दिल्ली की हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष और हिंदी के
वामपंथी कवि-आलोचक विष्णु खरे का निधन हो गया। विष्णु खरे को चंद महीने पहले ही
केजरीवाल सरकार ने, मैत्रेयी पुष्पा के कार्यकाल खत्म होने के बाद, हिंदी अकादमी
का उपाध्यक्ष नियुक्त किया था। उनके निधन के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शोक जताते
हुए कोई ट्वीट नहीं किया जबकि मुख्यमंत्री हिंदी अकादमी का अध्यक्ष भी होता हैं। मुख्यमंत्री
अरविंद केजरीवाल की जगह उनके उप ने ट्वीट कर विष्णु खरे के निधन पर शोक जताया। मनीष
सिसोदिया ने ट्वीट किया ‘हिंदी
अकादमी के उपाध्यक्ष, साहित्य पत्रकारिता जगत की बड़ी हस्ती और हम सबके
प्रेरणास्त्रोत श्री विष्णु खरे जी का देहावसान हो गया है। उनके निधन से साहित्य
जगत को अपूरणीय क्षति हुई है। परमपिता परमात्मा उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।
इस दुखद क्षण में हम सब उनके परिवार के साथ हैं।‘ अरविंद
केजरीवाल के ट्वीट नहीं करने पर सोशल मीडिया पर सवाल खडे होने लगे हैं। किसी को ये
संवेदनहीनता नजर आ रही है तो कोई ये कह रहा है कि अरविंद केजरीवाल ने मनीष
सिसोदिया के दबाव में विष्णु खरे को अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया था लिहाजा वो शुरू
से खरे साहब को लेकर उदासीन थे। वजह चाहे जो हो पर एक संस्थान के उपाध्यक्ष के
निधन पर उसी संस्थान के अध्यक्ष का सार्वजनिक रूप से शोक प्रकट नहीं करना खेदजनक
और असंवेदनशील है। हिंदी अकादमी को नजदीक से जानने वाले लोग इसकी एक अलग ही वजह
बताते हैं। दिल्ली के साहित्यिक हलके में इस बात की चर्चा है कि अरविंद केजरीवाल
चाहते थे कि मैत्रेयी पुष्पा को एक और कार्यकाल मिले, आम आदमी पार्टी के नेता
दिलीप पांडे भी इसी मत के थे लेकिन मनीष सिसोदिया, मैत्रेयी जी की जगह पर किसी और
को लाना चाहते थे। मनीष सिसोदिया ने इसके लिए अपने एक पत्रकार मित्र की सलाह पर
विष्णु खरे का नाम आगे बढाया और फिर उसको अनुमोदन भी करवा लिया। जब विष्णु खरे जी
को दिल्ली की हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया था तब भी ये सवाल उठा था कि दिल्ली-एनसीआर
के लेखक को छोड़कर विष्णु खरे जी को मुंबई से क्यों लाया गया। लेकिन सरकार के अपने
फैसले होते हैं जिनकी आलोचना समय के साथ दबती चली जाती है। अब खरे साहब के निधन के बाद तो ये बातें बिल्कुल
ही अर्थहीन हो गई हैं। अब केजरीवाल के
पक्ष के लोग इस बात को लेकर शोरगुल कर रहे हैं कि साहित्य और राजनीति को अलग रखा जाना
चाहिए। मुझे इस संदर्भ में साहित्य और राजनीति के संबंधों पर लिखा विजयदेव नारायण
साही का एक लेख याद आ रहा है। अपने उस लेख में विजयदेव नारायण साही ने उस वक्त कहा
था ‘ जिस तरह से आज राजनीति से साहित्य को अलग रखने का
नारा लगानेवाले मध्यवर्गीय कलाकार प्रतिक्रियावादी हैं, उसी तरह से राजनीति की
