राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने 23 मई
1954 को गुजरात-सौराष्ट्र-कच्छ-प्रांतीय राष्ट्रभाषा प्रचार सम्मेलन के भावनगर में
आयोजित सत्र में अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि ‘वेद, उपनिषद्,
रामायण और महाभारत- ये ही वे घाट हैं जहां पर हमारी सारी भाषाएं पानी पी हैं। भाषा
मूक भी होती है। भाषा संकेत को भी कहते हैं। और भाषा के इन रूपों को सभी लोग एक
समान समझ भी लेते हैं। अतएव मुख्य वस्तु भाषा नहीं भाव है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र
ने कहा- “भाव अनूठो चाहिए, भाषा कोऊ होय”। सो भाव की एकता को
ही लेकर ये सारा देश एक रहा है और विभिन्न भाषाओं के भीतर से हम विभिन्न भावों की
इसी एकता की अनुभूति करते हैं। भारत की भारती एक है। उसकी वीणा में दितने भी तार
हैं उनसे एक ही गान मुखरित होता है। असल में ज्ञान की गाय हमारी हमारी एक ही है,
ये सारी भाषाएं उसकी अलग अलग थन हैं जिनसे मुंह लगाकर भारत की समस्त जनता एक ही
क्षीर का पान कर रही है। भारत की संस्कृति एक है, विभिन्न भाषाएं उसी संस्कृति से
प्रेरणा लेकर अपने-अपने क्षेत्र में साहित्य रचती हैं और इन सभी साहित्यों से,
अन्तत: उसी संस्कृति की सेवा होती है, उसी संस्कृति का
रूप निखरता है जो सभी भारतवासियों का सम्मिलित उत्तराधिकार है।‘
दिनकर के इस कथन से
भारतीय भाषाओं के बीच के प्रगाढ संबंधों का पता चलता है। लेकिन आजादी के बाद
भारतीय भाषाओं के बीच द्वेष बढ़ाने का काम लगातार किया जाता रहा। हिंदी के खिलाफ
अन्य भारतीय भाषाओं को खड़ा किया गया। भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी को तरजीह दी जाती
रही। अब भी दी जा रही है। माहौल कुछ ऐसा बना कि हीं समेत अन्य भारतीय भाषाओं में
शोध को हेय दृष्टि से देखा गया। अंग्रेजी में शोध की बाध्यता ने हिंदी समेत भारतीय
भाषाओं में मौलिक चिंतन बाधित हुआ।
आजादी के सत्तर साल बाद भी अबतक भारतीय
भाषाओं को अकादमिक तौर पर साथ लेकर चलने की ठोस कवायद नहीं हुई। अलग अलग भारतीय
भाषाओं को लेकर विश्वविद्लायों की स्थापना हुई लेकिन एक ऐसे परिसर की कल्पना नहीं
की गई जिसमें संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल बाइस भाषाएं एक ही परिसर में
पल्लवित हों। आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में द्रविड़ भाषाओं को प्रोत्साहन देते
हुए, उसमें पढ़ाई, शोध और सामंज्स्य हेतु द्रविडियन युनिवर्सिटी की 1997 में
स्थापना की गई। इस विश्वविद्यालय को आंध्र प्रदेश सरकार ने तमिलनाडु, केरल और
कर्नाटक सरकार के सहयोग से स्थापित किया जहां तमिल, तेलुगु, मलयाली और कन्नड की
पढ़ाई होती है। इसी तरह हिंदी और उर्दू को लेकर अलग अलग विश्वविद्यालयों की
स्थापना की गई। अन्य भाषाओं के नाम पर भी संस्थान होंगे। मैसूर में भारतीय भाषा
संस्थान हैं लेकिन वहां अलग तरह का कार्य होता है। वहां भी निदेशक की नियुक्ति में
लंबा अंतराल होने की वजह से, संस्थान में प्रोफेसर के पद पर नियुक्तियां नहीं होने
