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Saturday, March 17, 2018

आलोचना की साख पर सवाल


हिंदी साहित्य में आलोचना एक ऐसी विधा है जिस पर नियमित अंतराल पर सवाल उठते रहते हैं, कई बार उचित, तो बहुधा व्यक्तिगत राग-द्वेष की वजह से। इन दिनों फिर से आलोचना की स्थिति को लेकर सोशल मीडिया से लेकर पत्र-पत्रिकाओं में लिखे जा रहे हैं। कुछ कहानीकार, कुछ कवि अपने अधकचरे ज्ञान के आधार पर आलोचना को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश गाहे बगाहे करते रहते हैं। आलोचना विधा को समझे बगैर, उसकी गंभीरता और उसके औजारों को जाने बगैर उसपर सवाल उठाना हास्यास्पद लगता है। हद तो तब हो जाती है जब कुछ वरिष्ठ होते रचनाकार भी आलोचना के खिलाफ कोरस में शामिल हो जाते हैं और आलोचना को परजीवी विधा तक करार दे देते हैं। उनका बहुत साधारण सा तर्क होता है कि रचना के बगैर आलोचना का अस्तित्व ही नहीं है। सतही तौर पर ये आकलन ठीक लग सकता है, फेसबुक आदि पर इस तरह की टिप्पणी लिखनेवालों को लाइक्स के साथ-साथ वाहवाही आदि भी मिल जाती है, लेकिन आलोचना पर गंभीरता से काम करनेवालों की राय जुदा होती है। दरअसल जब आलोचना के परजीवी होने की बात की जाती है तो अज्ञानता में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संबंध के सिद्धांत पर विचार नहीं किया जाता है। रचना के बगैर आलोचना के अस्तित्व को नकारनेवाले यह भूल जाते हैं कि बगैर आलोचना के रचना के अर्थ खुलते ही नहीं हैं। यह आलोचक ही होता है जो किसी भी कृति या रचना के अंदर की संवेदना की परतों को रेशा दर रेशा अलग कर देख पाता है और उसको पाठकों के सामने पेश करता है। रचना और आलोचना के बीच बहुत गहरा संबंध होता है जिसको समझने के लिए भी गहरी अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है, इसका सामान्यीकरण कर इस संबंध को समझना लगभग असंभव है। मुझे ठीक से याद नहीं कि किस आलोचक ने ये कहा था- आलोचना रचना है, इसका एक अर्थ यह भी है कि अच्छी आलोचना रचना की ही तरह भाषा का शास्त्रीय नहीं बल्कि सृजनात्मक उपयोग करती है, जिससे उसे पढ़ते समय तक एक स्तर पर रचना को पढ़ने का आनंद मिलता है। जैसे रचना की एक रचना प्रक्रिया होती है, वैसे ही निश्चित रूप से आलोचना की भी। उदाहरण के तौर पर जब नामवर सिंह के साठ के दशक में नई कहानियां पत्रिका में स्तंभ लिखते थे तो उसको पढ़ते हुए पाठकों को किसी रचना से कम आस्वाद नहीं मिलता था। इसी तरह से विजयदेव नारायण साही के लेख शमसेर की काव्यानुभूति की बनावट को पढ़ें तो किसी बेहतरीन रचना को पढ़ने का आनंद मिलता है। यह ठीक कहा गया है। अस्सी के दशक में ये हिंदी साहित्य में ये शोर उठा था कि हिंदी आलोचना समसामयिक हो गई है। कहने का मतलब यह कि हिंदी आलोचना समकालीन रचनाकारों और कृतियों तक ही सीमित हो गई है। उस वक्त यह भी कहा गया था कि हिंदी आलोचना इतिहास और परंपरा की तरफ मुड़कर नहीं देखती। उस वक्त की स्थितियों का आकलन करने पर इसमें तथ्यों की कमी नजर आती है। उस दौर में सूर से लेकर मीरा तक और तुलसी से लेकर कबीर तक पर काम हो रहे थे। बार बार आलोचक मीरा बाई की कविताओं की ओर लौटते थे।
ऐसा नहीं है कि इस वक्त ही आलोचना को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं, आलोचना की प्रविधि और उसके तौर तरीकों पर समय समय पर सवाल भी उठते रहे हैं और आलोचक अपने तरीके से उसका उत्तर भी देते रहे हैं। शुक्ल जी के जमाने से लेकर अबतक आलोचना पर सवाल उठते रहे हैं। अशोक वाजपेयी ने भी आलोचना को लेकर कई तरह की स्थापनाएं दीं और कइयों पर पर प्रश्नचिन्ह लगाया। विवाद भी हुआ लेकिन बावजूद इसके रचना और आलोचना दोनों अपनी गति से चलती रही बल्कि कहें कि चल ही रही है। चंद दिनों पहले की बात है, हिंदी के वरिष्ठ उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल ने आलोचना को लेकर एक टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि हिंदी आलोचना अब भी रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के बीच ही झूल रही है। उसके पहले संभवत: स्तंभकार कुलदीप कुमार ने लिखा था कि हिंदी का प्राध्यापक नौकरी लगते ही आलोचक हो जाता है जबकि अंग्रेजी में ऐसा नहीं है। भगवानदास मोरवाल के इस कथन के बाद मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक गोपेश्वर सिंह का रामचंद्र शुक्ल और द्विवेदी जी की आलोचना पर एक लेख पढ़ने को मिला था। कुलदीप कुमार ने जिस प्रवृत्ति की ओर इशारा किया वो तो हिंदी आलोचना की सबसे बड़ी बाधा है ही। यह अकारण नहीं था कि राजेन्द्र यादव विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों को प्रतिभा की कब्रगाह कहा करते थे।
