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Thursday, July 4, 2019

गुम हुए दिल्ली के जंगल और कुंए?


दिविक रमेश दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में हिंदी के शिक्षक रहे और वहीं प्राचार्य के पद से रिटायर हुए। उन्होंने कविताएं और कहानियां लिखी हैं। वो तीन साल तक दक्षिण कोरिया में हिंदी के विजिटिंग प्रोफेसर भी रहे हैं। उनको बाल साहित्य के लिए साहित्य अकादमी के पुरस्कार से सम्मानित भी किया जा चुका है। उन्होंने अपनी यादें मेरे साथ साझा की। 
मेरा जन्म आजादी के एक साल पहले दिल्ली के एक गांव किराड़ी में हुआ, जिसका पूरा नाम किराड़ी सुलेमाननगर है। मेरा गांव नांगलोई से और आगे जाकर मुंडका के पास है। मुझे अभी भी याद है कि अपना सबसे पहला स्कूल, जिसकी कक्षाएं चौपाल पर लगा करती थीं। कभी बारिश आ जाए या फिर कभी गांव में कोई बारात आ जाए तो हमें चौपाल छोड़कर पेड़ के नीचे जाकर पढ़ाई करनी होती थी। मैंने पांचवीं तक की पढ़ाई चौपाल के स्कूल से की। आगे की पढ़ाई के लिए हमें नांगलोई जाना पड़ता था जो कि हमारे गांव से काफी दूर था और पूरा इलाका सुनसान भी रहता था। हमारे गांव से नांगलोई तक खेत ही खेत थे। आबादी बिल्कुल नहीं थी। नांगलोई में भी बड़े जंगल थे। हर रोज इतनी दूर जाने की तकलीफ देखकर मेरे पिता ने मुझे आगे की पढ़ाई के लिए मेरे ननिहाल देवनगर भेज दिया। देवनगर, करोलबाग का एक इलाका है। मैंने वहां के सरकारी स्कूल में एडमिशन ले लिया। तब हम किराड़ी को दिल्ली नहीं गांव बोलते थे, दिल्ली तो हमारे लिए करोलबाग था। जब मैं हायर सेकेंडरी की पढ़ाई देवनगर में करने लगा तो छुट्टियों में या सप्ताहांत में गांव जाता था। किशनगंज से ट्रेन से नांगलोई तक जाता था और फिर नांगलोई से पैदल ही किराड़ी तक जाना होता था। नांगलोई से किराड़ी के बीच इतना खाली था कि दिन में जाने में भी डर लगता था, उसपर से हिदायत थी कि अगर कोई साया दिखाई दे तो रुकना नहीं। कुंए पर पानी पीने तभी रुकना जब कोई और व्यक्ति वहां मिले। जाहिर तौर पर भूत के डर से सहमे हुए पूरा रास्ता तय करते थे। बाद में इस एहसास पर मैंने कविताओं की एक ऋंखला लिखी। ये बात 1960 के आसपास की है।
जब मैं करोलबाग आया था तब वो बिल्कुल मोहल्ले जैसा था। ऊंची इमारतें तो थीं नहीं, सभी एक या दो मजिंले घर थे। घरों में बिजली और पानी के कनेक्शन मेरे सामने आने शुरू हुए थे। मेरे नाना के घर में तो बिजली भी मेरे गांव से वहां शिफ्ट होने के बाद आई। मेरे दो मामा थे और दोनों नौकरी करते थे। वो दोनों मुझे एक-एक रुपया महीना जेबखर्च देते थे। तब दो रुपए बहुत होते थे। मैं उन पैसों से सिनेमा देखने चला जाता था। हमारे घर के पास लिबर्टी सिनेमा हॉल था। तब वो बेहद साधारण सा हुआ करता था। इसके अलावा आनंद पर्वत में डिफेंस सिनेमा होता था जो डिफेंस वालों का था। वहां सस्ते में फिल्में देखने को मिलती थीं, इस वजह से हमलोग लिबर्टी से ज्यादा डिफेंस सिनेमा ही जाया करते थे। वहां टिकट लेने के लिए कतार में खड़े होकर पहले हाथों पर मुहर लगवानी पड़ती थी। उस मुहर को देखने के बाद ही सिनेमा का टिकट दिया जाता था। पहले तो चोरी छिपे फिल्में देखता था लेकिन जब नौकरी करने लगा तो आराम से जाकर देख आता था। इसके अलावा देवनगर के चौराहों पर नियमित कवि सम्मेलन हुआ करते थे, उसको भी  सुना करता था। लालकिले पर होनेवाले कवि सम्मेलन को देखने पैदल ही देवनगर से लालकिला तक पहुंच जाया करता था। कवि सम्मेलन खत्म होने के बाद पैदल ही घर वापस लौटता था। उन कवि सम्मेलनों में बालकवि बैरागी जैसे बड़े कवियों के अलावा नवोदित मंचीय कवि भी शामिल होते थे । उन्हीं कवि सम्मेलनों के प्रभाव में मैंने सबसे पहले कविताएं लिखनी शुरू की थीं।
मेरा असली संघर्ष ग्यारहवीं करने के बाद शुरू हुआ। मैंने तय किया कि फीस के पैसे जुटाने के लिए नौकरी करूंगा। दरियागंज में एक पंजाबी रेफ्रिजरेटर नाम की दुकान थी, वहां पचहत्तर रुपए प्रतिमाह की नौकरी कर ली। दो महीने में फीस के डेढ सौ रुपए जमा हो गए तो नौकरी छोड़ दी। इन दो महीनों में पंजाबी रेफ्रिजरेटर के मालिकों की जूठी प्लेटें भी साफ कीं। फिर दिल्ली कॉलेज इवनिंग में एडमिशन लिया और वहां से बीए पास किया। बाद में दिल्ली कॉलेज का नाम बदलकर जाकिर हुसैन कॉलेज कर दिया गया। एमए करने के बाद 1970 में हस्तिनापुर कॉलेज ( अब मोतीलाल नेहरू कॉलेज) में व्याख्याता हो गया और वहीं तीस साल बाद प्रचार्य बना और उस पद पर लगभग एक दशक तक काम करने के बाद रिटायर हुआ। अब तो मैं दिल्ली से नोएडा शिफ्ट हो गया हूं, नोएडा शिफ्ट करते हुए सोचता था कि दिल्ली कितनी बदल गई है। नांगलोई के खेत, कुंए सब जाने कहां चले गए। शहरीकरण ने सबको खत्म कर दिया। जंगल अब कंक्रीट के जंगल बन गए।     
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)

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