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Saturday, May 19, 2018

सोशल मीडिया का अराजक तंत्र


कर्नाटक में राजनीतिक गहमागहमी के बीच कांग्रेस पार्टी ने रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता की कुछ पंक्तियां ट्वीट की, सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी/मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है/दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो/सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। इस ट्वीट के साथ कांग्रेस के ट्वीटर हैंडल से एक लेख का लिंक भी साझा किया गया। उस लेख में जनता की ताकत के बारे में बताया गया था। इस ट्वीट के सत्रह घंटे बाद तक इसको तेइस सौ के करीब लाइक, आठ सौ रिट्वीट और सात सौ के करीब जवाब दिए गए। कहानी अब शुरू होती है। इस कविता के ट्वीटर पर पोस्ट होने के बाद सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों ने कांग्रेस की लानत मलामत शुरू कर दी। कहा ये जाने लगा कि ये कविता दिनकर जी ने इंदिरा गांधी के विरोध में लिखी थी, जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई थी। लोग इतने पर ही नहीं रुके और कहने लगे कि ये कविता दिनकर ने जयप्रकाश नारायण के कहने पर लिखी थी और संपूर्ण क्रांति के दौर में बेहद लोकप्रिय हुई थी। यह भी आधा सच है। किसी ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि दिनकर जी का निधन 1974 में हो गया था और देश में इमरजेंसी 1975 में लगाई गई थी।कुछ लोगों ने सही बात कहने की भी कोशिश की लेकिन ज्यादातर लोग गलत ही लिखने लगे थे, जिसकी वजह से सही बात दब सी गई। दरअसल ये पंक्तियां दिनकर की कविता जनतंत्र का जन्म की शुरुआती चार पंक्तियां हैं। दिनकर ने ये कविता पहले गणतंत्र दिवस के मौके पर लिखी गई थी जो उनके संग्रह धूप और धुंआ नाम के संग्रह में संकलित है जो 1951 में प्रकाशित हुआ। बाद में जब जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का उद्घोष किया था तब उन्होंने पटना में दिनकर की इन पंक्तियों का गाया था। जयप्रकाश नारायण ने दिनकर की 1950 में लिखी कविता को संपूर्ण क्रांति का नारा बनाया था, जब वो अपने भाषणों में कहा करते थे कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।  
कर्नाटक की राजनीति से संबंधित एक और ट्वीट इतिहासकार और स्तंभकार रामचंद्र गुहा ने किया। उन्होंने लिखा, भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल कैसे एक राजनीतिक दल के राज्य इकाई का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं या उसकी तरफ से बोल रहे हैं। कर्नाटक के सियासी घमासन के बीच इस ट्वीट का संदर्भ सुप्रीम कोर्ट से है जहां इस मामले पर कांग्रेस के विधायक की याचिका पर सुनवाई हुई थी। सर्वोच्च अदालत में इस केस की सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल मौजूद थे। रामचंद्र गुहा के इस ट्वीट को भी सोशल मीडिया पर करीब तीन हजार लोगों ने लाइक किया, हजार के करीब रिट्वीट हुआ और साढे तीन सौ लोगों ने उनको उत्तर दिया। इस ट्वीट के उत्तर में कई लोगों ने रामचंद्र गुहा को ये बताने की कोशिश की कि अटॉर्नी जनरल भारत सरकार का पक्ष रख रहे थे। सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका (536/2018) दायर की गई थी उसमें भारत सरकार को भी प्रतिवादी बनाया गया था। जब किसी याचिका में भारत सरकार को प्रतिवादी बनाया जाता है, और वो मामला महत्वपूर्ण होता है तो उसमें भारत सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल ही पेश होते हैं। यह बात रामचंद्र गुहा को पता नहीं हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। बावजूद इसके उन्होंने ट्वीट कर ये सवाल उठाया और सोशल मीडिया के जरिए एक अलग तरह का माहौल बनाने की कोशिश की। उनको जब इस बारे में जब उत्तर देनेवालों ने सुप्रीम कोर्ट की याचिका के पहले पृष्ठ को वहां लगाया तब भी रामचंद्र गुहा ने अपनी इस गलती को नहीं सुधारा। स्तंभ लिखे जाने तक उनका ये ट्वीट मौजूद है। उनकी तरफ से कोई भूल सुधार नहीं किया गया है और ना ही खेद प्रकट किया गया है।
