पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान और उसके पहले भी देश
ने देखा कि किस तरह से साहित्य, कला और संस्कृति की दुनिया के कई लेखक, कलाकार और
फिल्मकार आदि ने अपनी सृजनात्मकता का उपयोग राजनीति के लिए किया। दलितों,
अल्पसंख्यकों के अधिकारों और राष्ट्रवाद की भ्रामक परिभाषाओं के आधार पर एक अलग
तरह का नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके
अनुषांगिक संगठनों के क्रियाकलापों को कट्टरता से जोड़कर एक भयावह तस्वीर पेश करने
की कोशिश की गई। जनता ने इन कोशिशों को नकार दिया। नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में राष्ट्रीय
जनतांत्रित गठबंधन को भारी बहुमत से सत्ता सौंप दी। लेकिन फेक नैरेटिव खड़ा करने
और उसके आधार पर जनता के मन को प्रभावित करने का खेल अब भी जारी है। आश्चर्य की
बात है कि इस तरह के नैरेटिव को खड़ा करने में एक बार फिर से वही ताकतें सक्रिय
हैं जो चुनाव पूर्व सक्रिय थीं यानि कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े लोग। मोदी
की जीत के बाद एक वेब सीरीज आया है जिसका नाम है ‘लैला’। ये सीरीज लेखक प्रयाग अकबर के उपन्यास पर
आधारित है। इसके छह एपिसोड को देखने के बाद साफ तौर पर इस बात को रेखांकित किया जा
सकता है कि ये हिंदुओं के धर्म और उनकी संस्कृति की कथित भयावहता को दिखाने के
उद्देश्य से बनाई गई है। इस वेब सीरीज का निर्देशन दीपा मेहता ने किया है। इसमें
चालीस साल बाद हिंदुओं की काल्पनिक कट्टरता को उभारने की कोशिश करते हुए परोक्ष
रूप से एक नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। भविष्य के भारत की जो तस्वीर
दिखाई गई है उसमें हिन्दुस्तान नहीं होगा, उसकी जगह आर्यावर्त होगा। वहां
राष्ट्रपिता बापू नहीं होंगे बल्कि एक आधुनिक सा दिखने वाला शख्स जोशी उस राष्ट्र
का भाग्य- विधाता होता है। आर्यावर्त के लोगों की पहचान उनके हाथ पर लगे चिप से
होगी। लोग एक दूसरे को जय आर्यावर्त कहकर अभिभावदन करेंगे। यहां दूसरे धर्म के
लोगों के लिए जगह नहीं होगी। कुल मिलाकर एक ऐसी तस्वीर रची गई है जो ये साफ तौर पर
बताती है कि भविष्य का भारत हिंदू राष्ट्र होगा जहां धर्म का राज होगा। एक आदमी की
मर्जी से कानून चलेगा। उसकी अपनी पुलिस होगी, उसका अफना प्रशासन होगा।
कहानी यहीं नहीं रुकती है वो बहुत आगे तक चली
जाती है। वेब सीरीज में यह दिखाय गया है कि ‘आर्यावर्त’ में अगर कोई हिंदू लड़की किसी मुसलमान लड़के से
शादी कर लेती है तो उसके पति की हत्या कर लड़की को आर्यावर्त के ‘शुद्धिकरण केंद्र’ ले
जाया जाएगा। अब इस ‘शुद्धिकरण केंद्र’ का जो
घिनौना चित्रण किया गया है उसके बारे में जान लीजिए। वहां ले जानेवाली महिलाओं को
नारकीय जीवन जीना पड़ता है। उनको बेहोशी की दवा दी जाती है, बदबूदार और गंदा पानी
पीना भी पड़ता है और उसमें ही नहाना भी होता है। इसमें पानी की कमी की बात को भी
