हिंदी साहित्य जगत में नामवर जी की उपस्थिति एक आश्वस्ति की तरह
थी। उनके निधन के बाद यह आश्वस्ति थोड़ी कम हो गई है। खत्म हो गई इसलिए नहीं कहा
जा सकता है क्योंकि नामवर सिंह की कृतियां हमारे साथ हैं। यह हमारे भारतीय संस्कार
में है कि किसी भी व्यक्ति के निधन के बाद हम उनके व्यक्तित्व या कृतित्व का
विश्लेषण उदार होकर करते हैं। नामवर सिंह के निधन के बाद कुछ लोग उनके लेखन और
कथित व्यक्तिगत विचलन को लेकर उनकी आलोचना कर रहे हैं। हिंदी में यह बहुत कम होता
है कि किसी के निधन के फौरन बाद उनकी आलोचना शुरू हो जाए। नामवर के निधन के बाद
ऐसा हुआ। उनके निधन के बाद कुछ लोग उनको प्रगतिशील विचारधारा के ध्वजवाहक के तौर
पर पेश करने लगे।इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी इसपर विचार किया जाना चाहिए। नामवर सिंह
प्रगतिशील लेखक संघ के सालों तक अध्यक्ष रहे लेकिन जब भी उनको उचित लगा उन्होंने
पार्टी लाइन से अलग हटकर भी फैसला लिया। इस संबंध में एक प्रसंग याद आता है जिसका
जिक्र निर्मला जैन ने अपनी पुस्तक में किया है। पांच साल की बेरोजगारी के बाद
नामवर सिंह को कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार जनयुग में नौकरी मिली और वो दिल्ली आ गए
थे। कुछ दिन ही बीते थे कि राजकमल प्रकाशन की उस वक्त की मालकिन शीला संधू ने उनके
सामने अपने प्रकाशन गृह के सलाहकार बनने का प्रस्ताव किया था। दो हजार रुपए महीने
के वेतन पर। उस वक्त के लिहाज से प्रस्ताव बहुत अच्छा था। राजकमल प्रकाशन में
सलाहकार की नौकरी और जनयुग का संपादन दो साल तक साथ-साथ चलता रहा। अचानक एक दिन
शीला संधू ने उनके दो जगह नौकरी करने पर सवाल उठा दिया। शीला जी ने नामवर सिंह से
दोनों में से एक जगह नौकरी करने के विकल्प को चुनने को कहा। नामवर सिंह थोडे
परेशान हुए। एक तरफ पार्टी के प्रति निष्ठा और दूसरी तरफ राजकमल की आकर्षक वेतन
वाली नौकरी। नामवर सिंह को निर्मला जैने ने सलाह दी थी कि किसी भी व्यापारिक
संस्थान की तुलना में पार्टी समर्थित अखबार का ठिकाना ज्यादा भरोसेमंद होगा। ये उस
वक्त की बात है जब कम्युनिस्ट पार्टी की स्थिति अच्छी थी। लेकिन नामवर जी ने फैसला
राजकमल प्रकाशन के पक्ष में लिया। वजह क्या रही होगी इसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा
सकता है। कुछ लोगों ने उस वक्त राजकमल प्रकाशन से मिलनेवाली पगार को इसका कारण
माना था। ये लगता नहीं है क्योंकि ऐसा मानना नामवर सिंह की पार्टी के प्रति
प्रतिबद्धता पर प्रश्नचिन्ह लगाने जैसा है। नामवर सिंह ने पार्टी पर एक निजी
संस्थान को तरजीह दी। मुझे लगता है कि ऐसा उन्होंने इस वजह से किया होगा कि राजकमल
प्रकाशन में रहकर उनका संपर्क पूरे हिंदी जगत के लेखकों से होगा और वो हिंदी
साहित्य और साहित्यकारों के संपर्क में रहकर ज्यादा बेहतर काम कर पाएंगें।
ऐसे कई उदाहरण हैं जब नामवर सिंह ने प्रगतिशील लेखक संघ यानि