ये दो उदाहरण सोशल मीडिया की अराजकता को दर्शाने के लिए काफी है। इस तरह के कई उदाहरण सोशल मीडिया पर देखने को मिलते हैं जहां संदर्भ गलत होते हैं, उद्धरण गलत होते हैं, किसी की रचना को किसी और का बताकर पेश कर दिया जाता है। इसके बावजूद किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है। सोशल मीडिया ने बहुत लोगों को लेखक भी बना दिया, विशाल पाठक वर्ग या अपने समर्थकों से जुड़ने का एक मंच दिया, जनता से सीधा संवाद करने का अवसर दिया, यह इस माध्यम का एक सकार्तामक पक्ष हो सकता है, लेकिन साथ ही सोशल मीडिया ने जनता को बरगलाने का मौका भी दिया। अब रामचंद्र गुहा जैसे बड़े विद्वान माने जाने वाले लेखक अगर इस तरह के ट्वीट करते हैं और फिर उसपर खेद भी नहीं जताते हैं तो इसको क्या माना जाए? अखबार में कोई लेख छपता है तो उसकी जिम्मेदारी होती है, लेखक की साख होती है, उनसे सवाल जवाब हो सकते हैं लेकिन सोशल मीडिया पर क्या? लिखने की भी आजादी और जिम्मेदारी से भी आजादी। चंद लोगों में ही ये ईमानदारी है कि वो अपना गलत ट्वीट या पोस्ट डिलीट कर देते हैं, या खेद प्रकट करते हैं। दरअसल अगर हम देखें तो सोशल मीडिया पर लोग हड़बड़ी में बहुत रहते हैं, कहीं कुछ सुना, कहीं कुछ पढ़ा, कहीं कुछ जाना बस उसको लेकर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया। बगैर उसकी सत्यता जांचे, बगैर उसकी प्रामाणिकता की पड़ताल किए। दिलीप कुमार साहब से लेकर मन्ना डे के निधन को लेकर कई बार मशहूर हस्तियों तक ने ट्वीट कर दिए थे।
सोशल मीडिया पर सक्रिय बहुत सारे लोग अपनी बात रखते इस तरह से रखते हैं जैसे वो पत्थर की लकीर खींच रहे हों, जिसे मिटाना संभव नहीं है। गलत तथ्य के साथ जब पत्थर की लकीरवाला आत्मविश्वास या वज्र धारणा मिल जाती है तो स्थिति खतरनाक हो जाती है। दिनकर की ही एक और कविता समर शेष है की आखिरी दो पंक्ति सोशल मीडिया पर बार-बार उद्धृत की जाती है,समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र/जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।इस पंक्ति को अलग अलग संदर्भ में उद्धृत किया जाता है। इसकी और पंक्तियां पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि वो कविता गांधी की हत्या के बाद लिखी गई थी जिसमें कवि दुखी भी है और समाज मे व्याप्त विषम स्थितियों पर चोट करता है।
अब अगर हम गहराई से इस पर विचार करें तो सोशल मीडिया के तमाम सकारात्मक पक्ष के बावजूद ये एक राजनीतिक औजार भी बन गया है। किसी के भी पक्ष या विपक्ष में माहौल बनाने का औजार । राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ता इसका जमकर उपयोग कर रहे हैं। चूंकि इस प्लेटफॉर्म पर किसी तरह की पाबंदी नहीं है, कोई रोक-टोक नहीं है, इस वजह से अराजकता भी है। दिक्कत तब शुरू हो जाती है जब लेखक और स्तंभकार इस मंच पर गलत तथ्य पोस्ट करने लगते हैं। जब कोई मशहूर व्यक्ति, लेखक या कवि इस मंच पर तथ्यहीन बातें कहता है तो उसका असर बहुत देर तक रहता है और दूर तक जाता है। तकनीक के विस्तार और इंटरनेट के बढ़ते घनत्व की वजह से सोशल मीडिया की पहुंच लगातार बढ़ती जा रही है। सोशल मीडिया के इस बढ़ते प्रभाव को देखते हुए कनाडा के तत्कालीन प्रधानमंत्री पीयर ट्रूडो का वाशिंगटन प्रेस क्लब में 1969 में दिए भाषण की एक पंक्ति याद आ रही है। ट्रूडो ने कनाडा और अमेरिका के रिश्तों को लेकर अपने संबोधन में कहा था कि आपके (अमेरिका के) पड़ोस में रहना उसी तरह से है जैसे हाथी के साथ सोना ( स्लीपिंग विद एन एलिफेंट )। इस बात का कोई अर्थ नहीं है कि हाथी से आपकी कितनी दोस्ती है और वो कितना शांत रहता है, उसकी हर हरकत या हिलने डुलने का भी आप पर असर पड़ना तय है। ट्रूडो अमेरिका की आर्थिक ताकत को लेकर बोल रहे थे। एक अनुमान के मुताबिक उस वक्त अमेरिका की जीडीपी, कनाडा से दस गुना ज्यादा थी। उनके कहने का अर्थ ये था कि अमेरिका के किसी भी कदम से कनाडा प्रभावित होगा ही। उसी तरह से सोशल मीडिया भी ऐसा ही हाथी बन गया है जिसका असर हम सब पर पड़ना तय है। सोशल मीडिया रूपी से हाथी अभी और बड़े आकार का होगा और हमको और हमारे समाज को और प्रभावित करेगा। और अगर ये हाथी अराजक हो तो उसके खतरे का अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि सोशल मीडिया के इस आसन्न खतरे को लेकर किसी तरह के नियमन पर विचार किया जाए। नियमन का स्वरूप क्या होगा ये देशव्यापी बहस के बाद तय हो।  


3 comments:

writer, journalist, theatre-critic said...

भारत सरकार के एक मंत्रालय ने जब मीडिया को निर्देश देने की कोशिश की, तो मीडिया ने उसका विरोध किया, यह एक स्वागत योग्य कदम था. लेकिन उस समय आवश्यकता आत्म-नियंत्रण की पैदा हुई. वह आत्म-नियंत्रण वाला कदम नदारद है. न्यायपालिका किसी भी प्रकार का नियंत्रण या आत्म-नियंत्रण नहीं होने देना चाहती. प्रबुद्ध वर्ग (रामचंद्र गुहा) अराजक और राजनीतिक झुकाव लिए हुए है. कार्यपालिका का तो क्या ही काया जाए? और ब्यूरोक्रेसी को तो कोई क्या कह सकता है! वे तो अंग्रेजों के बनाए लौह-कवच को और मजबूत ही कर रहे हैं. तो यह बेचारी जनता किस पर भरोसा करे!

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन एवरेस्ट को नापने वाली पहली भारतीय महिला को शुभकामनायें : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

कविता रावत said...

बहुत अच्छी चिंतनशील प्रस्तुति
ये सच है कि जिस क्षेत्र में राजनीति की मुंडी घुसी वहां उसका बंटाधार होना ही है