हाल ही में एक सर्वे आया है जिसमें अगले पचास
साल में करीब चार सौ भारतीय भाषाओं के खत्म होते जाने की बात सामने आई है। इस
सर्वे के नतीजों के मुताबिक अगले पचास साल में करीब चार सौ भारतीय भाषाएं खत्म
होने के कगार पर पहुंच सकती हैं। पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया ने अपने
सर्वे के आधार पर यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है। सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक ये
क्षेत्रीय भाषाएं हैं जिनपर खतरा बड़ा है। भाषा के खत्म होने से या उसके संकट में
आने से क्षेत्र विशेष की संस्कृति के खत्म होने का खतरा भी पैदा हो जाता है। हमारे
यहां भाषा को लेकर हमेशा से एक खास तरह की चिंता रही है और समय समय पर भाषागत
प्रयोग भी हुए हैं। किसी भी भाषा का निर्माण शब्दों से होता है और वो शब्द बहुधा
स्थानीय बोलियों से लिए जाते हैं। शब्दों के प्रचलन से गायब होने से भी भाषा पर
खतरा उत्पन्न हो जाता है। शब्द की महत्ता को लेकर संत तुकाराम ने कहा था- शब्द ही
एकमात्र रत्न हैं/जो मेरे पास है/शब्द ही एकमात्र वस्त्र है /जिन्हें मैं पहनता हूं/शब्द ही एकमात्र आहार है /जो मुजे जीवित रखता है/शब्द ही एकमात्र धन है /जिसे मैं लोगों में बांटता हूं ।
क्षेत्रीय बोलियों में भी ऐसे ऐसे शब्द होते हैं
जिनका अर्थ एक अपनापन लिए होता है । जिन शब्दों को लेकर रिश्तों की इंटेसिटी महसूस
की जा सकती थी उन शब्दों को तथाकथित आधुनिक शब्दों ने विस्थापित कर दिया । बिहार
और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में भाभी के लिए ‘भौजी’ शब्द का प्रयोग होता था
लेकिन वहां भी अब भाभी शब्द ही प्रचलन में आ गया है। फिल्म ‘नदिया
के पार’ का गाना याद करिए जहां नायक भाई की शादी के बाद गाता
है – ‘सांची कहे तोरे आवन से हमरी अंगना में आई बहार भौजी।‘
इस पूरे गाने में ‘भौजी’
शब्द जो प्रभाव पैदा करता है वो भाभी शब्द नहीं कर सकता है । दरअसल हमारे गावों
में शहरी होने की जो होड़ शुरू हुई है उसमें स्थानीय शब्दों का इस्तेमाल रोका है।
बिहार के भागलपुर यानि प्रचानी काल के अंग प्रदेश की बोली अंगिका में कई शब्द गायब
हो रहे हैं । उस इलाके में ‘आटा’ को ‘चिकसा’ कहा जाता था, रोटी को ‘मांड़ो’, ‘झोला’ को ‘धोकरा’, ‘पॉकेट’ को ‘जेबी’, ‘बच्चों’ को ‘बुतरू’, ‘शिशु’ को ‘फुलवा’, ‘दुल्हन’ को ‘कनियां’ बोला जाता था । समय के साथ ये सारे शब्द
प्रचलन से लगभग गायब होते चले गए । अब इसपर विचार करना होगा कि ऐसा क्यों हो रहा
है। कुछ योगदान तो आधुनिक बनने की मानसिकता से तो कुछ टीवी के घर घर में पहुंचने
और बच्चों की उस
माध्यम की भाषा अपनाने से हुई है । शब्द प्रचलन से गायब होते रहे हैं जैसे सरिता, जल, पवन आदि, लेकिन चिंता तब
होती है जब उसका संग्रह नहीं हो पाता है और उसका संरक्षण कहीं नहीं हो पाता है। भाषा
और बोलियों के संरक्षण के लिए हर स्तर पर गंभीर कोशिश की जानी चाहिए । सरकारें
