अलीगढ़ मुस्लिम
विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर पर मचे बवाल के बीच एक और बेहद अहम खबर दब सी
गई। उसपर चर्चा कम हो पाई। वैसे भी राजनीति के शोरगुल में कला संस्कृति हमेशा से
दबती रही है, लेकिन राजनीति का शोरगुल अस्थायी होता है जबकि संस्कृति, कला और
साहित्य में उठने वाले विवाद भले ही नेपथ्य में रहें पर कई पीढ़ियों पर इसका असर
होता है। नेहरू जी के समय उठे राजनीतिक विवादों और आरोप-प्रत्यारोप किसको याद हैं
लेकिन दिनकर की कृति ‘उर्वशी’ का विवाद अभी भी
लोगों के जेहन में ताजा है। पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की कृति ‘चॉकलेट’ पर उठा
विवाद और उसमें महात्मा गांधी के हस्तक्षेप को ना केवल याद किया जाता है बल्कि उसकी
साहित्यिक मसलों में मिसाल भी दी जाती हैं।इस पृष्ठभूमि की चर्चा इस वजह से आवश्यक
है कि पिछले दिनों सूफी और इस्लाम के नाम पर एक महिला को धमकाया गया, उसके कपड़ों
को लेकर टिप्पणियां की गईं। 30 अप्रैल 2018 को गायिका सोना महापात्रा ने मुंबई
पुलिस को एक के बाद एक कई ट्वीट किए। अपने पहले ट्वीट में सोना ने लिखा कि ‘मुझे मदारिया सूफी फाऊंडेशन से एक धमकी भरा नोटिस मिला है जिसमें उन्होंने
मुझे मेरे म्यूजिक वीडियो ‘तोरी सूरत’
को हर प्लेटफॉर्म से हटा लेने को कहा है। उनका दावा है कि ये वीडियो अश्लील है और
सांप्रदायिक तनाव को बढ़ा देगा।‘ इसके बाद उन्होंने मुंबई
पुलिस से ये जानना चाहा कि वो किससे संपर्क कर सकती है। इसके चंद मिनटों के बाद
उन्होंने एक और ट्वीट किया ‘सूफी मदारिया फाउंडेशन मुझे आदतन
अपराधी मानता है और उनके मुताबिक पांच साल पुराना मेरा वीडियो जिसमें मैने
सूफियाना कलाम ‘पिया से नैना’ गाया था,
में इस्लाम का अपमान किया गया है क्योंकि मैंने उस वीडियो में जो कपड़े पहने हुए
हैं उससे मेरा शरीर दिखता है।‘ एक और ट्वीट में फिर लिखा
जिसमें उन्होंने साफ किया कि स्लीवलेस ड्रेस और शरीर दिखाती नृत्यांगनाओं पर
फाउंडेशन को आपत्ति है। इस मसले को लेकर उन्होंने थाने जाने की जानकारी भी अपने
ट्वीट के जरिए दी थी।
सोना को मिले इस धमकी
भरे पत्र पर सोशल मीडिया में थोडा स्पंदन हुआ, एक-दो न्यूज चैनलों पर चर्चा भी
हुई। जहां सोना ने खुद से मोर्चा संभाला। फाउंडेशन के अध्यक्ष का कहना था कि सोना
इस वीडियो के माध्यम से पश्चिम की अपसंस्कृति को बढ़ावा दे रही हैं और उनका गाना
और वीडियो में स्लीवलेस कपड़े पहनकर नृत्य करना सूफी परंपरा के खिलाफ है। सोना के
मुताबिक सूफी फाउंडेशन के अध्यक्ष तो इसको इस्लाम के अपमान से भी जोड़ रहे थे। उनको
कौन समझाए कि सूफी परंपरा मुहब्बत की परंपरा है, नफरत का वहां कोई स्थान नहीं है।
फाउंडेशन को अगर लगता है कि इस म्यूजिक अल्बम में अमीर खुसरो और इस्लाम का अपमान
हुआ है तो उनको अदालत की शरण में जाना चाहिए था। वो धमकी भरे मेल्स क्यों भेज रहे
