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Friday, February 27, 2015

पुस्तक नहीं लेखक मेला

10 मई 1933 का बदनाम बर्लिन बुक बर्निंग जब हुआ था तब वो हिटलर के उत्थान और ताकतवर होने का दौर था । नाजीवादी यह मानते थे कि साहित्य मनुष्य की भावनाओं को जगाता है और भावना लोगों को दुर्बल बना देती है । उनका मानना था कि अगर जर्मनी को दुनिया फतह पर करना है तो कमजोर लोगों से काम नहीं चल सकता । लिहाजा विश्व साहित्य की महत्वपूर्ण कृतियों को बर्लिन विश्वविद्यालय के विशाल प्रांगण में जला दिया गया था । इसे बुक बर्लिन ब्लास्ट या बर्लिन बुक ब्लास्ट के नाम से जाना जाता है । जिस दिन किताबें जलाई गई उसी दिन अब हर साल बर्लिन विश्वविद्यालय के उसी जगह को विश्व भर की किताबों से पाट दिया जाता है । उन लेखकों के नाम लिखे जाते हैं जिनकी किताबें 1933 में जला दी गई थी । बर्लिन में उस दिन को किताब उत्सव की तरह मनाया जाता है । हर जगह पर लोग किताब पढ़कर एक दूसरे को सुनाते हैं, रेस्तरां से लेकर फुटपाथ तक, चौराहों से लेकर पार्कों तक में । यह विरोध का अपना एक तरीका है । इस घटना को बताने के पीछे उद्देश्य यह है कि जर्मनी में एक पुस्तक संस्कृति विकसित होती चली गई और अब ई बुक्स के दौर में भी किताबों की महत्ता कम नहीं हुई । लेकिन उसके उलट भारत में किताबों की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत होने के बावजूद हम उत्तरोत्तर किताबों से दूर होते चले गए । हमारे यहां इतने महाकाव्य है जो कि विश्व की अन्य भाषाओं में दुर्लभ हैं । फिर क्या वजह रही कि हमारा हिंदी समाज पुस्तकों से दूर होता चला गया ।
आज खत्म हो रहे दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में जाकर पुस्तकों के प्रति पाठकों के घटते प्रेम का अंदाज लग सकता है । दिल्ली का ये विश्व पुस्तक मेला ना होकर भारतीय लेखक मेला सरीखा लगता है । यहां किताबों के खरीदार गंभीर पाठक कम किताबों के गंभीर अगंभीर लेखकों का मेला लगा रहता है । इतनी बड़ी संख्या में किताबों का प्रकाशन हुआ है जिसके अनुपात में इन किताबों की बिक्री हुई हो इस बारे में संदेह होता है । नई नई प्रवृत्तियों के मुताबिक किताबें प्रकाशित हो रही हैं । घटिया काव्य संग्रहों की बाढ़ आई हुई है । फेसबुक पर की जा रही हल्की फुल्की रचनाओं को किताब की शक्ल दी जा रही है । रचना प्रक्रिया साधना है लेकिन यहां तो वह मशहूर होने और सोशल नेटवर्किग साइट पर चेहरा चमकाने का जरिया मात्र है । कई विमोचनों के दौरान लेखकों को यह कहते सुना गया कि फोटो इस तरह से खींची जानी चाहिए कि उसको फेसबुक की कवर पिक्चर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके । फेसबुक का इस्तेमाल गलत नहीं है और मैं हमेशा से इस बात की पैरोकारी करता रहा हूं कि फेसबुक और अन्य सोशल साइट्स का इस्तेामाल लेखक करें । लेकिन फेसबुक ने जिस तरह से हिंदी के नए लेखकों के बीच छपास रोग को जन्म दिया है वह चिंता का विषय है । फेसबुक ने औसत तुकबंदी करनेवालों को कवि बनने का मौका दे दिया । फेसबुक ने जुमले बाजी करनेवालों को कहानीकार बनने का मौका दे दिया । प्रकाशकों ने लेखकों की मशहूर होने की इस महात्वाकांक्षा को हवा देते हुए अपने कारोबार को चमकाने का एक रास्ता तलाश लिया । यहां भी एक बात रेखांकित की जानी चाहिए कि जो बड़े या स्थापित प्रकाशक हैं उन्होंने इस रास्ते को ठुकराया लेकिन प्रकाशन जगत में भी तो कई घुसपैठिए जो साहित्य का नुकसान कर रहे हैं । इस साल के पुस्तक मेले के अनुभव पर ये कहा जा सकता है कि हिंदी प्रकाशन संस्थानों की भी ग्रेडिंग की जानी चाहिए । उनकी साख और टर्नओवर आदि के आधार पर कोई सिस्टम बनना चाहिए । इससे ये साफ होगा कि अमुक प्रकाशक ने छापा है तो रचना स्तरीय होगी । इससे पाठकों का साहित्य में भरोसा वापस लाने में मदद मिलेगी ।  


