बिहार
में विश्व कविता समारोह का प्रस्तावित आयोजन और उसमें अशोक वाजपेयी की केंद्रीय
भूमिका लंबे समय तक साहित्य जगत में चर्चा के केंद्र में रहा। अशोक वाजपेयी ने इस
मसले पर पहली बार इस बात को स्वीकार किया है कि उन्होंने बिहार सरकार को विश्व
कविता समारोह के बारे में प्रस्ताव दिया था। अभी हाल ही में फेसबुक पर अशोक
वाजपेयी ने ‘कुछ
तथ्य’ के
अंतर्गत लिखा - बिहार में ‘सत्याग्रह’ नाम से विश्व कविता समारोह का प्रस्ताव मैंने
पिछले वर्ष जून 2016 में दिया था। उस पर विचार धीमी गति से
हुआ। जब वित्तीय अनुमोदन हो गया तो आगे की कार्रवाई बहुत मन्द गति से हुई। त्रस्त
होकर मैंने 14 जून 2017
को ही अपने को उससे अलग कर लिया। इस सारे दौरान श्री नीतीश
कुमार का स्पष्ट रुख साम्प्रदायिकता - असहिष्णुता - हिंसा आदि के विरूद्ध मुखर और
सक्रिय था। अच्छी बात है कि अशोक जी ने लिखित रूप से ये स्वीकार किया । अबतक को वो
इससे पल्ला ही झाड़ते रहे थे। इस स्तंभ में इस कविता समारोह को लेकर पहले भी चर्चा
हो चुकी है।
पहले
अशोक वाजपेयी ये कहते रहे थे कि उन्होंने एक
समारोह में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को विश्व कविता सम्मेलन के आयोजन का सुझाव
दिया था। तब भी इस बात पर हैरत जताई गई थी कि किसी आयोजन में मंच से दिए गए सुझाव
पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इतना त्वरित फैसला कैसे लिया। बाद में पता चला था
कि इस आयोजन को लेकर पटना में बैठक हुई थी जिसमें अशोक वाजपेयी ने औपचारिक प्रस्ताव
दिया था । वाजपेयी जी उस बैठक में शामिल होने पटना भी गए थे। उस बैठक में उनके
अलावा आलोक धन्वा, अरुण कमल और आरजेडी के नेता
दीवाना भी शामिल हुए थे। पटना की उस बैठक के बाद विश्व कविता समारोह के आयोजन में
अशोक वाजपेयी की भूमिका को पुरस्कार वापसी के पुरस्कार के तौर पर देखा गया था।
अशोक वाजपेयी ने भी लेख लिखकर इसका खंडन किया था और कहा था कि इस समारोह का
पुरस्कार वापसी से कोई लेना देना नहीं है। जाहिर सी बात है कि इसको मानना बेहद
कठिन था कि ये असहिष्णुता की मुहिम का इनाम था।
जो भी अफसरशाही की औपचारिकताओं में उलझकर ये कार्यक्रम टलता
रहा। इस बात को लेकर भी काफी मंथन हुआ कि विश्व कविता सम्मेलन बिहार में करवाया
जाए या फिर इसका आयोजन दिल्ली में हो। विश्व कविता सम्मेलन में कवियों की भागीदारी
को लेकर भी फैसला नहीं हो पा रहा था। जब इस आयोजन का जिम्मा बिहार संगीत नाटक अकादमी
को सौंपा गया था उस वक्त बिहार में नीतीश-लालू की पार्टी की साझा सरकार थी। संस्कृति
विभाग राष्ट्रीय जनता दल के कोटे में था और शिवचंद्र राम उस महकमे के मंत्री थे।
उनका और आयोजन समिति में शामिल आरजेडी के नेता रामश्रेष्ठ दीवाना का मानना था कि
बिहार के कवियों का तो कोटा हो ही, कुछ दलित कवियों को भी इसमें शामिल किया जाए। कुल