अपनी गति से काम करती हैं, लेकिन वो गति भाषा और बोलियों के शब्द संरक्षण के लिए
बहुत धीमी है । यह काम पत्रकारिता और साहित्य में होना आवश्यक है क्योंकि ये दोनों
विधाएं आम आदमी के बोलचाल को गहरे तक प्रभावित करती हैं । पत्रकारिता खासकर टीवी
पत्रकारिता में आसान शब्दों पर जोर दिया जाता है । वाक्यों को और शब्दों को आसान
बनाने के चक्कर में बहुधा अंग्रेजी के वैसे शब्दों का प्रयोग भी हो जाता है जिसके
बेहतर विकल्प हिंदी में मौजूद हैं ।
हर वर्ष की तरह एक अंग्रेजी शब्दकोश ने उन
शब्दों की सूची जारी की है जो उन्होंने हिंदी समेत विश्व की दूसरी भाषाओं से लेकर
अंग्रेजी में मान्यता दी हैं । यह अंग्रेजी का लचीलापन है जो उसको दूसरी भाषा के
शब्दों को अपनाने में मदद करती है । अंग्रेजी जब इन शब्दों को गले लगाती है तो वो
अपने शब्दों को छोड़ती नहीं है बल्कि उसको संजोकर रखते हुए अपने दायरे का विस्तार
करती है । हिंदी में इससे उलट स्थिति दिखाई देती है । पत्रकारिता के अलावा साहित्यक
लेखन पर भी ये जिम्मेदारी आती है कि वो बोलियों में प्रचलित और हिंदी में प्रयुक्त
शब्दों को बचाने का उपक्रम करे । इस संबंध में हमें जयशंकर प्रसाद का स्मरण होता
है । हिंदी में भारतेंदु ने खड़ी बोली शुरू की जिसमें हिंदी और उर्दू के शब्दों का
धड़ल्ले से प्रयोग होता था लेकिन जयशंकर प्रसाद ने अपनी रचना में देहाती शब्दों का
जमकर प्रयोग किया । जयशंकर प्रसाद के निबंधों की एक किताब है – काव्य और कला तथा अन्य निबंध ।
इस किताब में जयशंकर प्रसाद ने जिस तरह की भाषा और शब्दों का प्रयोग किया है वो
खड़ी बोली से बिल्कुल भिन्न है । जयशंकर प्रसाद की ये महत्वपूर्ण किताब है ।
प्रसाद ने उर्दू मिश्रित हिंदी को छोड़कर एक नई भाषा गढ़ी । खड़ी बोली के
पैरोकारों ने उस वक्त प्रसाद के संग्रह ‘आंसू’ को दरकिनार कर उनका उपहास किया था । ‘आंसू’ में उनकी जो कविताएं हैं उसमें शायरी का आनंद मिलता है । हिंदी के वरिष्ठ
कवि लीलाधर जगूड़ी इस किताब को हिंदी में शायरी की पहली किताब कहते हैं । हिंदी के
कई कथाकारों ने स्थानीयता के नाम पर बोलियों को अपनी रचना में स्थान दिया लेकिन
उत्तर आधुनिक होने के चक्कर में बोली के शब्दों का अपेक्षित प्रयोग नहीं कर पाए और
उसको हिंदी के प्रचलित शब्दों से विस्थापित कर दिया । बहुत सारे लेखक जिस कालखंड
को अपनी कृति में दर्शाते हैं उस काल-खंड में बोली जाने वाली भाषा और उसके शब्दों
को बहुधा छोड़ते नजर आते हैं । इसका नतीजा यह होता है कि बोलियों के शब्द छूटते
चले जाते हैं और पहले प्रचलन से और फिर स्मृति से भी गायब हो जाते हैं ।
हिंदी में जरूरत इस बात की भी है कि कोई लेखक
जयशंकर प्रसाद जैसा साहस दिखाएं और अपने मौजूदा दौर की भाषा की धारा के विपरीत
तैरने की हिम्मत करे और ‘करुणा
कल्पित ह्रदय में क्यों विकल रागिनी बहती’ जैसी रूमानी
पंक्ति लिख सके । जयशंकर प्रसाद ना तो खड़ी बोली से प्रभावित हुए थे और ना ही
