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Saturday, March 16, 2019

संस्कृति की ओट में चुनावी आखेट


लोकसभा चुनाव की तिथियों की घोषणा के बाद देशभर में चुनावी राजनीति जोर पकड़ने लगी है। बयानों के वीर अपने अपने तीर से अपने-अपने विपक्षी नेताओं को धराशायी करने में जुटे हैं। अलग-अलग विचारधारा के लोग अपनी-अपनी विचारधारा और दल को श्रेष्ठ साबित करने में जुटे हैं। श्रेष्ठता साबित करने की होड़ में जिस तरह के विशेषणों का उपयोग हो रहा है वो बेहद दिलचस्प होता जा रहा है। आजादी के बाद के चुनावों में बौद्धिकों के बीच समाजवाद, सामंती समाजवाद, सच्चा समाजवाद, रूढ समाजवाद, पारंपरिक समाजवाद से लेकर गरीब जनता और पूंजी जैसे विशेषणों का सहारा लिया जाता रहा है। दो हजार चौदह के आम चुनाव के बाद से लगातार बजने वाला राग फासीवाद इस बार धीमे स्वर में बज रहा है। दरअसल फासीवाद शब्द अब इतना घिस और पिट गया है और जिस उदारता के साथ उसका पिछले चार सालों में उपयोग किया गया कि उसने अपना अर्थ खो दिया।लोगों पर अब इस शब्द का प्रभाव लगभग खत्म सा होता दिखाई दे रहा है। फासीवाद का इस्तेमाल करनेवालों को भी यह बात समझ में आने लगी है। अब फासीवाद की जगह लोगों ने अलग शब्द चुन लिया है। अब गाहे बगाहे अघोषित आपातकाल जैसे शब्द चुनावी फिजां में गूंजने लगे हैं। असहिष्णुता का माहौल बनानेवाले अशोक वाजपेयी और रामचंद्र गुहा जैसे बौद्धिकों की रुचि भी अब इस जुमले में भी नहीं दिखाई पड़ती है, क्योंकि फासीवाद की तरह असहिष्णुता शब्द का भी प्रभाव अब क्षीण पड़ गया है। हलांकि गाहे बगाहे इस शब्द का इस्तेमाल हो जाता है। मोदी सरकार पर यह आरोप बहुत आसानी से लगाते रहे हैं कि वो असहिष्णु है, अपने विरोधियों को स्पेस नहीं देते हैं। यही आरोप अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार पर लगते रहे थे। इसको लेकर लंबे समय तक मोदी सरकार को घेरने की कोशिश की जाती रही । असहिष्णुता का ये आरोप अगर कोई प्रभाव छोड़ने में असफल रहा तो इसके पीछे संस्कृति मंत्रालय की उदारता रही। 2014 से लेकर अबतक संस्कृति मंत्रालय ने जिस उदारता के साथ सरकार के विरोधियों को आर्थिक से लेकर हर प्रकार की मदद की उसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है। इस स्तंभ में संस्कृति मंत्रालय की उदारता और वौचाकिक विरोधियों को अहमियत और आर्थिक मदद की चर्चा होती रही है।
हाल में दो ऐसी घटनाएं घटी जिसने एक बार फिर से संस्कृति मंत्रालय की उदारता और बगैर भेदभाव के काम करने की छवि को मजबूत किया। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का शपथ लेने से लेकर अबतक ये आरोप लगता रहा है कि शिक्षा और संस्कृति विभाग में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कब्जा हो गया है। केंद्र सरकार के इन दो मंत्रालयों के अधीन या संबद्ध संस्थाओं में नियुक्ति और वहां से आर्थिक अनुदान तक संघ की हरी झंडी मिलने के बाद ही मिलती है। पर दर्जनों ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जिससे ये साफ तौर पर दिखता है कि संघ और इसके अनुषांगिक संगठनों का किसी प्रकार का प्रभाव इन मंत्रालयों पर हो, या संघ के इशारे पर काम होता हो। एक ताजा उदाहरण देखा जा सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी एक संस्था है संस्कार भारती। संघ से संबद्ध ये संस्था साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में काम करती है। प्रयागराज कुंभ के दौरान संस्कार भारती ने 15 जनवरी से लेकर 4 मार्च तक अपना पूर्वोत्तर नाम से एक कार्यक्रम किया। किसी भी कुंभ में ये पहली बार हुआ कि पूर्वोत्तर के सभी राज्यों के कलाकारों ने उसमें हिस्सा लिया। पूर्वोत्तर के अलग अलग विधा के तीन हजार के करीब कलाकारों ने संस्कार भारती के इस आयोजन में हिस्सा लिया। इसके अलावा संस्कार भारती ने कुंभ के दौरान ही संस्कृति विद्वत कुंभ के नाम से भारतीय साहित्य, सिनेमा और भारतीय ज्ञान परंपरा के विद्वानों के साथ तीन दिन के विचार कुंभ का आयोजन भी किया। इस कार्यक्रम के आयोजन में आर्थिक मदद के लिए संस्कार भारती ने संस्कृति मंत्रालय को एक प्रस्ताव भेजा था जिसमें पौने दो करोड़ रुपए की आर्थिक मदद की मांग की गई थी। बताया जा रहा है कि संस्कृति मंत्रालय ने संस्कार भारती के इस प्रस्ताव को मौखिक स्वीकृति दे दी थी। फाइल प्रोसेस हो गई थी। इस आयोजन का निमंत्रण पत्र आदि छप गया था जिसमें संस्कृति मंत्रालय के सहयोग का उल्लेख था। कार्यक्रम से चंद दिनों पहले संस्कृति मंत्रालय ने इस आयोजन के लिए आर्थिक मदद देने से इंकार कर दिया। आयोजकों के हाथ-पांव फूल गए। आनन-फानन में दूसरा निमंत्रण पत्र छपा, जिसमें से संस्कृति मंत्रालय के सहयोग का उल्लेख हटाया गया। अन्य प्रचार सामग्री में भी ऐसा ही करना पड़ा। अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दबाव या प्रभाव संस्कृति मंत्रालय पर होता तो इस तरह की स्थिति नहीं बनती। आखिरी वक्त में संस्कार भारती को अन्य संस्थाओं की मदद और संसाधनों से इस कार्यक्रम को करना पडा।
