यूपीए सरकार के दस साल के शासन के दौरान
पूर्व में बनी कई महात्वाकांक्षी योजनाओं पर काम शुरू हुआ था, करोडों खर्च हुए
लेकिन वो पूरा नहीं हो पाया। ऐसी ही एक योजना थी मुंबई में नेशनल म्यूजियम फॉर
इंडियन सिनेमा के निर्माण की। यह संस्था सूचना और प्रसारण मंत्रालय के फिल्म
डिवीजन के अंतर्गत बनाया जाना था। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में
मुंबई में भारतीय सिनेमा का संग्रहालय बनाने की योजना बनी थी। 2003 में पी के नायर
की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन कर दिया था जिसको म्यूजियम के बारे में सुझाव
देना था। इस कमेटी की रिपोर्ट पांच साल बाद आई। उसके बाद लंबी सरकारी कार्यवाहियां
चलती रही, बिल्डिंग के लिए टेंडर आदि हुए, क्यूरेशन के लिए समझौता हुआ। इन योजनाओं
को अमली जामा पहनाने के लिए कमेटी बनी थीं, उनकी जिम्मेदारियां भी तय की गई थी
लेकिन जिम्मेदारियों के साथ जवाबदेही नहीं तय की गई। 18 अप्रैल 2011 को श्याम
बेनेगल की अध्यक्षता में सोलह सदस्यों की एक सलाहकार समिति बनाई गई। इस समिति में
अदूर गोपालकृष्णन,यश चोपड़ा, सब्यसाची मुखर्जी, गौतम घोष, सई परांजपे जैसे
दिग्गजों को शामिल किया गया था। इसमें सूचना और प्रसारण मंत्रालय से फिल्मों से
संबंधित संयुक्त सचिव को भी सदस्य बनाया गया था। इस समिति के लिए नौ काम तय किए गए
थे जिसमें सिनेमा से संबंधित ऐतिहासिक महत्व की वस्तुओं की पहचान करना, सिनेमा से
जुड़े लोगों के बीच आपसी संबंध बनाने की कोशिश करना, सामग्री जुटाने के लिए
प्रक्रिया बनाना, प्रस्तावित म्यूजियम में सामानों और कलाकृतियों की प्रदर्शनी से लेकर
इसके मास्टर प्लान को देखना, थीम आदि के बारे में सलाह देना से लेकर सिनेमा से
संबंधित सामग्री के दस्तावेजीकरण आदि शामिल था। इस कमेटी के बाद 16 दिसबंर 2011 को
एक और समिति बनी जो कि सलाहकार समिति को सहायता देने के लिए बनाई गई थी जिसमें
कंटैंट के लिए ग्यारह लोगों की समिति थी और खरीद के लिए अदूर गोपालकृष्णन और पी के
नायर समेत आठ लोगों की एक अलग समिति बनाई गई। इनका मुख्य काम कलाकृतियों की खरीद
करना था और इनकी भूमिका भी अलग से तय की गई थी। 2011 में सलाहकार समिति के गठन के
बाद 2017 के जनवकी तक उऩकी पंद्रह बैठकें हुई लेकिन म्यूजियम जिस हालत में है उसको
देखरर लगता है दिग्गजों की सोच अच्छी हो सकती है पर वो व्यावहारिक नहीं थे।
इस म्यूजियम को लेकर सिनेमा की इतनी
बड़ी बड़ी शख्सियतों की सलाहकार समिति और उनको मदद करने के लिए बनी दो अन्य
समितियों के होने के बावजूद इसको समय पर पूरा नहीं किया जा सका। भारतीय सिनेमा के
सौ साल पूरे होने के अवसर पर इसको खोला जाना था लेकिन इस म्यूजियम को औपचारिक तौर
पर अबतक सिनेमा प्रेमियों के लिए नहीं खोला जा सका है। 2014 में सरकार बदल गई और
नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार ने कामकाज संभाला। लेकिन सलाहकार समिति वही
चलती रही, उसकी बैठकें होती रहीं, बहसें होती रहीं। पंद्रह बैठकों में जो चर्चा
हुई उसको पढ़ने के बाद लगता है कि विद्वता और व्यावहारिकता एक साथ नहीं चल सकती
है। बहस इस बात पर होती रही कि सिनेमा कहा
जाए या मूविंग इमेज कहा जाए, बॉलीवुड कहा जाए या हिंदी फिल्म कहा जाए आदि आदि । पंद्रह
बैठकों पर करदाताओं की गाढ़ी कमाई के पैसे लगते रहे, पर नतीजा कुछ नहीं। इस लंबी
कालावधि में मुंबई के मौजूदा गुलशन महल के अलावा एक और पांच मंजिला इमारत बना दी
गई। इस इमारत का डिजाइन इस तरह से है कि अगर पचास साठ बच्चों का एक समूह वहां
पहुंच जाए और कैमरे को देखना चाहे तो कैमरा गिर जाएगा।
यह जानना बेहद दिलचस्प और मनोरंजक है
कि दिग्गजों की इस सलाहकार समिति के रहते नेशनल काउंसिल ऑफ साइंस म्यूजियम को
फिल्म म्यूजियम के क्यूरेशन का काम दिया गया और इस काम के लिए संस्था को 10 करोड़
से अधिक की राशि देना तया किया गया। दिलचस्प और मनोरंजक इस वजह से कहा कि फिल्म
म्यूजियम के क्यूरेशन का काम अलग है और साइंस म्यूजियन के क्यूरेशन का काम अलग है।
साइंस वाले जब फिल्म म्यूजियम का काम करेंगे तो कल्पना ही की जा सकती है कि वो
कैसा काम कर पाएंगें। गुलशन महल में म्यूजियम का जो काम हुआ उसको देखकर सलाहकार
समिति की कार्य करने की क्षमता पर तो सवाल खड़े होते ही हैं, इतने सालों तक चला
