पिछले दिनों जब फिल्म ‘मुल्क’ का विज्ञापन
छपा तो उसमें लिखा था कि 45 फीसदी गैर-मुसलमान उस वक्त असहज हो जाते हैं जब उनके
पड़ोस में कोई मुसलमान परिवार रहने आता है। इसी विज्ञापन में छोटे अक्षरों में यह
भी लिखा गया था कि ये निष्कर्ष राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण पर आधारित है। इस विज्ञापन
को देखकर मन में कई सवाल कुलबुलाने लगे थे। फिल्म के निर्देशक से भी सवाल पूछना
चाह रहा था। मैंने इस विज्ञापन और अनुभव सिन्हा को टैग करते हुए ट्विटर पर लिखा कि
‘यह
नफरत फैलानेवाला और उसको गाढा करनेवाला विज्ञापन है, अनुभव सिन्हा जी को यह बताना
चाहिए कि किस एजेंसी ने ये सर्वे किया, किन राज्यों में ये सर्वे किया गया, इसका
सैंपल साइज कितना था। ये जानने की कोशिश भी की कि गैर-मुसलमानों के पड़ोसी बनने से
कितने मुसलमान असहज होते हैं। अनुभव सिन्हा ने प्रश्न का उत्तर देने की बजाए प्रतिप्रश्नों
की झड़ी लगा दी, ‘आप
इस आंकड़ें से असहमत हैं क्या?आपको
लगता है सही आंकड़ा इससे ज्यादा है?या कम? या आपको लगता है कि ये बात खुले में
नहीं कही जानी चाहिए?’।
उत्तर की अभिलाषा में जब प्रतिप्रश्न आया तो कहना पड़ा कि आंकड़ों से सहमत-असहमत
तब हुआ जा सकता है जब उसका आधार ज्ञात हो, मनगढंत आंकड़े और राष्ट्रव्यापी सर्वे
कह देने भर से इसकी विश्वसनीयता साबित नहीं होती। ज्यादा या कम पर भी बात तभी हो
सकती है। उनको इतना आश्वस्त जरूर किया कि खुले में बात करने का पक्षधर हूं। अनुभव
सिन्हा ने भरोसा दिया और कहा कि ‘जिम्मेदार
नागरिक हूं, कुछ भी नहीं कह दूंगा। विश्वास रखें। प्रेम के पक्ष में हूं जहर नहीं
घोलूंगा।‘
ट्विटर पर उस संवाद के बीच कई खामखां किस्म के लोग भी आए और उलजलूल टिप्पणियां की।
किसी को गुजरात की याद आई कोई मोदी को कोसने लगा कोई, बेरोजगारी तक पहुंच गया। लेकिन
अनुभव सिन्हा ने संवाद की मर्यादा के लक्ष्मण रेखा को नहीं लांघा। उनके कुछ ‘खामखां’ मित्रों ने
जरूर 'मुल्क' के विज्ञापन को लेकर जहर घोलने की कोशिश की। सोशल मीडिया पर अगर इस
फिल्म को लेकर भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई तो उसके लिए इस तरह के विज्ञापन और
अनुभव के ‘खामखां’ किस्म के मित्र
जिम्मेदार हैं। जो हर मुद्दे में मोदी और बीजेपी को लाकर स्थिति को तनावपूर्ण बना
देते हैं। बाद में यह लक्षित किया गया कि विज्ञापन में भी मुसलमान और गैर-मुसलमान का अंतर
और उनके बीच की असहजता को उभारने की कोशिश लगातार कम होती चली गई और फिल्म रिलीज
होने के बाद तो सभी भारतीयों से इसको देखने की अपील की गई। यहां यह सवाल भी उठता
है कि क्या पोस्टर को भी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से अनुमति लेनी होती है।