तानाशाही में कैद करके समस्त साहित्य को पार्टी का अस्त्र मात्र घोषित करनेवाले
कला के दुश्मन हैं।‘ साहित्य और राजनीति
का इस तरह से घालमेल किया गया कि वो अलग हो ही नहीं सकती, कम से कम जबतक साहित्य
पर मार्क्सवाद का प्रभाव है। यह मैं इस वजह से कह रहा हूं क्योंकि लेनिन के
प्रसिद्ध लेख ‘पार्टी साहित्य और पार्टी संगठन’ का असर भारत के लेखकों, खासतौर पर हिंदी के
लेखकों पर बड़ा गहरा पड़ा था। लेनिन के उस
लेख में कहा गया था कि ‘साहित्य को सर्वहारा
के साझा उद्देश्य का अंग होना चाहिए और उसे पार्टी यंत्र का दांता और पेंच बन जाना
चाहिए।‘ लेनिन के उस लेख की व्याख्या इस तरह के की गई
जिसमें प्रतिबद्धता को पार्टी की सदस्यता से जोड़ दिया गया। सालों तक इस
प्रतिबद्धता को कायम रखा गया, कमोबेश अब भी है। तो जब हम साहित्य को राजनीति से
अलग रखने की बात करते हैं तो वो सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल करनेवाली बात लगती
है। साहित्य और राजनीति का हमारे समाज में गहरा संबंध रहा है। लेकिन राजनीतिज्ञों
में साहित्य या साहित्यकारों को लेकर जिस तरह की उदासीनता इस वक्त है वैसा पहले
कभी देखने को नहीं मिला है। राजनीति को साहित्य के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत
है। किसी वरिष्ठ लेखक की मृत्यु पर ‘सरकार’ का मौन सवालों के घेरे में है।
सिर्फ राजनीति और राजनेता ही संवेदनहीन हुए हों
ऐसा नहीं है। विष्णु खरे जी जब जिंदगी की जंग लड़ रहे थे, तो हिंदी अकादमी में उनकी पूर्ववर्ती उपाध्यक्ष मैत्रेयी
पुष्पा की एक टिप्पणी भी विवादास्पद हो गई है। मैत्रेयी पुष्पा ने पहले अपनी वॉल
पर युवा कवि शायक आलोक का एक पत्र लगाया जो कि उऩको ही संबोधित था। पत्र में लिखा
था ‘आभारी हूं कि हम दिल्ली में बसे कुछ
युवा जो संघर्षरत हैं, और
साहित्यिक वैचारिक रचनात्मकता से जुड़े हैं, उन्हें आपने समय समय पर हिन्दी अकादमी मंच पर आमंत्रित किया और कुछ
आर्थिक लाभ भी दिया ताकि हमारा हौसला न टूटे. युवा कवि प्रकाश ने अपने संघर्ष से
तंग आकर आत्महत्या कर ली. उसके बाद श्री वाजपेयी ने वार्षिक युवा संगम का आयोजन
शुरू किया और माह दूमाह पर युवा कवियों से कविताएं पढ़ा उन्हें कुछ आर्थिक लाभ देते
हैं. उन्होंने प्रकाश-वृत्ति योजना का शिलान्यास भी किया है जहां युवा कवियों के
प्रथम संग्रह छाप वे अपनी ग्लानि धो रहे. क्या हम भी आत्महत्या कर लें ताकि आचार्य
विष्णु खरे की हिन्दी अकादमी जो मृतकों व मृत्यु-उत्सुक कवियों के ही आयोजन में
लगी है वह शायक-वृत्ति या अविनाश-वृत्ति योजना का शिलान्यास कर शेष रह जाते युवा
कवियों का कुछ कल्याण कर सके?’ इसके
उत्तर में मैत्रेयी ने जो लिखा उसको लेकर उनपर हमले शुरू हो गए हैं। मैत्रेयी
पुष्पा ने शायक के पत्र का उत्तर भी फेसबुक पर ही दिया और लिखा- तुम्हारी चिट्ठी
का क्या जवाब दूं?
