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Saturday, May 9, 2020

पुरानी कविता आज भी प्रासंगिक


कोरोना संकट के इस दौर में जब पूरे देश में लॉकडाउन चल रहा है तो लोगों का समय इंटरनेट पर अपेक्षाकृत ज्यादा बीतने लगा है। इंटरनेट पर इन दिनों एक कविता लोकप्रिय हो रही है। ये कविता लिखी है हरिवंश राय बच्चन ने और उसका पाठ किया है अमिताभ बच्चन ने। कविता का प्रकाशन काल ज्ञात नहीं है लेकिन उसको पढ़ने के बाद ये लगता है कि इसकी रचना 1957 के बाद की गई। 1957 इस वजह से क्योंकि कविता के केंद्र में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास है जिसका गठन 1957 में किया गया। अब जरा हरिवंश राय बच्चन की लिखी इस कविता पर गौर कर लेते हैं, ‘राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने/ एक बड़ा दफ्तर कायम कर/टेबल, कुर्सी, मेज, फाइलों, टेलीफोनों/ टाइप की दस-बीस मशीनों की प्रदर्शनी लगवा करके/ चपरासी से महासचिव तक/ कर्मचारियों की पूरी पलटन बिठला कर के/ सालों पत्राचार कराकर/ लिक्खाड़ों की मीटिंग पर मीटिंग बुलाकर/ सफर खर्च दैनिक भत्ते का बिल भुगतान कर/ अग्रिम रायल्टी की मोटी रकम चुकाकर/ भारत के सांपों के ऊपर पुस्तक एक प्रकाशित की है/ केंचुल से चिकने कागज पर कई तिरंगी तस्वीरों की/ जिल्द बंधी, जाहिर है महंगी/ और बहुत से लोग खफा हैं/ भारत की गरीब जनता तक कैसे ये पुस्तक पहुंचेगी/ भारत की नंगी, भूखी जनता के आगे/ खड़ी समस्यायें जितनी हैं उनमें क्यों दें/ प्राथमिकता इसको कि वो सांपों का ज्ञान बढ़ाएं/ सहमत उनसे किंतु नहीं मैं/भारत के इतिहास, धर्म, संस्कृति के पीछे/ सांपों ने भूमिका अदा की जो/ वो किससे छुपी हुई है/ टिकी हुई है भूमि सांप ही के फन पर तो/ ज्ञान मिले सांपों का कितनी ही कीमत पर/ वो सस्ता है/ अ से ज्ञ तक, मैंने पूरी पुस्तक पढ़ ली/ और मेरी और ही शिकायत/ कहने का अधिकार आपको सही गलत है/ पुस्तक भर में भारत के जहरीले सांपों का/ कोई जिक्र नहीं है।‘  

