हाल ही में दिल्ली की केजरीवाल सरकार
ने कैबिनेट की बैठक में 15 भाषा अकादमियों के गठन को मंजूरी दी। उन भाषाओं की
अकादमियां भी दिल्ली में होंगी जिनके बोलने लिखनेवाले लोग राजधानी दिल्ली में रहते
हैं। भारतीय भाषाओं की पैरोकारी करनेवाले सभी लोगों को ये पहल अच्छी लग सकती है,
लेकिन दिल्ली में पहले से चल रही भाषाई अकादमियों के हाल देखकर आगामी दिनों में
बनने वाली इन 15 अकादमियों को लेकर बहुत उम्मीद नहीं जग रही है। बल्कि ये आशंका और
बलवती हो रही है कि करदाताओं के पैसे का अपव्यय ना हो। दरअसल हमारे देश में भाषा
बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है और आजादी के बाद से सभी राजनीतिक दल इसको भुनाने की
जुगत में रहते हैं। केजरीवाल सरकार को भी इसमें राजनीति की संभावनाएं नजर आईं
होंगी तभी एक साथ 15 भाषा अकादमियों के गठन को कैबिनेट की मंजूरी दी गई है। दिल्ली
की दो भाषा अकादमी ऐसी रही हैं जिनके प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल अपनी राजनीति चमकाने
के लिए किया जाता रहा है। पहली तो हिंदी अकादमी और दूसरी मैथिली-भोजपुरी अकादमी।
उर्दू अकादमी भी अपने आयोजनों को लेकर विवादित रही हैं।
दिल्ली की हिंदी अकादमी की बेवसाइट पर
उपलब्ध जानकारी के मुताबिक दिल्ली में हिन्दी
भाषा, साहित्य एवं
संस्कृति के संवर्द्धन, प्रचार-प्रसार और विकास के उद्देश्य से 1981 में तत्कालीन
दिल्ली प्रशासन ने स्वायत्तशासी संस्था के रूप में हिन्दी अकादमी की स्थापना की। इस
अकादमी के अध्यक्ष दिल्ली के मुख्यमंत्री होते हैं। अकादमी के कार्यक्रमों तथा
गतिविधियों के क्रियान्वयन और नियोजन में निर्णय एवं परामर्श के लिए दिल्ली के
मुख्यमंत्री दो वर्ष की अवधि के लिए संचालन-समिति गठित करते हैं। घोषित तौर पर
इसमें 25 जाने-माने
साहित्यकार, लेखक, विशेषज्ञ, पत्रकार आदि नामित किए जाते हैं। इसके अलावा अकादमी में समय-समय
पर विभिन्न कार्यों के निष्पादन/निर्णय के लिए अलग-अलग समितियां बनायी जाती है जो
उपयुक्त दिशा-निर्देशन के साथ-साथ यह सुनिश्चित करती हैं कि योजनाओं के अंतर्गत
लाभ उठाने वालों के चयन में निष्पक्षता बरती जाए। इसके अलावा इसके इसके करीब दर्जन भर घोषित उद्देश्य भी हैं
जिसमें हिंदी को लेकर बड़े बड़े दावे किए गए हैं।
अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने क बाद
से हिंदी अकादमी भी किसी ना किसी विवाद में पड़ती रही, पहले अपने संचालन समिति के
गठन को लेकर तो फिर भाषा सम्मान में अंतिम समय में जोड़े गए नामों को लेकर। मैत्रेयी
पुष्पा जब हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष रहीं तब भी इसके मंच पर नेता आए, उनको लाखों
का भुगतान भी किया गया। सवाल भी उठे लेकिन ये पता नहीं चल सका कि ऑडिट में उस
खर्चे को किस तरह से समायोजित किया गया। कलांतार में मैत्रेयी पुष्पा ने अकादमी को
लगभग विवाद मुक्त कर दिया था और अकादमी में ठोस काम-काज भी होने लगे थे, पत्रिका
