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Monday, May 2, 2016

हिसाब चुकाने की पवार की सियासत

बीजेपी को विधानसभा चुनाव में पटखनी देने के बाद नीतीश कुमार बुलंद हौसले के साथ बिहार की गद्दी पर सत्तासीन हुए । बिहार में चंद महीनों तक ही शासन करने के बाद अब उनकी महात्वाकांक्षा को पंख लग गए हैं । पहले तो उन्होंने संघ मुक्त भारत का नारा देकर तमाम कथित सेक्युलर पार्टी को अपनी ओर खींचने का दांव चला । अब हाल ही में इस तरह के संकेत दे दिए कि दो हजार बीस के विधानसभा चुनाव में उनकी रुचि नहीं है । संघ मुक्त भारत का ख्वाब और अगले विधानसभा चुनाव में अरुचि को छोटी पार्टियों के साथ विलय की बातचीत की पृष्ठभूमि में देखें तो एक तस्वीर नजर आती है । ये तस्वीर है राष्ट्रीय राजनीति में खुद की भूमिका को स्पष्ट करने की । नीतीश कुमार गैर बीजेपी दलों के साथ आने की वकालत करते हैं । ये पूर्व के तीसरे मोर्चे की असफल कोशिशों से इतर कोशिश है । बीजेपी के खिलाफ संभावित मोर्च में वो कांग्रेस की भूमिका भी देखते हैं । पहले तीसरे मोर्च को लेकर जितने भी प्रयोग हुए वो सारे लोहिया के सिद्धातों के आधार पर बीजेपी और कांग्रेस से समान दूरी रखने के सिद्धांत पर बने थे । खुद को लोहिया का अनुयायी कहनेवाले नीतीश कुमार अब कांग्रेस के साथ ना केवल बिहार में सरकार चला रहे हैं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी इस प्रयोग को आगे बढ़ाना चाहते हैं । इस वक्त बीजेपी की बढ़ती ताकत को लेकर लगभग हर क्षेत्रीय दल खुद को हाशिए पर महसूस कर रहे हैं और खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए बयानों के दांव चल रहे हैं । बीजेपी के अलावा अपने पुराने राजनीतिक प्रतिद्वद्यों को भी सेट करने का खेल खेला जा रहा है ।
नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के सुप्रीमो शरद पवार राजनीति के बेहद मंजे हुए खिलाड़ी हैं । महाराष्ट्र की राजनीति में दस सालों तक सत्ता में रहने के बाद इन दिनों विपक्ष में हैं । केंद्र की राजनीति में उनके दल की कोई भूमिका फिलहाल है नहीं । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बारामती बुलाने और अपने पचहत्तरवें जन्मदिन पर दिल्ली के विज्ञान भवन में तमाम राजनीतिक दलों को एक मंच पर इकट्ठा करने के बावजूद वो सियासत में अप्रसांगिक हैं । कांग्रेस को लेकर उनके मन में एक फांस अब भी है, उनको लगता है कि कांग्रेस ने उनके साथ न्याय नहीं किया । कांग्रेस में उनको उनके कद के हिसाब से पद नहीं मिला । तभी तो सोनिया गांधी ने जब पार्टी की कमान संभाली तो उन्होंने विदेशी का मुद्दा उठाकर पी ए संगमा और तारिक अनवर के साथ कांग्रेस का दामन छोड़कर अपनी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बना ली । ये तो सियासत की मजबूरी कहिए कि जिस सोनिया गांधी के मुद्दे पर उन्होंने कांग्रेस छोड़ी थी उसके साथ ही महाराष्ट्र में जूनियर पार्टनर के तौर पर सरकार चलानी पड़ी । सियासत की मजबूरी अपनी जगह है लेकिन फांस तो अब भी अटकी हुई है । अब उनको नीतीश की महात्वाकांक्षा में संभावना नजर आ रही है । उन्होंने हाल ही में कहा कि अगर विपक्षी दल एक साथ आते हैं नीतीश कुमार सबसे अधिक साखवाले चेहरा हो सकते