हरिवंश राय बच्चन अपनी कविता में उस संस्था के बारे में टिप्पणी कर रहे थे या उसकी कार्यशाली पर व्यंग्य कर रहे थे जिसकी स्थापना भारत में पुस्तक संस्कृति के विकास और उसको मजबूत करने के लिए की गई थी। ये संस्था केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्था है। इस संस्था का उद्देश्य हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में उच्च कोटि की पुस्तकों का प्रकाशन और पाठकों तक उचित मूल्य पर पहुंचाना है। इसके अलावा इस संस्थान का दायित्व पुस्तक पढ़ने की प्रवृति को बढ़ावा देना भी है जिसके लिए ये पुस्तक मेलों का आयोजन आदि करती है। दिल्ली में प्रतिवर्ष आयोजित होनेवाला विश्व पुस्तक मेला इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है। लेखकों और संस्थाओं को आर्थिक अनुदान भी देती है। बच्चन जी की ये कविता तब लिखी गई थी जब इसकी स्थापना को ज्यादा समय नहीं बीता था। अब इस संस्था की स्थापना के साठ साल से अधिक हो चुके हैं लेकिन क्या ये संस्था बच्चन जी की कविता से आगे बढ़ पाई है इसपर विचार करने की जरूरत है। कांग्रेस के शासन काल में इस संस्था को चलाने के लिए जिन लोगों को जिम्मेदारी दी गई थी उन्होंने एक विचारधारा विशेष की पुस्तकों का प्रकाशन और उसका वितरण किया। अगर हम इतिहास में न भी जाएं और वर्तमान में इस संस्था के क्रियाकलापों पर नजर डालें तो भी बच्चन जी कविता लगभग सटीक ही प्रतीत होती है।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के संचालन की जिम्मेदारी बोर्ड ऑफ ट्रस्टी के अलावा चेयरमैन और निदेशक की होती है। वर्तमान नियम के मुताबिक चेयरमैन ट्रस्ट का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है और नियमित कार्य करने/करवाने की जिम्मेदारी उसकी ही होती है। इस वक्त न्यास के चेयरमैन 81 वर्ष के प्रोफेसर गोविंद प्रसाद शर्मा हैं। यहां नियुक्त होने के पहले पहले गोविंद शर्मा मध्यप्रदेश के एक कॉलेज में प्राचार्य रहने के अलावा मध्य प्रदेश ग्रंथ अकादमी के निदेशक रह चुके हैं। प्रोफेसर गोविंद शर्मा नियमित रूप से न्यास आते नहीं है और ज्यादातर समय मध्य प्रदेश के अपने घर पर ही बिताते हैं। लिहाजा रोजमर्रा के कामों का जिम्मा निदेशक पर आ जाता है। निदेशक भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल हैं और प्रतिनियुक्ति पर न्यास में आए हैं। हाल ही में उनकी नियुक्ति हुई है और पुस्तक संस्कृति के बारे में, पुस्तकों के बारे में उनका अनुभव कितना है इस बारे में न्यास की बेवसाइट पर प्रकाशित उनकी प्रोफाइल में कुछ नहीं लिखा है। बताया गया है कि वो रक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय, जम्मू कश्मीर के राज्यपाल के कार्यालय, संयुक्त राष्ट्र के अफ्रीका मिशन में प्रशासनिक दायित्वों को निभा चुके हैं। अब पुस्तक संस्कृति के निर्माण की जिम्मेदारी दी गई है। उनके लिए ये बड़ी चुनौती है।
अब अगर न्यास के इस वर्ष के कामकाज पर नजर डालें तो कोई उत्साहवर्धक पहल दिखाई नहीं देती है। पुस्तकों के प्रकाशन में भी वर्षों लग रहे हैं, नई पुस्तकों के प्रकाशन के लिए विचार विमर्श के लिए हर भाषा की एक सलाहकार समिति बनाई गई थी लेकिन उसकी बैठक दो साल से अधिक समय से नहीं हुई है। 2018 में हुई बैठक में इस तरह का सुझाव भी दिया गया था कि इस सलाहकार समिति की बैठक साल में एक की जगह दो बार की जाए ताकि पुस्तकों के विषयों पर सार्थक चर्चा हो सके, सुझाव आ सकें। लेकिन उस सुझाव पर तो अमल हुआ नहीं बल्कि बैठक ही बंद हो गई। निजी प्रकाशकों के साथ भी न्यास का संवाद लगभग समाप्त ही हो गया है। ऐसे माहौल में पुस्तक संस्कृति के निर्माण को कैसे मजबूती मिलेगी। पहले निजी प्रकाशकों के साथ ना केवल संवाद होता था बल्कि उनके साथ कारोबार भी होता था। अब वो बंद हो गया है और ट्रस्ट अपना सभी काम प्रिंटरों के साथ करने लगा है।
न्यास की एक काम में और रुचि है वो विदेशों में आयोजित पुस्तक मेलों में भाग लेने में। पेरिस, लंदन, फ्रैंकफर्ट, मैक्सिको से लेकर अबू धाबी तक के पुस्तक मेलों में न्यास के अधिकारी और कर्मचारी भाग लेते रहे हैं। इस वर्ष तो कोरोना की वजह से ये मेले स्थगित हो गए और करदाताओं के पैसे बच गए। इन पुस्तक मेलों में सार्थक कुछ होता नहीं है। जिन मेलों में पुस्तकों की बिक्री होती है वहां कितनी पुस्तकें बिकती हैं इसका हिसाब कभी सार्वजनिक नहीं होता और उन मेलों में जहां सिर्फ कारोबार होता है, दूसरे देशों के साथ प्रकाशन करार होते हैं वहां भी अब तक क्या और कैसे करार हुए इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है। ये जानना दिलचस्प होगा कि पिछले सालों में इन पुस्तक मेलों पर न्यास ने कितना व्यय किया और कितना ठोस काम हो सका। दूसरे देशों के प्रकाशकों के साथ कितने करार हो सके और उसके हिसाब से कितनी पुस्तकें प्रकाशित हुईं। दिल्ली के साहित्यिक हलकों में तो ये चर्चा होती है कि इन मेलों में सरकारी खर्चे पर मौज मस्ती होती है। इस स्तंभ में मैक्सिको में आयोजित मेले को लेकर सवाल खड़े किए गए थे। सवाल तो ये भी उठता है कि विदेशों में आयोजिक होनेवाले मेलों में जानेवालों का चयन कौन करता है, क्या चयन में इस बात का ख्याल रखा जाता है कि जो लेखक जा रहे हैं वो उस देश की भाषा या कम से कम अंग्रेजी में संवाद कर सकते हैं या नहीं।
आज देश भर में पुस्तकों की अनुपलब्धता एक गंभीर समस्या है, अब वक्त आ गया है कि राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को देशभर में पुस्तकों की उपलब्धता के बारे में एक ठोस नीति बनाकर उसपर काम करना होगा ताकि पुस्तक संस्कृति को मजबूती मिल सके। 

1 comment:

Unknown said...

सर यह सत्ता का चरित्र होता है कांग्रेस ने संस्थाओं को खत्म करने का ऐसा सिलसिला शुरू कर दिया है कि आने वाली पार्टियां भी उसी लाइन पर चलती है. मुझे याद है कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष राजस्थान के कांग्रेस नेता रामनिवास मिर्धा को बनाया गया था जिनका दूर-दूर तक साहित्य से कोई लेना-देना नहीं था.