अभी पिछले दिनों एक अनौपचारिक साहित्यक गोष्ठी में एक लेखक मित्र ने
कहा कि इन दिनों हिंदी के युवा लेखक बहुत जल्दबाजी में हैं और वो इंस्टैंट कॉफी और
टू मिनट नूडल्स की तरह साहित्य की रचना कर रहे हैं । उनकी यह बात सोलह आने सच ना
भी हो तो चौदह पंद्रह आने तो सही है ही । ज्यादातर युवा लेखक थोक के भाव से
कहानियां और कविताएं लिख रहे हैं और उनकी चाहत मशहूर होने की भी होती है । साहित्य
को अगर साधना कहा गया है तो उसके पीछे कोई ना कोई सोच रही होगी । अगर हम ये मान भी
लें कि ये साधना जैसा कठिन कर्म नहीं भी है तो कम से कम श्रमसाध्य तो है ही ।
साहित्य को हल्के तरीके से नहीं लिया जा सकता है, यह एक बेहद गंभीरकर्म है और
इसमें लेखकों को उनका दाय कभी उनके जीवन काल में मिल पाता है तो कभी मरणोपरांत ही
उनके लेखन पर चर्चा हो पाती है । इन दिनों हमारे युवा लेखक लिखना शुरू करते ही
चाहते हैं कि उनको साहित्य जगत में गंभीरता से लिया जाए औप वो स्थान मिले जो उनके
वरिष्ठों को हासिल है । यह अपेक्षा और महात्वाकांक्षा सही है लेकिन इसके लिए जितने
प्रयास किए जाने चाहिए उतने दिखाई नहीं देते हैं । युवा लेखकों की इस
महात्वाकांक्षा तो परवान चढाया है कुछ वैसी पत्रिकाओं ने जो लेख की तरह कहानीकारों
से कहानियां लिखवाते हैं । आठ सौ शब्दों में दे दीजिए, हजार शब्दों में दे दीजिए
या ज्यादा से ज्यादा पंद्रह सौ शब्दों की कहानी होनी चाहिए । पत्रिकाओं की मजबूरी
हो सकती है लेकिन लेखकों की क्या मजबूरी है, ये समझ से परे हैं । जब लेखकों की रचनाओं और उसकी कल्पना को शब्द
संख्या में बांधा जाने लगे और लेखक उसको स्वीकार भी करने लगे तो माना जाना चाहिए
कि साहित्य के सामने संकट काल है । कई युवा लेखकों ने मुझे बताया कि अमुक पत्रिका
ने उनके उतने शब्दों में कहानी मांगी और हमने फौरन उनको लिखकर दे दिया । गोया
कहानी ना हो किसी समसमायिक विषय पर लेख हो । जरूरत इस बात की है कि साहित्य को
इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत के इस रोग से मुक्त किया जाए ।
दूसरी बात जो समकालीन साहित्य में रेखांकित की जानी चाहिए वो है युवा
लेखकों का अपने साथी लेखकों की रचनाओं पर टिप्पणी करने से बचना । मौखिक या
फेसबुकिया टिप्पणियां यदा कदा देखने को मिल जाती है लेकिन ज्यादातर युवा लेखक अपने
समकालीनों पर लेख आदि लिखने से बचते हैं । इसका एक नुकसान यह होता है कि नई सोच
सामने आने से रह जाती है । नए विमर्श को स्थान नहीं मिलता है । मोहन राकेश,
कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव का जब कहानी की दुनिया में डंका बज रहा था तो सभी एक
दूसरे की रचनाओं पर लिख रहे थे । उसका लाभ तीनों को मिला था और वो लगातार चर्चा
में बने रहे थे । युवा लेखक क्यों नहीं अपने साथियों पर गंभीरता से लिखते हैं इसका
विश्लेषण किया जाना चाहिए । ऐसा प्रतीत होता है कि युवा पीढ़ी अपने साथियों पर
आलोचनात्मक टिप्पणियों से बचना चाहती है । तू पंत, मैं निराला जैसी टिप्पणियां तो
यदा कदा देखने को मिल जाती हैं पर किसी रचना को आलोचना की कसौटी पर उसके औजारों से
कसता हुए लेख दुर्लभ है । यह सही है कि हिंदी में आलोचनात्मक टिप्पणियों का असर
व्यक्ति संबंधों पर पड़ता है लेकिन क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कही
जानी चाहिए ।
2 comments:
शानदार विश्लेषण, मेरी भी यही राय है करीब करीब..
अनन्त जी आपने जो तथ्य सामने रखे है वह एकदम सही है आज के युवाओं के अंदर साहित्यिक ज्ञान नहीं है वह इसे मशहूर होने के लिए उपयोग करते हैं अनन्त जी अब आप हिंदी में बहुत ही आसान तरीके से शब्दनगरी पर भी लिख सकते हैं वहां पर भी आत्म-सुधार एवं आत्म-आलोचना !!!!!!!!!@@ जैसी रचनाएं पढ़ व लिख सकते हैं।
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