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Saturday, March 3, 2018

मजबूत पहल से निखरेगी प्रतिभा ·


आज अगर हम भारतीय सांस्कृतिक परिदृश्य पर नजर डालते हैं, खासकर नाटक और फिल्म के क्षेत्र में तो हमें तमाम विदेशी नाटककारों और फिल्मकारों का उदाहरण ही देखने सुनने को मिलता है। फिल्म और नाटक पर होनेवाली चर्चा में  ब्रेख्त, चेखव, हेनरिक इब्सन, कुरुसोवा, गोदार आदि के नाम ही गूंजते हैं। रूस के लेखक एंतोन चेखव के नाटकों के बारे में कहा जाता है कि 1918 से 1956 तक चेखव की रचनाओं का इकहत्तर भाषाओं में अनुवाद हुआ। पूरी दुनिया की अलग अलग भाषा में करीब पचास लाख पुस्तकें छापकर सस्ते दाम पर उसका वितरण करवाने का व्यवस्था की गई। दुनियाभर में चेखव के नाटकों के मंचन के लिए सोवियत रूस ने एक अभियान चलाया। आर्थिक के अलावा हर तरह की मदद नाटककारों को दी गई। यही हाल ब्रेख्त के नाटकों के साथ भी हुआ। हेनरिक इब्सन के नाटक अब भी हिंदी में अनूदित होकर मंचित हो रहे हैं। नार्वे के इस नाटककार के लिए वहां की सरकार ने जो जतन किए वो सबके सामने है। शेक्सपियर के साथ भी इस तरह की सहूलियत रही। अपने देश की सांस्कृतिक प्रतिभा को विश्वभर में फैलाने के लिए रूस और जर्मनी के अलावा कई देशों ने योजनाबद्ध तरीके से प्रचार किया। इसी तरह से अगर हम देखें तो फिल्मकार गोदार को धीमे ट्रैकिंग शॉट का जनक मानकर स्थापित करने के लिए दुनियाभर में प्रचार किया गया। गोदार को महान बनाने के लिए भी योजनाबद्ध तरीके से कोशिशें की गईं। लेकिन व्ही शांताराम ने जिल तरह से कैमरे का उपयोग किया उसको वैश्विक फलक पर पहचान नहीं मिल पाई। ये शांताराम ही थे जिन्होंने जिब या ट्राली शॉट के आने के पहले ही इस तरह के प्रयोग अपनी फिल्मों में किए। उस दौर में व्ही शांताराम ने बैलगाड़ी में कैमरा बांधकर जिब की तरह से उसका इस्तेमाल किया और उसको नीचे उपर करते हुए शॉट्स लिए। गंधर्व नाटक मंडली में काम करते हुए शांताराम ने जो अनुभव हासिल किए थे उसके आधार पर उन्होंने अपनी फिल्मों में बेहद क्लोज शॉट और ट्रॉली शॉट्स का इस्तेमाल शुरु किया। इस बात की चर्चा बहुत कम होती है। इसकी वजह यही है कि अबतक सरकार के स्तर पर अपने कलाकारों की कला को वैश्विक मंच पर रखने की कोशिश संजीदगी से नहीं हुई।
दुनियाभर में इस तरह के कई उदाहरण हमे देखने को मिल जाते हैं जहां सरकारें अपनी कलात्मक प्रतिभाओं के प्रचार प्रसार के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाती रही है, उसपर बजट बनाकर धन खर्च करती रही है। लेकिन हमारे देश में अपनी कलात्मक प्रतिभाओं को पूरी दुनिया के सामने पेश करने की सांगठनिक पहल नहीं हुई। इसके नाम पर होता यह था कि या तो अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भागीदारी या फिर भारत में आयोजित अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में सिनेमा का प्रदर्शन आदि करवाकर सरकारी अमला अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेता था। कल्चरल एक्सचेंज के नाम पर भी छिटपुट गतिविधियां होती थीं। भारत में आयोजित अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी सिनेमा का प्रदर्शन होता था लेकिन उसको प्रचारित प्रसारित करने के लिए खास नहीं किया जाता था। अभी हाल ही में भारत सरकार ने इस दिशा में एक ठोस पहल की है। बर्लिन में आयोजित फिल्म महोत्सव, जिसको बर्लिनाले के नाम से जाना जाता है, में सीआईआई के साथ मिलकर एक प्रतिनिधिमंडल भेजा। इसकी अगुवाई मशहूर फिल्मकार करण जौहर ने किया और सदस्य के तौर पर वरिष्ठ फिल्मकार जानू बरुआ, शाजी करुण, सेंसर बोर्ड की सदस्य वाणी त्रिपाठी, अभिनेत्री भूमि पेडणेकर, सूचना और प्रसारण मंत्रालय में संयुक्त सचिव अशोक परमार के अलावा सीआईआई के प्रतिनिधि भी शामिल थे। तीन दिनों तक चले इस बर्लिनाले में भारत की तरफ से इस प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने अपने देश के सिनेमा को तो शोकेस किया ही, इसके अलावा भारत में सिनेमा निर्माण की अनंत संभावनाओं के बारे में भी इस फेस्टिवल में शामिल होनेवाले दुनियाभर के फिल्मकारों को बताया। भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के उस पहल की मंशा बर्लिनाले में जाकर भारत की विविध और समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के बारे में पूरी दुनिया के फिल्माकरों को बताना था। प्रतिनिधि मंडल की सदस्य वाणी त्रिपाठी के मुताबिक तीन दिनों तक चले इस फिल्म महोत्सव में अनेक देशों के फिल्मकारों से बातचीत हुई और उनको भारत में शूटिंग करने से लेकर फिल्मों के एडिटिंग की सहूलियतों के बारे में बताया गया। इस तरह की पहल पहले शायद ही हुई हो जिसमें अंतराष्ट्रीय स्तर के निर्देशकों और भारतीय फिल्मकारों को आमने सामने बैठकर फिल्म निर्माण से लेकर सांस्कृतिक साझेदारी की संभावनाओं पर विचार करने का अवसर मिला हो। उनको भारत में फिल्म बनाने के लिए तमाम सहूलियतों के बारे में भी बताया गया जिनमें फिल्म फेलिसिटेशन ऑफिस भी शामिल है जो कि फिल्मकारों को सिंगल विंडों क्लीयरेंस देता है।ऐसा पहली बार हुआ है कि बर्लिनाले में कोई सरकारी प्रतिनिधिमंडल इस तरह के एजेंडे के साथ शामिल हुआ हो। बर्लिनाले के दौरान भारतीय दूतावास में बर्लिनाले के अंतराष्ट्रीय दर्शकों, जिनमें कई मशहूर प्रोड्यूसर्स भी थे, के सामने फिल्म नीरजा का प्रदर्शन भी किया गया। फिल्म से जुड़े लोगों को अस्सी का दशक याद होगा जब फ्रांस ने पूरी दुनिया के फिल्मकारों को तमाम तरह की सहूलियतें दी थीं। जर्मन फिल्मकार श्लौंडार्फ की 1984 में बनी फिल्म स्वान इन लव फ्रांस में बनी थी। इनके अलावा भी कई फिल्मकारों ने फ्रांस में जाकर फिल्म निर्माण किया था। अगर भारत में भी उसी तरह का माहौल बनाया जा सके तो दुनिया के मशहूर निर्देशक यहां आकर फिल्म निर्माण कर सकते हैं। 

एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त हमारे देश में सालभर में 1500 फीचर फिल्मों का निर्माण होता है, करीब 900 टीवी चैनलों के लिए कंटेंट तैयार किए जाते हैं, पैंतालीस करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं, जिनमें से करीब 35 करोड़ के पास स्मार्ट फोन है। यह परिदृश्य अंतराष्ट्रीय फिल्म निर्माताओं के लिए एक बेहतर बाजार है जिसके बारे में उनको विस्तार से बताए जाने की जरूरत है। अगर सरकार बर्लिनाले जैसे आयोजनों में भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के लोगों की लगातार भागीदारी सुनिश्चित करवाती है तो इसके कई फायदे हो सकते हैं। अगर विदेशों के बड़े फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों की शूटिंग और पोस्ट प्रोडक्शन का काम भारत में करती है तो स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर भी बढ़ सकते हैं। विदेश के फिल्मकारों को क्षेत्रीय स्तर के फिल्मकारों के साथ संवाद का मौका मिल सकता है जिससे की हमारे देश की स्थानीय प्रतिभा के बारे में पूरी दुनिया को पता चल सकता है और उनको बेहतर अवसर मिल सकते हैं। प्रत्यक्ष रूप से रोजगार और परोक्ष रूप से वैश्विक स्तर पर अवसर मिलने की संभावना बनती है। भारतीय फिल्म उद्योग को भी मजबूकी मिलेगी क्योंकि जब विदेशी फिल्में यहां बनने लगेंगी तो स्थानीय प्रतिभाओं को भी वैश्विक सोच और समझ का फायदा मिलेगा।  
पिछले दिनों कला विदुषी सोनल मान सिंह ने एक बातचीत में इस बात पर दुख जताया था कि हमारे देश में आजादी के सत्तर साल बाद भी कोई सांस्कृतिक नीति नहीं बन पाई है। उन्होंने एक दिलचस्प किस्सा भी सुनाया था कि जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो उनको चेतावनी दी थी कि अगर संस्कृति मंत्रालय को उचित महत्व नहीं दिया गया तो वो उनके आवास के बाहर धरने पर बैठ जाएंगी। सोनल जी इस बात से दुखी थीं कि संस्कृति मंत्रालय को किसी भी मंत्रालय के साथ पुछल्ले के तौर पर जोड़ दिया जाता है, कभी जहाजरानी मंत्रालय के साथ तो कभी महिला और बाल विकास मंत्रालय के साथ तो कभी विमानन मंत्रालय के साथ। दरअसल ये क्षोभ इस बात से उपजा था कि संस्कृति को महत्व नहीं मिलने की वजह से भारतीय कला को दुनिया में जितना महत्व मिलना चाहिए उतना मिल नहीं पाता है। अब अगर हम कालिदास का ही उदाहरण लें तो उनके नाटकों को वैश्विक स्तर पर प्रचारित करने के लिए कितने प्रयास किए गए ये शोध का विषय हो सकता है। संस्कृत में कई ऐसे नाटक और नाटककार हैं जिनके बारे में जब विदेशी विद्वानों ने लिखा तो वो अचानक से महत्वपूर्ण हो गए। कई ऐसी फिल्में बनीं, कई ऐसे निर्देशक हुए, कई ऐसी रचनाएं रची गईं जिनको वैश्विक मंच नहीं मिल पाया। वो अलक्षित रह गए। स्थानीय प्रतिभाओं को लक्षित और रेखांकित करने के लिए इस वक्त देश में एक ठोस सांस्कृतिक नीति की जरूरत महसूस की जा रही है। जबतक वो नहीं बन पाती है तबतक बर्लिनाले में जाकर भारतीय प्रतिभा और स्थितियों को मजबूती से रखने जैसी पहल लगातार होती रहे तो दुनिया के सामने भारतीय कला और कला संपदा को प्रमुखता से पेश करने में मदद मिल सकती है।


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