एक तरफ जहां हिंदी साहित्य लेखन में एकरसता जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई
है और लगभग एक ही ढर्रे पर कहानी, कविता और उपन्यास लिखे जा रहे हैं वहीं दूसरी
तरफ अंग्रेजी में लिखनेवाले भारतीय लेखकों ने विषयों की विविधता को लेकर खासे
प्रयोग किए । हिंदी में पुरातन भारतीय चरित्रों और मिथकीय चरित्रों पर लिखने को एक
खास विचारधारा ने सांप्रदायिकता से जोड़ दिया उसी मिथकीय चरित्रों पर लिखकर
अंग्रेजी के लेखकों ने ना केवल प्रसिद्धि पाई बल्कि करोड़ों रुपए भी कमाए । भगवान
शंकर के चरित्र चित्रण को लेकर अमिष त्रिपाठी ने जितनी प्रसिद्धि पाई वो हिंदी के
लेखकों के लिए फिलहाल तो अकल्पनीय नजर आती है । बाबा भोलेनाथ पर ट्रायोलॉजी लिखकर
अमिष ने अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपने लेखन की ना केवल पहचान बनाई बल्कि जमकर पैसे भी
कमाए । उसकी इस सफलता के बाद एक प्रकाशन गृह ने उनसे करोड़ों रुपए अग्रिम देकर आनेवाली
किताबों को छापने का अधिकार खरीदा था । तब देशभर के अखबारों में ये करार सुर्खियां
बनी थी । हिंदी के विचारधारा युक्त साहित्यकार अमिष त्रिपाठी को लाख खारिज करें
लेकिन उन्होंने अपना एक पाठक वर्ग तैयार किया और अपने तमाम साक्षात्कार में वो
भगवान शंकर के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर बात करते हैं । अमिष इस हिंदू देवी
देवता पर बात करने से बिल्कुल नहीं हिचकते
हैं । उन्हें इस बात की भी चिंता नजर नहीं आती है कि हिंदू देवी देलताओं के चरित्र
पर बात करनेवालों को संघी मान लिया जाता है । वो बेबाक होकर कहते हैं कि आज उनके
पास जो कुछ भी है वो बाबा भोलेनाथ की कृपा से है । अंग्रेजी में सिर्फ अमीष
त्रिपाठी ही नहीं हैं जो मिथकीय चरित्रों पर लिखते हैं । अभी हाल ही में देवदत्त
पटनायक की एक किताब शिखंडी एंड अदर टेल्स दे डोंट टेल यू देखने को मिली । देवदत्त
पटनायक भी लगातार भारतीय मिथकीय चरित्रों को अपने लेखन का विषय बनाते हैं ।
देवदत्त पटनायक हेल्थकेयर में नौकरी करने के बाद लेखन की ओर मुडे थे और उन्होंने
शिव, विष्णु, हनुमान,लक्ष्मी भारत की देवियां स्वतंत्र रूप से किताबें लिखीं और
उनकी सारी किताबें पाठकों ने खासी पसंद की । उनकी किताबों का हिंदी में भी अनुवाद
हुआ और हिंदी के पाठकों ने भी अमिष के उपन्यासों की तरह पटनायक की किताबों को भी
हाथों हाथ लिया । हमारे देश की युवा पीढ़ी बेहद चाव से इन मिथकीय चरित्रों को पढ़ना
जानना चाहती है । अच्छी बात यह है कि इन लेखकों में कइयों ने इन मिथकीय चरित्रों
को आधार बनाकर बाल साहित्य भी रचा । पटनायक की ही करीब आधा दर्जन किताबें बच्चों
को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं जो उनके बीच लोकप्रिय हैं । अब तो इन मिथकीय
चरित्रों और उनके प्रबंधन कौशल को आधुनिक प्रबंधन से जोड़कर किताबें लिखी जा रही
हैं । चाहे वो शंकर हों या विष्णु या कृष्ण का चरित्र ।क्राइसिस के दौरान उनके
प्रबंधकीय कौशल को लेकर या संकट से निबटने के उनके सूत्रों को आधुनिक प्रबंधन
सिद्धांत के तौर पर पेश कर किताबें लिखी जा रही हैं ।
हिंदी साहित्य में स्थिति इसके बिल्कुल उलट है । हिंदी में नरेन्द्र
कोहली ने राम पर लिखना शुरू किया तो उनको रामकथा मर्मज्ञ और आगे बढ़कर जब उन्होंने
महाभारत पर अपने लेखन का फोकस किया तो उनको धार्मिक लेखक कहकर साहित्य की तथाकथित
मुख्यधारा से अलग रखा गया । विपुल लेखन करनेवाले नरेन्द्र कोहली को लाखों पाठक तो
मिले पर साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया । कोहली को आजतक उनके
श्रम और लेखन के हिसाब से हिंदी साहित्य में वो प्रतिष्ठा नहींमिली जिसके वो हकदार
हैं । उम्र के पचहत्तरवें पड़ाव को पार करने के बाद भी लगातार वो भारतीय पौराणिक
मिथकीय चरित्रों को अपने लेखन का विषय बना रहे हैं । धर्म को अफीम मामने वाली
विचारधारा को यह सोचना चाहिए कि इस सिद्धांत का प्रतिपादन करनेवाले को भारतीय मानस
की ना तो समझ है और ना ही ये सिद्धांत भारत के लिए मुफीद है । विदेशी सिद्धांत को
भारतीय साहित्य पर लागू करवाने की जिद ने धर्म और मिथक पर लिखनेवालों को दोयम
दर्जे का लेखक करार देने की प्रवृत्ति बढ़ती चली गई । हिंदी और अंग्रेजी लेखऩ का