मैंने युवा कलमकारों
और कलाकारों के लिए जो संकल्प लिये थे और कार्यान्वित किये, मेरे वो इरादे पुरानी
पीढ़ी को घातक लगे, जैसे उनकी सत्ता छिन रही हो। परिणाम तुम युवकों युवतियों के
सामने है। हिंदी अकादमी....। मैत्रेयी पुष्पा के इस उत्तर को विष्णु खरे की परोक्ष
आलोचना माना गया। पुरानी पीढ़ी और बूढ़े जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी उनके लिए लिए
ही किया गया जान पड़ा। चर्चा तो ये भी चली कि मैत्रेयी ने ही शायक को कहकर वो खत
लिखवाया फिर उसका उत्तर दिया। क्योंकि शायक का खत मैत्रेयी जी ने अपनी फेसबुक वॉल
पर लगाया और दस मिनट बाद ही उसका उत्तर भी पोस्ट कर दिया। इस पूरे प्रकरण के पीछे
हिंदी अकादमी की पत्रिका ‘इंद्रप्रस्थ
भारती’ का नया अंक और हिंदी अकादमी के आयोजनों में एक
खास विचारधारा के लोगों को बुलाना है। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने कार्यकाल के अंतिम
दिनों में ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ का कहानी
विशेषांक तैयार किया था और पूर्व की घोषणा के अनुसार कहानीकारों की कहानियां तय कर
दी गई थीं। इस बीच उनका कार्यकाल समाप्त हो गया और विष्णु खरे ने कार्यकाल संभालते
ही उसमें काफी बदलाव कर दिए। साहित्य जगत को इसकी जानकारी भी मैत्रेयी पुष्पा के
फेसबुक वॉल पर उनकी पोस्ट से ही हुई थी। अब शायक आलोक के पत्र के माध्यम से
मैत्रेयी ने जिस प्रकार से विष्णु खरे और आयोजनों में बुलाए जानेवाले बुजुर्ग
लेखकों पर निशाना साधा उसकी टाइमिंग गलत हो गई। मैत्रेयी के पोस्ट के सात-आठ घंटे
के बाद ही विष्णु खरे जी का निधन हो गया। उसके बाद विवाद और बढ़ गया।
ऐसा प्रतीत होता है कि अब मैत्रेयी जी फेसबुक पर
विवाद खड़ा कर उसका आनंद उठाने लगी हैं। जैसे राजेन्द्र जी किया करते थे, वो भी
पहले विवाद उठाते थे और फिर किनारे बैठकर उसका मजा लिया करते थे। पिछले एक साल में
मैत्रेयी ने कई विवादास्पद पोस्ट लिखी, छठ के दौरान नाक तक सिंदूर लगाने को लेकर
की गई विवादास्पद टिप्पणी भी उसमें शामिल है। फेसबुक पर जिस रफ्तार से विवाद वायरल
होते हैं, उसका दायरा फैलता है, पक्ष और विपक्ष में दलीलें आती हैं वो विवाद
उठानेवाले को आनंद से भर देने के लिए काफी होते हैं। हिंदी अकादमी और विष्णु खरे
को लेकर भले ही विवाद खडा करने की कोशिश की जा रही हो लेकिन हमारे भारतीय संस्कार
में किसी की मृत्यु के बाद उनके बारे में आलोचनात्मक नहीं लिखने की परंपरा रही है।
अपशब्द का इस्तेमाल तो वर्जित ही होता है। विष्णु खरे जी के निधन के बाद भले ही
केजरीवाल मौन रहे हों, उनकी मृत्य के पहले मैत्रेयी पुष्पा की टिप्पणी आपत्तिजनक
हो लेकिन उनकी मृत्यु के फौरन बाद तो हम सबको मृतात्मा की शांति के लिए प्रार्थना
करना चाहिए, विवाद को हवा देकर भारतीय परंपरा की मर्यादा को ना तोड़ें। अगर बात
करनी ही है, तो विष्णु खरे की कविताओं पर बात हो, उनकी रचनात्मकता को कसौटी पर कसा
जाए।
No comments:
Post a Comment