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Saturday, August 18, 2018

वैचारिक चोले में बौद्धिक पाखंड


हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बहुत बातें होती हैं, केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक पर बहुधा ये आरोप लगते रहते हैं कि वो अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटना चाहती है। अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियन 2014 के बाद ज्यादा सक्रिय हो गए हैं, उन्हें बात बात में लगता है कि मोदी सरकार उनके संवैधानिक अधिकार को उनसे छीन लेना चाहती है। किसी भी रुटीन कार्यवाही को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ देने की कला में उनको महारत हासिल हो चुका है। अभिव्यक्ति के ये चैंपियन एक खास विचारधारा के पहरुए हैं जो दिन रात इस जुगत में लगे रहते हैं कि कोई घटना घटे और वो सियार की तरह हुआ हुआ करने लगें। करते भी रहे हैं लेकिन जब उनकी विचारधारा के लोग या उनकी पार्टी के लोग अभिव्यक्ति की आजादी पर हमलावर होते हैं तो वो दुम दबाकर स्वामिभक्ति या वफादारी का प्रदर्शन करने लगते हैं। अबी हाल ही में ऐसा वाकया हुआ पांडिचेरी लिटरेचर फेस्टिवल को लेकर। पॉंडि लिटरेचर फेस्टिवल के नाम से आयोजित इस साहित्य महोत्सव को लेकर वाम दलों को परेशानी थी। उनकी परेशानी और आरोप यह है था कि इसके आयोजको ने दक्षिणपंथियों को मंच देने के उद्देश्य से इस लिटरेचर फेस्टिवल की रूपरेखा बनाई। इस फेस्टिवल के विरोध के लिए कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया और सीपीआईएम एक हो गए। दोनों दलों के राज्य सचिवों ने इस इवेंट का विरोध किया। सीपीएम के राज्य सचिव आर राजनंगम ने तो साफ तौर पर कहा कि पॉंडि लिटरेचर फेस्टिवल को आरएसएस प्रमोट कर रहा है। इसके अलावा इस फोस्टिवल पर एक आरोप यह भी लगाया गया कि इसमें स्थानीय लेखकों को तवज्जो नहीं दिया गया है और लेखकों की बजाए बीजेपी से संबंधित लोगों को आमंत्रित किया गया है। इस फेस्टिवल के आयोजक मकरंद परांजपे ने साफ तौर पर इन आरोपों को खारिज किया और कहा कि इसमें तमिल के लेखकों को तो बुलाया ही गया, श्री अरविंदो से संबंधित सत्र भी रखे गए थे। वामपंथियों ने एकजुट होकर अलियॉंस फ्रांसेज को इस आयोजन के खिलाफ पत्र लिख। अलियॉंस फ्रांसेज एक फ्रांसीसी संस्था है जो अनेक देश के विभिन्न शहरों में फ्रांस की कला संस्कृति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है। अलियॉंस फ्रांसेज में ही इसका आयोजन होना था।
अब इस आयोजन के खिलाफ वामदलों की एकजुटता और वृहत्तर वाम वौद्धिक समाज की खामोशी या निरपेक्षता चिंता की बात है। दरअसल ये हमेशा से होता रहा है वाम दलों की विचारधारा से इतर अगर कोई आयोजन होता है तो ये लोग उसके खिलाफ एकजुट हो जाते हैं और उसको संघ से जोड़कर अस्पृश्य बनाने की कोशिश में लग जाते हैं। अगर एक मिनट को ये मान भी लिया जाए कि ये लिटरेचर फेस्टिवल दक्षिणपंथी लेखकों का ही जुटान है तो उसको लेकर विरोध क्यों? क्या वामपंथियों के लेखक सम्मेलनों को लेकर दक्षिणपंथियों ने कभी हल्ला मचाया है। देश में कई लिटरेटर फेस्टिवल ऐसे होते हैं जिसमें दक्षिणपंथी लेखक या लेखकों को नहीं बुलाया जाता है, अब भी अगर उनको बुलाया जाता है तो आयोजक इस लिहाज से बुलाते हैं कि मौजूदा सरकार को खुश किया जा सके या जिन बीजेपी राज्य सरकारों से धन लेते हैं उनको बता सकें कि अमुक अमुक लेखक को आमंत्रित किया गया है। 2014 में मोदी सरकार बनने के पहले लिटरेचर फेस्टिवल्स के आमंत्रित लेखकों की सूची को देख लीजिए स्थिति बिल्कुल आईने की तरह साफ हो जाएगी कि कितने दंक्षिणपंथी लेखकों को आमंत्रित किया जाता रहा है। अनुपात लगभग नगण्य है।
दरअसल वामपंथी लेखकों को और उनके आका राजनीतिक दलों को यह लगता है कि बौधिकता पर उनका ही वर्चस्व है। जब भी बौद्धिकता के नाम पर कोई आयोजन होता है और उनके आमंत्रित वक्ताओं में प्रखर वक्ताओं के नाम दिखाई देते हैं तो उनको अपना सिंहासन हिलता दिखने लगता है। जब उनके अपना सिंहासन हिलता प्रतीत होता है तो वो उसके विरोध में उतर आते हैं, सिर्फ लेखक ही नहीं बल्कि वाम दलों के नेता भी इस विरोध में साथ खड़े नजर आते हैं। अब सवाल यह उठता है कि अगर पॉंडि लिटरेचर फेस्टिवल को लेकर वाम दलों ने जिस तरह से विरोध किया और अलियॉंस फ्रांसेज तक को विवाद में खींच लिया उसके प्रतिरोध में अभिव्यक्ति की आजादी के कितने चैंपियन खुलकर बोले। हिंदी में तो अगर नजर घुमाकर देखते हैं तो इस मसले पर लगभग सन्नाटा नजर आता है। अभिव्यक्ति की आजादी पर आसन्न