उम्र के नब्बे पड़ाव पार कर चुकी लेखिका कृष्णा
सोबती जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार देने का एलान किया गया । ज्ञानपीठ सम्मान देनेवाली
जूरी के नामवर सिंह अध्यक्ष हैं। यह उनके कार्यकाल का अंतिम वर्ष है । उनके
पुरस्कार के एलान के बाद साहित्यक हलके में इस बात को लेकर चर्चा है कि आखिर दो
बार इस पुरस्कार के लिए मना करने के बाद कृष्णा जी ने इसको स्वीकार कैसे और क्यों
कर लिया गया। साहित्य जगत में हो रही चर्चा के मुताबिक एक बार कृष्णा जी को किसी
अन्य भारतीय भाषा के लेखक के साथ संयुक्त रूप से पुरस्कार देने का प्रस्ताव किया
गया था जिसे उन्होंने मना कर दिया था। दूसरी बार जब हिंदी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ
सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया उसबार भी कृष्णा सोबती को ज्ञानपीठ पुरस्कार
देने की चर्चा चली थी लेकिन उस बार भी उन्होंने मना कर दिया था। साहित्य जगत की इस
चर्चा में कितनी सत्यता है ये तो ज्ञानपीठ की जूरी के सदस्य या फिर कृष्णा जी ही
बता सकती हैं लेकिन इस बार के उनके स्वीकार के पीछे ज्ञानपीठ के निदेशक और
ज्ञानपीठ पुरस्कार के संयोयक लीलाधर मंडलोई की भूमिका या निर्विवाद छवि हो सकती
है।
कृष्णा सोबती जी हिंदी की बेहद समादृत लेखिका है
लेकिन वो काफी विवादित भी रही हैं। हिंदी में दिए जानेवाले पुरस्कारों को लेकर
उनके विवादित बयान को अब भी याद कियी जाता है । कृष्णा जी ने एक बार कहा था कि
दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में पुरस्कार आदि तय किए जाते हैं। कहा तो
उन्होंने बहुत कुछ था लेकिन उसकी चर्चा इस वक्त उचित नहीं है। यह इसी पृष्ठभूमि का
नतीजा है कि फेसबुक और सोशल मीडिया पर कृष्णा जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने को
लेकर कई तरह की बातें हो रही है। कोई उनके उम्र को लेकर तंज कस रहा है तो कोई उनके
स्वीकार को लेकर हैरान है। दरअसल हिंदी में बड़े पुरस्कारों के साथ यह समस्या है
कि वो ज्यादातर लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड की तरह हो गए हैं। ज्ञानपीठ की बात को
छोड़ भी दें तो ज्यादातर पुरस्कार अब लेखक की उम्र को देखकर दिए जाते हैं। यहां तक
कि साहित्य अकादमी पुरस्कार में लेखन के साथ साथ उम्र को देखा जाने लगा है। कोलकाता
की लेखिका अलका सरावगी को साहित्य अकादमी देने के बाद इस पुरस्कार में कोई ऐसा नाम
नहीं आया जो कि सिर्फ कृति को ध्यान में रखकक दिया गया हो। ज्यादातर पुरस्कार भूल
गलतियों को सुधाने के लिए दिए गए। यही हाल दिल्ली की हिंदी अकादमी के पुरस्कारों
की भी है वहां भी उम्र को एक मानक माना जाने लगा है। जबकि पुरस्कार देनेवालों को
इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अगर कोई बेहतरीन कृति आई हो तो उसको पुरस्कृत किया
जाए। भगवानदास मोरवाल का उपन्यास काला पहाड़ ऐसी ही एक कृति है लेकिन साहित्य
