अभी पिछले दिनों हेमा मालिनी की प्रामाणिक
जीवनी हेमा मालिनी: बियांड द ड्रीम गर्ल की खासी चर्चा रही। इस पुस्तक की भूमिका
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लिखी है। हेमा मालिनी की यह जीवनी पत्रकार और
प्रोड्यूसर राम कमल मुखर्जी ने लिखी है। हलांकि इसके पहले भावना सोमैया ने भी
ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी की प्रामाणिक जीवनी लिखी थी । इस पुस्तक का नाम हेमा मालिनी
था और ये जनवरी दो हजार सात में प्रकाशित हुई थी। पहली प्रामाणिक
जीवनी के दस साल बाद दूसरी प्रामाणिक जीवनी का प्रकाशित होना इस बात का संकेत है
कि सिनेमा के पाठक लगातार बने हुए हैं। हेमा मालिनी की दूसरी प्रामाणिक जीवनी में
पहली वाली से कुछ ही चीजें अधिक हैं, एक तो वो जो पिछले दस सालों में घटित हुआ और
दूसरी वो घटनाएं जो पहली में किसी कारणवश रह गई थी। हेमा मालिनी की इस प्रामाणिक
जीवनी में उनके डिप्रेशन में जाने का प्रसंग विस्तार से है। इस पुस्तक के लॉंच के
मौके पर दीपिका पादुकोण ने इसका संकेत भी किया था। दीपिका ने जहां अपने डिप्रेशन
की खुलकर सार्वजनिक चर्चा की वहीं हेमा मालिनी ने उसको लगभग छुपा कर झेला और फिर
उससे उबरीं। कई दिलचस्प प्रसंग और होंगे। इस आलेख का उद्देश्य हेमा मालिनी की इस
प्रामाणिक जीवनी पर लिखना नहीं है बल्कि इससे इतर और आगे जाकर बात करना है।
दरअसल पिछले तीन चार
सालों से फिल्मी कलाकारों और उनपर लिखी जा रही किताबें बड़ी संख्या में बाजार में आ रही
हैं । फिल्मी कलाकारों या उनपर लिखी किताबें ज्यादातर अंग्रेजी में आ रही हैं और
फिर उसका अनुवाद होकर वो हिंदी के पाठकों के बीच उपलब्ध हो रही हैं । पहले गाहे
बगाहे किसी फिल्मी लेखक की जीवनी प्रकाशित होती थी या फिर किसी और अन्य लेखक के
साथ मिलकर कोई अभिनेता अपनी जिंदगी के बारे में किताबें लिखता था लेकिन अब
परिस्थिति बदल गई है । फिल्मी सितारे खुद ही कलम उठाने लगे हैं। हेमा मालिनी की
जीवनी के पहले करण जौहर की आत्मकथानुमा संस्मरणों की किताब ‘एन अनसुटेबल बॉय’ प्रकाशित हुई जो कि बाद में ‘एक अनोखा लड़का’ के नाम से हिंदी में
अनूदित होकर प्रकाशित हुई। इसमें उनके बचपन से लेकर जुड़वां बेटों के गोद लेने के
पहले तक की कहानी है । इस पुस्तक में करण और अभिनेता शाहरुख खान की दोस्ती के
किस्से पर तो पूरा अध्याय ही है। करण ने अपनी फिल्मों की तरह अपनी इस किताब में भी
इमोशन का तड़का लगाया गया है। लगभग उसी समय ऋषि कपूर की आत्मकथा ‘खुल्लम खुल्ला’ भी प्रकाशित हुई जो कि दाऊद इब्राहिम के प्रसंग
को लेकर और फिल्मफेयर पुरस्कार खरीदने की स्वाकारोक्ति को लेकर खासी चर्चित हुई
थी। इसके बाद आशा पारेख की जीवनी प्रकाशित हुई। इसके साल भर पहले राजू भारतन ने
आशा भोंसले की सांगीतिक जीवनी लिखी थी। लगभग उसी वक्त सीमा सोनिक अलीमचंद ने दारा