Saturday, February 21, 2015

विमोचनों का रेला या पुस्तक मेला

पिछले साल की तरह इस साल भी पुस्तक मेले के खत्म होते ही दिल्ली के मौसम में बदलाव देखने को मिल रहा है । ठंड एक बार फिर से दस्तक देने को बेताब है । पिछले वर्ष पुस्तक मेले में हुए विमर्श की गर्मागट लंबे समय तक महसूस की गई थी लेकिन इस बार पुस्तक मेले में विमचोनों का रेला लगा रहा । हर दिन दर्जनों लोकार्पण और विमोचन । पुस्तक मेले के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट ने बेहतर इंतजानम किया था लेकिन हिंदी के लेखकों की महात्वाकांक्षा और तुरत फुरत मशहूर होने की लालसा की वजह से वो इंतजाम नाकाफी साबित हुए । मशहूर होने की इस लालसा को हवा दी फेसबुक ने । विमोचन इस वजह से भी करवाए जा रहे थे ताकि फेसबुक पर कवर फोटो बनाया जा सके । एक लेखिका तो मेले में यह कहते हुए सुनी गई कि फोटो इस तरह से खिंचवानी चाहिए कि उसका फेसबुक पर बेहतर उपयोग हो सके । इस बार विश्व पुस्तक मेला को नजदीक से देखने के बाद निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि गंभीर विमर्श को फेसबुक की चाहत ने पीछे छोड़ दिया । विमचोनों का ऐसा रेला लगा कि जो भी मिल जाए उनको खड़ा करके फोटो खिंचवाओ और पुस्तक का विमोचन हो गया । पुस्तक मेले में एक उपन्यासकार ने मजाक में ही एक टिप्पणी की लेकिन वो बड़े सवाल खड़ा करती है । उन्होंने कहा कि विमोचन के दौरान पचरंगा अचार की तरह कुछ लोग घूम रहे हैं । जो चाहो करवा लो या जहां चाहे ले जाओ । इस तरह के कुछ लोग हर फोटो फ्रेम में मुस्कुराते हुए नजर आ रहे थे । साहित्यक गलियारे में इन पचरंगा अचार को लेकर खूब चर्चा रही । पिछले साल विश्व पुस्तक मेले में जो प्रवृत्ति रेखांकित की गई थी वो लकीर इस बार और गहरी होती दिखी । लेखकों के महात्वाकांक्षाओं के उत्सव से बढ़ते हुए ये फेसबुक के लिए कच्चा माल की फैक्ट्री में तब्दील होता नजर आया । अगर आप फेसबुक पर सक्रिय हैं और साहित्य में रुचि है तो इन कच्चे माल का उपयोग करनेवालों को पहचानने में दिक्कत नहीं होगी । इस बार के पुस्तक मेले में फेसबुकिया लेखकों का बोलबाला था और प्रकाशक भी उनको लेकर उत्साहित थे । अब तो विमचनों के लिए कार्ड आदि छपवाने की चिंता भी खत्म हो गई । ई कार्ड के चलन ने आमंत्रण पत्र को लगभग खत्म कर दिया है ।  विश्व पुस्तक मेले के दौरान नौ दिनों तक अलग अलग विषयों और पुस्तकों के विमोचन के बहाने से तकरीबन सौ गोष्ठियां और संवाद हुए होंगे । पिछले साल जब पुस्तक मेला के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट ने मेला का चरित्र बदलने की कोशिश की थी तो उसकी काफी सराहना हुई थी । विश्व पुस्तक मेला के बदले हुए स्वरूप को देखकर तब कहा गया था कि वहां पुस्तकों के अलावा साहित्योत्सव के लिए भी मंच था । इस बार इन गोष्ठियों को देखने सुनने के बाद लगा कि यह अपने उद्देश्य से भटक सा गया है । इन गोष्ठियों में चर्चा के दौरान जो एक वैचारिक उष्मा पैदा होनी चाहिए थी उसकी कमी खलती रही । साहित्य मंच पर तो एक के बाद एक अनवरत रूप से विषय विशेष पर भी चर्चा और कविता पाठ होता था । इस मंच पर को लेकर खास तौर पर नेशनल बुक ट्रस्ट को विचार करना होगा । इसके फलक को विस्तार देने के लिए गंभीरता से विचार करना होगा ।
पुस्तक मेले में एक नई विधा को लेकर भी खूब हो हल्ला मचा । यह विधा है लप्रेक यानि लघु प्रेम कथा । इस विधा की पहली किताब प्रकाशित हुई और उसके प्रकाशक ने उसके प्रचार प्रसार में कोई कसर नहीं छोड़ी । पर विधा के रूप में लप्रेक को पाठक कैसे लेते हैं यह अभी भविष्य के गर्भ में है । अस्सी के दशक में मशहूर कथाकार बलराम की अगुवाई में लघुकथा भी जोर पकड़ रही थी लेकिन समय के साथ उसका क्या हश्र हुआ यह सबके सामने हैं । लप्रेक को लेकर भी इस तरह की आशंकाएं लोगों के मन में है । यह सही है इंटरनेट पीढी के नए पाठकों को अब उतना धैर्य नहीं रहा कि वो लंबी कहानियां पढ़े लेकिन वो कहानी के नाम पर जुमले पढ़ेगें इसमें शक है । इंटरनेट युग के जिस पाठक के मन में कहानी पढ़ने की लालसा होगी वो छोटी पर मुकम्मल कहानी पढ़ेगा । अगर लप्रेक पढ़ना होता तो वो लघुकथा भी पढ़ सकता था । लेकिन लप्रेक को लेकर ना तो निराश होने की जरूरत है और ना ही नकारात्मक सोच के साथ उसको देखना चाहिए । एक नई विधा के तौर पर उसको शुरू किया गया है और अब वो पाठकों की अदालत में है देखना यह होगा कि पाठक उसे कैसे स्वीकार करता है । पिछले साल इस विधा को वाणी प्रकाशन शुरू करने जा रहे थे लेकिन बदलते समय के साथ लप्रेक की पहली किताब छपी राजकमल प्रकाशन से ।