भी मासिक होकर अच्छी निकल रही थी। यह अलहदा मुद्दा है कि मैत्रेयी पुष्पा के
इर्द-गिर्द भी कुछ लोग जमा होकर लाभ उठा रहे थे। ये तो सत्ता और समाज का चरित्र भी
है। मैत्रेयी पुष्पा के कार्यकाल के खत्म होने के बाद अब जो उपाध्यक्ष बने हैं वो
तो सीधे तौर पर राजनीति पर उतर आए हैं। मैत्रेयी के बाद दिल्ली सरकार ने हिंदी
अकादमी की कमान मुंबई में रहनेवाले मशहूर और बुजुर्ग मार्क्सवादी कवि लेखक विष्णु
खरे को सौंपी। विष्णु खरे की नियुक्ति पर यह भी सवाल उठता है कि दिल्ली की हिंदी
अकादमी का उपाध्यक्ष मुंबई में रहनेवाले व्यक्ति को क्यों बनाया गया? क्या दिल्ली की धरती साहित्यकार विहीन हो गई थी। या दिल्ली में
विष्णु खरे से योग्य को व्यक्ति था नहीं? अकादमी में अबतक ये
परिपाटी रही है कि इसका उपाध्यक्ष दिल्ली का रहनेवाले होता है या वो व्यक्ति होता
है जो काम करने के लिए दिल्ली आता हो। यह इस वजह से भी कह रहा हूं कि मुंबई के
व्यक्ति को हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनाने से वित्तीय बोझ बढ़ता है। अगर
उपाध्यक्ष हर सप्ताह अपने घर मुंबई जाना चाहे तो उसको अकादमी की तरफ से मुंबई आने
जाने का हवाई किराया देना पड़ेगा। वो दिल्ली में रहेगा तो उसके रहने खाने का
इंतजाम करना होगा। इसका प्रावधान दिल्ली की हिंदी अकादमी में नहीं है। अगर
उपाध्यक्ष दिल्ली सरकार से अपने आवास की व्यवस्था का अनुरोध कर दें तो एक और
समस्या खड़ी हो सकती है। दिल्ली की हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के लिए कोई वेतन तय
नहीं है बल्कि उनको हर महीने पांच हजार रुपए यात्रा व्यय के लिए दिए जाने का
प्रावधान है। तो उपाध्यक्ष पर अगर इसके अलावा किसी प्रकार का खर्च होता है तो उसको
कैसे जायज ठहराया जाएगा, ये देखना दिलचस्प होगा। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष को
अकादमी के कार्यक्रमों में शामिल होने के एवज में कोई धन देने का प्रावधान भी नहीं
है इस वजह से अबतक निमंत्रण पत्रों पर उपाध्यक्ष का सानिध्य छपता रहा है। अगर
अकादमी का उपाध्यक्ष किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता करता है या उसमें वक्ता के तौर
पर शामिल होता है तो वो धन ले सकता है लेकिन वो धन लेना कितना नैतिक होता है यह तो
उपाध्यक्ष ही बता सकता है, या फिर हिंदी अकादमी के अध्यक्ष होने के नाते दिल्ली की
जनता को अरविंद केजरीवाल से ये जानने का हक है।
दिल्ली की हिंदी अकादमी के नए नवेले
उपाध्यक्ष खरे ने अभी वार्षिक पुरस्कार समारोह में मंच से वहां मौजूद लोगों से
राजनीतिक अपील की। उन्होंने मंच से कहा कि नरेन्द्र मोदी को वोट मत देना। यह बात
समझ से परे है कि एक साहित्यिक समारोह में सरकारी अकादमी का उपाध्यक्ष उपमुख्यमंत्री
की मौजूदगी में मोदी को वोट नहीं देने की अपील क्यों करता है और उस अपील पर
उपमुख्यमंत्री खामोश क्यों रहता है। समारोह में उपस्थित एक व्यक्ति ने कहा कि हो