सिंह पर ‘दीदारा’ के नाम से किताब लिखी थी।
अंग्रेजी में फिल्मी शख्सियतों से जुड़ी किताबों की एक लंबी फेहरिश्त है । नसीरुद्दीन शाह की
आत्मकथा प्रकाशित हुई थी, दिलीप कुमार साहब की भी। उसके पहले करिश्मा और करीना
कपूर की किताबें आई । दो हजार बारह में करीना कपूर की किताब- ‘द स्टाइल
डायरी ऑफ द बॉलीवुड दीवा’ आई जो उन्होंने रोशेल पिंटो के साथ
मिलकर लिखी थी । उसके एक साल बाद ही उनकी बड़ी बहन करिश्मा कपूर की किताब- ‘माई यमी मम्मी गाइड’ प्रकाशित हुई जो उन्होंने
माधुरी बनर्जी के साथ मिलकर लिखी ।
इसके पीछे हम पाठकों का एक बड़ा बाजार को देख
सकते हैं या बाजार का विस्तार की आहट भी महसूस कर सकते हैं । रूपहले पर्दे के नायक
नायिकाओं के बारे में जानने की इच्छा पाठकों के मन में होती है। उनकी निजी जिंदगी
कैसी रही, उसका संघर्ष कैसा रहा, उसकी पारिवारिक जिंदगी कैसी रही, उनका क्या किसी
से प्रेम संबंध रहा, अगर रहा तो वो कितना रोचक रहा, आदि आदि । हम कह सकते हैं कि
भारतीय मानसिकता में हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि उसके पड़ोसी के घर में क्या
घट रहा है ये जाने । इसी मानसिकता का विस्तार पाठकों को फिल्मी सितारों तक ले जाता
है और अंतत: बड़े पाठक वर्ग में बदल जाता है जो किताबों के लिए एक बड़े
बाजार का निर्माण करती है ।
दूसरे फिल्मी सितारों के अंदर एक मनोविज्ञान
काम करता है कि अगर वो किताबें लिखेगा तो बॉलीवुड से लेकर पूरे समाज में उनकी छवि
गंभीर शख्सियत की बनेगी । नसीरुद्दीन शाह की आत्मकथा को साहित्य जगत में बेहद
गंभीरता से लिया गया । शत्रुघ्न सिन्हा की जीवनी जो भारती प्रधान ने लिखी थी उसमें
फिल्मों पर कम उनके सामाजिक जीवन पर ज्यादा बातें है । इसी तरह से स्मिता पाटिल पर
मैथिली राव की किताब और सलमान खान पर जसिम खान की किताब प्रकाशित हुई थी । जीवनी
और आत्मकथा से अलग हिंदी फिल्मों को लेकर कई गंभीर किताबें अंग्रेजी में प्रकाशित
हुई हैं । जैसे एम के राघवन की डायरेक्टर्स कट, अनुराधा भट्टाचार्य और बालाजी
विट्ठल की पचास हिंदी फिल्मों पर लिखी गई किताब गाता रहे मेरा दिल, प्रकाश आनंद
बक्षी की डायरेक्टर्स डायरीज आदि प्रमुख हैं । इन किताबें ने फिल्मी दुनिया की
सुनी अनसुनी कहानियों को सामने लाकर आती हैं । पचास फिल्मी गीतों को केंद्र में
रखकर लिखी गई किताब में उन गानों के लिखे जाने से लेकर उनकी रिकॉर्डिंग तक की पूरी
प्रक्रिया को रोचक अंदाज में लिखा गया है । इसी तरह से डॉयरेर्टर्स डायरी में
गोविंद निहलानी, सुभाष घई, अनुराग बसु, प्रकाश झा, विशाल भारद्वाज, तिग्मांशु
धूलिया समेत कई निर्देशकों के शुरुआती संघर्षों की दास्तां है ।
इसके बरक्श अगर हम हिंदी में देखें तो फिल्म