गालिब या रवीन्द्रनाथ टैगोर की भाषा से जबकि उस दौर के साहित्य लेखन पर इन दोनों
का काफी असर दिखाई देता है । इस वक्त साहित्य सृजन में भाषा के साथ उस तरह की
ठिठोली नहीं दिखाई देती है जैसी कि होली में देवर अपनी भाभी के साथ करता है । भाषा
के साथ जब लेखक ठिठोली करेगा तो उसको अपने शब्दों से खेलना होगा । समकालीन साहित्य
सृजन में हो ये रहा है कि कथ्य तो एक जैसे हैं ही भाषा भी लगभग समान होती जा रही
है । कभी कभार किसी कवि की कविता में या किसी कहानी में इस तरह के शब्दों का
प्रयोग होता है जो भाषा को तो चमका ही देता है बिसरते जा रहे शब्दों को जीवन भी
देता है । शब्दों को बचाने में साहित्यकारों की बड़ी भूमिका है । इस भूमिका का
निर्वहन गंभीरता के साथ करना चाहिए ।
बिहार के ही महान लेखक फणीश्वर नाथ रेणु ने अपनी
रचनाओं में स्थानीय शब्दों का ऐसा अद्धभुत प्रयोग किया कि वो अबतक पाठकों की
स्मृति में है । पीढ़ियां बदल गई, आदतें बदल गईं लेकिन रेणु के ना तो पाठक कम हुए और ना ही प्रशंसक । ये
भाषा की ही ताकत है कि रेणु के बाद बिहार में कहानीकारों की कई पीढ़ियां आईं लेकिन
उनमें से ज्यादातक रेणु के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं । इस तरह से हम
देखें तो रेणु के बाद निर्मल वर्मा ने भाषा के स्तर अपने लेखन में प्रयोग किया और
अपनी कहानियों में उसका सकारात्मक उपयोग भी किया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने
अपनी किताब ‘कबीर’ में में लिखा है कि
कबीर वाणी के डिक्टेटर थे और वो चाहते थे वो करते थे और भाषा में वो हिम्मत नहीं
थी कि उनको रोक सके । क्या आज शब्दों को बचाने के लिए हिंदी को कबीर जैसा एक भाषा
का डिक्टेटर चाहिए । संभव है ऐसा होने से कुछ हो सके लेकिन जहां तक भाषा को बचाने
की बात है तो हिंदी के वापस गांव की ओर ले जाने की जरूरत है । मुक्तिबोध ने कहा भी
था कि ‘श्रेष्ठ विचार बोझा उठाते वक्त आते हैं तो हमें लगता
है कि श्रेष्ठ भाषा और उसको व्यक्त करने की परिस्थियां भी गांवों में बेहतर हो
सकती हैं । शहरों और महानगरों की भाषा और भाव दोनों नकली होते हैं जिससे ना तो
श्रेष्ठ रचना निकलती है और ना ही पाठकों का परिष्कार होता है ।‘
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अलावा बोलियों के बीच इस तरह की
साझेदारी होनी चाहिए ताकि पुराने शब्दों को बचाया जा सके। इसके अलावा सभी भारतीय
भाषाओं को नए शब्दों को गढ़ने का संगठित प्रयास करना होगा। इससे स्थानीयता का,
भारतीयता का बोध कायम रह सकेगा।
1 comment:
आपका यह लेख बहुत महत्वपूर्ण है। बहुत सी कहावतें और शब्द खत्म होते जा रहे हैं जब शब्द लिखित रूप में होंगे तभी बचेंगे।।मेरे बाबूजी यश कामना से दूर भाषा के विद्वान थे, वे कहते थे जब एक भाषा मरती है तब उसके साथ एक संस्कृति मरती है।
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