हैं। टीवी चैनलों पर अपनी आहत भावनाओं का प्रदर्शन क्यों कर रहे थे। उनको इस बात
का पता था कि सोना महापात्रा का ये म्यूजिक वीडियो सेंसर बोर्ड से प्रमाणित है
लेकिन वो इसको मानने को तैयार नहीं थे।
न्यूज चैनलों पर कई बार
ये देखने को मिलता है कि जो शख्स दाढ़ी रखता है और टोपी भी पहनता है वो टीवी
चैनलों पर इस्लामिक विद्वान के रूप में प्रस्तुत होता है। टीवी स्क्रीम पर बनी
खिड़कियों में बहुधा ऐसे लोग चीखते नजर आते हैं। सोना के मामले में भी इस तरह के लोगों
ने धर्म की आड़ में अपनी रोटी सेंकनी शुरू कर दी। इस्लाम को फिर से परिभाषित किया
गया लेकिन स्त्री का किसी को ध्यान नहीं। वहीं ये तय किया जाने लगा कि स्त्री कैसे
रहे, क्या पहने, क्या गाए आदि आदि। अन्य वक्ताओं ने विरोध भी किया पर मुख्य मुद्दा
सियासत के बियावान में खो सा गया। सियासत का तो काम है कि वो किसी भी मुद्दे को
अपना औजार बना ले, लेकिन बौद्धिक जगत के किसी भी वर्ग से इस तरह की अपेक्षा नहीं
की जाती है। सोना के मामले पर बौद्धिक और कला जगत में कोई खास विरोध देखने को नहीं
मिला। एक स्त्री को इस वजह से धमकी दी गई कि उसके कपड़े ठीक नहीं हैं, नृत्य
अश्लील है, लेकिन स्त्री विमर्श की झंडाबरदार भी लगभग खामोश ही रहीं। कुछ लोगों ने
ट्वीट पर विरोध जताया । मशहूर लेखक और शायर जावेद अख्तर ने सोना के समर्थन में
ट्विटर पर लिखा- ‘मैं इस तरह के प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी
संगठनों के इस तरह के बर्ताव का पुरजोर विरोध करता हूं, जो सोना महापात्रा के अमीर
खुसरो के गीत पर बनाए गए वीडियो पर धमकी देते हैं। इन मुल्लाओं को ये मालूम होना
चाहिए कि अमीर खुसरो सभी भारतीयों के हैं, सिर्फ उनकी जागीर नहीं हैं।‘ अन्य इस्लामिक बुद्धिजीवियों को भी जावेद साहब की तरह आगे आकर इस तरह के
मसलों का विरोध करना चाहिए और इस्लाम के मुताबिक स्थिति साफ करनी चाहिए।
जावेद अख्तर ने विरोध
किया लेकिन अन्य प्रगतिशील विद्वानों का क्या? उनको सोना महापात्रा का अपमान और उनको मिल रही
धमकी क्यों नजर नहीं आ रही है। नजर तो उनको अभिनेत्री जायरा वसीम को मिल रही
धमकियां भी नहीं आई थीं, जब वो बच्ची दंगल फिल्म की सफलता के बाद अपने गृह राज्य
कश्मीर गई थी। उसे इतनी धमकियां मिली थीं कि फेसबुक पोस्ट तक जिलीट करनी पड़ी थी। जिन्ना
और अलीगढ़ हिंसा पर न्यायिक जांच की मांग करनेवाले जनवादी लेखक संघ को सोना
महापात्रा को मिल रही धमकी और उसका अपमान नजर नहीं आता। उन बयानवीर लेखकों को भी
सोना के कपड़ों पर इस्लाम के बहाने सवाल उठानेवाले लोग नजर नहीं आते जो बयान देने
के लिए लालायित रहते हैं। क्यों इस्लाम का नाम लेते ही हमारे कथित प्रगतिशील,
जनवादी आदि आदि कहलाने वालों के हलक सूखने लगते हैं। सोना एक कलाकार होने के अलावा