लेखन में लगभग सन्नाटा दिखाई देता है । कुछ समीक्षकनुमा लेखक फिल्म समीक्षा पर
लिखे अपने लेखों को किताब की शक्ल दे देते हैं या फिर कई लेखकों के लेखों को
संपादित कर किताबें बाजार में आ जाती है । दरअसल ये दोनों काम गंभीर नहीं हैं और ना
ही हिंदी के पाठकों की क्षुधा को शांत कर सकते हैं । पाठक इन किताबों को उसके
शीर्षक और लेखक के नाम को देखकर खरीद लेता है लेकिन पढ़ने के बाद खुद को ठगा हुआ
महसूस करता है। इसका परिणाम यह होता है कि हिंदी में छपी फिल्मी किताबें अब कम
बिकने लगी हैं।
इसकी क्या वजह है कि हिंदी के लेखक बॉलीवुड
सितारों पर कोई मौलिक और मुक्कमल पुस्तक नहीं लिख रहे है या नहीं लिख पा रहे हैं। दरअसल
हिंदी के लेखकों ने फिल्म को सृजनात्मक विधा के तौर पर गंभीरता से नहीं लिया और
ज्यादातर फिल्म समीक्षा तक ही फंसे रहे। अगर हम इक्का दुक्का पुस्तकों को छोड़ दें
तो हिंदी में फिल्म को लेकर, फिल्मी शख्सियतों को लेकर गंभीर काम क्यों नहीं हो
रहा है, इस सवाल का उत्तर ढूंढना होगा। हम इस कमी की वजहों की पड़ताल करते हैं तो
एक वजह तो ये नजर आती है कि सालों तक हिंदी में फिल्म पर लिखने को दोयम दर्जे का
माना जाता रहा । फिल्मों पर लिखने वालों को फिल्मी लेखक कहकर उपहास किया जाता रहा
। मुझे याद है कि एक समारोह में अशोक वाजपेयी जी ने फिल्म पर लिखी एक पुस्तक के
बारे में कहा कि ये लोकप्रिय गायिका पर लिखी किताब है। लोकप्रिय कहते वक्त दरअसल
वो लगभग उपहास की मुद्रा में थे। यह उपहास-भाव लेखक को हतोत्साहित करने के लिए
काफी होता है। मैंने अशोक जी का उदाहरण सिर्फ इस वजगह से दिया कि वो अभी चंद दिनों
पहले का वाकया है, लेकिन यह प्रवृत्ति हिंदी के आलोचकों और वरिष्ठ लेखकों में बहुत
गहरे तक है। मुझे तो याद नहीं पड़ता कि हिंदी में फिल्म पर लिखी किसी किताब पर
किसी वरिष्ठ आलोचक का कोई लेख या फिर सिनेमा पर स्वतंत्ररूप से कोई आलोचनात्मक
पुस्तक आई हो। हिंदी में इस माहौल ने फिल्म लेखन को बाधित किया। इसके अलावा एक खास
विचारधारा में भी फिल्मी लेखन को गंभीरता से नहीं देखा जाता था। फिल्मों को
बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर देखा जाता रहा। इस विचारधारा से जुड़े लेखकों
ने भी कभी भी फिल्मों पर गंभीरता से नहीं लिखा और ना ही इस विधा पर लिखनेवालों को
प्रोत्साहित किया। विचारधारा विशेष की इस उपेक्षा भी एक वजह है। अब जब अंग्रेजी
में बहुतायत में पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं तो हिंदी के लेखकों के बीच भी इस तरह
के लेखन को लेकर सुगबुगाहट है और कोशिशें शुरू हो गई हैं। यह आवश्यक भी है क्योंकि
हिंदी साहित्य में पाठकों को विविधता का लेखन उपलब्ध करवाना होगा ताकि भाषा की
चौहद्दी का विस्तार हो सके ।
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