से काम बहुत धीमी गति से हो रहा है। इस देश की संसद ने ‘द इंगलिश एंड फॉरेन
लैंग्वेजेज युनिवर्सिटी’ के नाम से केंद्रीय
विश्वविद्यालय बनाया लेकिन कभी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के नाम पर
विश्वविद्यालय की स्थापना के बारे में विचार नहीं किया गया। इस ओर किसी का ध्यान
नहीं गया या जानबूझकर भारतीय भाषाओं को नजरअंदाज किया गया, इसपर भी विचार करने की
जरूरत है।
केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के निदेशक
प्रोफेसर नंदकिशोर पांडे ने इस बावत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को 28 मई 2018 को एक
प्रस्ताव भेजा है। उन्होंने हिंदी तथा भारतीय भाषा विश्वविद्यालय की स्थापना का
सुझाव दिया है। उनका भी तर्क है कि ‘विदेशी
भाषाओं के अध्ययन अध्यापन के लिए यह कार्य भारत सरकार ने बहुत पहले कर दिया था।
लेकिन ऐसा भारतीय भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए नहीं किया गया। इस
विश्वविद्लाय की एक बड़ी भूमिका प्रत्येक भाषा भाषी क्षेत्र में बिखरी हुई वाचिक
परंपरा की सामग्री के संग्रह और लिपिबद्ध करने की होगी। जो कुछ भी संगृहीत हुआ है
उसका सघन सर्वेक्षण तथा भाषिक और व्याकरणिक अध्ययन उसमें छिपे हुए भारतीयता के
तत्वों के साथ ही ज्ञान-विज्ञान की वाचिक परंपरा का अन्वेषण करेगा। इस ज्ञान
परंपरा को शीघ्र नई तकनीक से जोड़कर संरक्षित करना आवश्यक हो गया है। विलंब होते
ही आधुनिकता के प्रहार से यह सब कुछ क्षत विक्षत होनेवाला है। तब एक बड़ी लोक
सांस्कृतिक संपदा से यह देश वंचित हो जाएगा।‘ प्रोफेसर पांडे का यह सुझाव अत्यंत
महत्वपूर्ण है और इसपर त्वरित गति से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को कार्यवाही करके
मंत्रालय को भेजना चाहिए। नंद किशोर पांडे के सुझाव को दो महीने हो गए, उनके इस
प्रस्ताव के समर्थन में भी कई भाषाविदों ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को पत्र
लिखा है। अगर भारत सरकार का मानव संसाधन मंत्रालय अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर
गंभीर है तो इस प्रस्ताव के मिलते ही संसद के आगामी सत्र में बिल बनाकर पेश कर पास
कराया जाना चाहिए।
अगर यह
विश्वविद्लाय बन जाता है तो यह राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने और मजबूत करने में
भी महती योगदान दे सकता है। कल्पना कीजिए कि एक ही परिसर में सभी भाषा के विद्वान
और छात्र अध्ययन करते हों, एक दूसरे बीच विचारों का आदान प्रदान करते हों, एक
दूसरे की समस्याओं पर, भाषाई प्रवृत्तियों पर विचार विमर्श होगा। भाषाओं के बीच
गलतफहमियां दूर होंगी। जब भाषाई आवाजाही शुरू होगी को संवाद भी बढ़ेगा और जब संवाद
बढ़ता है तो कई तरह की समस्याएं तो बगैर किसी प्रयास के हल हो जाती हैं,
भ्रांतियां भी दूर हो जाती हैं। हिंदी को लेकर जिस तरह का भय का वातावरण अन्य
भारतीय भाषाओं में पैदा किया जा रहा है वह भी दूर होगा।
प्रोफेसर पांडे