अकादमी उस वक्त उनको पुरस्कृत करने का साहस नहीं दिखा पाई।
यह हिंदी साहित्य के लिए बेहद सौभाग्य की बात है कि नब्बे साल की उम्र के
आसपास या उससे पार के कई लेखक अब भी रचनात्मक रूप से सक्रिय हैं और अभी भी अपनी
रचनात्मक मौजूदगी और सक्रियता से पूरे परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं ।
नामवर सिंह तो अब भी गोष्ठियों की शान हैं । रामदरश मिश्र लगातार अपने लेखन से
समकालीन साहित्य में सार्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं । अभी हाल ही में कृष्णा जी के
संस्मरणों की पुस्तक प्रकाशित हुई जिसकी हिंदी जहत में खूब चर्चा हुई। कृष्णा जी
ना केवल रचनात्मक रूप से सक्रिय हैं बल्कि राजनीतिक-साहित्यक मोर्चे पर भी बेहद
सक्रिय हैं। उनकी ये सक्रियता आश्वस्तिकारक भी है । पिछले दिनों जब पूरे देश में
असहिष्णुता के खिलाफ कुछ लेखकों ने आंदोलन और पुरस्कार वापसी का अभियान चलाया था
तो उसके बाद दिल्ली में देशभर के लेखकों का एक जमावड़ा हुआ था । कृष्णा सोबती जी
उस जमावड़े में पहुंची थीं और अपनी बात उन्होंने रखी थी । उस वक्त देश में कथित
तौर पर बढ़ रहे असहिष्णुता के खिलाफ पुरस्कार वापसी अभियान को कृष्णा सोबती की
भागीदारी से बल मिला होगा, ऐसा मेरा मानना है । उनकी
भागीदारी का जनमानस पर कितना असर हुआ इस पर मतभिन्नता हो सकती है। लेखक के तौर पर
उनको अपनी बात कहने का हक है और साहित्य से इतर राजनीति पर भी अपनी राय प्रकट करने
का अधिकार । कृष्णा सोबती के इस अधिकार की उनके वैचारिक विरोधियों ने भी सम्मान
किया । कथित असहिष्णुता के खिलाफ उनके इस कदम को लेकर खासी चर्चा हुई थी, पक्ष में
भी और विपक्ष में भी। लेकिन उसी के आसपास उन्होंने खुद पर लिखी एक किताब के विमोचन
को टलवाने के लिए नई लेखिका पर उन्होंने सिर्फ इस लिए दबाव बनाया था कि उनकी
विचारधारा से अलग विचार रखनेवाले लोग भी उस मंच पर थे। यह एक किस्म की अस्पृश्यता
थी। इसपर भी विस्तार से चर्चा हुई थी और हिंदी के अलावा अंग्रेजी में भी इसपर लेख
प्रकाशित हुए थे।
इसके पहले भी कृष्णा जी और अमृता प्रीतम के बीच केस मुकदमा चले थे।
कृष्णा सोबती ने ने अमृता प्रीतम पर उनकी कृति हरदत्त का जिंदगीनामा को लेकर केस किया
था । वो केस करीब पच्चीस साल तक चला था और फैसला अमृता प्रीतम के पक्ष में आया था
। दरअसल अमृता प्रीतम की किताब हरदत्त का जिंदगीनामा, जब छपा तो कृष्णा जी को लगा कि ये शीर्षक उनके चर्चित
उपन्यास जिंदगीनामा से उड़ाया गया है और वो कोर्ट चली गईं । साहित्य अकादमी
पुरस्कार विजेता कृष्णा सोबती और ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजी गई अमृता प्रीतम के
बीच इस साहित्यक विवाद की उस वक्त पूरे देश में खूब चर्चा हुई थी । जब केस का
फैसला अमृता जी के पक्ष में आया तबतक अमृता प्रीतम की मौत हो गई थी । केस के फैसले
के बाद कृष्णा सोबती ने बौद्धिक संपदा का तर्क देते हुए कहा था कि हार जीत से