करोडों का खर्चे पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। पंद्रह बैठकों पर में आने के लिए
सदस्यों को बिजनेस क्साल का हवाई टिकट, पांच सितारे होटल में उनके रहने की
व्यवस्था आदि पर तो लाखों खर्च हुए होंगे और वो खर्च करदाताओं की कमाई का है।
इस बीच जब स्मृति ईरानी सूचना और
प्रसारण मंत्री बनीं तो उन्होंने जनवरी 2018 में सलाहकार समिति की जगह पर सात
लोगों की एक इनोवेशन कमेटी बना दी जिसमें प्रसून जोशी, पीयूष पांडे, वाणी
त्रिपाठी, विनोद अनुपम और अतुल तिवारी जैसे फिल्म से जुड़े लोगों को शामिल किया
गया। इसकी पहली ही बैठक में अबतक पर हुए कामकाज का जो आंकलन किया गया वो बेहद
चौंकाने वाला है। गुलशन महल के हेरिटेज विंग को इस समिति ने पोस्टर प्रदर्शनी करार
दिया। इस समिति ने म्यूजियम के मौजूदा स्वरूप और वहां जिस तरह के कंटेंट प्रदर्शित
किए गए हैं उसको सही नहीं माना और कहा कि जो भी चीज प्रदर्शित की गई है उसके बारे
में सही से बताया नहीं गया है। नई समिति की एक ही बैठक हुई है जिसमें म्यूजियम के
मौजूदा हालात पर 17 कठोर टिप्पणियां की गई हैं। अतुल तिवारी ने लिखित तौर पर अपना
आकंलन प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने गुलशन महल को वहां प्रदर्शित सामानों के
दबावों से मुक्त करने की सलाह दी है। उन्होंने तो म्यूजियम में इस्तेमाल की गई
हिंदी पर भी सवाल उटाते हुए उसको सरल बनाने की सलाह दी है। इसके अलावा भी बहुत
सारी विसंगतियां पाई गईं। अब सवाल यही उठता है कि सात साल तक करोड़ों खर्च करने के
बाद भी अगर कोई काम इस स्थिति में है तो इसकी जवाबदेही किसकी है। विद्वान सलाहकार
समिति ने गांधी और सिनेमा के नाम से एक गैलरी बनाने की सलाह दी थी, जो बनी भी। अब
उसको स्वतंत्रता संग्राम और सिनेमा के साथ जोड़कर संपूर्ण गैलरी बनाने की बात की
जा रही है।
दरअसल अगर हम देखें तो कांग्रेस ने
अपने शासन काल के दौरान कला, सिनेमा और संस्कृति को वामपंथियों को आउटसोर्स कर
दिया था। उनको इस तरह के संस्थानों का झुझुना पकड़ाकर उनका समर्थन लेते रहे थे। ये
काम इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान शुरू किया था, जब सीपीआई ने इमरजेंसी का
समर्थन किया था। बाद की कांग्रेस सरकारों ने इसको कायम रखा और मोदी सरकार के सत्ता
में आने के पहले तक ये सब बगैर किसी बाधा के चलते रहा। जब 2014 में मोदी सरकार बनी
तब ये बात चली थी कि इस तरह से संस्थानों को वामपंथियों के प्रभाव और प्रभुत्व से
मुक्त किया जाएगा। कई संस्थाओं को मुक्त करने की कोशिश भी की गई, वामपंथियों को
अपना गढ़ छिनने की आशंका भी हुई थी लेकिन कला, फिल्म और संस्कृति से जुड़े मंत्री इतने
सहिष्णु बने रहे कि ज्यादातर पुरानी व्यवस्था को कायम रहने दिया गया। अब अगर हम
फिल्म म्यूजियम के काम को ही देखें तो 2018 में जाकर एक नई समिति का गठन हुआ जिसकी
एक फरवरी 2018 को एक बैठक हो पाई है। उसके बाद से इस समिति की भी कोई बैठक नहीं
हुई है। पिछले सात महीनों में म्यूजियम को लेकर कितना काम हुआ यह भी सामने आना शेष
है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक 25 जनवरी 2018 तक इस म्यूजियम पर एक सौ छत्तीस करोड़
इकतालीस लाख खर्च हो चुके हैं। अब यहां सवाल उठता है कि जो काम 2013 में एक खास
मौके पर पूरा होना था और उसको पूरा करने में श्याम बेनेगल और अदूर गोपालकृष्णन
जैसे लोग लगे थे वो काम अबतक पूरा नहीं हो पाया है। बगैर जवाबदेही के जिम्मेदारी
का ये बेहतरीन नमूना है। सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जिसकी विरासत को संभालना हमारी
जिम्मेदारी है क्योंकि सिनेमा के माध्यम से इतिहास भी दर्ज होता चलता है। आजादी के
पूर्व हमारा समाज कैसा था, आजादी के वक्त कैसा था, नेहरू के बाद का दौर कैसा रहा,
इंदिरा से लेकर अबतक का दौर कैसा है, फिल्मों के रील और चिप में सबकुछ दर्ज हो रहा
है। 15 साल बीतने के बाद भी अटल सरकार की इस महत्वपूर्ण परिकल्पना को साकार नहीं
किया जा सका है। सवाल यह उठता है कि हम अपनी कला संस्कृति को लेकर कब गंभीर हो
पाएंगे।
1 comment:
Anant ji , I m big fan of Your, Your all articles are very informative but Some Proof reading mistakes change the taste of reading. Thanx
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