ने अपने प्रस्ताव में कहा है कि इस विश्वविद्यालय में बाइस मान्य भाषाओं के अलाव
जितनी भी उपभाषाएं या बोलियां हैं उनके भी मानक व्याकरण और इतिहास लेखन पर काम
किया जाएगा। इसके अलावा उन्होंने उन प्राचीन भारतीय भाषाओं को भी रेखांकित किया है
जिनमें प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध है लेकिन वो अब प्रचलन में नहीं है। उनके
सामने खत्म हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। इसके अलावा इस विश्वविद्यालय के स्थापित
होने से एक और काम हो सकता है जिसकी ओर भी प्रस्ताव में ध्यान आकृष्ट किया गया है
वो यह कि भारतीय साहित्य का एक अनुशासन बने ताकि वैश्विक साहित्यक परिदृश्य में हमारी
उत्कृष्ट रचनाओं को प्रचारित किया जा सके। इसका लाभ यह होगा कि नोबेल पुरस्कार
जैसी प्रतिष्ठित पुरस्कारों में भारतीय भाषाओं की भागीदारी बढ़ेगी।
इस विश्वविद्लाय
के स्थापित होने का एक लाभ यह भी होगा कि इससे भारत में मौलिक चिंतन की अवरुद्ध
हुई धारा का विकास संभव हो सकेगा। आयातित विचारधारा और आयातित भाषा ने हमारी ज्ञान
परंपरा का नुकसान किया, उस नुकसान की भारपाई के लिए भी इस बात की आवश्यकता है कि
सभी भारतीय भाषाएं कंधे से कंधा मिलाकर चलें। जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपनी मशहूर किताब
लिंगविस्टक सर्वे में लिखा है कि ‘जिन बोलियों से हिंदी की उत्तपत्ति हुई
है उनमें ऐसी विलक्षण शक्ति है वे किसी भी विचार को पूरी सफाई के साथ अभिव्यक्त कर
सकती है। हिंदी के पास देसी शब्दों का अपार भंडार है और सूक्ष्म से सूक्ष्म
विचारों को सम्यक रूप से अभिव्यक्त करने के उसके साधन भी अपार हैं। हिंदी का शब्द
भंडार इतना विशाल और उसकी अभिव्यंजना शक्ति ऐसी है जो अंग्रेजी से,शायद ही, हीन
कही जा सके।‘
लेकिन आज ऐसी स्थिति है कि हम हिंदी को विपन्न मानने लगे हैं, अपनी अज्ञानता में
हिंदी में शब्दों की कमी का रोना रोते हैं और अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से
प्रयोग करने लगे हैं। अगर हिंदी में कोई शब्द नहीं है या अन्य भारतीय भाषा में कोई
शब्द नहीं है तो बजाए अंग्रेजी की देहरी पर जाने के हम अपनी सहोदर भाषाओं के पास
जाएं और उनके शब्द का इस्तेमाल शुरू करें। अगर भारतीय भाषाओं के विश्वविद्यालय का
स्वप्न मूर्त रूप ले पाता है तो यह कार्य भी संभव हो पाएगा। भारतीय भाषाओं के शब्द
एक दूसरे की भाषा में प्रयुक्त होकर अपनी अपनी भाषा को समृद्ध करेंगे। महात्मा
गांधी ने भारतीय भाषाओं को लेकर विस्तार से लिखा है जो संपूर्ण गांधी वांग्मय के
खंड 13 और 14 में संकलित है। भारत सरकार अभी गांधी जी के डेढ सौवीं जन्मदिवस को
समारोह पूर्व मनाने की योना पर काम कर ही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद गांधी
जी की डेढसौवीं जन्म जयंती समारोह में व्यक्तिगत रुचि ले रहे हैं। इस मौके पर अगर
भारतीय भाषाओं के साहचर्य के उपरोक्त प्रस्ताव को मंजूरी मिलती है तो गांधी का
भारतीय भाषाओं के माध्यम से देश की एकता की मजबूती का स्वप्न पूरा होगा।