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Saturday, September 2, 2017

'साधना' पर टैक्स से कलाकार परेशान

एक देश एक कर के स्लोगन से प्रचारित होनेवाले गुड्स एंड सर्विसेस टैक्स यानि जीएसटी के लागू होने को बड़ा और ऐतिहासिक आर्थिक सुधार माना जा रहा है। आजादी के बाद का अबतक का सबसे बड़ा कर सुधार भी कह सकते हैं। परंतु इस कर सुधार की चपेट में साहित्य, कला और संस्कृति भी आ गए हैं। खास तौर पर उन कलाकारों में इस बात को लेकर रोष है जो भारतीय शास्त्रीय गायन, वादन और नत्य आदि कलाओं को अपनी साधना के बूते पर पीढ़ी दर पीढ़ी बचाए हुए हैं । वरिष्ठ कलाकार और परफॉर्मर कला पर जीएसटी लगाने के खिलाफ हैं। उनका कहना है कि उनसे दस फीसदी टीडीएस तो वसूला ही जा रहा है इसके अलावा अब उनको अठारह फीसदी जीएसटी भी अपनी जेब से भरना पड़ रहा है । इसको लेकर इन वरिष्ठ कलाकारों में इतना गुस्सा भर रहा है कि वो सामूहिक रूप से प्रदर्शन तक करने की बात करने लगे हैं । कलाकारों का कहना है कि भारतीय शास्त्रीय गायन, वादन और नृत्य पर जीएसटी का बोझ डालना इसलिए उचित नहीं है क्योंकि कलाकार साधना करता है और साधना पर किसी तरह का टैक्स लगाना उचित नहीं है। संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष शेखर सेन ने कलाकारों की इन आहत भावनाओं से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी अवगत कर दिया है। शेखर सेन ने अपने खत में प्रधानमंत्री को लिखा है कि ये कलाकार भारतीय संस्कृति और कला की सेवा कर रहे हैं। उनके प्रदर्शन पर कर लगाना अन्यायपूर्ण है। शेखर सेन ने इस मामले में प्रधानमंत्री से न्यायोचित कदम उठाने की मांग की है।
पद्म पुरस्कार से सम्मानित कई कलाकारों की भी अपेक्षा है कि सरकार इस कर से उनको मुक्त रखे। एक कलाकार ने तो यहां तक कहा कि अगर आज महान गायिका एम एस सुबुलक्ष्मी जीवित होतीं तो उनके गायन को क्या सेवा कर के दायरे में लाया जा सकता है। आप लाखों रुपए खर्च कर किसी भी सेवा को प्राप्त कर सकते हैं, किसी सेवा प्रदाता को तैयार कर सकते हैं, लेकिन क्या करोडों खर्च करने के बाद भी एक लता मंगेशकर या एक गिरिजा देवी बना सकते हैं? साधना और सेवा के फर्क के अलावा कला संस्कृति की ताकत को समझना होगा। लेखिन अफसोस कि हमे देश में खासकर इमरजेंसी के बाद से कला संस्कृति और साहित्य को उतनी अहमित नहीं दी गई जितने की वो हकदार है। एक कलाकार ने कहा कि हमारी सरकारों को कला और कलाकार की ताकत का अंदाजा नहीं है कि वो किस तरह से दुश्मनों को नीचा तक दिखा सकती है। उन्होंने लता मंगेशकर का ही उदाहरण देते हुए कहा कि जब पाकिस्तान में लता के गाने बजते हैं तो पाकिस्तानियों के दिल में एक हूक सी उठती है कि काश हमारे यहां लता होतीं। लता मंगेशकर या गिरिजा देवी या शिवकुमार शर्मा या पंडित विश्व मोहन भट्ट ये सभी कलाकार हमारे देश की ताकत हैं। ऐसी ताकत जो गहरे तक असर करती है और हमारा सर पूरी दुनिया में ऊंचा कर देते हैं।
चंद सालों पहले जब यूपीए सरकार ने सर्विस टैक्स लगाना शुरू किया था उस वक्त भी कलाकारों को उससे बाहर रखा गया था लेकिन जीएसटी लागू करते वक्त प्रादर्श कला को कर के दायरे में ला दिया गया। हलांकि जीएसटी कंज्यूमर पर लगने वाला टैक्स है। प्रादर्श कला के इन कलाकारों के मामले में भी उनको सुनने आनेवाले श्रोताओं से ये टैक्स वसूला जाना चाहिए। टिकट पर कर लगना चाहिए और आयोजक टैक्स जमा कर तमाम औपचारिकताएं पूरी करें। लेकिन हमारे देश में तो शास्त्रीय गीत, संगीत, वादन, नृत्य पर टिकट लगाकर श्रोताओं को बुलाना दिवास्वप्न सरीखा है। जब बगैर टिकट के श्रोता इनको सुनने आते हैं तो फिर टैक्स की जिम्मेदारी सीधे तौर पर आयोजकों पर पड़ती है।  होता यह है कि आयोजक इन कलाकारों को उनको एक निश्चित राशि देकर प्रदर्शन के लिए बुलाते हैं । आयोजक भी जीएसटी से अपना पल्ला झाड़ लेते हैं क्योंकि अठारह फीसदी काफी होता है। अंतत: इस टैक्स की जिम्मेदारी आ जाती है कलाकारों पर। रूपांकर कला के कलाकार अपने मानदेय के साथ-साथ लगनेवाले जीएसटी की राशि की मांग आयोजकों से नहीं कर पाते हैं क्योंकि इस तरह के आयोजन होते ही कम हैं और जो आयोजक होते हैं वो और वित्तीय बोझ वहन करने को तैयार नहीं होते हैं। उनका तर्क होता है कि वो तो कला संस्कृति को बचाने और उसको आम लोगों तक पहुंचाने के लिए आयोजन कर रहे हैं। व्यावसायिक आयोजन कर पैसा कमाना उनका उद्देश्य नहीं है, हो भी नहीं सकता। लिहाजा कलाकारों को अपने मानदेय से जीएसटी भरना पड़ता है।