प्रलेस या कम्युनिस्ट पार्टी की बात नहीं मानी। ज्यादा पुरानी बात नहीं है। करीब तीन
साल पहले जब नामवर सिंह नब्बे साल के हुए थे तो इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र
ने उनके जन्मदिन समारोह का आयोजन किया था। गृहमंत्री राजनाथ सिंह और संस्कृति
मंत्री महेश शर्मा उस समारोह में शामिल हुए थे। नामवर सिंह के इस समारोह में शामिल
होने के फैसले के विरोध में प्रलेस ने बयान जारी किया था। प्रलेस के उस बयान में ये
कहा गया था कि 2012 में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष पद से हटने के बाद नामवर
सिंह संघ के किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए। प्रलेस के महासचिव के मुताबिक उनके
संगठन के पास नामवर सिंह को रोकने का कोई अधिकार नहीं है लेकिन वो संगठन को नामवर
सिंह से अलग तो कर ही सकते हैं। बावजूद इसके नामवर सिंह अपने जन्मदिन समारोह में
शामिल हुए।
एक सांस्कृतिक संगठन का
यह दायित्व होता है कि वो अपने वरिष्ठ लेखकों का सम्मान करे। इसमें राजनीति नहीं
होनी चाहिए। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र अपने इसी दायित्व का निर्वाह कर
रहा था। कला केंद्र ने तो उसके बाद नामवर सिंह के विपरीत विचारधारा के लेखक
देवेन्द्र स्वरूप जी को लेकर भी समारोह आयोजित किया। देवेन्द्र स्वरूप जी के निधन
के बाद उनके नाम से भारतीय ज्ञान परंपरा के अध्ययन के लिए एक फेलोशिप की घोषणा भी
की है। दोनों विद्वानों ने अपनी लाइब्रेरी भी कला केंद्र को सौंपने का फैसला कर
लिया था। दरअसल बहिष्कारवादियों को ये बातें कहां समझ में आती हैं। उन्हें तो अपना
स्वार्थ और अपनी राजनीति दिखती है। इसमें कोई दो राय
नहीं कि नामवर सिंह कम्युनिस्ट थे। वो विचारधारा के स्तर पर मार्क्सवादी भी थे
लेकिन जड़ता से दूर थे। वो अपने लेखन में भारतीय ज्ञान परंपरा और प्रतीकों का जमकर
उपयोग करते थे। एक बेहद दिलचस्प प्रसंग मैनेजर पांडे के संदर्भ में है। नामवर सिंह
ने अपनी पुत्री समीक्षा को
दार्जिलिंग से 12 जून 2005 को एक पत्र लिखा था । पत्र की पृष्ठभूमि यह है कि
दार्जिलिंग के होटल में कोई पांडे नाम के सज्जन पहुंचे और पांच सौ पृष्ठों के
महाकाव्य पर नामवर जी से कुछ लिखने का आग्रह किया । पत्र में नामवर जी लिखते हैं– बेटू, मेरी
वह पुरानी जन्मकुंडली कहीं पड़ी हो तो इस बार लौटने पर मुझे दे देना । मैं उसे किसी
ज्योतिषी को दिखाना चाहता हूं। मुझे शक है, उसमें कहीं ना
कहीं ‘पांडे-पीड़ा’ का
उल्लेख अवश्य होगा । काशी तो ‘पांडे-पीड़ित’ हैं ही, कहीं ना कहीं मुझे भी वह छूत लग गई है ।
भदैनी पर रहने के लिए किराए का जो मकान लिया था वह रामनाथ पांडे का ही दिया हुआ था
और बाद में बगल का जो मकान खरीदा वह भी उन्हीं पांडे जी ने दिलवाया था । इस क्रम
में मैनेजर पांडे भी याद आ रहे हैं जो जोधपुर में मिले तो मिले ही, मेरी शामत आई कि उनको जेएनयू ले आया और अंत में अवकाश ग्रहण करने के बाद