उठाया गया है लेकिन लगता नहीं है कि उसको दिखाने में इसके निर्माता-निर्देशक की
कोई रुचि है। पानी की समस्या की भयावहता को बहुत हल्के तरीके से इसमें पेश किया
गया है। ‘शुद्धिकरण’ की प्रक्रिया के
तहत महिलाओँ को पुरुषों के खाए जूठे पत्तलों पर अपमानजनक तरीके से रेंगना पड़ता
है। ‘शुद्धिकरण’ की प्रक्रिया को
नहीं माननेवाली लड़कियों को ‘आर्यावर्त’ की गुरू मां जो कि एक पुरुष है, गैस चैंबर में
डालकर मार डालता है। अब इन सारे प्रतीकों को अगर हम अलग अलग तरीके से विश्लेषित
करते हैं तो हमें इसको बनानेवालों की मंशा साफ समझ आ जाती है। हिटलर अपने
विरोधियों को गैस चैंबर में डालकर मारता था। मौजूदा भारतीय राजनीति में हिटलर और
उसकी तानाशाही जैसे शब्द बहुधा सुनने को मिलते हैं। इसके अलावा ‘आर्यावर्त’ में एक ‘पवित्र पलटन’ भी होता है जो ‘शुद्धिकरण’ के काम में लगा
होता है। एक और भयावह तस्वीर दिखाई गई है जिसमें हिंदू लड़की और मुसलमान लड़के से
पैदा हुए संतान को ‘मिश्रित’ कहा जाता है और
उसको भी उसकी मां से अलग रखकर ‘आर्यावर्त’ के संस्कारों में संस्कारित किया जाता है।
शुद्धिकरण, पवित्रता और संस्कार तो इसका केंद्रीय थीम है लेकिन तब ये घृणित हो
जाता है जब ‘आर्यावर्त’ की मिलीभगत से इस
तरह के बच्चों को बेचने का धंधा भी दिखाया जाता है। बच्चों की खरीद फरोख्त का ये
रैकेट भी धर्म के नाम और उसकी आड़ में ही चलता है। वहां ‘मिश्रित’ बच्चों का पूरा
डाटा बैंक होता है जहां जाकर ग्राहक अपनी पसंद और शक्ल के बच्चे को खरीद कर ले जा
सकते हैं।
धर्म के अलावा यहां जातिगत भेदभाव को इस तरह से
उभारा गया है कि सामाजिक विद्वेष बढ़े और इसको देखकर लोगों के मन में ये प्रश्न
उठे कि क्या भविष्य के भारत का समाज ऐसा ही होगा ? वेब
सीरीज में ‘आर्यावर्त’ की भौगोलिक चौहद्दी
तो नहीं बताई गई है लेकिन ‘आर्यावर्त’ में रहनेवाली आबादी
और उसके बाहर की आबादी के बीच एक बेहद ऊंची दीवार होती है। ‘आर्यावर्त’ के बाहर की
बस्तियों को बेहद गंदा और खराब हालात में दिखाया गया है जो कूड़े के ढेर और उसके
आसपास बसा होता है। यहां रहनेवाले लोग ‘आर्यावर्त’ के अंदर नहीं जा सकते हैं। ‘आर्यावर्त’ में रहनेवालों को
लेकर इनके मन में नफरत भी है लेकिन कमजोर होने की वजह से कुछ कर नहीं पाते हैं। मौका-बेमौका
‘आर्यावर्त’ के शासक इन बस्तियों
पर ड्रोन से गोलियां भी बरसाता है। ये सब ऐसे बिंदु हैं जो बहुत ही शातिर तरीके से
हिंदुत्व को बदनाम करने के लिए, उसको कट्टर बताने के लिए, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
और भारतीय जनता पार्टी को बदनाम करने की मंशा से तैयार किए गए हैं। ये इस वेब
सीरीज के संवादों से साफ भी होता है। एक जगह गंदी बस्ती में एक संवाद है जिसमें एक
व्यक्ति कहता है कि बहुत गंदगी है तो दूसरा कहता है कि गंदगी में ही तो कमल खिलता