इसके अलावा जो परफॉर्मिंग कलाकार हैं उनपर तो दोहरी या तिहरी मार पड़ती है। कोई भी कलाकार अपने साथ टीम लेकर फरफॉर्म करने जाता है। जैसे अगर उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो बिरजू महाराज या हेमा मालिनी जब परफॉर्म करती हैं तो उनके साथ दस बारह लोगों की टीम होती है। कभी ज्यादा भी। अब अगर महाराज जी को या हेमा जी को परफॉर्म करने के लिए बीस लाख का मानदेय मिलता है तो उसमें से वो अपने शागिर्दों को भी भुगतान करते हैं। शागिर्दों से वो जीएसटी लेते नहीं हैं लिहाजा शागिर्दों के खाते का जीएसटी भी मुख्य कलाकार के खाते से जाता है। इस परिदृश्य के हिसाब से अगर हम मुख्य कलाकारों की स्थिति पर विचार करें तो यह पाते हैं कि उनके जो पैसा नहीं मिल रहा है उनपर भी उनको टैक्स चुकाना पड़ रहा है। दस फीसदी टीडीएस और अठारह फीसदी जीएसटी यानि कुल मिलाकर अट्ठाइस फीसदी टैक्स। अगर इसमें इनकम टैक्स को भी जोड़ लें तो जो कलाकार तीस फीसदी आयकर के दायरे में हैं उनको टीडीएस के दस फीसदी का क्रेडिट मिलेगा यानि बीस फीसदी इनकम टैक्स देना होगा और अठारह फीसदी जीएसटी वो दे चुका है। अंतत: कलाकार को अपने मानदेय का अड़तीस फीसदी भरना पड़ रहा है। यह स्थिति चिंताजनक है। हम कलाओं के संरक्षण की जब बात करते हैं तो इन सब बिंदुओं का ध्यान रखना चाहिए।  
मशहूर शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी भी टैक्स के इस पचड़े को लेकर चिंतित हैं। उनका भी यही कहना है कि साधना पर सरकार को टैक्स नहीं लगाना चाहिए। वो तो इस समस्या को कलाकारों की माली हालत से जोड़कर देखती हैं। उनका कहना है कि कलाकारों को नियमित परफॉर्मेंस तो मिलते नहीं है और जो अनियमित प्रदर्शऩ होते हैं और मानदेय होता है उससे जीवन यापन मुश्किल होता है। कलाकारों की उम्र बढ़ने के साथ आय भी कम होने लगती है क्योंकि वो अलग अलग स्थानों पर जाकर गायन आदि नहीं कर पाते हैं। उनकी तो सरकार को सलाह है कि वरिष्ठ कलाकारों के लिए एक मानदंड तय करके उनको पेंशन दिया जाना चाहिए। कलाकारों को जीएसटी जैसे टैक्स के दायरे से मुक्त रखा जाना चाहिए ताकि वो मुक्त भाव से अपनी कला को साधने के लिए और मेहनत कर सके। कलाकारों के अलावा लेखकों को मिलने वाली रॉयल्टी पर भी जीएसटी लगाया गया है। लेखक बिरादरी में इसको लेकर चर्चा ज्यादा नहीं है क्योंकि उनको लग रहा है कि ये प्रकाशक देंगे। अब अगर यहां भी प्रादर्श कला वाली स्थिति होती है तो जीसटी की ये राशि भी लेखक की रायल्टी से ही जाएगी।
जैसा कि उपर कहा गया कि संस्कृति और कला को हमारे यहां प्राथमिकता नहीं मिली, संस्कृति मंत्री के पद पर ऐसे ऐसे महानुभाव बैठे हैं कि कुछ कहा ही नहीं जा सकता है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से तीन बार संस्कृति सचिव बदले जा चुके हैं और केंद्र में तो कई महीनों से संस्कृति सचिव का पद खाली है। इस पूरे परिदृश्य पर विंस्टन चर्चिल से जुड़ा एक वाकया याद आ रहा है जो एक बड़े कलाकार के साथ आपसी बातचीत में कभी आया था। ब्रिटेन दिवतीय विश्वयुद्ध में शामिल होने जा रहा था। विंस्टन चर्चिल ने अपने सभी मंत्रियों को बैठक के लिए बुलाया। उस बैठक में चर्चिल ने एक प्रस्ताव रखा कि चूंकि ब्रिटेन युद्ध में जा रहा है इसलिए सभी मंत्री अपने अपने विभागों का बजट सरेंडर कर देना चाहिए। उन्होने सभी मंत्रियों से इस आशय के पत्र पर हस्ताक्षर करने का भी अनुरोध किया। सभी मंत्रियों ने उस प्रस्ताव पर दस्तखत कर दिया। सबसे अंत में वहां के संस्कृति मंत्री उठे और प्रस्ताव पर अपने हस्ताक्षर करने को आगे बढ़े। चर्चिल ने उनको रोका और कहा कि आप रहने दीजिए, जिसके लिए हम युद्ध करने जा रहे हैं, जिसको बचाए रखने के लिए हम अपनी पूरी ताकत झोंकने जा रहे हैं उसका बजट सरेंडर करवाना उचित नहीं होगा। इति।