एक स्त्री भी है, वो क्या पहने, कैसे रहे, क्या गाए ये उसकी स्वतंत्रता है, भारत
का संविधान उसको इसकी इजाजत देता है। अगर कोई संविधान के दायरे से बाहर निकलकर उसको
धमकी देता है तो भी हमारे प्रगतिशीलता के धव्जवाहक खामोश रहते हैं क्योंकि मामला
उनके राजनीतिक अकाओं के मुताबिक नहीं है। सवाल तो उन स्त्रीवादी, नारीवादियों पर
भी है जो सोना महापात्रा के समर्थन में खड़ी नहीं हो पा रही हैं। इस मसले पर उनकी
कलम भी सूख सी गई, कीबोर्ड जाम हो गया, उनके अंदर का एक्टिविस्ट निरपेक्ष हो गया।
यह चुनी हुई चुप्पी या चुनी हुई खामोशी है जो जनवाद और प्रगतिशीलता के सामने सबसे
बड़ी चुनौती है।
यह पहला मौका नहीं है
जब किसी कट्टरपंथी की धमकी पर हमारा कथित तौर पर तरक्कीपसंद खेमा खामोश है। दरअसल
अगर हम देखें तो जनवाद, प्रगतिवाद या फिर इससे अलग होकर जन संस्कृति के नाम पर
साहित्य के मार्फत सियासत करनेवाले लेखक, संस्कृतिकर्मी, कलाकार दो मसलों पर
बिल्कुल खामोश हो जाते हैं। एक तो जब इस्लामिक कट्टरपंथी संस्कृति आदि के नाम पर
कुछ करते या बोलते हैं और दूसरे रूस या चीन में कुछ घटित होता है। कुछ महीनों पहले
बांग्लादेश में कट्टरपंथियों ने टैगोर की रचनाओं को वहां की पाठ्य पुस्तक से हटवाने
की मुहिम चलाई थी, लेकिन हमारा प्रगतिशील तबका तब खामोश रहा था। इसी तरह चीन के एक
विश्वविद्यालय ने छात्रों के लिए एक फरमान जारी किया था जिसके मुताबिक कैंपस में लड़का-
लड़की एक दूसरे के हाथ में हाथ डालकर नहीं चल सकते थे । लड़का-लड़की एक दूसरे के
कंधे पर हाथ भी नहीं रख सकते हैं। इस फैसले में हमारे कथित प्रगतिशील जमात में से किसी
को निजता का हनन नजर नहीं आया था।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
में जिन्ना की तस्वीर के लिए जिनका दिल धड़कता है, जो किसी छोटी सी घटना पर देश के
गृहमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक को कठघरे में खड़ा कर देते हैं, उनसे जवाब की
अपेक्षा रखते हैं उनकी सोना जैसे मसलों पर खामोशी का मतलब समझ नहीं आता । अगर आप
बौद्धिक रूप से ईमानदार हैं, अगर आप किसी विचारधारा
की बेड़ियों में जकड़े हुए नहीं हैं तो साहित्यक और सामाजिक मुद्दों पर आपकी कलम
वस्तुनिष्ठ होकर चलनी चाहिए । कलम में वो धार होनी चाहिए, वो तेज होनी चाहिए जो कि
एक न्यायप्रिय शासक के पास हुआ करती थी । जो बगैर धारा, विचारधारा, संगठन, स्वार्थ, जाति समुदाय आदि को
देखे न्याय करता था । कलम को अगर हम किसी खास विचारधारा का गुलाम बनाएंगे या फिर
कलम की धार किसी खास समुदाय के समर्थन में उठा करेगी तो समय के साथ उस कलम पर से
पाठकों का विश्वास उठता चला जाएगा । लेखकों की नैतिक आभा का
क्षरण होना किसी भी समाज के लिए शुभ संकेत नहीं होता है।
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