इस बार पुस्तक मेले में वाणी प्रकाशन ने एक बेहद नई पहल की है । इस बार का पुस्तक मेला 14 फरवरी यानि वेलेंटाइन डे से शुरू हुआ । वेलेंटाइन डे पर लाल गुलाब देने की वर्षों पुरानी परंपरा से मुठभेड़ करते हुए -हे बसंत -नाम से एक ऑन लाइन रोमांस फेस्टिवल शुरू किया गया । इसका टैग लाइन है वैलेंटाइन डे पर गुलाब नहीं किताब । इस ऑनलाइन रोमांस फेस्टिवल में गीतकार इरशाद कामिल की नज्मों की किताब तो रिलीज हुई ही उन्होंने उसको गाकर भी सुनाया । इसके अलावा किस्सागोई के युवा सरताज निलेश मिसरा ने अपनी कहानियों को सुनाकर पाठकों को मुग्ध कर दिया । नीलेश ने किस्सागोई का एक नया अंदाज विकसित किया है । प्रगति मैदान के लाल चौक में खुले में हुए इस ऑनलाइन रोमांस फेस्टिवल खासा सफल रहा । नीलेश और इरशाद को सुनने के लिए ओपन एयर थिएटर लगभग तीन चार घंटे तक श्रोताओं से खचाखच भरा रहा । कहानी और शायरी सुनने के लिए श्रोताओं का डटे रहना आश्वस्तिकारक था । इसके अलावा गुलाब नहीं किताब के नारे का भी स्वागत किया जाना चाहिए । अगर हिंदी समाज में उपहार में किताब देने की परंपरा शुरू हो गई तो यहां घट रही पुस्तक संस्कृति को एक जीवनदान मिलेगा । पाठकों को किताबों को ओर लाने में सफलता मिल सकेगी । अगर इस योजना को जनता ने स्वीकार कर लिया तो किताबों के जो संस्करण घटते-घटते तीन सौ तक आ गए हैं उसको बढ़ाने में भी मदद मिलेगी । लेकिन यह काम एक दो महीनों का नहीं है इस आंदोलन को महीनों नहीं सालों तक लगातार चलाते रहने की आवश्यकता है । अगर ऐसा हो सकता है तो हम अपनी आनेवाली पीढ़ी को एक बेहतर समाज दे सकेंगे जहां पुस्तकों का एक अहम स्थान होगा । इस बार पुस्तक मेले में कई युवा लेखकों की किताबों के अलावा कुछ आत्मकथाएं भी प्रकाशित हो रही हैं जिसका हिंदी के पाठकों को इंतजार था । वाणी प्रकाशन ने पूर्व सेनाध्यक्ष और अब केंद्र में मंत्री जनरल वी के सिंह की आत्मकथा साहस और संकल्प एक आत्मकथा प्रकाशित हुई । अच्छी बात यह है कि जनरल सिंह ने अंग्रेजी के अपनी आत्मकथा को अपडेट किया है । वाणी ने ही पूर्व पत्रकार और अब कॉलेज शिक्षक वर्तिका नंदा की कविताओं का संग्रह- रानियां सब जानती हैं -को गाजे बाजे के साथ जारी किया । इसी तरह से प्रभात प्रकाशन से पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम मेरी जीवन यात्रा प्रकाशित हुई । इस बार भी पुस्तक मेले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को केंद्र में रखकर कई किताबें प्रकाशित हुई । उनके और अमित शाह के भाषणों की किताब मैं मोदी बोल रहा हूं और मैं अमित शाह बोल रहा हूं भी प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित हुआ । प्रभात प्रकाशन ने कई साहित्येतर किताबों का प्रकाशन भी किया जिनमें डॉ रश्मि की किताब एक सौ एक प्रेरक प्रसंग का भी लोकार्पण हुआ । इसके अलावा गरिमा संजय की पुस्तक आतंक के साए में भी विमोचित हुआ । लंबे सम्य से प्रतीक्षित साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखिका अलका सरावगी का नया उपन्यास भी प्रकाशित हुआ है ।
पिछले शनिवार से आज यानि रविवार तक दिल्ली में हुए इस विश्व पुस्तक मेला में सम्मानित अतिथि देश सिंगापुर है और थीम पू्र्वोत्तर भारत  के उभरते स्वर तो फोकस देश दक्षिण कोरिया है । पिछले दो तीन सालों में विश्व पुस्तक मेले ने एक नया शक्ल अख्तियार किया है। अब इस विष्व पुस्तक मेले को सही में वैश्विक शक्ल ले चुकी है । इस बार भी कई देशों के प्रकाशक इस पुस्तक मेले में हि्ससा ले रहे हैं । अंग्रेजी के प्रकाशकों के बरक्श अब हिंदी के भी बड़े प्रकाशकों ने भी योजनाबद्ध तरीके से पुस्तक मेले में योजना बनाकर पुस्तकों का प्रकाशन शुरू कर दिया है । विश्व पुस्तक मेले में हिंदी के प्रकाशको के स्टॉल को देखकर संतोष होने लगा है । वहां उनके स्टॉल की साज सज्जा और व्यवस्था देखकर वर्ल्ड क्लास होने का एहसास होता है लेकिन यह अहसास उस वक्त थोड़ा चटकता है जब प्रसिद्ध होने की होड़ में लेखक साहित्य मर्यादा को भूलने लगते हैं ।