मेरी जानकारी के मुताबिक ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। इस विषय पर फिर कभी चर्चा
होगी।
दरअसल निर्देशक अनुभव सिन्हा के ‘खामखां’ किस्म के
मित्रों ने अपनी टिप्पणियों से फिल्म को लेकर जो शत्रुतापूर्ण माहौल बनाया वह
गैरजरूरी था और फिल्म की भावना के खिलाफ भी। फिल्म में कहीं भी हिंदू मुस्लिम संघर्ष
को नहीं दिखाया गया है। दरअसल इस फिल्म को हमें समग्रता में देखना होगा तभी इसके
कहन और कथन तक पहुंचा जा सकता है। फिल्म के शुरू में ही ये लिखकर आता है कि इसकी
कहानी हाल के दिनों की कुछ हेडलाइंस पर आधारित हैं। फिल्म जैसे आगे बढ़ती है तो
मुस्लिम परिवार की हिंदू बहू लंदन से अपने पति को छोड़कर अपनी ससुराल आती है। इसकी
वजह बहुत गंभीर है,
मुसलमानों के लिए बड़ा सवाल लेकर उपस्थित होता है। मुसलमान पति और हिंदू पत्नी के
बीच इस बात को लेकर मतभेद होता है कि उनके होनेवाले बच्चे का धर्म क्या होगा। पति
चाहता है कि बच्चा होने के पहले ही उसका मजहब तय कर दिया जाए। अब इसमें परोक्ष तौर
पर फिल्म ये बताना चाहती है कि मुसलमानों के अंदर मजहब को लेकर कितनी कट्टरता है। फिल्म
की नायिका आरती इस बात को रेखांकित करती है कि जब उसने आफताब से प्रेम किया था तो
मजहब देखकर नहीं किया था तब उसके होने वाले बच्चे का मजहब उसके जन्म के पहले क्यों
तय कर लिया जाए?
विवाद बढ़ने के बाद दोनों कुछ समय के लिए अलग होने का फैसला कर लेते हैं। अनुभव
सिन्हा ने अपनी
फिल्म में भारतीय समाज के उस चरित्र को उभारा है जो हमारे देश में वर्षों से
विद्यमान है। फिल्म ‘मुल्क’ में मुराद अली
मोहम्मद का पैंसठवां जन्मदिन मनाया जा रहा है। मोहल्ले की हिंदू महिलाएं भी जश्न
में शामिल थीं, आनंद का माहौल था। हिंदू महिलाओं को खाने के लिए पूछा जाता है तो
उनमें से एक बेहद सहजता के साथ कहती हैं कि हम इनके यहां खाते नहीं हैं। इसमें कोई
हिंदू कट्टरता नहीं है। हमने तो अपने गांव में भी देखा है कि मुसलमानों के यहां
शादी ब्याह के मौके पर हिंदुओं को जो भोज दिया जाता था उसके लिए चूल्हा अलग रहता
था और अलग रसोइया खाना बनाता था। यह सब इतनी सहजता से होता था कि किसी को किसी तरह
का अपमान नहीं लगता है। गांव पर हमारे घर मुतवल्ली आते थे, उनके लिए अलग बरतन होता
था जिसमें वो खाते-पीते थे। कभी किसी के मन में इसको लेकर कोई दुर्भावना नहीं
प्रकट होती थी।
इस फिल्म में मुसलमानों को नसीहत दी गई
है कि वो अपने परिवार के बच्चों पर नजर रखें, वो क्या कर रहे हैं, किससे मिल रहे
हैं, सोशल मीडिया पर क्या लिख रहे हैं आदि आदि। किसी भी परिवार में कोई अपराधी
पनपता है तो जिम्मेदारी उस परिवार के अभिभावकों पर भी होती है। इस बात को भी
रेखांकित करना चाहिए कि किस तरह से मुसलमानों को एक खास किस्म का डर दिखाकर
बरगलाया जाता है। फिल्म में दो मुस्लिम लड़कों के बीच स्कूटर पर एक संवाद बेहद