सकता है कि नए उपाध्यक्ष सूबे की सरकार को खुश करने के लिए अपनी सीमा से बाहर चले
गए हों। अपने छोटे से वक्तव्य में उन्होंने साहित्यकारों से कम्युनिस्ट होने की
अपेक्षा भी जता दी थी। दरअसल विष्णु खरे साहित्य की जिस पाठशाला से आते हैं वहां
साहित्यिक संगठन अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर काम करते हैं, उन्हीं के इशारे
पर लेखन करते हैं। अंग्रेजी का एक कहावत है ना कि ल्ड हैबिट डाई हार्ड मतलब कि
पुरानी आदतें जल्दी जाती नहीं है। यह तो हिंदी अकादमी की बात हुई लेकिन इसके पहले दिल्ली
की मैथिली भोजपुरी अकादमी के मंच पर नीतीश कुमार को बुलाकर केजरीवाल की राजनीति
चमकाने की कोशिश की गई थी। तब भी उसको लेकर सवाल खड़े हुए थे, लेकिन ना तो सरकार
से ना ही अकादमी की तरफ से कोई ठोस उत्तर आया था।
अब अगर हम दिल्ली की भाषा अकादमियों के प्रशासनिक ढांचे पर नजर
डालें तो वहां सालों से तदर्श व्यवस्था चल रही है। हिंदी अकादमी की ही बात करें तो
वहां कई वर्षों से पूर्णकालिक सचिव नहीं है। अभी संस्कृत अकादमी के सचिव को हिंदी
अकादमी का अतिरिक्त प्रभार है। मौथिली भोजपुरी अकादमी में भी तदर्श व्यवस्था लागू
है। उर्दू में भी पूर्णकालिक सचिव नहीं है। इन अकादमियों से लंबे समय से जुड़े एक अधिकारी
ने बताया कि किसी भी भाषा अकादमी के पास स्थायी सचिव नहीं है ।भाषा अकादमियों को
लेकर केजरीवाल सरकार कितनी गंभीर है यह इससे ही पता चलता है कि इन अकादमियों को
सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी जिस सचिव पर है वही तदर्थ है। हिंदी अकादमी में
आखिरी पूर्णकालिक सचिव ज्योतिष जोशी थे उसके बाद से तदर्थ व्यवस्था चल रही है। हिंदी
के लेखक भगवानदास मोरवाल का चयन हिंदी अकादमी के सचिव के रूप में हो गया था लेकिन
उसाक नोटिफिकेशन नहीं हो पाया। साहित्यिक हलके में चर्चा यह है कि मैत्रेयी पुष्पा
नहीं चाहती थीं कि मोरवाल जी उनके कार्यकाल मे सचिव बनें। सचिव के नहीं होने से इन
अकादमियों का कामकाज प्रभावित होता है।
भाषा, साहित्य और संस्कृति का मामला ऐसा है
जहां कि गंभीरता से काम करने की जरूरत होती है, तदर्थ व्यवस्था से राजनीति तो चमक
सकती है, लोगों को लुभाया जा सकता है लेकिन कुछ ठोस हो नहीं पाता है। जैसे अभी
हिंदी अकादमी ने जो पुरस्कार दिए हैं उसमें मुंबई के रहनेवाले जावेद अख्तर को
श्लाका सम्मान दिया गया। इसपर भी सवाल है। इसी तरह से दिल्ली के बाहर वालों को भी
अन्य पुरस्कार दिए गए। दिल्ली के लोगों के बीच काम करने की जिम्मेदारी इन
अकादमियों पर थी लेकिन उसको राष्ट्रीय पहचान दिलाने के चक्कर में ना तो दिल्ली में
ठीक से काम हो पा रहा है और ना ही राष्ट्रीय पहचान बन पा रही है, इन अकादमियों के
कर्ताधर्ताओं को ये समझना होगा कि पुरस्कार दे देना सबसे आसान काम है लेकिन भाषा
के लिए जमीन पर काम करना बहुत कठिन है लेकिन जब मंशा ही राजनीति की हो तो फिर
उम्मीद क्यों करें ठोस जमीनी काम की।
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