संकट को लेकर छाती कूटने वाले लेखक संगठन भी खामोश हैं। उनकी तरफ से अबतक किसी प्रकार की हलचल नहीं दिखाई दे रही है, लेखक संगठनों में कोई भी वीर बालक नहीं है जो अपनी पार्टी के नेताओं के खिलाफ जाकर संविधान में मिले अधिकारों की रक्षा के लिए आगे आ सके। यही चुनिंदा खामोशी या चुनी हुई चुप्पी हिंदी के वामपंथी लेखकों की सबसे बड़ी कमजोरी हैं। क्या संविधान दक्षिणपंथी लेखकों को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं देता या फिर वो साहित्य कला और संस्कृति के क्षेत्र में अस्पृश्य हैं। आज जो लोग अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बीजेपी और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को घेरने की कोशिश करते हैं और उनको आजादी के लिए खतरा बताते हैं उनको एक और संदर्भ याद रखना चाहिए । संविधान में पहले संशोधन को लेकर बहुत जोरदार बहस हो रही थी मसला कुछ मौलिक अधिकारों को लेकर संशोधन का था । कई मसलों के अलावा संविधान के अनुच्छेद 19 में जो अभिव्यक्ति की आजादी का प्रावधान है उस पर कुछ अंकुश लगाए जाने की बात हो रही थी । जवाहरलाल नेहरू, सी राजगोपालाचारी, अंबेडकर समेत कई नेता इस पक्ष में थे कि अभिव्यक्ति की आजादी पूर्ण नहीं होनी चाहिए । बहस के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि आजाद प्रेस युवाओं के दिमाग में जहर भर रहा है । तब श्यामा प्रसाद मुखर्जी अकेले ऐसे शख्स थे जिन्होंने इस लड़ाई को लड़ा था और कहा था कि अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी भी तरह का अंकुश जायज नहीं होगा । कालंतर में इस तथ्य को बेहद चालाकी से दबा दिया गया। दरअसल इसके पीछे की पृष्ठभूमि ये थी कि 1950 में क्रासरोड नामक पत्रिका में नेहरू की नीतियों की जमकर आलोचना हुई थी और नेहरू इससे खफा होकर प्रेस पर अंकुश लगाना चाहते थे । उस वक्त की मद्रास सरकार ने क्रासरोड पर पाबंदी लगाई थी । आजाद भारत में ये पहली पाबंदी थी । क्रासरोड इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई थी और यूनियन ऑफ इंडिया बनाम रोमेश थापर का केस अब भी कई मामलों में नजीर बनता है । इसके बाद अभिव्यक्ति की आजादी पर सबसे बड़ा खतरा इमरजेंसी को दौरान आया था, तब संघ के लोग उसके विरोध में थे और सीपीआई मजबूती के साथ इमरजेंसी के पक्ष में थी। दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में प्रगतिशील लेखक संघ ने एक बैठक में इमरजेंसी का समर्थन किया था, उस बैठक की अध्यक्षता भीष्म साहनी ने की थी। इमरजेंसी के बाद राजीव गांधी ने मानहानि की आड़ में प्रेस की आजादी का गला घोंटने की योजना बनाई थी। उसके बाद मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी केबल एंड टेलीविजन रेगुलेशन एक्ट में बदलाव कर न्यूज चैनलों पर पाबंदी लगाने की कोशिश हुई थी। इन सबमें संघ कहां था, कहीं ना कहीं हर जगह परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से वामपंथी दलों की भूमिका थी। ये तो वही बात हुई कि आप अपराध भी करो लेकिन जब दोषी ठहराने की बात आए तो बगैर किसी सबूत के किसी और को दोषी ठहरा दो।  
दरअसल अगर हम देखें तो वामपंथी विचार के लेखक बौद्धिक पाखंड में आकंठ डूबे रहते हैं। वो साहित्य की आड़ में राजनीति करते हैं। अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए साहित्य के क्षेत्र में इस तरह का प्रपंच रचते रहते हैं, जिसका कोई आधार नहीं होता है। साहित्यिक प्रपंच के लिए सबसे जरूरी यह होता है कि अपने से विपरीत विचारधारा वालों को नीचा दिखाया जाए। विचारधारा को नीचा दिखाने के लिए आवश्यक होता है कि उसको बदनाम किया जाए। वामपंथियों को इसमें महारत हासिल है, इतने कुतर्कों के साथ किसी को घेरते हैं कि पहली नजर में वो बात सही लगती है। जैसे पुरस्कार वापसी का जो प्रपंच रचा गया था वो अब जाकर खुला है कि किस तरह से नियोजित तरीके से उसको अंजाम दिया गया था। साहित्य अकादमी के उस वक्त के अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी ने पूरा खेल खोला। लेकिन जब पुरस्कार वापस किए जा रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि स्वत:स्फूर्त सब हो रहा है। हमारे समाज में बुद्धिजीवियों को अगर अपनी साख बनानी है तो उनको सार्वजनिक रूप से सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस दिखाना होगा, बगैर विचारधारा के दबाव में आए, अन्यथा जिस तरह से ज्यादातर लेखकों के बौद्धिक पाखंड उजागर हो रहे हैं वो ना तो साहित्. के लिए अच्छा है ना ही समाज के लिए।   

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