ये अलग अलग चरित्र समझने की जरूरत है । दरअसल भारतीय अंग्रेजी लेखन किसी भी तरह की
विचारधारा के अधिनायकवाद से स्वतंत्र है और वो विषयों को पाठकों की रुचि को ध्यान
में रखकर चुनता और उसपर लेखन करता है । हिंदी की स्थिति अंग्रेजी से बिल्कुल उलट
है यहां अब भी विचारधारा विशेष का दबदबा है और उसके दायरे से बाहर लेखन करनेवालों
को हाशिए पर डाल दिया जाता है । ज्यादातर उन्हीं लेखकों को सम्मान और साहित्यक यश
आदि मिलता है जो वितारधारा की बेड़ियों में रहकर लेखन करते हैं । विचारधारा के
दायरे से बाहर लेखन करनेवालों को नीचा दिखाने की कोशिश होती रही हैं । इसका नतीजा
यह रहा कि नए लेखकों मे सफलता के इस शॉर्टकट को अपनाया और विचारधारा युक्त लेखन की
ओर प्रवृत्त होते चले गए । विषयों की विविधता के अन्वेषण की बजाए उन्हीं विषयों पर
लिखा जो कि हिंदी साहित्य में स्वीकृत थी । नए लेखकों ने इलस चौहद्दी को तोड़ने की
कोई कोशिश नहीं की । निर्मल वर्मा और अज्ञेय ने इस दायरे को तोड़ा तो उनको भी
साहित्यक कॉमरेडों ने नहीं बख्शा । दिनकर को भी नहीं । अभी एक गोष्ठी में मैंने
कविता में यथार्थ की खुरदरी जमीन पर पाठकों के लहूलुहान होते रहने का सवाल उठाया
था । यह इस वजह से ही हुआ कि हिंदी के नए लेखक विषयगतत नवीनता की ओर उन्मुख नहीं
हो पाए । उनके सामने नरेन्द्र कोहली, मिर्मल वर्मा, अज्ञेय और दिनकर का उदाहरण था
। निर्मल वर्मा ने तो इस साहित्यक बेइमानी पर लिखा भी है – ‘जिस मार्क्सवादी ‘स्वर्ग’ का बखान हमारे हिंदी के अधिकांश लेखक,
पत्रकार , बुद्धिजीवी बरसों से करते आए हैं, उसके भीतर झांकने की बौद्धिक ईमानदारी
शायद ही किसी ने अपनी लेखकीय जिम्मेदारी समझ कर बरती हो । यह जानते हुए कि भी ‘राजा नंगे हैं’, अपनी आंखें मेदे रखना ही उन्होंने
सुविधानक समझा । इससे उन्होंने दो सुख एक साथ प्राप्त कर लिए – वे राजनीति रूप से
सही, ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ भी बने रहे और
सत्य बोलने के खतरों से भी बचे रहे ।...भारत के मार्क्सवादियों ने पिछले वर्षों
में नए रंग पोतने और पुराने धब्बों को पोंछने में जो हस्तकौशल दिखाया, वह आश्चर्यजनक
है ।‘ यहां निर्मल वर्मा साफ तौर पर संकेत करते हैं कि
साहित्य में किस तरह से विचारधारा विशेष के लेखकों ने बेइमानियां की ।
अंग्रेजी में जिस तरह से भारतीय मिथकीय चरित्रों को केंद्र में रखकर लिखी
गई किताबें युवा पाठकों को लुभा रहे हैं वो इस बात को साबित करते हैं आज की युवा
पीढ़ी की रुचि धर्म की ओर बढ़ रही है । इसको इस तरह से भी कह सकते हैं कि आज हमारी
युवा पीढ़ी जो अपनी संस्कृति के बारे में जानना चाहती है, उस विचारधारा को परखना चाहती
है जो हमारे देश में पहले से मौजूद थी । हिंदी के लेखकों ने तो मराठी के लेखक
शिवाजी सावंत से भी सीख नहीं ली । अगर हमारे लेखक मृत्युंजय की लोकप्रियता को ही
देख लेते तो आज हिंदी का विस्तार कहीं अधिक हो रहा होता । आज इस बात का अफसोस भी
है कि हमारी नई पीढ़ी बाबा भोलेनाथ, इच्छवाकु, राम, विष्णु जैसे चरित्रों को समझने
के लिए अमिष त्रिपाठी और देवदत्त पटनायक को पढ़ने की जरूरत गो रही है । हिंदी में
इनपर विपुल साहित्य मौजूद है लेकिन इनको धर्म की किताबें बताकर हाशिए पर
डालनेवालों ने अमिष और देवदत्त जैसे लेखकों के लिए लेखन की उर्वरक जमीन तैयार की ।
आज हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि हिंदी में मौजूज मिथकीय साहित्य अंग्रेजी
के रास्ते फिर से अनुदित होकर हिंदी में आ रहा है और लाखों की कमाई कर रहा है । वहीं
मूल हिंदी में इनको छापनेवाली संस्था गीता प्रेस बदहाली के दौर से गुजर रही है । क्या
हिंदी उस औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त हो सकेगी । इन सवालों के साथ विचार तो इसपर
भी किया जाना चाहिए कि हिंदी में मिथकीय चरित्रों पर लिखी गई पुस्तकों को पाठकों
से दूर करनेवाले कौन लोग हैं । उनको साहित्य में चिन्हित कर उनसे भी इस बाबत जबाव
मांगा जाना चाहिए । जबतक सार्वजनिक रूप से इस साजिश को बेनकाब नहीं किया जाएगा तबतक
हिंदी साहित्य को उसका उचित हक नहीं मिल पाएगा ।
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