Friday, February 20, 2015

बयानवीर नेताओं पर लगाम जरूरी

संसद के बजट सत्र के पहले राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के सदर मोहन भागवत जी का एक अहम बयान आया है । उन्होंने चालीस बच्चे पैदा करने की नसीहतों को नकारते हुए कहा है कि महिलाएं बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं हैं । दरअसल बीजेपी के साक्षीमहाराज जैसे सांसद, एक मंत्री और कथित तौर पर आरएसएस से जुड़े संगठन प्रधानमंत्री मोदी के लिए परेशानी खड़ी करने में जुटे हैं । इन कट्टर सोच वाले लोगों को मोहन जी का ये बयान गंभीरता से लेना होगा क्योंकि लव जेहाद जैसे मुद्दे को उठाकर बीजेपी का खासा नुकसान हो चुका है । दरअसल बेगलाम होते जा रहे सांसद और अनुषांगिक संगठन प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे हैं । इसका खामिया दिल्ली विधानसभा चुनाव में भुगता पड़ा । भगवा वस्त्रधारी सांसद साक्षी महाराज ने बापू के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताकर सबसे पहले बड़ा विवाद खड़ा कर दिया । मीडिया में जब थू थू होने लगी और विरोधी दलों ने सरकार को घेरना शुरू किया तो संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सांसदों को आपत्तिजनक बयानों से बचने की सलाह दी थी । उसका असर भी दिखा था और शाम तक साक्षी महाराज ने माफी मांग ली थी । यह विवाद ठंडा भी नहीं पड़ा था कि दिल्ली की एक सभा में केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने रामजादे और हरामजादे जैसा घोर आपत्तिजनक बयान दे दिया । संसद में बवाल हो गया था और विपक्षी दलों ने राज्यसभा में अपनी मजबूत स्थिति के मद्देनजर सरकार को बैकफुटट पर रखा । तकरीबन पूरा सत्र रामजादे और हरामजादे की भेंट चढ़ गया । लेकिन अंग्रजी में एक शब्द बैड माउथ । इसके शिकार साक्षी महाराज कहां रुकने वाले थे । उन्होंने लगातार विवादित बयान देना जारी रखा । सांसद होकर अपने प्रधानमंत्री की अपील को ठुकराते हुए उन्होंने फिर से हिंदुओं को चार बच्चे पैदा करने की अपील कर दी । उनकी इस अपील का हिंदू समाज पर कितना असर हुआ यह तो पता नहीं पक एक महिला ने एक सटीक टिप्पणी की थी कि बच्चों के डायपर बदलने का काम साक्षी महाराज को सौंप देना चाहिए । अपने आप को हिंदुत्व के ठेकेदार कहनेवाले कई तरह के संदठन इन दिनों बेअंदाज हो गए हैं । एक तरफ जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विकास और सुशासन की बात कर रहे हैं. जहां वो मेक इन इंडिया जैसे कामों पर फोकस कर रहे हैं वहीं ये हिंदुत्ववादी संगठन विकास के एजेंडे को डिरेल करने में लगे हैं । लेकिन ये फ्रिंज एलिमेंट प्रधानमंत्री मोदी के काम करने के तरीके से अनभिज्ञ हैं । उन्हें लगता है कि केंद्र में रामभक्त सरकार है और जो भी अंड बंड वो करना चाहेंगे करते रहेंगे । उन्हें नरेन्द्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री के कार्यकाल को देखना चाहिए । उस राज्य का मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी ने तमाम तरह के फ्रिंज एलिमेंट को हाशिए पर पहुंचा दिया था । विकास की राह में बाधा बन रहे मंदिरों तक को भी विस्थापित किया गया और इन कथित हिंदू धर्म के ठेकेदारों की जुबान नहीं खुली ।
हमें ज्यादा पीछे नहीं जाना पड़ेगा दो तीन साल पहले बीजेपी में जिस तरह का भ्रम दिखाई देता था वह अब दूर हो गया लगता है । तीन दशक से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि वो यह साबित करे कि वो कांग्रेस का विकल्प बन सकती है । जिस तरह से कर्नाटक में येदुरप्पा ने खुद को मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए लगभग बगावत कर दी थी उससे भी पार्टी में अनुशासन की कमी साबित हुई  थी । उस वक्त बीजेपी के लिए बहुत चिंता की बात थी कि वो जो भी राजनैतिक फैसले हो रहे थी वो विवादित हो जा रहे थे । पार्टी के फैसलों के खिलाफ पार्टी के ही वरिष्ठ नेता खड़े हो जा रहे थे और पार्टी फोरम से लेकर मीडिया तक में खुलकर आलाकमान के फैसलों पर रोष जता रहे थे । इसका परिणाम यह हो रहा था कि पार्टी को लेकर लोगों के मन में निर्णायक छवि नहीं बन पा रही थी । दो साल पहले हालात यह हो गए थे कि झारखंड में राज्यसभा के टिकटों के बंटवारो को लेकर उस वक्त के पार्टी अध्यक्ष नितिन गड़करी की मनमानी की जमकर लानत मलामत हुई थी । झारखंड में एक धनकुबेर को पार्टी के समर्थन को लेकर संसदीय दल में यशवंत सिन्हा ने इतना हल्ला मचाया कि आडवाणी को यह कहकर उनको शांत करना पड़ा था कि वो अध्यक्ष से इस संबंध में बात करेंगे बाद में पार्टी ने धनकुबेर को समर्थन देने के अपने फैसले को भी बदला था । बाद में जब मोदी ने पार्टी की कमान संभाली तो एक बार फिर से अनुशासन बहला हुआ और नतीजा लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक बहुमत हासिल कर बीजेपी सत्तानशीं हुई ।
बीजेपी के सत्ता में आते ही हाशिए पर पड़े राजनीतिक संत महात्मा अपना चोला झाड़कर खड़े हो गए और हिंदुत्व को नए सिरे से परिभाषित करने लगे । उन्हें यह बात समझ नहीं आ रही है कि देश अब इन फिजूल की बातों से आगे निकल चुका है । धर्म संप्रदाय और जाति के आधार पर राजनीति का दौर लगभग खत्म सा होता नजर आ रहा है । आज के युवा वर्ग को अपने सपने पूरे करने हैं । उन्हें इस बात से कतई मतलब नहीं है कि मंदिर रहां बनेगा । उसके सपने तो इस दिशा में बढ़ रहे हैं कि कब उसे एक बेहतर नौकरी मिलेगी । कब वो अपने एसपिरेशंस को पूरा कर पाएगा । उसे फ्लैट , कार , स्मार्ट फोन चाहिए । बदलते राजनीति के इस मिजाज को मोदी ने पकड़ा था और उन्होंने युवाओं की इन्ही आंकांक्षओं को जगाकर बीजेपी को बहुमत दिलवाया । अब आपत्तिजनक बयानों से बवाल खड़ा करनेवाले इन नेताओं को समझना होगा कि इस तरह की ध्रुवीकरण की राजनीति का दौर खत्म हो चुका है । आपत्तिजनक बयानों के आधार पर राजनीति करनेवाले नेताओं का दौर अब खत्म हो गया है और देश की जनता को अब नो नॉनसेंस नेता चाहिए । लोकसभा चुनाव के दौरान अपने बयानों से सुर्खियों में रहने वाले बीजेपी के एक नेता जो अब केंद्रीय मंत्री हैं ने मुझे बताया कि अब उन्हें सिर्फ काम करने को कहा गया है । लाख उकसाने के बावजूद वो किसी तरह के बयान से बचते नजर आए । यह एक ऐसा बदलाव है जिसको रेखांकित किए जाने की आवश्यकता है । यह भारतीय राजनीति के बदलते हुए मन मिजाज का प्रतिनिधित्व है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक सीईओ की तरह काम कर रहे हैं । जो अपने मातहतों से डिलीवरी की उम्मीद रखता है । इस तरह के माहौल में लव जिहाद, दस बच्चे पैदा करो, गोडसे देशभक्त था , गोडसे के मंदिर बनाने की कोशिश, रामजादा हरामजादा जैसे जुमलों से लोगों में उनके प्रति हिकारत का ही भाव आता है । इतना अवश्य है कि इस तरह की बयानबाजी करनेवाले पार्टी के नेताओं के खिलाफ अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सख्त कदम उठाने होंगे । डांट फटकार से नहीं मानने वाले इन नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करनी होगी । तीस साल बाद देश ने किसी दल को पूर्ण बहुमत से भी ज्यादा ताकत दी है । उस ताकत का इस्तेमाल देश के विकास में करने और इस तरह के फ्रिंज एलिमेंट को शांत करने में किया जाना चाहिए । अगपर ऐसा हो पाता है तो यह समाज में नफरत फैलानेवालों के लिए एक बड़ा झटका होगा ।  दरअसल हिंदू धर्म के नाम पर अपनी दुकान चलानेवाले इन बयानवीर नेताओं को हिदुत्व के सहअस्तित्व के बेसिक सिद्धांत का पता नहीं । वो हिंदूओं को कट्टर बनाना चाहते हैं जो कि फिलहाल संभव नहीं है । हिंदू सदियों से सहिष्णु रहे हैं और आगे भी सदियों तक सहिष्णु ही रहेंगे ।
 