संस्कृति मंत्रालय से जुड़ा एक और उदाहरण। पटना की एक संस्था है जिसने 12 और 13 मार्च को टीवी पत्रकार रवीश कुमार की कृति इश्क में शहर होना पर एक नाटक का आयोजन किया। कालिदास रंगालय में दो दिनों तक हुए इस मंचन के लिए भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने आर्थिक मदद दी। रवीश कुमार मोदी सरकार की नीतियों के कठोर आलोचकों में से हैं। सरकार की नीतियों के विरोध में स्क्रीन काला करने से लेकर अपने कार्यक्रम में स्टूडियो में विदूषकों तक को बिठा चुके हैं। मोदी सरकार के लिए तरह तरह के विशेषणों का प्रयोग करते रहे हैं। बावजूद इसके उनकी कृति पर होनेवाले नाटक को संस्कृति मंत्रालय से आर्थिक मदद दी गई। बगैर किसी दुराग्रह और पूर्वाग्रह के। यह भी तर्क नहीं दिया जा सकता है कि मंत्रालय में निचले स्तर पर चूक हुई होगी। इसकी एक प्रक्रिया है जिसके तहत संस्थाएं नाटक के मंचन के लिए आर्थिक सहयोग की मदद के लिए आवेदन देती हैं । अपने आवेदन में वो नाटक के मंचन की तिथि के अलावा किस लेखक की कृति पर आधारित नाटक का मंचन होगा, आयोजन स्थल आदि सभी जानकारी अपने आवेदन के साथ संलग्न करते हैं। आवेदन पर मंत्रालय में उच्च स्तर पर फैसला लिया जाता है। अगर किसी तरह का पूर्वग्रह होता या भेदभाव होता तो क्या ये संभव हो पाता। यह अलग बात है कि इश्क में शहर होना का नाट्य रूपांतर कैसा हुआ होगा क्योंकि वो छोटी छोटी कहानियों का संग्रह है।
इस वर्ष फरवरी और मार्च में संस्कृति मंत्रालय के इन दो फैसलों से साफ है कि संस्कृति मंत्री ने जो शपथ ली थी, जिसमें कहा जाता है कि बगैर किसी राग या द्वेष के काम करेंगे, उसको अक्षरश: निभाया है। बावजूद इसके अगर मोदी सरकार पर असहिष्णुता और संघ के इशारे पर काम करने का आरोप लगता है तो वो सही नहीं प्रतीत होता है। दरअसल अगर हम 2014 से मोदी सरकार पर लग रहे इस तरह के आरोपों का विश्लेषण करते हैं तो इसमें राजनीति की एक अंतर्धारा साफ नजर आती है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद और राज्यों के विधानसभा चुनावों के पहले इस तरह की बातें फैला कर मोदी विरोधी राजनीति को मजबूत करने की एक कोशिश की जाती रही है। यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के पहले पुरस्कार वापसी अभियान को एक सोची समझी रणनीति के तहत शुरू किया गया था। इस बात की पुष्टि पिछले दिनों तब हुई जब साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी ने एक लंबा लेख लिखकर सारी घटनाओं को क्रमबद्ध तरीके से देश के सामने रख दिया। इसी तरह से 2017 में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले जुटान नाम से संगठन बनाकर वामपंथी लेखकों ने मोदी सरकार के विरोध करने की योजना बनाई थी। कुछ कार्यक्रम भी किए थे जिसमें देशभर में प्रतिरोध के बिखरे हुए स्वर को एक करने की आवश्यकता जताई गई थी। गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद इस जुटान का क्या हुआ ये पता नहीं चल पा रहा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले भी इस तरह की कोशिश की गई थी। लेखकों और साहित्यकारों को राजनीति करनी चाहिए या नहीं, इसको लेकर चली बहस में पूरी दुनिया के विचारकों ने अपने मत प्रकट किए। लुकाच से लेकर ब्रेख्त और बेंजामिन जैसे विश्वप्रसिद्ध लेखकों की राय है कि लेखक और राजनीति का संबंध होना चाहिए। अज्ञेय से लेकर मुक्तिबोध तक ने लेखकों में राजनीतिक चेतना की वकालत की है लेकिन इस बात का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है कि लेखक सांस्कृतिक मसलों की आड़ लेकर राजनीति करें। पिछले पांच सालों से हो ये रहा है कि एक खास विचारधारा के लेखक साहित्यिक और सांस्कृतिक मसलों की आड़ में राजनीति कर रहे हैं। अगले महीने से लोकसभा चुनाव के लिए मतदान शुरू होगा, उसके पहले भी इस तरह के मसले उठेंगे, पर कहते हैं न कि ये जो पब्लिक है वो सब जानती है। इसमें जोड़ सकते हैं कि वो सब समझती भी है।

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