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Saturday, March 23, 2019

लगभग अप्रासंगिक हुए वाम दल


लोकसभा चुनाव के लिए नामांकन का दौर शुरू हो चुका है। चुनावी बिसात पर सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी चाल चल रहे हैं। दलबदल का खेल बदस्तूर जारी है। नए-नए लोगों को राजनीति में दीक्षित किया जा रहा है, संभव है उनको चुनाव में प्रत्याशी भी बनाया जाए। आरोप-प्रत्यारोप और वोटरों तक पहुंचने की नई-नई प्रविधियां आ रही हैं। दलों के बीच महागठबंधन से लेकर छोटे-छोटे समझौते हो रहे हैं। इन चुनावी हलचल के बीच एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात हो रही है जिसको कायदे से रेखांकित नहीं किया जा रहा है और उसकी वजहों पर भी चर्चा नहीं हो रही है। बिहार में एनडीए के खिलाफ महागठबंधन बना। इस महागठबंधन में लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी, जीतन राम मांझी की पार्टी, वीआईपी पार्टी और शरद यादव की पार्टी शामिल हुई। इन दलों के बीच सीटों का बंटवारा भी हो गया, लेकिन इस महागठबंधन में वामपंथी दलों को शामिल नहीं किया गया। कहा जा रहा है कि राष्ट्रीय जनता दल अपने कोटे से कम्युनिस्ट पार्टियों में से एक माले को एक सीट देने पर राजी हो गई है। लंबे समय ये कयास लगाए जा रहे थे कि बिहार के बेगूसराय से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार सीपीआई के उम्मीदवार होंगे। महागठबंधन में सीपीआई को जगह नहीं मिलने से अब कन्हैया उनका उम्मीदवार नहीं हो पाएगा। बेगूसराय को पूरब का लेनिनग्राद कहा जाता था लेकिन उस सीट के लिए भी सीपीआई से समझौता नहीं होना राजनीतिक तौर पर बहुत महत्वपूर्ण संकेत दे रहा है। सिर्फ बिहार ही क्यों पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस और वामपंथी दलों के बीच लोकसभा चुनाव को लेकर कोई समझौता अबतक नहीं हो पाया है। इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब लेफ्ट पार्टी किसी ना किसी गठबंधन की या तो धुरी या उसका महत्वपूर्ण घटक हुआ करता था। उन्नीस सौ नब्बे के दशक में तो कई बार लेफ्ट के नेता हरकिशन सिंह सुरजीत किंगमेकर की भूमिका में नजर आते थे। फिर तीन चार दशकों में ही ऐसा क्या हो गया कि वामपंथी दल अन्य राजनीतिक दलों के लिए अस्पृश्य होते चले गए।
वामपंथी दल को देश की जनता ने आजादी के बाद काफी महत्व दिया। शुरुआती तीन लोकसभा चुनाव में उनके वोट बढ़ते रहे जो करीब दस फीसदी तक जा पहुंचा था, बावजूद इसके कि 1947 में जब देश आजाद हुआ था तो सीपीआई ने इसको आजादी मानने से इंकार करते हुए उसको बुर्जुआ के बीच का सत्ता हस्तांतरण करा दिया था। भारतीय जनमानस को नहीं समझने की शुरुआत यहीं से होती है । जब पूरा देश आजादी के जश्न में डूबा था और नवजात गणतंत्र अपने पांव पर खड़े होने के लिए संघर्ष कर रहा था तो वाम विचारधारा ने गणतंत्र के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत कर दी थी। उस वक्त रूसी तानाशाह स्टालिन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए इस विद्रोह को खत्म करने में भारत की मदद की थी । महात्मा गांधी को भी 1947 में कहना पड़ा था-कम्यूनिस्ट समझते हैं उनका सबसे बड़ा कर्तव्यसबसे बड़ी सेवा (देश में ) मनमुटाव पैदा करनाअसंतोष को जन्म देना है। वे यह नहीं सोचते कि यह असंतोषये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएंगी । अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है ....कुछ लोग ये ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते हैं। हमारे कम्युनिस्ट इसी हालत में जान पड़ते हैं, ये लोग अब एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैंजिसे अंग्रेज लगा गए थे।  
दूसरी चूक जो वामपंथियों से हुई वो ये कि वो भारत को मार्क्स के नजरिए से समझने की कोशिश करते रहे। राजनीतिक विश्लेषक और इतिहासकार एंथोनी पैरेल ने ठीक ही कहा था- भारतीय मार्क्सवादी भारत को मार्क्स के सिद्धांतों के आधार पर बदलने की कोशिश करते हैं और वो हमेशा मार्क्सवाद को भारत की जरूरतों के अनुरूप ढालने की कोशिशों का विरोध करते रहे हैं । नतीजा यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकसित और व्याख्यायित करने की कोशिश ही नहीं की गई । नुकसान यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय दृष्टि देने का काम नहीं हो पाया । वामपंथी दलों को की ताकत उसकी सैद्धांतिकी हुआ करती थी। सिद्धांतों को लेकर उनकी सोच साफ होती थी। उन्ही सिद्धांतों पर पोलित ब्यूरो भी काम करता था और उसी पर एक आम कार्यकर्ता भी। जब देश में उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो वामपंथी दल अपने सिद्धांतों को लेकर भ्रमित होने लगे। उस समय देश में एक चिंता थी कि आर्थिक उदारीकरण का समाज के सभी वर्गों को एक समान लाभ नहीं मिलेगा और इससे अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और गहरी होती जाएगी। जब देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो एक नैरेटिव ये भी बना था कि अमीरों को इसका ज्यादा लाभ मिलेगा, गांव की तुलना में शहरी आबादी को ज्यादा फायदा होगा, पिछड़ों की तुलना में अगड़े इससे ज्यादा लाभान्वित होंगे। एक नैरेटिव दलितों को लेकर चला था। भोपाल में दलित बुद्धिजीवियों की एक बैठक हुई थी जिसके बाद एक दस्तावेज जारी किया गया था। उस दस्तावेज में दलित उद्यमियों की कमी पर चिंता प्रकट की गई थी। इस तरह के नैरेटिव का प्रभाव समाज पर दिखा। लगभग उसी समय भारत में अन्य पिछड़ी जाति का राजनीति पर प्रभाव बढ़ा। जातिगत राजनीति ने भी जोर पकड़ा और अलग अलग राज्यों में जाति के नेता मजबूत होने लगे। वामदल वर्ग संघर्ष की बात करते रहे और जातियां मजबूत होती चली गईं। ऐसा होता देख वामदलों ने भी क्लास की जगह कास्ट को तवज्जो देना शुरू किया। यह कोलकाता में फरवरी 1948 में आयोजित दूसरी पार्टी कांग्रेस के प्रोग्राम ऑफ डेमोक्रैटिक रिवोल्यूशन में जाति के खिलाफ संघर्ष की घोषणा से विचलन था। यहां से उनकी सैद्धांतिकी कमजोर पड़ने लगी। वामदलों ने इसको ना समझकर बड़ी भूल की। इसके अलावा वामपंथ के नेतृत्व के बीच भ्रम की स्थिति ने भी इस दल को कमजोर किया। प्रकाश करात और सीताराम येचुरी के बीच जो वैचारिक द्वंद दिखता है उसका प्रत्यक्ष असर कार्यकर्ताओं पर पड़ा। साम्यवाद के सामने बड़ी चुनौती क्या है पूंजीवाद या सांप्रदायिकता ये तय ही नहीं हो पा रहा है।     
इसी दौर में भारतीय जनता पार्टी मजबूत होने लगी थी। वामपंथी दलों ने भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करने के लिए वामदलों ने एक बार फिर कांग्रेस का दामन थाम लिया। वामपंथी दल पहले भी कांग्रेस को समर्थन देते रहे हैं। इंदिरा गांधी ने जब देश में इमरजेंसी लगाई थी तब भी सीपीआई ने उनका समर्थन किया था। प्रगतिशील लेखक संघ ने अपने एक सम्मेलन में मशहूर लेखक भीष्म साहनी की अध्यक्षता में इमरजेंसी के समर्थन में प्रस्ताव पारित किया था। इसके पहले भी 1970 से लेकर 1977 तक सीपीआई कांग्रेस के साथ रही। कालांतर में जब केंद्र में देवगौड़ा और गुजराल की सरकार बनी तो सरकार में शामिल भी हुए। बाद में तो भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से दूर रखने के लिए 2004 में कांग्रेस को समर्थन देकर सरकार बनवा दिया। कांग्रेस की आर्थिक नीतियां लगभग वही रहीं जो उसने शुरू की थीं, जो अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मजबूती से आगे बढ़ीं थी। वामदलों ने जिस न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर मनमोहन सिंह या कांग्रेस को समर्थन दिया था वो ज्यादातर कागजों में ही रहा। 2008 में जब मनमोहन सरकार ने अमेरिका के साथ परमाणु करार किया तो वामपंथियों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। उस दौरान पार्टी का हुक्म को नहीं मानने पर करात ने सोमनाथ चटर्जी को लोकसभा स्पीकर रहते हुए पार्टी से निकाल दिया था ।सोमनाथ चटर्जी ने अपनी पुस्तक कीपिंग द फेथ, मेमॉयर ऑफ अ पार्लियामेंटेरियन में विस्तार से उस वक्त सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात की तानाशाही के बारे में लिखा है।सोमनाथ चटर्जी ने वाम दलों को गंभीर आत्मविश्लेषण की भी सलाह दी थी। 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले सोमनाथ चटर्जी ने वामदलों की रणनीति पर गंभीर सवाल खड़े करते हुए उनके हार की भविष्यवाणी की थी, जो लगभग सही साबित हुई थी।
कांग्रेस के साथ रहते हुए वामपंथी दलों को सत्ता का सुख मिलने लगा। कांग्रेस ने साहित्य कला और संस्कृति का क्षेत्र वामपंथियों को आउटसोर्स कर दिया। वामपंथियों की राजनीति को करीब से देखनेवालों का मानना है कि कांग्रेस ने ऐसा करके वामपंथियों को सत्ता की मीठी गोली दे दी जिसका असर लंबे समय बाद अब जाकर दिखाई दे रहा है। इन क्षेत्रों में काम कर रहे मार्क्सवादियों के आचरण और सिद्धांत में बहुत अंतर रहा जो साफ तौर पर दिखता भी था। इसने जनता के बीच उनकी साख कमजोर करनी शुरू कर दी। एक बार साख में सेंध लग जाए तो उसको वापस पाना बहुत मुश्किल होता है। वामदलों के साथ यही हुआ हलांकि इस वक्त ना तो वो भारतीय जनमानस को समझने की कोशिश करते दिख रहे हैं और ना ही अपनी खोई साख वो वापस पाने के लिए प्रयत्नशील।