पर बिलो द बेल्ट हमला करते हैं । रविभूषण ने जब इनकी कहानियों पर विदेशी लेखकों की छाया की बात की थी तो मामला कानूनी दांव-पेंच में भी उलझा था ।
बीजेपी सांसद के हाथों सम्मानित होने के बाद साहित्य में उदय प्रकाश की जमकर आलोचना हुई थी । उदय की सफाई के बाद हिंदी के दो दर्जन से ज्यादा महत्वपूर्ण साहित्यकारों ने अपने हस्ताक्षर से एक बयान जारी कर उदय की भर्त्सना की । बयान जारी करनेवालों में प्रमुख नाम थे - ज्ञानरंजन, विद्यासागर नौटियाल, विष्णु खरे, भगवत रावत, मैनेजर पांडे, राजेन्द्र कुमार, इब्बार रब्बी, मदन कश्यप, देवीप्रसाद मिश्र आदि । चौतरफा घिरता देख उदय प्रकाश ने एक बार फिर से अपने ब्लॉग पर एक सफाई लिखी लेकिन ये सफाई कम धमकी ज्यादा है । इसके बाद उदय प्रकाश की ओर से कई व्लॉग चलानेवाले लोगों ने मोर्चा संभला और उदय प्रकाश की दलीलों को आगे बढा़या । उदय के समर्थन में जो तर्क दिए गए वो भी बेहद लचर थे जो साहित्य जगत के गले नहीं उतरा ।
उदय प्रकाश एक बेहतरीन कवि माने जाते हैं, कई पाठकों का दावा है कि वो कहानियां अच्छी लिखते हैं, लेकिन उनकी कहानियां व्यक्तियों पर केंद्रित होकर लोगों को दुखी करती रही हैं । जब उपेन्द्र कुमार की कहानी 'झूठ का मूठ' छपी थी तो उसपर पटना से प्रकाशित 'प्रभात खबर' में एक लंबी परिचर्चा छपी थी । जिसमें सुधीश पचौरी ने लिखा था- अरसे से हिंदी कथा लेखन में एक न्यूरोटिक लेखक कई लेखकों को अपने मनोविक्षिप्त उपहास का पात्र बनाता आ रहा था । पहले उसने एक महत्वपूर्ण कवि की जीवनगत असफलताओं को अपनी एक कहानी में सार्वजनिक मजाक का विषय बनाया । फिर वामपंथी गीतकार की असफल प्रेमकथा का सैडिस्टिक उपहास उड़ाने के लिए कहानी लिखी । किसी ने रोका नहीं तो, तो जोश में कई हिंदी अद्यापकों और आलोचकों के निजी जीवन पर कीचड़ उचालनेवाली शैली में कविताएं भी लिख डाली । किसी दीक्षित मनोविक्षिप्त की तरह उसने ये समझा कि उसे सबको शिकार करने का लाइसेंस हासिल हो गया है । उसके शिकारों में से उक्त गीतकार तो आत्महत्या तक कर बैठा । हिंदी के कई पाठक उसकी आत्महत्या के पीछे का कारण इस साडिज्म को भी मानते हैं । यह लेखक दरअसल स्वयं एक 'माचोसाडिस्ट' है जो दूसरों को अपने 'मर्दवादी परपीड़क विक्षेप' में जलील करता और सताता आया है । यह पहली कहानी है जिसने एक दुष्ट शिकारी का सरेआम शिकार किया है । शठ को शठता से ही सबक दिया है ।' उदय प्रकाश की राजनीति और जोड़-तोड़ और दंद-फंद को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है ।
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए अगर बात साहित्य अकादमी पुरस्कार की करें तो जिस वर्ष उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी पुरस्कार यशस्वी कथाकार और कवि उदय प्रकाश को उनके उपन्यास मोहनदास (वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) के लिए दिया गया । तब भी मैंने यह लिखा था कि उदय प्रकाश साहित्य अकादमी पुरस्कार डिजर्व करते हैं बल्कि उन्हें तो अरुण कमल, राजेश जोशी और ज्ञानेन्द्रपति के पहले ही यह सम्मान मिल जाना चाहिए था । लेकिन जिस तरह से पुरस्कार देने के लिए पुरस्कार के चयन समिति की बैठक में जो बातें हुई, जो सौदेबाजी हुई उसने पुरस्कार को संदिग्ध बना दिया था । उस