मिलाकर इस आयोजन को लेकर उस वक्त नीतीश कुमार का सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल भी
उत्साहित नहीं था। आरजेडी इसको नीतीश के व्यक्तिगत समारोह की तरह देखता था और बगैर
किसी उत्साह के इसको धीमी गति से चला रहा था।
अशोक जी ने लिखा भी है कि वित्तीय अनुमोदन होने के बाद मन्द
गति से वो त्रस्त हो गए थे इसलिए समारोह से अलग हो गए थे। उन्होंने ईमेल से बिहार
सरकार को अपनी मंशा अवश्य बता दी थी लेकिन सरकार की तरफ से अशोक जी को जिम्मेदारी
मुक्त करने का कोई फैसला हो नहीं पाया था। बाद में सियासत ने करवट बदली और नीतीश
कुमार बीजेपी के साथ आ गए। संस्कृति मंत्री बीजेपी के कोटे से बनाए गए। मंत्री जी
ने कार्यभार संभालते ही विश्व कविता समारोह को रद्द कर दिया। इस तरह से हिंदी का
हाल के दिनों में सबसे चर्चित आयोजन, जो हो ना सका, का पटाक्षेप हो गया।
अपनी
उसी सफाई में अशोक वाजपेयी ने आगे लिखा- ‘जवाहर कला केन्द्र, जयपुर को मैंने कोई प्रस्ताव
नहीं दिया। उसने मुझसे कविता पर केन्द्रित एक बड़ा आयोजन करवाने का आग्रह किया और मैंने मुक्तिबोध शती के दौरान
उनकी पुण्यतिथि को शामिल कर ‘समवाय’ की
रूपरेखा बनायी। कवियों और आलोचकों के नाम, विचार
के लिए विषय आदि सुझाये जो सभी केन्द्र ने मान लिये। उससे कुछ लेखकों के अपने को
अलग करने के बावजूद पूरी तैयारी सुचारु रूप से चल रही थी। उसे स्थगित करने का
निर्णय परिस्थितिवश केन्द्र ने, बिना
मुझ से पूछे, लिया।‘ जवाहर कला केंद्र में अशोक जी की अगुवाई या रहनुमाई में आयोजित
कविता केंद्रित कार्यक्रम रद्द हुआ इसको लेकर अशोक वाजपेयी के समर्थक प्रगतिशील
लेखक संघ पर आक्रामक हो रहे हैं। ‘जनवादी’ मंगलेश डबराल हाल ही में ‘कलावादी’ अशोक वाजपेयी के समर्थक बने हैं। अशोक वाजपेयी की सफाई पर वो
लिखते हैं – ‘मेरा अनुभव यह है कि झूठ और
दुष्प्रचार पर आमादा लोगों से कोई तर्क नहीं किया जा सकता. उन्हें समझाना नामुमकिन
है और उनका कोई वैचारिक पक्ष भी नहीं है। यह देखकर दुःख जरूर होता है कि प्रगतिशील
लेखक संघ और भी अधिक निर्वासन में जाना चाहता है और साहित्य में एक संयुक्त पहल
नहीं चाहता।‘
पता नहीं कविवर किस संयुक्त पहल की बात कर रहे हैं। क्या कोई साहित्यक पहल हो रही
थी या फिर साहित्य की आड़ में राजनीति का खेल जवाहर कला केंद्र में खेला जाना था।
आमंत्रित कवियों लेखकों आदि की सूची से साफ है कि वहां मुक्तिबोध के नाम पर क्या
होता। जिस भी वजह से ये कार्यक्रम रद्द हुआ लेकिन वसुंधरा सरकार के लिए आसन्न
अप्रिय स्थिति टल गई।
तीसरी सफाई अशोक जी रायपुर में होनेवाले कार्यक्रम को लेकर दी
है- रायपुर में मुक्तिबोध शती के अवसर पर दो दिनों का जो समारोह ‘अँधेरे
में अन्तः करण’ नाम से 12-13 नवम्बर
2017 को होने जा रहा है। वह पूरी तौर से रज़ा फ़ाउण्डेशन का, मुक्तिबोध