है। संदेश साफ है। परोक्ष रूप से यह बताया गया है कि नीची जाति के लोग गंदी
बस्तियों में रहने के लिए ही अभिशप्त हैं।
लैला सीरीज को तीन लोगों ने मिलकर निर्देशित किया
है जिसमें दीपा मेहता का नाम पहले नंबर पर है। अब दीपा मेहता की प्राथमिकताएं और
उनकी सोच पूरी दुनिया को पहले से ज्ञात है। वाटर फिल्म में भी उन्होंने इसी तरह का
काम किया था। उसके पात्रों का नाम भी चुन चुनकर रखा गया था जिससे कि वो एक संदेऎश
दे सकें। नायक का नाम भी नारायण था। अब अगर हम इस टोली को देखें तो इनके मंसबे
बहुत खतरनाक नजर आते हैं। वाटर फिल्म से जुड़े अनुराग कश्यप इसी टोली के सदस्य
हैं। उनकी फिल्म मुक्काबाज में भी एक संवाद है कि वो आएंगें, भारत माता की जय
बोलेंगे और तुम्हारी हत्या कर देगें। जब ये संवाद बोला जाता है तो इसका कोई संदर्भ
है नहीं, संदर्भहीन तरीके से नारेबाजी की शक्ल में ये बात आती है और फिल्म आगे बढ़
जाती है लेकिन दर्शकों को तो आपने संदेश दे दिया कि भारत माता की जय बोलनेवाले
हत्या करते हैं। यह एक फेक नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश है। फेक नेरैटिव को मजबूत
करने के लिए फिल्मों और वेब सीरीज का सहारा लिया जा रहा है। फिल्में और वेब सीरीज
राजनीतिक टूल बनते जा रहे हैं। चूंकि वेब सीरीज के लिए किसी तरह का कोई नियमन नहीं
है लिहाजा वहां बहुत स्वतंत्र होकर अपनी राजनीति चमकाने या अपनी राजनीति को पुष्ट
करनेवाली विचारधारा को दिखाने का अवसर उपलब्ध है। यह तब और स्पष्ट होता है जब
आर्यावर्त के नापाक मंसूबों से टकराने वालों को विद्रोही कहा जाता है। यहां भी
विद्रोही के मार्फत किन लोगों को चित्रित किया गया है वो भी साफ है। हिंदुत्व की
राजनीति करनेवालों का चित्रण और विद्रोहियों के चित्रण से इस वेब सीरीज की मार्फत
होनेवाली राजनीति साफ हो जाती है। विद्रोहियों को समाज के हाशिए पर रहनेवाले लोगों
की आवाज और हिंदुत्व की बात करनेवालों को नफरत का सौदागर बताकर साफ संदेश दिया गया
है।
वेब सीरीज या फिल्मों के माध्यम से जो फेक
नैरेटिव खड़ा करने की कोशिशें हो रही हैं उसका रचनात्मक प्रतिकार जरूरी है। आज
जरूरत इस बात की है कि समय और समाज का सही चित्रण करनेवाली फिल्में आएं जो सही
परिप्रेक्ष्य में अपनी बातें रखें। रचनात्मकता के इस प्रदेश में सेंसरशिप नहीं
होनी चाहिए बल्कि सकारात्मक चीजों को सामने रखने की कोशिश होनी चाहिए। बड़ी लकीर
खींचनी चाहिए। अगर ‘लैला’ के माध्यम से हिंदू
धर्म का काल्पनिक चित्रण हो रहा है तो किसी और वेब सीरीज के माध्यम से उसका यथार्थ
चित्रण भी होना चाहिए जिसमें महिमामंडन की बजाए उन पक्षों पर बात हो जिसमें सबके
कल्याण की बात है।
2 comments:
And also the name Joshi sounds similar to Modi
वाजिब चिंता। दीपा मेहता की मंशा पर बहुत पहले लिखा था। वाकई चिंताजनक स्थिति है। कितने शातिर हैं ये लोग।
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