हिन्दुस्तान और
पाकिस्तान के बंटवारे के बाद से दोनों देशों के बीच का रिश्ता ऐसा है जो एक दूसरे
मुल्क की रचनात्मकता को भी गहरे तक प्रभावित करता रहा है। साहित्य, कला, संगीत,
फिल्म में इस रिश्ते और उसके साथ साथ घटित होनेवाली घटनाओं पर बहुतायत में लिखा और
रचा गया है। दोनों देशों की आवाम से लेकर वहां के हुक्मरानों के बीच एक ऐसा रिश्ता
है जिसमें नफरत और प्यार दोनों दिखाई देता है। विभाजन पर भीष्म साहनी ने ‘तमस’ जैसा उपन्यास लिखा तो इंतजार हुसैन ने भी दोनों देशों के रिश्तों पर कई बेहतरीन
कहानियां लिखीं।कई पाकिस्तानी शायरों को भारत में ज्यादा पाठक मिले तो लता मंगेशकर
और मुहम्मद रफी के दीवाने पाकिस्तान में भी हैं। यह सूची बहुत लंबी है। लेकिन हाल
के दिनों में पाकिस्तान ने जिस तरह से भारत की सरजमीं पर नफरत और आतंक को अंजाम
देना शुरू किया तो उसके बाद से ये रिश्ता प्यार का कम नफरत का ज्यादा हो गया। लगभग
हर दिन भारतीय सीमा पर पाकिस्तान की तरफ से गोलीबारी, भारतीय फौज पर हमले, कश्मीर
में आतंकवादियों के मार्फत अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने की कोशिशों ने
पाकिस्तान को एक ऐसे पड़ोसी में तब्दील कर दिया जिससे एक दूरी जरूरी हो गई। पाकिस्तानी
कलाकारों का आतंक की घटनाओं पर चुप रहना भारतीयों को उद्वेलित करता रहता है। इसका
खामियाजा भी उन कलाकारों को भुगतना पड़ा।
पाकिस्तान के साथ बदलते
रिश्तों का प्रकटीकरण हिंदी फिल्मों में भी देखने को मिलता है, कभी प्रत्यक्ष तो
कभी परोक्ष रूप से । इस पार और उस पार के प्यार की कई दास्तां रूपहले पर्द पर आई।
दोनों देशों के बीच लड़े गए युद्ध को लेकर भी कई फिल्में बनीं, चाहे वो 1965 का
युद्ध हो या फिर 1971 का युद्ध या फिर करगिल युद्ध हो। इसके अलावा दोनों देशों के विभाजन
की आड़ में सांप्रदियकता और महिलाओं पर होनेवाले अत्याचार पर भी कई फिल्में बनीं। दोनों
देशों के तनावपूर्ण रिश्तों और युद्ध के माहौल में जासूसों की अहम भूमिका है। रॉ
और इंटेलिजेंस ब्यूरो जैसी संस्थाओं के जाबांजों को केंद्र में रखकर भी लगातार फिल्में
बनीं और बन भी रही हैं। इन फिल्मों में से कई फिल्में तो उपन्यासों पर भी बनीं। अभी
अभी रिलीज हुई फिल्म ‘राजी’ भी सेवानिवृत्त
लेफ्टिनेंट कमांडर हरिंदर एस सिक्का के उपन्यास ‘कॉलिंग सहमत’ पर बनी है। इस फिल्म में एक कश्मीरी लड़की की शादी पाकिस्तान फौज के आला अफसर
के बेटे से होती है जो खुद पाकिस्तानी फौज में अफसर होता है। कश्मीरी लड़की का नाम
सहमत है और इसकी भूमिका निभाई है आलिया भट्ट ने। सहमत पाकिस्तान फौज के उस आला
अफसर के घर में बहू बनकर रहती है, परिवार का दिल जीतती है लेकिन वो दरअसल होती है
रॉ की एजेंट जो अपने वतन के लिए अपनी जान खतरे में डालकर, अपना सबकुछ दांव पर
लगाकर ये काम करने को राजी होती है। दिल्ली युनिवर्सिटी की एक मासूम सी लड़की वतन
पर कुर्बान होने की अपनी पारिवारिक विरासत को आगे बढ़ाती है। कहा जा रहा है कि ये
