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Thursday, April 2, 2015

अहम नहीं अहमियत की लड़ाई

दिल्ली में आम आदमी पार्टी में मचे सिसायी घमासान और प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, प्रोफेसर आनंद कुमार और अजीत झा को राष्ट्रीय कार्यपरिषद से बाहर करने के बाद अचानक से राजनीतिक टिप्पणियों और टिप्पणीकारों की बाढ आ गई है । आरोपों प्रत्यारोपों के बीच कई राजनीतिक विश्लेषक इस बात की डफली बजा रहे हैं कि आंदोलन ने एक बार फिर से जनता को ठग लिया । अलग तरह की राजनीति का दावा करनेवाले केजरीवाल भी वैसे ही निकले । आमआदमी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है और जो केजरी कहे वही सही जैसे जुमले भी सुनने को मिले । कई राजनीतिक विश्लेषकों को तो यह कहते हुए भी सुना गया कि केजरीवाल ने जिस तरह से जनता का भरोसा तोड़ा है उसने एक बार फिर से भारत में जनांदोलन के उभार की संभावनाओं को खत्म कर दिया है । उनके तर्क हैं कि उन्नीस सौ सतहत्तर में जेपी आंदोलन के बाद बनी सरकार ने जनता का भरोसा तोड़ा । अपने तर्क के समर्थन में वो जनता सरकार के पतन को गिनाते हैं और कहते हैं कि मुरारजी देसाई की सरकार ढाई साल से ज्यादा नहीं चल पाई । उस वक्त भी जनता पार्टी के नेताओं की महात्वाकांक्षाएं इतनी बढ़ गई थीं कि पार्टी और सरकार उसका बोझ नहीं संभाल पाई । इसके अलावा यह भी याद दिलाया जा रहा है कि उन्नीस सौ नवासी में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन कर जनता को एकजुट कर सरकार बनानेवाले विश्वनाथ प्रताप सिंह भी सरकार नहीं चला पाए और उनके भी नेताओं की महात्वाकांक्षाओं के टकराव के चलते जनता दल के साथ सरकार भी डूब गई । इन दोनों ऐतिहासिक राजनीतिक घटनाओं के आलोक में अब आम आदमी पार्टी के घटनाक्रम की तुलना की जा रही है । इन्हीं तर्कों के आधार पर अरविंद केजरीवाल की नैतिकता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं । कल तक जो पॉलिटिकल पंडित योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के खिलाफ बोलते नहीं थक रहे थे आज वही उनसे हमदर्दी दिखाने में लगे हैं । कुछ कुछ वैसे ही जैसे करीब डेढ दो साल पहले जब बीजेपी में नरेन्द्र मोदी का उदय हो रहा था तो कुछ राजनीतिक पंडितों को आडवाणी अच्छे लगने लगे थे । जबकि वही लोग नब्बे के दशक में आडवाणी को सांप्रदायिक या हार्डलाइनर आदि आदि कहते नहीं थकते थे । दरअसल हमारे राजनीतिक विश्लेषकों को इतिहास बोध थोड़ा कम है वो अपनी राय तात्कालिकता के आधार पर बनाते हैं और फिर उसको अपने लेखों में पिरोकर पेश कर देते हैं । टेलीविजन पर बैठनेवाले विशेषज्ञों को तो कुछ भी कहकर बच निकल जाने की छूट होती है । राजनीति विश्लेषकों को याद दिलाना जरूरी है कि उपरोक्त दोनों उदाहरण आम आदमी पार्टी के घटनाक्रम से मेल नहीं खाते हैं । जनता पार्टी और जनता दल की सरकारें दोनों बेमेल संभावनाओं का संगम था, जबकि आम आदमी पार्टी एक विचार की पार्टी है । जेपी की शख्सियत ने भले ही सबको एक छतरी के नीचे ला खड़ा किया था लेकिन नेताओं के विचारधारा की दीवार टूट नहीं पाई थी । विचारधारा की उसी दीवार, मुरारजी देसाई की जिद और जेपी को लेकर उनके मन में नफरत, जनता पार्टी के प्रयोग को विफल कर रही थी। दरअसल जेपी से मुरारजी की चिढ़ पुरानी थी । 