साहित्य अकादमी
के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी ने अपनी पत्रिका ‘दस्तावेज’ में लंबा
संपादकीय लिखकर अवॉर्ड वापसी की मुहिम के संगठित अभियान होने का दावा किया है।
अपने दावे के समर्थन में उन्होंने कई प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं। तिवारी ने अपने
संपादकीय में लिखा ‘पुरस्कार लौटाने या इस्तीफा देने वाले लेखकों के भी तीन वर्ग थे -
एक, वे जो मोदी सरकार और अकादमी के व्यक्तिगत विरोध के चलते आंदोलन के
अगुआ और मुख्य किरदार थे। इनकी संख्या 5 से अधिक नहीं थी। इनमें वाजपेयी
और वामदलों के लेखक शामिल हैं। दूसरे, वे जो इन मुख्य किरदारों के
घनिष्ठ या मित्रा थे जिन्होंने मित्र धर्म के निर्वाह या व्यक्तिगत दबाव और पैरवी
में ऐसा किया। इनकी संख्या लगभग 25
थी। तीसरे, वे जो लेखकों
की सहज क्रांतिकारी या यशलिप्सु प्रवृत्ति वश इस महोत्सव में अपना नाम चमकाने और
लोकप्रियता हासिल करने के लिए (जैसा कि हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक प्रो. नामवर सिंह
ने कहा है) शामिल हो गए। इनकी संख्या लगभग 15 है। इस प्रकार विश्लेषक महसूस
करते हैं कि कुल पांच लेखकों ने अपनी पूर्व प्रतिबद्धता, व्यक्तिगत
विरोध और राजनीतिक कारणों से असहिष्णुता का इतना बड़ा मुद्दा खड़ा किया। मुझे
प्रामाणिक सूत्रों से खबर मिली और अनेक लेखकों ने व्यक्तिगत बातचीत में बताया भी
कि उनसे पुरस्कार लौटाने के लिए संपर्क किए गए।
इनमें नामवर
सिंह, कुंवरनारायण और केदारनाथ सिंह जैसे नाम भी हैं। लीलाधर जगूड़ी और
अरुण कमल उन दिनों सिक्किम यात्रा पर थे जब एक पत्रकार ने कई बार उन्हें पुरस्कार
लौटाने के लिए प्रेरित किया। जगूड़ी पर तो कई लोगों ने फोन करके दबाव बनाया। जैसा
कि उन्होंने मुझे बताया। सतीश कुमार वर्मा, राजेंद्र प्रसाद मिश्र, गोविंद मिश्र
आदि ने भी ऐसा ही बताया। रामशंकर द्विवेदी ने फोन पर बताया कि उन्हें साहित्य
अकादेमी के एक अवकाश प्राप्त लेखक ने फोन पर पुरस्कार लौटाने के विषय में पूछा। वे
पांच लेखक जो इस आंदोलन के संचालक थे अपने निकट के लेखकों द्वारा उनके परिचित
लेखकों को बार-बार फोन कराकर पूछते रहते थे - ‘‘आप कब लौटा रहे हैं? या ‘‘क्या आप नहीं
लौटा रहे हैं?’’ आदि। यह पुरस्कार लौटाने के लिए अप्रत्यक्ष अनुरोध था। इस बात के
पक्के प्रमाण हैं कि असहिष्णुता विरोधी आंदोलन स्वतःस्फूर्त नहीं था, बल्कि इसके लिए
कुछ लेखकों ने देश व्यापी नेटवर्किंग और अभियान चलाया था।‘ साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी इथने पर ही नहीं
रुके उन्होंने अपने संपादकीय में अंग्रेजी के वरिष्ठतम लेखक शिव के कुमार का उनको
लिखा ई मेल भी प्रस्तुत किया। उस ईमेल में 93 वर्षीय लेखक ने साफ तौर पर लिखा है
कि उनपर भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का दबाव बनाया जा रहा है। इतना ही नहीं
कुछ लेखक उनको ये भी सलाह दे रहे हैं कि वो अपना पद्मभूषण भी लौटाने का एलान कर
दें। लेकिन शिव के कुमार से साफ तौर पर माना था कि ये पूरा आंदोलन राजनीतिक मंशा
से चलाया जा रहा था।
अपने इस
विस्तृत लेख में विश्वनाथ तिवारी ने अशोक वाजपेयी और के की दारूवाला समेत कई
लेखकों के उस दौर के क्रियाकलापों और मीडिया में उऩके बयानों को भी सामने रखा है।
एक जगह वो लिखते हैं कि ‘एक टी.वी. चैनल पर जब अशोक वाजपेयी से एंकर ने पूछा कि मकबूल
फिदा हुसैन जिस समय देश छोड़कर गए या सलमान रश्दी की पुस्तक प्रतिबंधित हुई, कांग्रेस की सरकार थी। तब उन्होंने विरोध नहीं
किया। इस पर वाजपेयी जी का चेहरा उतर गया। ऐसे ही किसी प्रश्न पर केकी एन.