Sunday, February 15, 2015

गुलाब नहीं किताब

शनिवार से अगले बाइस फरवरी तक दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला शुरू हो चुका है । इस बार के पुस्तक मेले में सम्मानित अतिथि देश सिंगापुर है और थीम पू्र्वोत्तर भारत  के उभरते स्वर तो फोकस देश दक्षिण कोरिया है । पिछले दो तीन सालों में विश्व पुस्तक मेले ने एक नया शक्ल अख्तियार किया है। अब इस विष्व पुस्तक मेले को सही में वैश्विक शक्ल ले चुकी है । इस बार भी कई देशों के प्रकाशक इस पुस्तक मेले में हि्ससा ले रहे हैं । अंग्रेजी के प्रकाशकों के बरक्श अब हिंदी के भी बड़े प्रकाशकों ने भी योजनाबद्ध तरीके से पुस्तक मेले में पुस्तकों का प्रकाशन शुरू कर दिया है । विश्व पुस्तक मेले में हिंदी के प्रकाशको के स्टॉल को देखकर संतोष होने लगा है । वहां उनके स्टॉल की साज सज्जा और व्यवस्था देखकर वर्ल्ड क्लास होने का एहसास होता है । दूसरे अब पुस्तक मेले में विमोचनों की होड़ तो रहती है लेकिन इन कार्यक्रमों को अब व्यवस्थित कर दिया गया है । इसके लिए अलग से जगह नियत कर दी गई है । विश्व पुस्तक मेले की आयोजन नेशनल बुक ट्रस्ट ने साहित्य मंच बनाकर हर दिन कई घंटे तक विमर्श और साहित्यक चर्चा के लिए मंच भी मुहैया करवा दिया है । इस बार भी पुस्तक मेले में सैकड़ों किताबें रिलीज हो रही हैं । इन दिनों फेसबुक पर इन साहित्यक कार्यक्रमों की जानकारी की बाढ आई हुई है । हर तरह के लेखकों की किताबें रिलीज हो रही हैं और तो और एक प्रकाशक ने तो फेसबुक पर प्रकाशित कविताओं का एक संग्रह ही प्रकाशित कर दिया है । इस संग्रह में फेसबुक पर सक्रिय सौ कवियों की कविताओं हैं । हर तरह के आयोजन में कवि और कविता सबसे ज्यादा जगह छेक लेते हैं । कविता है ही ऐसी विधा जो कम स्थान में समाती ही नहीं ।
इस बार पुस्तक मेले में कई युवा लेखकों की किताबों के अलावा कुछ आत्मकथाएं भी प्रकाशित हो रही हैं जिसका हिंदी के पाठकों को इंतजार था । जैसे वाणी प्रकाशन से पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह और सिने सुपर स्टार दिलीप कुमार की आत्मकथा भी प्रकाश्य है । इसी तरह से प्रभात प्रकाशन से पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम मेरी जीवन यात्रा प्रकाशित हो रही है । इस बार भी पुस्तक मेले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को केंद्र में रखकर कई किताबें प्रकाशित हो रही है । इस बार पुस्तक मेले में वाणी प्रकाशन एक बेहद नई पहल कर रहा है । वेलेंटाइन डे पर लाल गुलाब देने की वर्षों पुरानी परंपरा से मुठभेड़ करते हुए हे बसंत नाम से एक ऑन लाइन रोमांस फेस्टिवल शुरू हो रहा है । इसका टैग लाइव है वैलेंटाइन पर गुलाब नहीं किताब । यह एक बेहतरीन पहल है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए । अगर उपहार में किताब देने की परंपरा शुरू हो गई तो हिंदी समाज में घट रही पुस्तक संस्कृति को एक जीवनदान मिलेगा । पाठकों को किताबों को ओर लाने में सफलता मिल सकेगी । अगर इस योजना को जनता ने स्वीकार कर लिया तो किताबों के जो संस्करण घटते-घटते तीन सौ तक आ गए हैं उसको बढ़ाने में भी मदद मिलेगी । लेकिन यह काम एक दो महीनों का नहीं है इस आंदोलन को महीनों नहीं सालों तक लगातार चलाते रहने की आवश्यकता है । अगर ऐसा हो सकता है तो हम अपनी आनेवाली पीढ़ी को एक बेहतर समाज दे सकेंगे जहां पुस्तकों का एक अहम स्थान होगा ।