तीन साल के लिए सेंटर पर थोप दिया, जिसके लिए सभी लोग आज भी
कोस रहे हैं । जो हो, दार्जीलिंग भी इस ‘पांडे-पीड़ा’ से सुरक्षित नहीं है । जाने यह
पीड़ा कहां-कहां तक और कब तक मेरा पीछा करती रहेगी ।‘
इस पूरे प्रसंग को बताने का मतलब सिर्फ इतना है
कि नामवर सिंह निजी संवाद में भी जिन प्रतीकों का उपयोग करते हैं वो खांटी भारतीय
समाज के होते हैं। इसी तरह अगर देखें तो नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा की कहानी ‘परिंदे’
की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और उसको नई कहानी की पहली कहानी करार दिया। उस वक्त भी
ढेर सारे कम्युनिस्ट लेखक उनसे इस तमगे की अपेक्षा कर रहे थे। निर्मल वर्मा के
विचारों से पूरा देश और खासतौर पर हिंदी साहित्य समाज अवगत है, जाहिर सी बात है नामवर सिंह भी रहे होंगे। बावजूद इसके वो पार्टी लाइन से
अलग जाकर अपनी स्वतंत्र राय सामने रखते हैं और उस राय को लगातार स्थापित भी करते
चलते हैं। बाद के दिनों में तो ऐसी प्रवृत्ति बढ़ती ही चली गई। पिछले वर्ष एक
इंटरव्यू में तो वो खुलकर ईश्वर को याद कर रहे थे। ईश्वर की कृपा की आकांक्षा करते
भी दिख रहे थे।
नामवर सिंह पर एक आरोप यह है कि उन्होंने
फणीश्वरनाथ रेणु की उपेक्षा की। हो सकता है ये किया हो क्योंकि एक समारोह में
उन्होंने रेणु पर भाषा को भ्रष्ट करने का आरोप जड़ा था। पर रेणु के उपन्यास ‘मैला आंचल’ में वह ताकत थी जो उसको लोकप्रिय होने से रोक नहीं सकी। रेणु की उपेक्षा
करने की कोशिश तो सबने की। शुरुआत में जब ‘मैला आंचल’ पटना के ‘समता प्रकाशन’ से
छपा तो पटना विश्वविद्यालय के शिक्षक और आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने उसपर लेख
लिखकर हिंदी जगत का ध्यान आकृष्ट किया। उसके बाद 15 जुलाई 1955 को गिरिलाल जैन ने
अंग्रेजी में इसपर लिखा। गिरिलाल जैन ने लिखा कि भारत के गांवों को समझने और उसको
अपनी कृति में उकेरनेवाले प्रेमचंद के बाद रेणु दूसरे लेखक हैं। जैन ने भी रेणु की
स्थानीय भाषा के ज्यादा उपयोग पर टिप्पणी की लेकिन साथ ही ये भी कहा कि चरित्रों
का चित्रण इतना बेहतर है कि भाषा पठनीयता को बाधित नहीं करती है। रेणु की उपेक्षा
की कोशिश सिर्फ नामवर ने क्यों कई लोगों ने की। अभी ‘राग दरबारी’ के पचास साल पूरे होने पर जश्न से लेकर लेख आदि तक लिखे गए लेकिन ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन के पचास साल कब पूरे हो गए
किसी को पता चला क्या? नामवर सिंह ने लेखकों को उठाने गिराने
का खेल खेला, ऐसा भी कहा जाता है लेकिन बावजूद इसके सभी लेखक उनसे अपनी कृति पर
प्रमाण पत्र चाहते थे ऐसा क्यों ? इसपर विचार हो। नामवर सिंह
का समग्र मूल्यांकन हो, टुकड़ों में न तो आरोप लगे और ना ही महान बनाया जाए।
2 comments:
बहुत संतुलित लिखा है।
बहुत संतुलित लिखा है।
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