दारूवाला मौन हो गए। उन्होंने
1984 (सिखों
की हत्या के वर्ष) में पुरस्कार लिया था। वाजपेयी
जी ने 1994 में पुरस्कार लिया था जिसके दो वर्ष
पहले अयोध्या
में विवादित ढांचे का ध्वंस हुआ था।‘ इसी तरह से उन्होंने एक टीवी चैनल ने उस दौर में असहिष्णुता पर एक बहस आयोजित की थी ।
विश्वनाथ तिवारी लिखते है कि ‘उस बहस में गोविंद मिश्र, गिरिराज
किशोर, गणेश देवी, मंगलेश डबराल, मुनव्वर
राणा आदि उसमें उपस्थित थे। बहस के बीच में ही राणा ने अपने झोले से अकादमी का
प्रतीक चिन्ह और चोंगे की जेब से चेक बुक निकाल कर मेज पर रख दिया और कहा कि इसे
अकादमी कार्यालय तक पहुंचा दें। क्या यह स्वतःस्फूर्त था? क्या राणा घर से योजनापूर्वक इसे लौटाने की नीयत
से साथ नहीं ले गए थे? राणा ने अकादमी पुरस्कार के लिए कुछ
ऐसी अपमानजनक बातें कहीं जिस पर अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखकों को उनकी भर्त्सना
करनी चाहिए थी। राणा ने कहा कि प्रतीक चिन्ह कहीं उनके घर के कोने में पड़ा था जिसे
उन्होंने ढूंढ़कर निकलवाया। वे इसे अपने ड्राइंगरूम में रखने लायक नहीं समझते। वे
इसे गोमती में बहा देना चाहते हैं। आदि। यह तब है जब राणा को अकादमी पुरस्कार दिए
जाने के बाद एक विवाद छिड़ा था कि वे मंच के कवि हैं, उन्हें
यह पुरस्कार मिलना ही नहीं चाहिए था।‘ उस दौर में की घटनाएं इस तरह की घटी थीं जिससे इस
बात के साफ संकेत मिल रहे थे कि पुरस्कार वापसी आंदोलन की व्यूह रचना की गई थी।
अपने इस लेख में विश्वनाथ तिवारी ने
अशोक वाजपेयी को भी निशाने पर लिया है वो अशोक वाजपेयी को पुरस्कार वापसी के कथित
आंदोलन का सूत्रधार भी मानते हैं। दरअसल अशोक वाजपेयी साहित्य अकादमी के साथ मिलकर
विश्व कविता सम्मेलन करना चाहते थे। जो तिवारी जी के अकादमी अध्यक्ष रहते नहीं हो
सका था जिसपर अशोक वाजपेयी ने लिखा था कि ‘जब तक
साहित्य अकादमी का वर्तमान निजाम पदासीन है तब तक मैं एक लेखक के रूप में अपने को
साहित्य अकादमी से अलग रखूंगा। साहित्य अकादमी के एक और निजाम के दौरान पहले भी
मैंने अपने को उससे अलग रखा था। मेरे न होने से अकादमी को कोई फर्क नहीं पड़ता और
मुझे अकादमी के होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। एक सार्वजनिक और राष्ट्रीय संस्थान के
अनैतिक आचरण में सहभागिता करना लेखकीय अंतःकरण की अवमानना होगी।’ इस टिप्पणी के उत्तर में विश्वनाथ तिवारी ने लिखा
कि ‘इसकी
अंतर्कथा अति संक्षेप में यह है कि वाजपेयी जी विश्व कविता के आयोजन में अपने रजा
फाउंडेशन को अकादमी के साथ जोड़ना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कांग्रेस शासन काल
में प्रशासन के बड़े अधिकारियों से काफी दबाव डलवाया। यह मामला कई महीनों चला और