27 अगस्त उन्नीस सौ अठहत्तर में रविवार पत्रिका में संतोष भारतीय ने इसपर विस्तार से लिखा है और बताया है कि कैसे गुजरात छात्र आंदोलन के दौरान जब जेपी की लोकप्रियता और स्विीकार्यता बढ़ी को मुरारजी ने उसको गिराने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी । एक बार तो मुरार जी के बयान से खिन्न होकर जेपी ने गुजरात जाने से मना कर दिया था तब नारायणभाई देसाई ने जेपी को समझाबुझाकर वहां ले गए थे । इस संदर्भ में यह बताना आवश्यक है कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री शुमाकर जब उस वक्त के प्रधानमंत्री मुरारजी देसाई से बात कर रहे थे और बातचीत के क्रम में जब उन्होंने जेपी की तारीफ की तो मुरारजी देसाई भड़क गए और उनकी बात को काटते हुए कहा था कि ही हैज डन नथिंग ( उन्होंने कुछ नहीं किया ) । इन प्रसंगों से साफ है कि मुरारजी देसाई के मन जेपी को लेकर कितनी घृणा थी । जेपी को अंधेरे में रखकर मुरार जी भाई को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया था, यह एक ऐतिसाहिसक तथ्य है । बावजूद इसके जेपी, मुरारजी के खिलाफ लगभग दो साल तक खामोश रहे थे । यह मुरारजी देसाई की काबिलियत (?)थी कि जिस इंदिरा गांधी को जनता ने सतहत्तर में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था उसी इंदिरा को ढाई साल बाद गाजे बाजे के साथ प्रधानमंत्री की गद्दी पर बिठा दिया । उदाहरण अगर देना ही हो तो मुरार जी देसाई की चिढ़ की समानता को देखने की कोशिश करनी चाहिेए । दूसरा उदाहरण विश्वनाथ प्रताप सिंह के वक्त का दिया जा रहा है कि उन्नीस सो नवासी में जनता ने विश्वनाथ प्रताप सिंह में जो भरोसा दिखाया था वह भी टूटा । सिंह की सरकार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई ।  यहां उदाहरण तो ठीक दिया जा रहा है लेकिन संदर्भ गलत है । विश्वनाथ प्रताप सिंह के दौर को भी अगर याद करें तो उस वक्त भी विपक्ष में ऐसे नेताओं की भरमार थी जिनके पास वैकल्पिक राजनीति का नक्शा हर वक्त मौजूद रहता था । विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के वक्त भी सिद्धांतवादी नेता का चोला ओढ़नेवाले उनकी खिंचाई किया करते थे । उस वक्त भी यह साबित हुआ था कि राजनीति सैद्धांतिकी से नहीं सादगी और ईमानदारी से चलती है । विश्वनाथ प्रताप सिंह कूी सरकार अपने अंतर्द्वदों से गिरी थी लेकिन केजीवाल सरकार के कोई अंतर्दवंद्व नहीं है । किसी और दल के समर्थन की वैसाखी पर वो नहीं टिकी हुई है ।  जिस तरह से विश्वनाथ प्रताप सिंह के पास सादगी और ईमानदारी का नैतिक बल था उसी तरह की ईमानदारी और सादगी को देखते हुए दिल्ली की जनता ने अरविंद केजरीवाल को सरकार चलाने के लिए प्रचंड बहुमत दिया । आजादी के बाद के लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे बड़ी जीत मिली है केजरीवाल को । यहां यह समझने की जरूरत है दिल्ली की जनता ने आम आदमी पार्टी को वोट नहीं दिया, दिल्ली की जनता ने योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, शांति भूषण के चेहरे पर वोट नहीं दिया। दिल्ली की जनता ने भरोसा दिखाया अरविंद केजरीवाल पर और उनके दिखाए सपनों पर । अब पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की बात करके, पारदर्शिता की बात करके दरअसल कुछ लोग पार्टी में अपनी अहमियत साबित करने में जुटे हैं । इसको अहम की नहीं अहमियत की लड़ाई कहा जा सकता है । योगेन्द्र यादव तो मंथन के बाद निकले विष के बाद भी अमृत की आशा कर रहे हैं । प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव की जोड़ी के बयानों से अरविंद केजरीवाल की छवि पर कोई फर्क पड़ेगा इसमें संदेह है । दिल्ली की जनता को इससे कतई