Saturday, February 14, 2015

रश्दी की कुंठा, निशाने पर नेमाडे

सलमान रश्दी, विश्व प्रसिद्ध लेखक ।  अपने लेखन, व्यक्तित्व और बयानों से विवादों में बने रहने वाले । ये वही सलमान रश्दी हैं जिनकी किताब सैटेनिक वर्सेस के खिलाफ चौदह फरवरी उन्नीस सौ नवासी को ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला खोमैनी ने मौत का फतवा जारी किया था जिसके बाद वो वर्षों तक निर्वासन में रहे । इसके पहले उन्नीस सौ चौरासी में सलमान रश्दी ने ज़ॉर्ज ऑरवेल की अवधारणा को निगेट करते हुए विवादित लेख लिखा था । ऑरवेल लेखकों के राजनीति से अलग रहने की वकालत करते थे लेकिन सलमान ने इस अवधारणा को खारिज करते हुए कहा था लेखन को राजनीति से मिलकर चलना होगा । हलांकि सलमान ने उस वक्त भी लेखन और राजनीति के मेल को घटिया करार दिया था लेकिन उसको जरूरी भी बताया था । इस पर भी उन दिनों काफी विवाद हुआ था । इसी वक्त लगभग सलमान ने अमेरिकी उपन्यासकार मैरियन विगिन्स से शादी की जो खासी विवादास्पद रही । उस दौर के अमेरिका के अखबार इस विवाद से रंगे रहते थे । अब ताजा विवाद उनके एक ट्वीट को लेकर पैदा हो गया है । उन्होंने अपने एक ट्वीट में लिखा- ग्रम्पी ओल्ड बास्टर्ड, जस्ट टेक योर प्राइज एंड से थैंक यू नाइसली । आई डाउट यू हैव इवन रेड द वर्क यू अटैक । ये विस्फोटक ट्वीट उन्होंने किया था इस बार के ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मराठी के वरिष्ठ लेखक भालचंद नेमाडे के बारे में । दरअसल नेमाडे ने एक कार्यक्रम में सलमान रश्दी की किताब मिडनाइट चिल्ड्रन को औसत साहित्यक कृति करार दिया था । नेमाडे ने कहा था कि सलमान रश्दी और वी एस नायपॉल पश्चिम के हाथों खेल रहे हैं । अपने उस बयान में नेमाडे ने अंग्रेजी के खिलाफ बहुत कुछ कहा था और उनके अपने तर्क थे । सलमान रश्दी को नेमाडे की बातें नागवार गुजरीं और उन्होंने भाषिक मर्यादा को ताक पर रखते हुए गाली गलौच की भाषा में ट्वीट किया । सलमान रश्दी को शायद पता हो कि नेमाडे अंग्रेजी के ही शिक्षक रहे हैं और लंदन के मशहूर स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में शिक्षक रह चुके हैं । तो सलमान रश्दी का ये संदेह बेकार है कि उन्होंने बगैर पढ़े उनके साहित्य को औसत कह दिया । भालचंद नेमाडे ने यह भी बताया था कि क्यों सलमान और नायपाल की रचनाएं पश्चिम के इशारे पर लिखी जा रही हैं । उनके अपने तर्क हैं, रश्दी को बजाए गाली गलौच की भाषा इस्तेमाल करने के तर्कों के आधार पर नेमाडे की प्रस्थापना को काटना चाहिए था ।
अब अगर सलमान रश्दी के लेखन की बात की जाए तो बहुत हद तक नेमाडे सही भी कह रहे हैं । पिछले दिनों उनकी किताब जोसेफ एंटन अ मेमोऑर प्रकाशित हुई थी । साढे छह सौ पन्नों के इस ग्रंथ में बोरियत की हद तक विस्तार दिया है । इसको खारिज नहीं किया जा सकता लेकिन बेहद ऊबाऊ तो कहा ही जा सकता है । चंद दिलचस्प अंशों को छोड़कर जहां वो अपने निर्वासन के दिनों का वर्णन करते हैं । पलायन इस संस्मरणात्नमक किताब की सेंट्रल थीम है लेकिन वो पाठकों को पलायन से नहीं रोक पाते हैं । इसी वजह से इस किताब को लेकर कहीं कोई उत्साह नहीं दिखा । निर्वासन के दौरान ही लिखा उनका उपन्यास द मूरस लास्ट साय भी कोई खास प्रभाव पैदा नहीं कर पाया था और लंदन और अमेरिका के अखबारों में उसकी विध्वंसात्मक समीक्षाएं प्रकाशित हुई थी । नेमाडे ने पश्चिम के हाथों खेलने का जो आरोप लगाया है वो कोई नया आरोप नहीं है तो इससे अब क्यों तिलमिला रहे हैं यह समझ से परे हैं । रही बात वीएस नायपाल की तो उनको नोबेल पुरस्कार अवश्य मिला है लेकिन उनके बाद के लेखन में खास किस्म का ह्रास देखने को मिलता है । जो रचनात्मक चमक मिस्टिक मैसअर, सफरेज ऑफ अलवीरा या मायगुल स्ट्रीट में दिखाई देती है वो एन एरिया ऑफ डार्कनेस, इंडिया अ वूंडेड सिविलाइजेशन या इंडिया अ मिलियन म्यूटिनी नाऊ तक आते आते निस्तेज होने लगती है । उम्र बढ़ने के साथ साथ नायपाल के लेखन में एक ठहराव सा आ गया और विचारों में जड़ता भी । इस्लामिक जगत के जीवन का उन्होंने बहुत ही विवादास्पद चित्र खींचा है । बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने को जिस तरह से उन्होंने परोक्ष रूप से सही ठहराया वो भी लेखकों के सामने है । गांधी के बारे में वो लिखते हैं कि उनमें किसी तरह की पूर्णता थी ही नहीं, उनका व्यक्तित्व यहां वहां से उटाए टुकड़ों ने निर्मित हुआ था । बिनावो के बारे मे लिखते हैं कि वो एक मूर्ख शख्सियत थे जिन्होंने पचास के दशक में गांधी की नकल करने की कोशिश की । नीरद सी चौधरी को वो शारिरिक और मानसिक दोनों दृष्टियों से बौना करार दे चुके हैं । तभी तो विलियम डेलरिम्पल ने लिखा है कि एक लेखक के रूप में नायपाल का अंत हो चुका है जितना ज्यादा वो अपने अनुभवों के बारे में लिखते हैं उनकी कलम उतनी ही नपुंसक होती जाती है ।
दरअसल अगर हम देखें तो सलमान रश्दी की नेमाडे को लेकर जो भड़ास है वो भारतीय लेखकों का वैश्विक परिदृश्य पर बढ़ते दबदबे की परिणति है । पिछले लगभग एक दशक से जिस तरह से भारतीय लेखकों ने अंग्रेजी साहित्य में अपनी धमक कायम की उससे सलमान और नायपाल के अलावा कुछ अंग्रेजी लेखक घबराए हुए हैं । उनकी पूछ और लोकप्रियता दोनों कम होने लगी है । जिस तरह से एशियाई लेखकों को पुलित्जर और बुकर मिलने लगे उसपर अंग्रेजी लेखक एलेक्स ब्राउन ने कहा भी था कि हमें डर लगने लगा है । चंद वर्षो पहले तक भारत के बारे में अंग्रेजी लेखक संपेरों के देश से लेकर कुछ भी कह जाते थे लेकिन बच जाते थे । अब उनको जवाब मिलने लगा है । ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब हॉवर्ड के प्रोफेसर और इतिहासकार नायल फर्ग्यूसन की किताब- सिविलाइजेशन, दे वेस्ट एंड द रेस्ट छपी थी तो पंकज मिश्रा ने लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में उसकी विध्वंसात्मकक समीझा लिखी थी । पंकज ने साफ साफ लेखक से पूछा था कि क्या महात्मा गांधी के बिना पिछली सदी की सभ्यता का मूल्यांकन संभव है । क्या चीन की उत्पादन क्षमता और भारत के टैक्नोक्रैट के योगदान को नजरअंदाज किया जा सकता है । तिलमिलाए नायल ने पत्रिका को लिखे अपने पत्र में कहा था कि पंकज मिश्रा ने उनके लेखन की तुलना अमेरिकी नस्लवादी सिद्धांतकार लॉथ्रॉप स्टोडार्ड की किताब द राइजिंग टाइड ऑफ कलर अगेंस्ट व्हाइट सुप्रीमेसी से की है । उन्होंन मिश्रा को कोर्ट आदि जाने की धमकी भी दी थी । लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में कई अंकों तक ये विवाद चला था लेकिन पंकज मिश्रा डटे रहे थे और एलआरबी ने भी पंकज का ही समर्थन किया था । इस तरह के वाकयों से साफ है कि पश्चिम में रह रहे लेखकों को यह गंवारा नहीं है कि उनके अलावा कोई और लेखक सामने आए या उनके लेखन पर कोई सवाल उठाए
अगर हम विस्तार से वैश्विक अंग्रेजी साहित्य के परिवेश को देखें तो सलमान रश्दी के फ्रस्टेशन की वजह साफ हो जाती है। सलमान भारत आते जाते रहते हैं, यहीं पैदा भी हुए हैं, उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रतिष्ठा का भी ज्ञान होगा । उन्हें चोट इस बात से पहुंची होगी कि इतने सम्मानित पुरस्कार से नवाजा गया लेखक उनके लेखन को औसत मानता है । इसी परेशानी में वो मर्यादा भूल गए और ट्वीट पर अपनी कुंठा को उड़ेल दिया । सलमान रश्दी ने अपने लेखन के नहीं पढ़े जाने की बात की है उसमें मैं सिर्फ इतना जोड़ना चाहूंगा कि क्या सलमान ने नेमाडे के साहित्य को पढ़ा है । अगर नहीं तो पढ़ लें तो उन्हें एहसास हो जाएगा कि नेमाडे कितना सही कह रहे थे । आग्रह सिर्प इतना है कि इस तरह की भाषा से उनकी छवि दरकती ही है मजबूत नहीं होती।   