बार के पुरस्कार के चयन के लिए जो आधार सूची बनी थी उसमें रामदरश मिश्र, विष्णु नागर, नासिरा शर्मा, नीरजा माधव, शंभु बादल, मन्नू भंडारी और बलदेव वंशी के नाम थे । हिंदी के संयोजक विश्वनाथ तिवारी की इच्छा और घेरेबंदी रामदरश मिश्र को अकादमी पुरस्कार दिलवाने की थी । इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अशोक वाजपेयी, मैनेजर पांडे और चित्रा मुद्गल का नाम जूरी के सदस्य के रूप में प्रस्तावित किया और अध्यक्ष से स्वीकृति दिलवाई । लेकिन पता नहीं तिवारी जी की रणनीति क्यों फेल हो गई- जब पुरस्कार तय करने के लिए जूरी के सदस्य बैठे तो रामदरश मिश्र के नाम पर चर्चा तक नहीं हुई । बैठक शुरू होने पर अशोक वाजपेयी ने सबसे पहले रमेशचंद्र शाह का नाम प्रस्तावित किया । लेकिन उसपर मैनेजर पांडे और चित्रा मुदगल दोनों ने आपत्ति की । कुछ देर तक बहस चलती रही जब अशोक वाजपेयी को लगा कि रमेशचंद्र शाह के नाम पर सम्मति नहीं बनेगी तो उन्होंने नया दांव चला और उदय प्रकाश का नाम प्रस्तावित कर दिया । जाहिर सी बात है कि मैनेजर पांडे को फिर आपत्ति होनी थी क्योंकि वो उदय प्रकाश की कहानी पीली छतरी वाली लड़की को भुला नहीं पाए थे । उन्होंने उदय के नाम का पुरजोर तरीके से विरोध किया । पांडे जी के मुखर विरोध को देखते हुए उनसे उनकी राय पूछी गई । मैनेजर पांडे ने मैत्रेयी पुष्पा का नाम लिया और उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की वकालत करने लगे । मैनेजर पांडे के इस प्रस्ताव पर अशोक वाजपेयी खामोश रहे और उन्होंने चित्रा मुदग्ल से उनकी राय पूछी । बजाए किसी लेखक पर अपनी राय देने के चित्रा जी ने फटाक से अशोक वाजपेयी की हां में हां मिलाते हुए उदय प्रकाश के नाम पर अपनी सहमति दे दी । इस तरह से अशोक वाजपेयी की पहली पसंद ना होने के बावजूद उदय प्रकाश को एक के मुकाबले दो मतों से साहित्य अकादमी पुरस्कार देना तय किया गया । यहां यह भी बताते चलें कि उदय प्रकाश और रमेशचंद्र शाह दोनों के ही नाम हिंदी की आधार सूची में नहीं थे । लेकिन यहां कुछ गलत नहीं हुआ क्योंकि जूरी के सदस्यों को यह विशेषाधिकार प्राप्त है कि वो जिस वर्ष पुरस्कार दिए जा रहे हों उसके पहले के एक वर्ष को छोड़कर पिछले तीन वर्षों में प्रकाशित कृति प्रस्तावित कर सकते हैं । उस वर्ष दो हजार छह, सात और आठ में प्रकाशित कृति में से चुनाव होना था । साहित्य अकादमी का यह प्रसंग सिर्फ इस वजह से बता रहा हूं ताकि पुरस्कारों में होनेवाले समझौते और सौदोबाजी को समझा जा सके । उदय जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार बाइ डिफाल्ट मिला जबकि उनकी सारी कृतियां अकादमी पुरस्कारों के लायक है । लेकिन उदय जी हिंदी साहित्य को लेकर अपना एक फ्रस्टेशन है । उनको जितना मिलना चाहिए था उतना साहित्य से मिला नहीं । उनकी प्रतिभा का साहित्य में सही इस्तेमाल नहीं हो पाया । हो सकता है इन्ही वजहों ने मनोवैज्ञानिक रूप से उदय प्रकाश को कमजोर कर दिया हो और वो अपने ध्येय को प्राप्त करने के चक्कर में रास्ते से बार बार फिसलते रहे हों । लेकिन उदय प्रकाश की उन्हीं फिसलनों और विचलनों को देखकर मुक्तिबोध की आत्मा कराहती हुई पूछ रही होगी - पार्टनर ! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?