मतलब नहीं है कि पार्टी का राष्ट्रीय संयोजक कौन है या कौन होगा । उसके लिए केजरीवाल की अहमियत है और उसकी नजर केजरीवाल के वादों और उनके कामों पर रहेगी । जिस तरह से केजरीवाल ने बिजली और पानी पर आनन फानन में अपने वादे को पूरा किया उसको चलाए रखने की चुनौती है । जनता की अपेक्षा है कि दिल्ली भ्रष्टाचार मुक्त हो और यहां महिलाएं बेखौफ होकर बाहर निकल सकें । चुनावों में केजरीवाल ने पूरी दिल्ली में सीसीटीवी लगाने और बसों में मार्शल तैनात करने का वादा किया था उस वादे को पूरा करने का वक्त है । जून में जब सरकार अपना पूर्ण बजट पेश करेगी तो चुनाव के दौरान किए गए वादों पर उनके इरादों का पता चलेगा ।
करीब तीन साल पुरानी पार्टी पर यह आरोप लग रहा है कि वहां आंतरिक लोकतंत्र नहीं है और विरोध के स्वर को दबा दिया जाता है । दरअसल आंतरिक लोकतंत्र बहुत ही सब्जेक्टिव है । क्या अराजकता को आंतरिक लोकतंत्र माना जा सकता है । वोटिंग से फैसला लेने से बेहतर आंतरिक लोकतंत्र का उदाहरण और क्या हो सकता है । शनिवार को पार्टी के नेशनल काउंसिल से जब प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, आनंद कुमार और अजीकत झा को निकालने का फैसला लिया गया तब भी वोटिंग की बात सामने आई । यह अलहदा है कि योगेन्द्र यादव ने बाहर निकलकर लोकतंत्र की हत्या का जुमला उछाला । पार्टी के दोनों खेमों से जिस तरह की बात सामने आई वह अच्छा संदेश नहीं दे रही है लेकिन जिस तरह से अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के नेताओं के तरह तरह के स्टिंग लाकर भ्रम फैलाने की कोशिश हुई वह भी अच्छा संकेत नहीं है । यह राजनीति का निम्नतम स्तर है।  आम आदमी पार्टी से चारों को निकालने के बाद अब केजरीवाल सरकार के सामने दिल्ली को बेहतर बनाने की जबरदस्त चुनौती है । उनके सामने शिक्षा को दुरुस्त करने से लेकर राशन की दुकानों और वृद्धा और विधवा पेंशन में घपले को रोकने का भी काम है । दिल्ली में इस तरह के घपलों का जबरदस्त रैकेट सालों से चल रहा है लेकिन उसपर लगाम नहीं लगाया जा सका है । दिल्ली के स्कूलों में जिस तरह से एडमिशन के वक्त मारामारी होती है उसके मद्देजर सरकारी स्कूलों की संख्या और वहां पढाई की गुणवत्ता बढ़ाना केजरीवाल सरकार के सामने इतनी बड़ी चुनौती है जिसपर फौरन ध्यान देने की जरूरत है । दरअसल अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की जनता की अपेक्षाएं इतनी ज्यादा बढ़ा दी हैं कि वो किसी भी सरकार के लिए परेशानी का सबब हो सकती है । उसको पूरा करने के लिए, गरीबों और मेहनतकशों में जिस तरह की नई आशा का संचार हुआ है उसको पूरा करने के लिए अगले कम से कम दो साल सारे संसाधन गरीबों के हितों में लगाने होंगे । केजरीवाल ने राजनीति की जिस काली कोठरी में कदम रखा है उससे बेदाग बचकर निकल जाना भी बड़ी चुनौती है । राजनीति में विचारधारा के संघर्ष का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन अंत सिर्फ एक वाकए से करना चाहूंगा जो खुद बहुत कुछ कह जाती है । शनिवार को ही टैक्सी से घर लौट रहा था । ड्राइवर से पूछा कि दिल्ली में सरकार कैसी चल रही है और प्रशांत और योगेन्द्र के मसले पर मचे घमासान का क्या असर होगा तो उसने कहा कि सर ये बड़ी बड़ी बातें आपलोग जानो हमें तो सिर्फ ये चाहिए कि पुलिसवाला उगाही ना करे और अपनी कमाई से जब हम दाल रोटी सब्जी खरीदने जाएं तो वो खरीद सकें । यही अपेक्षा केजरीवाल की चुनौती है । 


1 comment:

Manoj Kumar said...

सही लिखा आपने !