Tuesday, February 10, 2015

गंभीर विमर्शों का महोत्सव

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को मशहूर करने में विवादों की बड़ी भूमिका रही है चाहे वो समाजशास्त्री आशीष नंदी के पिछड़ों पर दिए गए बयान और आशुतोष के प्रतिवाद से उपजा विवाद हो या फिर सलमान रश्दी के जयपुर आने को लेकर मचा घमासान हो उत्तर प्रदेश मे जब विधानसभा चुनाव होनेवाले थे उसी वक्त जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में सलमान रश्दी आमंत्रित थे उस वक्त सियासी दलों ने सलमान रश्दी की भागीदारी और भारत आने को भुनाने की कोशिश की थी मामला इतना तूल पकड़ गया था कि सलमान रश्दी का भारत दौरा रद्द करना पड़ा था उस विवाद की छाया लंबे समय तक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को प्रसिद्धि दिलाती रही पिछले साल अमेरिकी उपन्यासकार जोनाथन फ्रेंजन ने यह कहकर आयोजकों को झटका दिया था कि - जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसी जगहें सच्चे लेखकों के लिए खतरनाक है, वे ऐसी जगहों से बीमार और लाचार होकर घर लौटते हैं दरअसल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में साहित्य  के साथ साथ बहुधा राजनीतिक टिप्पणियां भी होती रही हैं पिछले साल नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन ने आम आदमी पार्टी के उभार को भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती के तौर पर पेश किया था वहीं अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के नेत्रहीन लेखक वेद मेहता ने नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधते हुए कहा था कि उनका पीएम बनना देश के लिए घातक हो सकता है साहित्य से व्यावसायिकता की राह पर चल पड़े जयपुर साहित्य महोत्सव को तमाम लटके झटकों के बावजूद इस बात का श्रेय तो दिया ही जाना चाहिए कि इसने पूरे देश में साहित्यक उत्सवों की एक संस्कृति विकसित की है जिससे देश में एक साहित्यक माहौल बनने में मदद मिली है
इस बार जयपुर लिटरेचर फस्टिवल बगैर किसी विवाद के खत्म हुआ दो साल पहले इस फेस्टिवल की आयोजक नमिता गोखले ने मुझसे कहा था कि उनकी विवादों में कोई रुति नहीं है क्योंकि इससे गंभीर विमर्श नेपथ्य में चला जाता है वो लगातार हो रहे विवादों से चिंतित भी थी इस बार उनरी यह चिंता दूर हो गई और जनवरी में खत्म हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में साहित्य की कई विधाओं पर जमकर विमर्श हुआ और लेखकों और साहित्य प्रेमियों की भागीदारी रही हिंदी को भी इस बार मेले में काफी प्रमुखता मिली फेस्टिवल पहले दिन हिंदी के वरिष्ठ लेखक विनोद कुमार शुक्ल का सत्र हुआ जिसमें कविता को लेकर गंभीर बातें हुई वैसे भी इन दिनों हिंदी कविता को लेकर काफी सवाल खड़े हो रहे हैं भारी मात्रा में लिखी जा रही हिंदी कविता की गुणवत्ता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। आलोचकों का कहना है कि इस वक्त हिंदी में हजार से ज्यादा कवि सक्रिय हैं कविता पर आलोचना की इस जाले को साफ करने में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हुए विमर्श आनेवाले दिनों में मददगार साबित होंगे हिंदी के वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल ने कहा कि कविता कुंए का पानी होती हैजिसकी ताजगी हमेशा बरकरार रहती है उनका मानना था कि बेशक कुंए का पानी एक जगह जमा रहता है लेकिन जितनी बार उससे पानी बाहर निकालो तो वो पीने लायक और ताजा होता है उन्हें कुंए के पानी की इसी ताजगी से कविता की तुलना करत हुए कहा कि वो भी हर वक्त नई ही रहती है फिल्म गीतकार प्रसून जोशी ने भी कविता को लेकर अपनी राय प्रकट की प्रसून के मुताबिक कविताएं मनोरंजन मात्र के लिए नहीं होती हैं उसके अंदर हमेशा कोई ना कोई संदेश छुपा होता है जो समाज के लिए हितकारी होता है। उन्होंने कविता को सम्मान का हकदार भी बताया और कहा कि वो चाहे किसी भी जुबान में लिखी जाए उसको इज्जत बख्शनी चाहिए इस सत्र में उन्होंने कविता ऐऔर संवाद के फर्क पर भी विस्तार से प्रकाश डाला गीतकार जावेद अख्तर ने भी गीतों और उसके चित्रण पर अपनी बात रखी थी उनका मानना था कि गीत और उसका चित्रण दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और एक के बगैर दूसरे की कल्पना भी बेमानी है अगर गीतों का चित्रण प्रभावी नहीं है तो वो प्रभावोत्पादक नहीं हो सकता है हिंदी कविता के बारे में ये बातें अच्छी लग सकती हैं लेकिन जिस तरह से कविता का स्तर लगातार गिर रहा है उसपर इन कवियों ने कोई बात वहीं की कविता के जनता से दूर जाने को लेकर और उसके लगातार बदलते फॉर्म पर भी गहन विमर्श होना चाहिए