एक सच्ची कहानी है। आलिया ने अपने शानदार अभिनय से इस किरदार को एक ऊंचाई दी है। फिल्म
के आखिरी हिस्से में ‘रॉ’ के ऑपरेशन
में उसका पति मारा जाता है, तब वो दोनों देशों के बीच जाकी हिंसा और उसको रास्ते
में आनेवाले लोगों को मार डालने की एजेंसियों की ट्रेनिंग को अंजाम देने के काम से
ऊब चुकी होती है। अपने मिशन में कामयाब होकर जब सहमत वापस अपने मुल्क लौटती है तो
उसे पता चलता है कि वो गर्भवती है। अस्पताल के बेड पर बैठी सहमत कहती है कि वो
अपना गर्भ नहीं गिराएगी क्योंकि वो और कत्ल नहीं करना चाहती है। यह वाक्य बहुत कुछ
कह जाता है। कहानी बहुत अच्छी है जिसका ट्रीटमेंट भी सधा हुआ है, गुलजार के गीत
है, उनका बेटी मेघना का निर्देशन है। पूरी फिल्म के दौरान एक रोमांच बना रहता है
कि आगे क्या? किसी भी कहानी की सफलता यही होती है कि पाठक या
दर्शक को हमेशा ये लगता रहे कि आगे क्या होगा। नामवर सिंह ने इस आगे क्या जानने की
पाठकों की उत्सकुता को कहानी की विशेषता बताया था। उनका मानना है कि कहानी ही
पाठकों को आगे देखने या चलने के लिए प्रेरित करती है जबकि कविता तो पीछे लेकर जाती
है । अगर अच्छी कविता होती है तो उसके पाठ के बाद श्रोता कवि से एक बार फिर से उन
पंक्तियों को दुहराने को कहते हैं। नामवर सिंह के इस कथन के आलोक में अगर देखें तो
फिल्म ‘राजी’ दर्शकों को जबरदस्त
सस्पेंस से गुजारती है। हर वक्त दर्शकों के मन में ये चलता रहता है कि अब सहमत के
साथ क्या होगा, उसको लेकर एक डर बना रहता है।यह उत्सकुकता अंत तक बनी रहती है।
हिंदी फिल्मों में
भारत-पाकिस्तान के विभाजन और उसमें हिंदू मुस्लिम, पारसी, सिख परिवारों के द्वंद
पर भी कई फिल्में आईं। भारत पाकिस्तान विभाजन को केंद्र में रखते हुए और उसके
वजहों को दर्शाती पहली फिल्म मानी जाती है ‘धर्मपुत्र’ ।ये फिल्म यश
चोपड़ा ने बनाई थी और 1961 में रिलीज हुई थी। ये फिल्म आचार्य चतुरसेन शास्त्री की
इसी नाम की कृति पर आधारित थी। ये फिल्म कट्टरता, सांप्रदायिकता आदि आदि को शिद्दत
से रेखांकित करती है।ये पारिवारिक फिल्मी कहानी है जिसमें दो परिवारों का द्वंद
सामने आता है। इसके बाद एक फिल्म इस्मत चुगताई की कहानी पर आई ‘गरम हवा’। ये फिल्म काफी चर्चित रही थी और उसको काफी
प्रशंसा और पुरस्कार दोनों मिले थे। इसको एस एस सथ्यू ने निर्देशित किया था। इस
फिल्म को कला फिल्मों की शुरुआत के तौर पर भी माना जाता है। फिल्म भले ही आगरा के
इर्द गिर्द है लेकिन इसका व्यापक फलक भारत-पाकिस्तान रिश्ता और बंटवारे के बाद का
द्वंद है। साहित्यक कृतियों पर बनने वाली इस तरह की फिल्मों की एक लंबी सूची है ।
भीष्म साहनी के बेहद चर्चित उपन्यास ‘तमस’ पर इसी नाम से अस्सी के दशक में टेली-फिल्म का निर्माण हुआ था। इस फिल्म
में भारत विभाजन के बाद हिंदू और सिख परिवारों की यंत्रणाएं चित्रित हुई थीं।
खुशवंत सिंह के उपन्यास ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ पर इसी नाम से फिल्म बनी थी। इसमें भी विभाजन की त्रासदी है।