महत्वपूर्ण है जिसमें आतंकवादी बन गया लड़का ये तर्क देता है कि शासन उनके कौम के
साथ भेदभाव कर रहा है, उनको नौकरियां नहीं मिल रही है, दूसरा लड़का यह उत्तर देता
है कि हिंदू लड़कों को कौन सी नौकरियां मिल गईं, खासकर उन हिंदू लड़कों को जिसको
उनसे बेहतर अंक आए थे। मुस्लिम समाज को अपने अंदर झांक कर देखना होगा कि क्यों वो
गलत के खिलाफ खड़े नहीं हो पाते हैं? जब उनके ही कौम के चंद लोग आतंकवादी को
शहीद बताकर उसके सम्मान में आयोजन करना चाहते हैं, तो उनका विरोध क्यों नहीं होता
है, क्यों कोई मुराद अली तनकर खड़ा नहीं होता। ऐसा नहीं है कि इस फिल्म में
हिंदुत्व के उग्र होने को नहीं दिखाया गया है लेकिन वो फैशन में ना होकर सचाई के
करीब है। कैसे मुसलमानों की कट्टरता के विरोध में हिंदू भी धार्मिक आयोजन करने लगे
हैं, उन स्थानों पर भी जहां अबतक ये नहीं होता आया था। लेकिन वहां भी जब एक
मुस्लिम परिवार अस्पताल जाने के लिए रास्ता मांगता है तो कोई रोकता नहीं है। मुसलमान
परिवार की हिंदू बहू जब अदालत जाने के लिए घर से निकलती है तो पहले मंदिक जाती है,
वहां पूजा करती है और प्रसाद को माथे से लगाती है, किसी को आपत्ति नहीं होती, न तो
पुजारी को ना ही परिवार को।
फिल्म में संवादों के जरिए भी मुसलमानों
को सीख दी गई है। ऐसा ही एक संवाद है कि जहां कहा गया है कि जब भी पाकिस्तान की
जीत पर कुछ घरों में पटाखे फूटेंगे तो शक का वातावरण बनेगा। मुराद अली से उनकी बहू
आरती जब कठघरे में सवाल जवाब करती है तो वो जानना चाहती है कि उसने पिछले दो तीन
सालों में दाढ़ी क्यों बढ़ाई। ऐसे दर्जनों संवाद इस फिल्म में हैं। कहीं भी
निर्देशक ‘वो’ या ‘हम’ के पक्ष में
झुके नहीं दिखाई देते हैं। बहुत दिनों के बाद ऐसी वैचारिक फिल्म
आई है जो वस्तुनिष्ठ और संतुलित होकर किसी समस्या को उठाती है, बगैर किसी चश्मे के
देखती है और घटनाओं और संवादों के माध्यम से दर्शकों के सामने प्रस्तुत करती है। कोर्ट
रूम सीन में भले ही निर्देशक जब आतंकवाद को परिभाषित करने चलते तो संकेत में कुछ
बातें कहते हैं जिसपर देशव्यापी बहस की जरूरत है, कुछ लोग उससे सहमत या असमहत हो
सकते हैं। दरअसल एक खास विचारधारा के लोग दाढ़ी और टोपी को देखते ही उसकी हिमायत
में निकल पड़ते हैं बगैर तथ्यों को जानें, बगैर स्थितियों और परिस्थितियों को
परखे। सहअस्तित्व और सहिष्णुता हिंदुत्व की ताकत है लेकिन विचारधारा के मोह में
धृतराष्ट्र बनने की प्रवृत्ति उसको गलत दिशा में मोड़ देती है। जब दिशा गलत होती
है तो सोच भी गलत रास्ते पर चल पड़ती है और गलतफहमियां पैदा होती है। जरूरत इस
वैचारिक आतंकवाद के खिलाफ जिहाद की भी है और युद्ध की भी है।
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