इसके अलावा एक बेहद दिलचस्प सत्र था स्त्री शक्ति पर । इसको संचालित कर रहे थे संपादक और लेखक ओम थानवी और प्रतिभागी थीं लता शर्मा, अंशु और मृदुला बिहारी । यह सत्र शुरुआत में थोड़ा उबाऊ था पर संचालक के सवालों और सत्र में हिस्सा ले रहे लोगों ने इसे दिलचस्प बना दिया । यह भी दिलचस्प संयोग था कि चर्चा में शामिल सभी का संबंध राजस्थान से था । इस चर्चा में हिस्सा लेते हुए मृदुला बिहारी ने साफ कहा कि इन दिनों स्त्री विमर्श के नाम पर देह विमर्श हो रहा है और कुथ नई लेखिकाएं अपनी रचनाओं में देह का वर्णन करती हैं जो कि काफी अश्लील होता है । इस चर्चा में ही स्वतंत्रता और स्वाधीनता पर भी बहस हुई लेकिन वहां मौजूद युवा साहित्यप्रेमियों ने लेखिकाओं को घेर लिया । बहस में हस्तक्षेप करते हुए कहानीकार गीताश्री ने मृदुला बिहारी को कठघरे में खड़ा किया और उनसे अश्लील लेखन करनेवाली लेखिकाओं के नाम पूछे तो सभागार में सन्नाटा छा गया । मृदुला बिहारी सफाई देते इलके पहले ओम थानवी ने एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा कर दिया जो कि हिंदी के समूल महिला लेखन पर प्रश्नचिन्ह लगाता है । ओम थानवी ने कहा कि सती प्रथा राजस्थान के चेहरे पर एक दाग है लेकिन इस कुरीति पर स्त्री लेखन ने अबतक आपत्ति दर्ज क्यों नहीं करवाई । स्त्री विमर्श की दुंदुभि बजानेवाली लेखिकाओं को यह सवाल क्यों नहीं मथता है । यह हिंदी साहित्य के स्त्री विमर्श पर एक बड़ा सवाल है ।
इसी तरह से एक दिलचस्प सत्र था सेवन डेडली सिन्स ऑफ ऑवर टाइम । सत्र में हिस्सा ले रहे थे अशोक वाजपेयी, इस्थर डेविड और एमियर मैकब्राइड । इस सत्र में होमी भाभा ने चर्चा में हिस्सा ले रहे लेखकों से उनके पापों के बारे में पूछ लिया । अपनी वाकपटुता के लिए मशहूर अशोक वाजपेयी ने साफ कहा कि दूसरों को पीड़ा पहुंचाने से बड़ा पाप कोई नहीं है । इस सत्र में कई मनोरंजक अवधारणाएं भी सामने आई । एक और सत्र में पौराणिक धर्मग्रंथों और पैराणिक मिथकीय चरित्रों पर लिखनेवाले देवदत्त पटनायक ने भी आम जीवन में मिथत की भूमिका पर अपने विचार रखे । सच क्या है जैसे विराटसवाल से मुठभेड़ करते हुए रचनायक ने कहा कि एक सच वो होता है जिसे देखा या नापा जा सकता है दूसरा वह होता है जिसे महसूस किया जाता है । उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि विज्ञान ये तो बता सकता है कि आप दुनिया में कैसे आए लेकिन आप क्यों आए इस सवाल के सामने जाकर विज्ञान बेबस हो जाता है । दरअसल सत्रहवीं अठारहवीं शताब्दी यानि बुद्धिवाद के आरंभिक युग में मिथकों को कपोल कल्पना माना जाता था परंतु बदलते समय के साथ इसको इतिहास या विज्ञान लेखन के पूरक के तौर पर देखा जाने लगा । साहित्य में कई बार ख्यात और अख्यात लोक मिथक का जबरदस्त प्रयोग हुआ है । डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी अपने लेखन में मिथकों और लोक ख्यात संकेतों का प्रयोग किया है ।

सोनिया गांधी की फिक्शनालाइज्ड जीवनी लेखक जेवियर मोरो, फ्लोरेंस नोविल और मधु त्रेहान का सत्र भी विचारोत्तेजक रहा । मोरो ने कहा कि उन्हें यह बहुत रहस्यमयी लगा था कि कैसे इटली की एक गांव की लड़की दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे ताकतवर महिला बन गई । इस सत्र में जीवनी लेखन से लेकर मानवीय संबंधों की रचनाओं पर विमर्श हुआ जिसके केंद्र में नोविल की रचना अटैचमेंट रही । इस रचना में एक युवा लड़की और उसके प्रोफेसर के बीच के प्रेम संबंध को उकेरा गया है । एक और बेहद महत्वपूर्ण सत्र रहा पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर और मिहिर शर्मा की भागीदारी वाला जिसे अपनी विद्वतापूर्ण टिप्पणियों से युवा अंग्रेजी लेखिका अमृता त्रिपाठी ने नई ऊंचाई दी । विवादों की छाया से दूर इस बार का जयपुर साहित्य महोत्सव मीना बाजार सरीखा तो रहा लेकिन साहित्य पर गंभीर विमर्श ने इस मीना बाजार को एक बार फिर से नमिता गोखले के सपने को सच किया ।