हैं । इसके साथ ही पवार ने ये भी जोड़ा कि नीतीश कुमार जैसी साख वाला नेता कांग्रेस के पास नहीं है । शरद पवार ने कहा कि अगर बीजेपी के खिलाफ कोई मोर्चा बनता है तो उसकी अगुवाई करनेवालों में नीतीश का नाम नंबर वन पर है । शरद पवार ये मानते हैं कि इस तरह के किसी भी मोर्चे में कांग्रेस की बड़ी भूमिका हो सकती है । वो ये तो मानते हैं कि समय के साथ सोनिया गांधी की ना केवल स्वीकार्यता बढ़ी है बल्कि वो भी अकोमोडेटिव हुई हैं । शरद पवार के मुताबिक नीतीश कुमार सबको जोड़नेवाले शख्स के तौर पर उभर सकते हैं । पवार ने नीतीश के लिए सीमेंटिंग फोर्स शब्द का इस्तेमाल किया ।
अब पवार की राजनीति यहीं से शुरू होती है । एक तरफ जहां कांग्रेस में राहुल गांधी को पार्टी की कमान सौंपने की बात हो रही है वहीं वो राहुल के बारे में बेहद हल्की टिप्पणी करते हैं । शरद पवार ने कहा कि राहुल गांधी एक नेता के तौर पर उभर रहे हैं लेकिन उनके बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी । वो कहते हैं ये देखना होगा कि राहुल गांधी अगले तीन साल में किस तरह से परफॉर्म करते हैं । शरद पवार ने यहीं पर राजनीति की शातिर चाल चली, एक तरफ नीतीश को सीमेंटिंग फोर्स करार दे दिया तो दूसरी तरफ राहुल गांधी को किनारे करने की कोशिश की । पवार को लगता है कि अगर राहुल गांधी की केंद्रीय भूमिका होती है तो फिर उनके लिए कुछ शेष बचेगा नहीं । यह संभव नहीं है कि नीतीश कुमार के हालिया कांग्रेस प्रेम और राहुल गांधी के साथ उनकी केमिस्ट्री के बारे में पवार को पता नहीं हो । उन्होंने राजनीति की बेहद आजमाई चाल चली जहां दो सहयोगियों को आमने सामने खडा किया जाता है । हुआ भी यही । कांग्रेस के कुछ नेताओं ने शरद पवार के बयान को तवज्जो नहीं दी तो कुछ ने कहा कि राहुल गांधी की केंद्रीय भूमिका और कांग्रेस को अहमियत के बगैर इस तरह का कोई मोर्चा अर्थहीन होगा । मोर्चा चाहे बने या ना बने शरद पवार ने राहुल गांधी और नीतीश के बीच राजनीति का वो बीज तो बो दिया है जिसका फल कड़वा होने की आशंका है ।
नीतीश कुमार का गैर बीजेपी मोर्चा बनाने की रणनीति बहुत हद तक पांच राज्यों के चुनावी नतीजों पर निर्भर करता है । अगर बीजेपी को असम में जीत मिलती है तो इस मोर्चे की सुगबुगाहट थोड़ी थम सकती है लेकिन अगर बीजेपी असम विधानसभा चुनाव में सफलता का परचम नहीं लहरा सकती है तो एक बार फिर से देश में पॉलिटिकल रिअलायनमेंट की संभावना बनने लगेगी । ये रिअलायनमेंट कितना सफल हो पाएगा इसमें संदेह है क्योंकि यूपी की समाजवादी पार्टी ने साफ कर दिया है कि इस तरह के मोर्चे में वो तभी शामिल हो सकते हैं जबकि नेताजी यानि मुलायम सिंह यादव को सभी दल अपना नेता मानें । बीएसपी ने भी शरद पवार के बयान से पल्ला झाड़ते हुए साफ कर दिया है कि इस तरह की बातें करना अभी जल्दबाजी है । बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी महागठबंधन बनाने की काफी कवायद हुई थी लेकिन मुलायम सिंह यादव उससे अलग हो गए थे और वो योजना बैठकों तक ही सीमित रह गई थी । नतीज चाहे जो हो लेकिन इतना तय है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद सियासत अपने चरम पर होगी ।



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