परिवार के साथ मिलकर किया
जा रहा आयोजन है। उसमें छत्तीसगढ़ सरकार से कोई मदद न मांगी गयी है,न ली
जा रही है,न उसकी कोई दरकार है।अज्ञेय-शमशेर-मुक्तिबोध और कविता को तरह
तरह से सार्वजनिक मंच, विमर्श
और संवाद में प्रक्षेपित करने का प्रयत्न मैं पिछले 50 वर्षों
से, बिना कोई राजनैतिक, अवसरवादी, वित्तीय
समझौता किये, सारे अपवाद और लांछनों के बावजूद, करता रहा
हूँ-आजीवन करता रहूँगा।‘ इस बात से किसी को भी कोई एतराज नहीं हो सकता है कि अशोक जी
साहित्य के लिए समर्पित रहे हैं। विभूति नारायण राय लाख उनको साहित्य का इवेंट
मैनेजर कहें लेकिन साहित्य को लेकर अशोक जी की प्रतिबद्धता पर सवाल नहीं खड़ा किया
जा सकता है। पहचान सीरीज से लेकर हाल ही मे दिल्ली में आयोजित युवा सम्मेलन तक।
हां, उनकी इस बात पर दो तरह के मत हो सकते हैं कि उन्होंने
राजनैतिक समझौते नहीं किए, अवसरवादी समझौते नहीं किए। अशोक जी को लंबे समय से जानने वाले लोग कहते हैं कि उनको ना
तो कभी सत्ता से परहेज रहा और ना ही कभी उन्होंने सत्ताधारियों से निकटता से कोई
परहेज किया । चाहे वो समाजवादी पार्टी के सांसद धर्मेन्द्र यादव के साथ मंच साझा
करना हो या फिर नीतीश कुमार के साथ । पुरस्कार वापसी अभियान के बाद तो नीतीश कुमार
से उनकी निकटता काफी बढ़ गई थी । कहनेवाले तो यहां तक कहते हैं कि अशोक वाजपेयी
जैसे हिंदी के वरिष्ठ और बेहद आदरणीय लेखक उस कमेटी में रहने को राजी क्यों और
कैसे हो गए लालू यादव की पार्टी के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के मुखिया हैं। विश्व
कविता सम्मेलन के लिए बनाई गई उस कमेटी की सदस्यता स्वीकार करने को भी साहित्य जगत
में अवसरवादिता माना गया था। रही बात समझौते की तो उसको लेकर भी अशोक वाजपेयी
अछूते नहीं हैं। साहित्य जगत में यह बात आम है कि उन्होंने संस्कृति मंत्रालय में
संयुक्त सचिव रहते अपने मातहत विभाग साहित्य अकादमी का पुरस्कार लिया। आरोप
लगानेवाले तो यहां तक कहते हैं कि उन्होंने इसके लिए तमाम तरह की घेरेबंदी भी की। अब
आरोप लगानेवालों का तो मुंह बंद नहीं किया जा सकता है लेकिन इतना तय है कि अशोक जी
ने जितने आयोजन हिंदी में किए उतना करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। अफसर साहित्यकार
बहुत हुए, साधन संपन्न भी कई थे लेकिन अशोक जी जैसा साहित्यक उत्सवधर्मी हिंदी में
अबतक दूसरा नहीं है। और जब आप इतने बड़े काम करेंगे तो कभी ना कभी, कहीं ना कहीं
थोड़े बहुत समझौते करने पड़ते हैं। बिहार में विश्व कविता सम्मेलन के बारे में
आंशिक ही सही लेकिन उनकी सफाई ने उनको समर्थकों को वाह वाह करने का मौका दे दिया
है। फेसबुक पर उनके ‘भक्त’
जयकारा कर रहे हैं क्योंकि सबको मालूम नहीं जन्नत की हकीकत।
1 comment:
बढ़िया।
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