बावजूद इन सारी चीजों के हिंदी आलोचना में एकरसता से इंकार नहीं किया जा सकता है। इंकार तो इस बात से भी नहीं किया जा सकता है कि हिंदी के जो नए आलोचक उभर कर आ रहे हैं वो हीं आलोचना की लीक से हटकर कुछ नया नहीं कर पा रहे हैं। मार्क्सवादी आलोचना के फॉर्मूले पर रचनाओं को कसते हैं। जब कसौटी ही पुरानी हो जाए तो उसके नतीजे तो दोषपूर्ण होंगे ही। इसके अलावा एक और बात जो आलोचना को सवालों के कठघरे में खड़ा करती है वो है आलोचनाकर्म पर व्यक्तिगत रागद्वेष का हावी हो जाना। इस बात के अनेक उदाहरण हिंदी साहित्य में मौजूद हैं जब आलोचकों ने मित्रताभाव का निर्वाह किया। एक ऐसी आलोचक हैं जिनको सभी कृतियां अद्भुत ही लगती हैं। सोशल मीडिया पर वो नियमित अंतराल पर अद्भुत कृतियों के नाम पोस्ट करती रहती हैं। उनके मुताबिक हर कृति एक लंबी लकीर खीचती है। आलोचना में इस तरह की उदारता भी अनपेक्षित होती है। इन दोनों के अलावा आलोचकों में अपनी बात कहने का साहस भी कम होता जा रहा है। वरिष्ठ आलोचक निर्मला जैन ने सालों पहले कहा था कि वो अब इस वजह से किसी कृति के बारे में सही बात नहीं करती हैं क्योंकि उनको लगता है कि अगर वो ऐसा करेंगी तो लेखक नाराज हो जाएंगे। तब भी मेरे मन में सवाल उठा कि आलोचक कब से लेखक के नाराज या खुश ङोने की परवाह करने लगा? निराला ने छायावादी दौर में पंत जी की रचना पल्लव पर बेहद कठोर टिप्पणी की थी । उस वक्त पंत जी और निराला में कितने गहरे संबंध थे यह बात पूरा साहित्य जगत जानता था। दरअसल आलोचना में कभी भी मुंह देखी नहीं होती है और बेहद निर्विकार भाव से कृति पर विचार करती है। खुद मार्क्स की एक किताब है- अ क्रिटिक ऑफ क्रिटिकल रिजन। लेकिन बाद के दिनों में मार्क्स के अनुयायियों ने इसको नेपथ्य में डाल दिया और रागद्वेष के आधार पर आलोचना करनी शुरू कर दी। आलोचना को सभ्य बना दिया जो कि बेहद शिष्ट होकर कृतियों पर विचार करने लगा। इस छद्म शिष्टाचार ने आलोचकों को सच कहने से दूर कर दिया। और आलोचना जब जब सच से दूर हुई है तो उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हुए हैं।   
आलोचना पर बात करें और समीक्षा पर बात ना हो यह उचित नहीं होगा। दरअसल हिंदी में समीक्षा की स्थिति बहुत चिंताजनक होती जा रही है। बगैर किसी तैयारी के समीक्षकों की एक पूरी फौज हिंदी में आ गई है। जो समीक्षा के नाम पर किसी कृति का सारांश प्रस्तुत कर दे रहे हैं। बहुत फूहड़ता के साथ कृतियों का और लेखक का परिचय देते हैं। इस तरह के समीक्षकों को चिन्हित करना बहुत आसान है। समीक्षा भी आलोचना की तरह ही एक गंभीर कर्म है जिसमें बगैर तैयारी के उतरना बेहद जोखिम भरा होता है। सारांशात्मक समीक्षा से कृति के उसपक्ष पर बात नहीं हो पाती है जिसकी अपेक्षा समीक्षा और समीक्षकों से की जाती है। इस प्रकार की समीक्षा से लेखक भले ही खुश हो सकता है लेकिन साहित्य का या फिर पाठकों का कोई भला नहीं होता है। बहुधा समीक्षा की इस कमजोर स्थिति की वजह से ही हिंदी आलोचना को भी कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। आज जरूरत इस बात की है कि समीक्षा कर्म पर बहुत गंभीरता से ध्यान दिया जाए और नादान समीक्षकों को चिन्हित कर उनको बताया जाना चाहिए कि आपने समीक्षा के नाम पर जो सारांश प्रस्तुत किया है वो साहित्य की एक समृद्ध विधा को कमजोर करनेवाली है। इस बात की पहल लेखकों के साथ साथ साथी समीक्षकों को भी करनी चाहिए क्योंकि फेसबुक ने इस प्रकार की सारांशात्मक समीक्षा को मंच दे दिया है। फेसबुक के बहुत श्वेत पक्ष हो सकते हैं लेकिन उसकी अराजक आजादी ने लेखकों के साथ साथ नादान समीक्षकों की महात्वाकांक्षाओं को भी पंख लगा दिए हैं। आलोचना और समीक्षा की साथ को कायम रखने के लिए जरूरी है कि इस तरह के छद्म समीक्षकों को रोका जाए।      


1 comment:

कविता रावत said...

तटस्थ रहकर ही कोई आलोचक किसी रचना को आलोचना की कसौटी पर कस सकता है, लेकिन आज के दौर में मुंह देखकर जो कुछ कहा-लिखा जाता है, वह शुभ संकेत नहीं है लेखन की दिशा में ............
आपने बहुत अच्छी जानकारी प्रस्तुत की है, धन्यवाद