ज्यादा जरूरी उनके लिए अपनी बौद्धिक संपदा की रक्षा के लिए संघर्ष करना था । अब उस
वक्त भी कई लेखकों ने कृष्णा सोबती को याद दिलाया था कि जिंदगीनामा का पहली बार
प्रयोग उन्होंने नहीं किया था । कृष्णा सोबती के उपन्यास के पहले फारसी में लिखी
दर्जनों किताबें इस शीर्षक के साथ मौजूद हैं । मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने तो उस
वक्त भी कहा था कि श्रद्धेय गुरु गोविंद सिंह जी के एक शिष्य़ ने उनकी जीवनी भी
जिंदगीनामा के नाम से लिखी थी और ये किताब कृष्णा सोबती के उपन्यास के काफी पहले
प्रकाशित हो चुकी थी । जिंदगीनामा को लेकर कैसी बौद्धिक संपदा का गुमान और उसको
लेकर कैसा विवाद और केस मुकदमा। लेकिन विवाद तो हुआ ही था।
इसी तरह से जब रवीन्द्र कालिया ने एक संस्मरण लिखा था तब भी कृष्णा जी ने
काफी आपत्ति जताई थी और एक तरह से विवाद खड़ा किया था। बेहतर रचानाकरा और
विवादप्रियता के अलावा कृष्णा जी में ह्यूमर भी था। मुझे याद पड़ता है कि दिल्ली
में लेखक से मिलिए कार्यक्रम में एक बार कृष्णा जी थीं। उस कार्यक्रम में भारत
भारद्वाज ने उनसे एक सवाल पूछा था कि कृष्णा जी की नायिकाएं इतनी बोल्ड और बिंदास
दिखती हैं, वो आजाद ख्याल भी हैं और अपने कपड़ों आदि में आधुनिक भी। प्रश्नकर्ता
ये जानना चाह रहे थे कि जब उनकी नायिकाएं इतनी बोल्ड हैं, बिंदास हैं और अपने
ख्यालों औक लिबास को लेकर इतनी आधुनिक हैं तो कृष्णा जी खुद इतना लंबा चोगानुमा
ड्रेस क्यों पहनती हैं। कृष्णा जी ने इस प्रश्न को मजाकिया लहजे में टालते हुए
उत्तर दिया था कि भारत जी आप देखना क्या चाहते हैं और पूरा हॉल ठहाकों से गूंज गया
था। ये उनके व्यक्तित्व का एक अलग पहलू है।
हम वापस लौटते हैं ज्ञानपीठ पुरस्कार पर । दरअसल
ज्ञानपीठ की चयन प्रक्रिया बेहद जटिल है। इसकी शुरुआत होती है करीब चार हजार
लेखकों और संस्थाओं स प्रस्ताव मंगवाने से लेकर। उन प्रस्तावों को फिर भाषावार
छांटा जाता है । फिर तेइस भाषाओं की सलाहकार समिति के पास इन प्रस्तावों को भेजा
जाता है जहां से उनसे दस नाम मांगे जाते हैं। उन नामों को फिर जूरी के सदस्यों के
सामने रखा जाता है और वो अपनी सम्मति देते हैं। उन सम्मतियों के आधार पर जिस नाम
पर सहमति बनती है या जिनको सबसे अधिक जूरी के सदस्य चाहते हैं उनको ये सम्मान दिया
जाता है। टाई होने की स्थिति में अध्यक्ष के पास वीटो पॉवर होता है । इसके अलावा
जूरी के सदस्यों को आधार सूची से अलग नाम प्रस्तावित करने का भी अधिकार होता है।
ऐसे में किसी तरह की सेटिंग की गुंजाइश बहुत कम रहती है। इस बार भी कृष्णा जी के
नाम के साथ अमिताभ घोष का नाम भी था। उनके नाम पर भी जूरी में व्यापक चर्चा हुई
लेकिन जूरी के पाच सदस्यों ने कृष्णा जी के नाम पर सहमति दी और तीन ने अमिताभ घोष
के नाम पर। जाहिर है चयन कृष्णा जी का ही होना था।
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