विभाजन के बाद भारत
पाकिस्तान में हुए युद्ध पर भी कई फिल्में बनीं। फिल्म ‘राजी’ जिस तरह से 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध की पृष्ठभूमि पर है इसी तरह
सत्तर के दशक के शुरुआती वर्ष में चेतन आनंद ने ‘हिन्दुस्तान
की कसम’ के नाम से एक फिल्म बनाई थी। इस फिल्म में 1971 के
युद्ध के दौरान भारतीय वायुसेना के शौर्य को दिखाया गया था। इस फिल्म में वायुसेना
के वेस्टर्न सेक्टर के अभियान ‘ऑपरेशन कैक्टस लिली’ को केंद्र में रखा गया था। इसी नाम से एक और फिल्म बनी थी जिसमें अजय
देवगन और अमिताभ बच्चन थे। आमतौर पर माना जाता है कि भारत पाकिस्तान युद्ध या
दोनों देशों के रिश्तों पर बनी हिंदी फिल्में अच्छा कारोबार करती हैं लेकिन इन
दोनों फिल्मों ने औसत कारोबार किया था। दूसरी बार बनी ‘हिन्दुस्तान
की कसम’ को तो बंपर ओपनिंग मिली थी लेकिन वो अपनी सफलता को
कायम नहीं रख पाई थी।
विभाजन की विभीषिका और
भारत पाक युद्ध के अलावा दोनों देशों के प्रेमी-प्रमिकाओं को केंद्र में रखकर भी
दर्जनों फिल्में बनीं। सनी देवल की ‘गदर एक प्रेम कथा’ जाट सिख
लड़के और एक मुस्लिम लड़की के प्रेम पर आधारित एक्शन फिल्म थी। इस फिल्म को भी
लोगों ने काफी पसंद किया था। इसी तरह से यश चोपड़ा की फिल्म ‘वीर जारा’ भी लोगों को खूब पसंद आई। इसमें एक
एयरफोर्स अफसर वीर को पाकिस्तानी लड़की जारा से प्रेम हो जाता है। तमाम मुश्किलों
और बाधाओं के बाद भी दोनों मिल जाते हैं। नफरत पर प्रेम की जीत का संदेश। सलमान
खान ने भी कई फिल्में की। ‘बजरंगी भाई जान’ में एक पाकिस्तानी लड़की जो भटक कर हिन्दुस्तान आ जाती है उसको उसके घर
तक पहुंचाने के लिए पवन कुमार चतुर्वेदी, जिसकी भूमिका सलमान ने निभाई है, जान की
बाजी लगा देता है। अंत में फिर नफरत पर प्यार की जीत। कबीर खान की इस फिल्म को
जमकर दर्शक मिले। कबीर खान ने ही ‘एक था टाइगर’ बनाई जिसमें एक भारतीय एजेंट महिला पाकिस्तानी एजेंट से प्यार हो जाता
है। इसका सीक्वल भी बना, ‘टाइगर जिंदा है’। इसमें तो उत्साही निर्देशक ने रॉ और पाकिस्तान का बदनाम खुफिया एजेंसी
आईएसआई को साथ ऑपरेशन करते भी दिखा दिया, जो कल्पना की हास्यास्पद परिणति है। नफरत
पर प्यार की जीत दिखाने के चक्कर में इस तरह की हास्यास्पद स्थितियों के चित्रांकन
से बचना चाहिए अन्यथा दर्शकों का विवेक फिल्म को नकार भी सकता है।
1 comment:
भारत पकिस्तान का विभाजन कोई अच्छी घटना नहीं थी एक तरफ जहाँ भारत को आज़ादी मिल रही थी वो भी पुरे २०० सालों की गुलामी के बाद , तो वहीँ उसी भारत के टुकड़े हो रहे थे जो अनंत काल से एक अखंड देश के रूप में सदियों से एक जुट रूप में रहता चला आ रहा था , इस मूवी को देखने के बाद आपके समझ में आएगा की आखिर वास्तव में वो कौन सा शख्स था जिसकी वजह से भारत पाकिस्तान विभाजन हुआ !!!
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