अंत में साहित्य अकादमी ने जब रजा फाउंडेशन को साथ न लेने का निर्णय लिया तो
वाजपेयी जी ने क्रुद्ध होकर उपर्युक्त टिप्पणी लिखी।‘ हलांकि अशोक वाजपेयी ने विश्वनाथ
तिवारी के लेख के बाद अपने स्तंभ में इसका खंडन किया और साफ किया कि वो नहीं बल्कि
कांग्रेस सरकार उनको विश्व कविता सम्मेलन करने को कह रही थी। दरअसल विश्व कविता
समारोह को किसी की नजर लग गई। अशोक जी ने पहले साहित्य अकादमी के साथ मिलकर विश्व
कविता समारोह करना चाहा फिर बाद में वो बिहार सरकार से साथ मिलकर इस आयोजन को करना
चाह रहे थे। कमेटी आदि भी बन गई थी, यह भी तय हो गा था कि उसका एक सचिवालय दिल्ली
में होगा। विश्व कविता समारोह को लेकर बजट भी बिहार सरकार के संस्कृति विभाग ने
घोषित कर दिया गया था। संस्कृति विभाग ने अपने साला कैलेंडर में भी इस आयोजन को
शेड्यूल कर दिया था। लेकिन वो भी संभव नहीं हो सका। इस स्तंभ में बिहार में आयोजित
होनेवाले विश्व कविता सम्मेलन की अंतर्कथा का प्रमुखता से पहले उल्लेख हो चुका है।
अशोक जी ने अभी लिखा है कि ‘पिछले वर्ष
चम्पारण सत्याग्रह शती के अवसर पर मैंने विश्व कविता समारोह करने का प्रस्ताव
बिहार सरकार से निजी स्तर पर किया था. वह मान लिया गया. बाद में बिहार के कवियों
की ज़रूरत से ज़्यादा शिरकत और सरकारी सुस्ती से क्षुब्ध होकर मैंने अपने को अलग कर
लिया. और बाद में सरकार में फेर-बदल के कारण वह नहीं ही हो पाया।‘ यह ठीक
हो सकता है लेकिन इसमें कुछ और भी है जिसकी परदादारी है।
दरअसल अगर हम एक बार फिर से उस दौर को
याद करें तो यह बात साफ हो जाती है कि पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा गया था ताकि
बिहार चुनाव में नीतीश कुमार को फायदा पहुंचाया जा सके। कई साहित्यकारों ने जेडीयू
के महासचिव के सी त्यागी के घर बैठकर आगे की कार्ययोजना पर विचार भी कर लिया था। लेकिन
पुरस्कार वापसी के इन कर्ताधर्ताओं को शायद इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि
नीतीश कुमार ही पाला बदलकर भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के साथ हो लेंगे। लेकिन
जबतक बिहार में नीतीश लालू की सरकार रही तो पुरस्कार वापसी में शामिल लेखकों ने
वहां से भरपूर लाभ लेने की कोशिश की, कुछ को पुरस्कार वापसी का इनाम भी मिला। अब
तो यह साफ हो गया है कि कालबुर्गी की हत्या तो सिर्फ बहाना थी, निशाना नरेन्द्र
मोदी थे।
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अशोक वाजपेयी ने हरवा दिया महाश्वेता देवी को हिन्दी का मीडियाकर जीत गया ?
अशोक वाजपेयी ने हरवा दिया महाश्वेता देवी को हिन्दी का मीडियाकर जीत गया ?
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